Wednesday, September 17, 2025
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वाज़दा ख़ान एम. ए. (चित्रकला), डी. फिल. कला प्रदर्शनियां 2021: बिटवीन टाइम्स, आर्ट बीट्स फाउंडेशन, पुणे 2021: नोन-अननोन ,डॉम पोलोनिज्नी, रॉक्लॉ, पोलैंड 2021: द अदर साइड : ए ब्लैंक जर्नी , पंचरोठी, द इंटरनेशनल आर्टिस्ट ग्रुप ऑफ इंडिया, कोलकाता 2020: द अदर साइड : ए ब्लैंक जर्नी , विमोही आर्ट ग्रुप, मुंबई 2012: अनएन्डिंग सॉन्ग, उड़ीसा आर्ट गैलरी, भुवनेश्वर 2006: फेमिनिज्म विदिन, कैनवस आर्ट गैलरी, दिल्ली 2001: शेड्स ऑफ लाइफ, निराला आर्ट गैलरी, इलाहाबाद आदि एकल प्रदर्शनियों के साथ दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, हैदराबाद, बेंगलुरु, गुरुग्राम, जयपुर, नागपुर, लखनऊ और कानपुर समेत अनेक कला दीर्घाओं में सामूहिक प्रदर्शनियों में सहभागिता। कई महत्वपूर्ण आर्टिस्ट कैम्प व कार्यशालाओं में भागेदारी। कविता संग्रह 2022: खड़िया, सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर 2022: जमीन पर गिरी प्रार्थना, बोधि प्रकाशन, जयपुर 2015: समय के चेहरे पर, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली 2009: जिस तरह घुलती है काया, ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली प्रकाशन माटी पत्रिका का (अंक-13) मेरी कला व कविता कर्म पर केन्द्रित नया ज्ञानोदय, हंस, दोआबा, बहुवचन, साक्षात्कार, उत्तर प्रदेश, समकालीन साहित्य, समकालीन अंग्रेजी साहित्य, हिन्दी (अंग्रेजी), अभिप्राय, इंडिया टुडे, संचेतना, उद्घोष, कथाक्रम, परिकथा, वागर्थ, आजकल, युवा संवाद,पाखी , कृति, बहुमत, जनसत्ता, दैनिक भास्कर, हिन्दुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, अमृत प्रभात, दैनिक जागरण, प्रभात खबर समेत सभी प्रमुख पत्र- पत्रिकाओं में कविताएं व रेखांकन और पेंटिंग प्रकाशित। अनेक पुस्तकों पर कवर डिजाइन। कला विषय पर अनेक लेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। कुछ कविताओं का अंग्रेजी, पंजाबी व कन्नड़ में अनुवाद। सम्मान व पुरस्कार 2020: स्पन्दन ललित कला सम्मान, भोपाल, मध्यप्रदेश 2019: शताब्दी सम्मान, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन 2016: रश्मिरथी पुरस्कार (सम्पूर्ण कलाओं के लिये) 2010: हेमन्त स्मृति कविता सम्मान (जिस तरह घुलती है काया) 2002: त्रिवेणी कला महोत्सव पुरस्कार, एनसीजेडसीसी और इलाहाबाद विश्वविद्यालय फेलोशिप 2017-18: सीनियर फेलोशिप (चित्रकला), संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार 2004-05: गढ़ी स्टूडियो ग्रान्ट, ललित कला अकादमी, दिल्ली ई-मेल: vazda.artist@gmail.com

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कविताएं

अशीर्षक

सृष्टि के इस बदलते दौर में
रात को नजरबन्द करने
और तुम्हारी रोशनी को कैद करने की
कवायद है
ऐसे में चांद तुम
अब पागलों की तरह दौड़कर
जमीन के पास बिल्कुल मत आना
 
कब, कहां तुम मार दिये जाओ
और पृथ्वी अपने चांद से
मरहूम हो जाये,
जबकि तुम सदियों से
भरोसेमन्द साथी हो पृथ्वी के
 
जब से सृष्टि उगी है
तुम साथ साथ पृथ्वी के चलते आये हो
गर तुम मार दिये जाओगे
किस पर लिखेंगे हम कविता/ शायरी
“चांद सी महबूबा” जैसी खूबसूरत
संवेदनाओं के रुहानी जज्बात
या मुक्तिबोध की लम्बी कविता
“चांद का मुंह टेढ़ा है” जैसी अति यथार्थवादी कल्पना
हम कैसे कर पायेंगे
 
कैसे समझ पायेंगे ज्वार भाटा का गणित
और सबसे जरूरी बात
हमारी कल्पनाओं का कोष रिक्त हो जायेगा
तुम्हारी खूबसूरत रोशनी के बगैर
कहां से लायेंगे हम शीतलता
आकाश का गहरा नीला रंग और
अन्तरिक्ष की रहस्यमयता
 
और फिर ये सोचना ही असह्य है
कि सूर्य तुम्हारा प्रतिद्वन्दी हो सकता है
वह तो कितने सहज आत्मीय भाव से
समुद्र में सोता है चुपचाप
बिना बैर
आसमान से तुम्हारे जाने का इन्तजार
करता है
कभी जो तुम सुबह देर तक जगो
अपने बादलों के साथ
कोई कड़वाहट नहीं घुलती
सूर्य के भीतर
जबकि तुम उससे अपना
सारा प्रकाश लेते हो
 
और कितना ताप है उसमें
गर आ जाये उसमें गर्म सैलाब
तो पृथ्वी के साथ साथ तुम भी
विनष्ट हो जाओ
 
फिर तुम भी तो कितने प्यार से मिलते हो
सूरज से सुबह शाम बिना नागा।
इस दोस्ताना मुहब्बत से
इतने सारे मजीठ सुरमई रंग
छा जाते हैं आसमान में
रंग, जो किसी भी लोक के प्रेम को
जिन्दा रखने के लिये काफी है
 
कितना विरोधाभास है सूर्य और चांद
तुममें, फिर भी कोई भेदभाव नहीं
करते हो परस्पर जैसे तुम दोनों जन्मे ही हो
पृथ्वी को जीवन देने के लिये।

चांद प्रेरणा

जिस तरह समुद्र में आता है उछाल
चन्द्रमा के घटते बढ़ते रूप के साथ
ठीक वैसे ही, मन की सतहों पर 
उतरता है जब कोई चांद
उसकी रौशनी में संवेदनायें किस कदर
हरी भरी हो जाती हैं
कि जन्मने लगती हैं नये नये रूपों में।
 
चांद मुक्तिबोध की
कविता को पढ़ते हुये भी
उतर सकता है
कभी स्वामीनाथन के रहस्यमयी
खामोश चित्रों को जीते हुये भी।
कभी कुमार गन्धर्व के किसी
आलाप की तान पर 
दिन को बरतते हुये भी।
 
कभी स्वप्न में सीमोन द बोऊआर
की जीवनी को दोहराते हुये,
तो कभी पगडण्डियों पर चुपचाप अकेले
चलते हुये
कभी रात के अन्धेरे में स्त्रियों के लिये
समय समाप्त हो जाने वाली सीमा के 
पार होते ही अदृश्य सायरन की गूंज से
घबरा कर घर की ओर लौटते हुये भी
कभी भीड़ भरी सड़क को भय की
तरह महसूस करते हुये भी।
और तब उन सारी ध्वनियों के 
अर्थ भी, समझ में आने लगते हैं
जो चिड़िया की आवाज के संग
वर्तुल घूम रही हैं पृथ्वी के इस छोर से उस छोर तक।
उन सारे दृश्यों के अर्थ भी 
खुलने लगते हैं नये नये सन्दर्भों में,
जो भीतर परत-परत जमा अमूर्त दृश्यों को
ठेल-ठालकर बना लेते हैं अपनी जगह
और दम साधकर बैठी दुश्चिन्ताओं
के साथ, हाथ मिलाते
छेड़ देते हैं इक बहस
अनुभव और कड़वी सच्चाइयों के बीच।

अन्धेरे का अर्थ

अन्धेरा, सिर्फ नीला या काला
नहीं होता, यह मैंने रंगों को
बरतने के बाद कुछ कुछ जाना।
यह बात दीगर है यदि हरे रंग की
भरमार है तो अन्धेरा
हरापन लिये होगा
 
यदि पीले रंग की भरमार है तो
अन्धेरा पीलापन लिये होगा।
वैसे हम यह कैसे ठीक ठीक
तय कर सकते हैं कि हर अन्धेरे का अर्थ
काला होता है
अन्धेरे का अर्थ, लाल भी हो सकता है
जो हमारी देह की, अन्धेरी शिराओं में
बहता है।
बरतते हैं उसे जब हम
उजाले में
तब सही सही पहचान पाते हैं
 
पर सही सही पहचान पाने के लिये
अन्धेरों में उतरना उतना ही जरूरी है
जितना कि उजाले में बरतना।

काजल की डिबिया

एक बड़ी सी काजल की डिबिया
जिसमें से नानी, दादी, मायें आंजती
रही आंखों में काजल 
जो हृदय के भीतर कहीं दबा
लाल रंग की रोशनी में घुलता जाता है
लिखता रहता है लगातार इच्छाओं व स्वप्नों पर
‘क’ से कालिख, ‘क’ से कालिमा
बराबर ढलता जाता है पुतलियों का रंग भी
 
रोशनी शनै: शनै: धुंधली होती
अनदेखी परछाइयों में बदलती
परछाइयां कभी मेरे आगे चलतीं
कभी पीछे, कभी दायें तो कभी
बायें रख देती है पांव अपने, उन दरारों पर
झांक रही होती है जहां कोई ताजी हरी रंगत
 
कई बार ऐसा होता है कि
बरतने के बाद, डिबिया पर
कसकर ढक्कन न लगा पाओ
तो कमबख्त काजल 
नमक के साथ
देह के सत्तर फीसदी पानी में, 
घुलता जाता है इस कदर 
 कि धकिया देता है परे, लाल
व श्वेत रक्त कणिकाओं को।
 
दरअसल काजल की डिबिया को
लेकर जन्मी देह, तो  सुनहरा रंग
कहां से आये
 
क्या बन्द कर लूं सूरज को
उसी काजल की डिबिया में
जिससे आंजती रही मायें, दादी, नानी
आंखों में काजल
गठियाती रहीं आंचल में अपने धरोहर सा।

विस्फोट

क्या विस्फोट अचानक होता है?
नहीं, बिल्कुल नहीं
तैयार होती है इक अदृश्य जमीन 
उसके पीछे सदियों तक
पक-पक कर लाल हो जाती है जब
 
सूरज चमकता रहता है जब आठों पहर
नसों में, आंखों में और
आसमान में भी
तब होता है विस्फोट
 
ठीक इसी तरह उतरता है
विस्फोट कैनवस की सबसे
भीतरी सतह पर सूक्ष्म सघनतम रूपों में
 
विस्फोट का अर्थ यह नहीं कि
आवाज गूंज जाये सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में
कुछ विस्फोट इतने चुप होते हैं
कि कहीं कुछ बदलता नहीं
न ही कुछ दिखायी देता है
 
लेकिन शुरुआत हो चुकी होती है कहीं
बहुत गहरे, बहुत भीतर।
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किताबें

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