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Wednesday, October 9, 2024
Homeलेखकों की पत्नियां"क्या आप भगवती देवी को जानते हैं?"

“क्या आप भगवती देवी को जानते हैं?”

आपने अब तक महाकवि नाथूराम शर्मा शंकर, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, मैथिली शरण गुप्त, राजा राधिकरामण प्रसाद सिंह, आचार्य शिवपूजन सहाय , रामबृक्ष बेनीपुरी, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, राम विलास शर्मा, नागार्जुन, नरेश मेहता की पत्नी के बारे में पढ़ा। आज पढ़िए हिंदी के अप्रतिम कथाकार एवम गांधीवादी चिंतक जैनेंद्र कुमार की पत्नी के बारे में। जैनेंद्र जी सत्याग्रही व्यक्ति थे। गांधी जी से उनका निजी परिचय भी था। हिंदी साहित्य में नैतिक मूल्यों के साथ सादगी से जीने वाले जैनेंद्र के जीवन संघर्ष में पत्नी ने काफी हाथ बटाया था। हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक और जैनेंद्र कुमार के जीवनीकार बता रहे हैं उनकी पत्नी के बारे में।
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भगवती देवी : एक अप्रतिम और आदर्श पत्नी”- ज्योतिष जोशीजैनेंद्र कुमार आधुनिक हिन्दी के शीर्ष कथाकार – विचारक रहे हैं। उनके जीवन में दो स्त्रियों की भूमिका सर्वोपरि रही है। पहली हैं उनकी माता श्रीमती रामदेवी बाई। असमय पति वियोग का आघात सहकर जैनेंद्र और उनकी बहनों का पालन पोषण करनेवालीं, उन्हें अच्छे संस्कार देकर हर विपरीत परिस्थिति से जूझने की हिम्मत देनेवालीं रामदेवी बाई अपूर्व थीं। उन्होंने समाज कल्याण के कार्य किए और अपने भाई श्री भगवान दीन के कहने पर जैनेंद्र को स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने से मना न किया बल्कि प्रोत्साहित किया। एक विधवा स्त्री, जिसके आगे पीछे कुछ न था और एकमात्र जैनेंद्र का सहारा था, उस एकमात्र पुत्र को भी भविष्य की चिंता किए बिना राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने की स्वीकृति देना असाधारण बात थी। जैन आश्रम की व्यवस्था, समाज के लिए कल्याणकारी कार्य करने और धार्मिक प्रवचनों के लिए अनेक नगरों में विख्यात रहीं रामदेवी बाई ने जैनेंद्र को एक परोपकारी व्यक्ति के रूप में ढाला। आर्थिक रूप से तंग जीवन में भी परिवार के दायित्व निभाते हुए उन्होंने कभी जैनेंद्र को सांसारिक होने का उपदेश न दिया।जैनेंद्र के जीवन में दूसरी स्त्री उनकी पत्नी थीं भगवती देवी। वे अग्रवाल परिवार से थीं इसलिए जैन समाज इस विवाह से क्षुब्ध रहा। जैन समाज के क्षोभ को दो उदाहरणों से समझा जा सकता है- एक यह कि जैनेंद्र की बारात में जैन समाज के लोगों ने भाग लेने से इनकार कर दिया था। दूसरा उदाहरण अधिक दुखदाई है, वह यह कि रामदेवी बाई के देहांत के बाद कोई भी जैन उनकी शवयात्रा में शामिल न हुआ। यहां तक कि विवाह के बाद जैन समाज ने जैन आश्रम चला रहीं रामदेवी बाई को वहां से हटा दिया और एक अछूत की तरह बर्ताव किया। इस विवाद के केंद्र में जैनेंद्र की पत्नी भगवती रहीं जो जैन समाज की न होकर अग्रवाल बिरादरी से ताल्लुक़ रखती थीं। जैन समाज की जातिवादी कट्टरता को इन उदाहरणों से समझा जा सकता है। इसमें न तो भगवती देवी का कसूर था, न जैनन्द्र का। इस विवाह को जैनेंद्र के मामा भगवान दीन ने सम्पन्न कराया था और उन्हीं की मर्जी से यह हुआ था। भगवान दीन की ऐसी हैसियत थी कि न उनको बहन रामदेवी बाई मना कर सकती थीं, न जैनेंद्र। 1929 के अन्तिम दिनों की बात है। जैनेंद्र के मामा भगवान दीन मुज़्ज़फरनगर के बन्नत की यात्रा पर गए थे। वे निष्ठावान कांग्रेसी थे और बढ़ चढ़ कर राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय थे। इस यात्रा में उनकी भेंट कट्टर कांग्रेसी और स्थानीय जमींदार मास्टर विशम्भर सहाय ( वे अग्रवाल थे, पर हर परिस्थिति में सहायता के लिए प्रस्तुत रहने के कारण स्थानीय कांग्रेसी उन्हें सहाय उपनाम से बुलाते थे।) से हुई जो स्थानीय स्तर पर कांग्रेसी आंदोलन को गति देते थे। भगवान दीन को विशम्भर सहाय ने घर ले जाकर बड़ी आवभगत की। उनकी बेटी भगवती अग्रवाल ने उनकी सेवा में बहुत उत्साह दिखाया। वे भगवती की विनम्रता, शील,स्वभाव और सुंदरता देखकर बड़े प्रभावित हुए। वे जैनेंद्र से दो – तीन वर्ष छोटी रही होंगीं। सम्भवतः उनका जन्म 1907 के आसपास हुआ था। मालूम हो कि जैनेंद्र का जन्म 1905 में हुआ था। अच्छे घराने की होने के कारण शिक्षा-दीक्षा भी हुई थी। पर उतनी ही हुई थी जितने से लिखने-पढ़ने में सहूलियत हो सके। अनुमान किया जा सकता है कि वे छठवीं-सातवीं तक पढ़ीं होंगी। उनदिनों चूंकि बहुत उथल-पुथल का वातावरण था और आसपास ऐसे शिक्षा संस्थान न के बराबर थे जहां सुरक्षित रहकर पठन-पाठन सम्भव होता ; इसलिए आगे की पढ़ाई न हो सकी। बावजूद कम पढ़े लिखे के, सलीके से बात करना और अपने लहजे की मिठास से प्रभावित करने में वे कुशल थीं। भगवान दीन भगवती को देखकर मुग्ध हो गए थे और मन ही मन जैनेंद्र की जोड़ी के रूप में उन्हें देखने की कल्पना कर खुश हो रहे थे। उन्होंने इसमें विलम्ब न कर भगवती की शादी की बात चलाई। पिता ने योग्य लड़के की बात उठाई, तो उन्होंने झट जैनेंद्र के नाम को आगे कर दिया। पिता विशम्भर खुशी से झूम उठे। भगवान दीन दिल्ली लौटकर रामदेवी से मिले और इस शादी की चर्चा की। तब जैन बिरादरी के विरोध की बात उठी थी, पर उसे भगवान दीन ने कोई बड़ा व्यवधान न माना और इस तरह शादी पक्की हो गई। भगवती के पिता भी गुरुकुल कांगड़ी से जुड़े थे और भगवान दीन भी, दोनों स्वाधीनता सेनानी भी थे, इसलिए इस बात पर रजामंदी हुई थी कि शादी में पारम्परिक वस्त्रों और जेवरों के चलन का बहिष्कार किया जाएगा। भगवती ने खादी की साड़ी पहनकर वैवाहिक रस्म पूरे किए थे। इस विवाह में वैवाहिक वस्त्रों की होली भी जलाई गई थी। सबसे हैरत की बात यह थी कि इसमें अग्नि को साक्षी मान उसके फेरे की रस्म भी न की गई। इसके बाद भगवती की विदाई हुई और वे दिल्ली के पहाड़ी धीरज वाले घर में आईं।शादी तो हो गयी, अग्रवाल परिवार की भगवती बहू बनकर भी आ गईं, पर जैन समाज ने इसे अपनी अवमानना माना और रामदेवी बाई के परिवार को जैन समाज से बहिष्कृत कर दिया। इससे जैनेंद्र के परिवार को बहुत- सी दिक़्क़तों का सामना करना पड़ा जिसका उल्लेख उपर किया गया गया है। विदा होकर आईं भगवती ने विवाह के दिन से जो खद्दर की साड़ी पहनी, वह उनकी देह पर सदा बनी रही। उन्होंने जीवन भर खादी के अलावा कोई और कपड़ा न पहना। जैनेंद्र ने भी उसी दिन यह संकल्प लिया था और जीवन भर इसका निर्वाह किया। जीवन चल पड़ा। घर में बहू के आने से एक नई रौनक आयी। रामदेवी बाई को थोड़ा आराम मिला। गृहस्थी सम्भालने के साथ-साथ जैनेंद्र को भी सम्भालने का दायित्व उन पर था जो दुनियादारी नहीं जानते थे और लिखना-पढ़ना और राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेना ही उनका एकमात्र धर्म था।नाना अभावों, कठिनाइयों में यह परिवार चलता रहा और पूरी निष्ठा के साथ भगवती ने अपने दायित्व का निर्वाह किया। जैनेंद्र लिखते-पढ़ते, आंदोलन में भाग लेते पर कभी भी भगवती उनके कामकाज को प्रश्नांकित नहीं करतीं। अभाव कभी घर से गया नहीं और इसी बीच बेहद प्रतिकूल स्थितियों में रामदेवी बाई भी गुजरीं।सपने थे, कल की उम्मीद भी थी, पर ऐसा कभी कुछ न हुआ जो अनुकूल हो। लेकिन परिवार को एक खुशहाल माहौल देकर भगवती ने अभाव को हावी न दिया। जैनेंद्र लिखते रहे, यश मिलता रहा, वे खुश होती रहीं और उन्हें प्रेरित भी करती रहीं कि खूब लिखें, खूब नाम करें। पर कभी अपनी कोई चाह उनके सामने न रखी। आज़ादी मिली और गाँधीजी गुजरे, तो उन्हें भी बहुत दुःख हुआ। पूरा परिवार मातम में रहा। आगे के वर्षों में बेटियों की शादियां हुईं तो घर सूना हुआ। फिर बेटे प्रदीप की शादी हुई तो घर मे बहू के आने से उदासी थोड़ी कम हुई। भगवती देवी को सबसे बड़ा आघात 1975 में बड़े बेटे दिलीप के असामयिक मृत्यु से लगा। इसके बाद वे सहज न रह सकीं। 25 जुलाई,1985 को हृदयगति रुकने से उनकी मृत्यु हो गयी। तब से जैनेंद्र भी वह नहीं रह गए थे और 24 दिसम्बर, 1988 को यानी ठीक ढाई वर्ष बाद ही उनका भी देहावसान हो गया था।जैनेंद्र भले ही दुनियादार न थे, जीवन की सुविधाओं को जुटाने की कभी कोई जुगत न की, पर पत्नी भगवती से उनका प्रेम अनन्य था। वे उनका सम्मान करते थे और हर छोटी बड़ी बात उनसे साझा करते थे। भगवती गयीं तो एक मलाल लेकर ही गईं कि जैनेंद्र उनके बच्चों के लिए एक घर न बनवा सके। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कहे पर भी उन्होंने सरकारी घर लेने में कोई दिलचस्पी न दिखाई और जीवन भर एक सत्याग्रही की तरह रहने को ही श्रेयष्कर समझा। इस बात को लेकर अक्सर भगवती उनसे विवाद करतीं और घर की ज़िद को आगे रखतीं, पर जैनेंद्र मौन हो जाते। सिवाय इसके पूरे जीवन में जैनेंद्र के लेखन और सत्याग्रह में भगवती एक प्रेरणा की तरह रहीं और शायद ही कभी उनमें मनमुटाव हुआ। सार्वजनिक मंचों पर अधिकतर भगवती उनके साथ रहीं। विदेश यात्राओं में चाहे जापान की यात्रा हो या स्विट्ज़रलैंड की, भगवती उनके साथ रहीं। घर में या बाहर, साहित्यिक आयोजनों में भी वे जैनेंद्र की सहभागी रहीं। आंदोलन के दिनों में और बाद में भी, अनेक लेखकों की मदद भी उन्होंने की और स्वाधीनता संग्राम के दौर में तो उनका घर विद्रोहियों के लिए एक गुप्त आश्रय जैसा ही रहा। निश्चित रूप से भगवती देवी न चाहतीं तो ऐसा सम्भव न था। वे जितनी उदार थीं उतनी ही अपने अधिकारों के प्रति सचेत भी। यहां सिर्फ एक उदाहरण से इस बात को समझा जा सकता है।जैनेंद्र को शतरंज खेलने का पुराना शौक था। वे अक्सर अपने मित्रों- गोपीनाथ अमन और युद्धवीर सिंह के साथ शतरंज खेलते। पुत्र प्रदीप अपनी नवोढ़ा पत्नी के साथ कश्मीर गए थे। घर में भगवती देवी थीं। वे हमेशा उन्हें शतरंज खेलने से मना करतीं पर जैनेंद्र थे कि मानते न थे। उन्हें एहसास होता कि गलत हो रहा है, पर आदत थी कि जाती न थी। सुबह बैठते तो रात हो जाती, पर समय का भान ही नहीं रहता था। इसको लेकर भगवती उनसे कुपित रहतीं और जब तब इस आदत से छुटकारा लेने को कहतीं। वह अनुशासन पसन्द महिला थीं। कहतीं कि आदत है तो सीमा में रहे। समय और सुविधा का खयाल रहे। वह इतना भी सिर पर सवार न हो जाय कि आदमी अपना हित – अहित ही भूल जाए। कितना है काम करने को। कितने हैं जो मिलने आते हैं, पर लौट जाते हैं। घर में नई बहू आयी है, वह क्या सोचेगी, इसकी भी परवाह नहीं है। यह नशा, यह आदत, यह घर फूंक तमाशा देखने की मस्ती बुढ़ापे में शोभती है क्या? क्या यह भी गांधी नीति का कोई हिस्सा है? जैनेंद्र को लगता कि गलत हो रहा, पर मन था कि मानता न था। गोपीनाथ अमन और युद्धवीर सिंह जीना हराम किए रहते। जून, 1968 की कोई तारीख रही होगी। जैनेंद्र सुबह उठे। नहा धोकर दलिया और नमकीन का नाश्ता कर शतरंज की बाजी लगाने बढ़ चले। भगवती देवी ने टोका- कहाँ जाते हो, तनिक सोचो भी तो?अरे कुछ नहीं, जल्दी आते हैं।और अगर आज जल्दी न आए तो? भगवती देवी के प्रश्न पर थोड़े सकपकाए जैनेंद्र फिर बोल पड़े- क्यों नाहक ज़िद करती हो। आ जाऊंगा, देर न होगी, समझा करो।भगवती देवी ने सिर्फ इतना कहा- देखती हूँ, कब आते हो। समय पर न लौटे तो समझना तुम्हीं। और फिर वही हुआ। दोपहर हुई, शाम हो गयी, और अब रात हो रही थी। भगवती ने कई बार फोन किया। जैनेंद्र कहते कि अब आया ही समझो। बाजी फंसी है, निपटाकर आते हैं। थक हार कर भगवती ने दरवाजा अंदर से बंद कर सबक सिखाना जरूरी समझा। रात को एक बजे जैनेंद्र की बाजी पूरी हुई तो उनका माथा ठनका। वे घर की तरफ तेजी से बढ़े। गली के सन्नाटे को चीरते हुए कुछ कुत्ते भोंक रहे थे। चौकीदार भी गश्त पर थे। जैनेंद्र को यूं बढ़ते देख वे भी मुस्कुरा रहे थे। उन्हें देर रात तक लौटते वे भी देखते आ रहे थे। पर हद तो तब हो गयी जब उन्होंने दरवाजे पर दस्तक दी। अंदर से कोई हरकत न हुई। उन्होंने कई बार दरवाज़े को धक्का दिया, उस पर मुक्के मार कर बताने की असफल कोशिश की कि वे लौट आए हैं, पर भगवती ने दरवाज़ा खोलने में कोई रुचि न दिखाया। अंत में हारकर उन्होंने चहारदीवारी फांदकर घर में दाखिल होने की चेष्टा की, जिसमें उन्हें काफी चोट आई और पैर की हड्डी टूट गयी। फिर क्या था, अस्पताल जाकर प्लास्टर चढ़वाना पड़ा और लंबे समय तक एक ही दिशा में लेटे रहने के बाद आराम आया। गोपीनाथ अमन और युद्धवीर सिंह भी उनका हाल पूछने आते और शर्म से भगवती देवी के सामने सिर नीचा किए बैठकर लौट जाते। स्वस्थ होने के बाद जैनेंद्र ने शतरंज की लत तो न छोड़ी पर इस सनक को पहले की तरह दिमाग पर सवार न होने दिया।तो ऐसी थीं भगवती देवी, जो हर स्तर पर अपनी खुद्दारी के साथ जीती रहीं और परिवार को संभालते हुए जैनेंद्र के जीवन और कर्म में सही अर्थों में सहधर्मिणी बनकर एक मिसाल बनीं। वह अन्य लेखक – पत्नियों की तरह कोने में पड़ी रहकर सुबकने वाली न थीं और न ही उपेक्षा की पीड़ा सहने को अभिशप्त। जैनेंद्र अगर इतने बड़े हो पाए तो इसमें उनका योगदान कम न था। जैनेंद्र ने भी उन्हें अपना भरपूर प्यार दिया और अर्धांगिनी होने का सच्चा मान भी।

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