Saturday, November 23, 2024
Homeलेखकों की पत्नियां"क्या आप गुलाबी देवी को जानते हैं?"

“क्या आप गुलाबी देवी को जानते हैं?”

आपने अब तक आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य शिवपूजन सहाय, रामबृक्ष बेनीपुरी, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, नागार्जुन, नरेश मेहता और प्रयाग शुक्ल की पत्नी के बारे में पढ़ा। अब पढ़िये नाथूराम शंकर की पत्नी के बारे में …
आज की नई पीढ़ी नाथूराम शर्मा शंकर को ही नहीं जानती तो गुलाबी देवी को क्या जानेगी।
उत्तरप्रदेश के अलीगढ़ के पास हरदुआ गंज में जन्मे नाथूराम महात्मा गांधी जी से दस साल बड़े थे। वे भारतेंदु के समकालीन थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी की सरस्वती में निरंतर लिखते थे और उनका बड़ा नाम था। उन्ही के पुत्र प्रसिद्ध हिंदी सेवी हरिशंकर शर्मा थे जिनकी पौत्री इंदिरा इंदु मंच की प्रसिद्ध कवयित्री थी।
नाथूराम शर्मा की प्रपौत्री वसुंधरा व्यास अपनी परदादी गुलाबी देवी के बारे में आपको बता रही हैं। गुलाबी देवी पति से चारेक साल छोटी थी। उनके बारे में अब कोई जानकारी नहीं मिलती। वसुंधरा जी ने बड़ी मुश्किल से जानकारी एकत्र की है तो पढ़िये गुलाबी देवी के बारे में।
*****
हमारे देश में सदैव ही रिश्तों को बहुत सम्मान और महत्व दिया गया है, विशेष रूप से दाम्पत्य के रिश्ते को। पति पत्नी के इस रिश्ते को वैदिक काल से ही सम्मान दिया गया है।
पति – पत्नी का निष्ठावान, प्रेम भाव और विश्वास भरे मन से समर्पित होना ही इस रिश्ते की संजीवनी है।
यह रिश्ता जितना सुदृढ है उतना ही कोमल भी है। एक दूसरे का सहयोगी बने रहना ही इस रिश्ते को गौरवशाली बनाता है।
“सुप्रसिद्ध साहित्यकारों की पत्नियों का उनके जीवन में योगदान” श्रृंखला के इस क्रम मे आज मैं आप सब का परिचय कराती हूँ एक ऐसे साहित्यकार से जिनकी पत्नी निरक्षरा और ग्रामीण परिवेश की होते हुए भी पति के लेखन कार्य में और जीवन के तमाम चुनौती भरे रास्तों में कंधे से कंधा मिलाकर चलती रही।
मै यह बताने में गौरवान्वित अनुभव कर रही हूं। मेरे प्रपितामह महाकवि श्री नाथूराम “शंकर ” शर्मा की पत्नी और मेरी आदरणीया दादी माँ जिनका की नाम गुलाब देवी था किन्तु मेरे परबाबा उन्हें स्नेहपूर्वक “शंकरा” कह कर पुकारते थे, एक साहसिक, साहित्य प्रेमी और कर्मठ महिला थीं। वह पंडित चुन्नी लाल की बेटी थीं ।
वे पारम्परिक रूप से शिक्षित नहीं थीं किन्तु बाबा के सान्निध्य ने उन्हें उर्दू और हिन्दी समझने में इतना सक्षम बना दिया था कि अपने पति की रचनाओं की पहली श्रोता वही हुआ करती थीं।
धीरे-धीरे वे हिंदी पढना लिखना भी सीख गयी थीं।
चार बहू – बेटों वाली बड़ी गृहस्थी का कुशलतापूर्वक संचालन करते हुए वे बाबा की सभी आवश्यकताओं का स्वयं ही ध्यान रखतीं थीं।
रात्रि के किसी भी प्रहर में बाबा का लेखन कार्य प्रारंभ हो जाता था, उसी प्रहर में उनके लेखन के लिए रौशनी की व्यवस्था करना और गर्म औषधियुक्त दूध तैयार कर के देना दादी संपूर्ण निष्ठा के साथ करतीं थीं।
बाबा को साहित्य में जितनी रुचि थी उतनी ही आयुर्वेद में भी थी। घर पर ही औषधि तैयार की जाती थीं। औषधि निर्माण कार्य घर – आँगन में ही दादी जी के नेतृत्व में होता था। कूटना, पीसना और छानना आदि।
ये सब कार्य करते हुए वो आधी वैद्य भी हो गयीं थीं।
परिजनों और आस-पड़ोस की छोटी मोटी बीमारी का इलाज वे स्वयं ही कर लेतीं थीं।
आगरा – अलीगढ़ के आसपास के सभी छोटी बड़ी जगह से अक्सर साहित्यकारों का जमावड़ा आए दिन कविवर की ड्योढी पर लगा रहता था। कोई भी साहित्य प्रेमी आगन्तुक दादी के घर से कभी बगैर भोजन किये नहीं जा पाता था।
सन्ध्या दिया – बाती के समय दादी माँ बाबा के लिखे भजन सस्वर गाया करती थीं। सारा घर आँगन उनकी मधुर आवाज़ से गुँजित हो उठता था।
बाबा की बहुत सारी कविताएँ उन्हे जबानी याद थीं।
बाबा की लिखी कच्ची-पक्की रचनाओं की साज – संवार का जिम्मा दादी जी का ही था।
कानपुर में नहर विभाग में अंग्रेजी सरकार की नौकरी करते हुए बाबा के स्वाभिमान को लेकर अधिकारियों से जब कुछ तनातनी हो गयी तब दादी ने ही नौकरी से त्यागपत्र देने की सलाह दी थी।
उन्होंने अपने पति को आश्वासन दिया था कि आयुर्वेदिक औषधियों का कार्य हम दोनो मिलकर करेंगे और घर चलाऐंगे। आप अपना लेखन कार्य भी स्वतंत्रता पूर्वक कर सकोगे।
बाबा सदैव उनको अपनी प्रेरणा मानते थे।
उनके देहांत के बाद बाबा मन से बेहद टूट गये और सत्तर वर्ष की आयु में उन्होंने भी प्राण त्याग दिये।
उनकी साहित्य विरासत को उनके मझले बेटे और मेरे आदरणीय पितामह पद्मश्री डॉक्टर हरिशंकर शर्मा जी ने बहुत आगे तक बढाया।
उनका ज़िक्र फिर कभी….
फिलहाल तो मैं द्विवेदी युग के हिंदी काव्य शास्त्र के नक्षत्र अपने प्रपितामह महाकवि पं. नाथूराम शंकर जी के बारे में बता दूँ।
आदरणीय प.नाथूराम शंकरजी शर्मा का जन्म 1859 में हरदुआगंज (अलीगढ) उत्तरप्रदेश में हुआ था। “शंकर” उनका उपनाम था। हिंदी साहित्य के इतिहास मे खडी बोली के विकास में शंकरजी का नाम सादर अंकित है।
13 वर्ष की उम्र से ही शंकरजी ने कविता करनी प्रारंभ कर दी थी। पहले उर्दू में फिर हिंदी में। बचपन की उर्दू कविता का एक नमूना देखिए——
नकाब उलटे जो अपने बामें बरीं पै वह खुश जमाल आया,
तो बहरे ताजीम सर झुकाए नजर फलक पर हिलाल आया।
जीविकोपार्जन के लिए शंकरजी कानपुर गए। पं प्रताप नारायण मिश्र के “ब्राह्मण” नामक मासिक पत्र का संपादन किया। एक दिन स्वाभिमान का प्रश्न उपस्थित होने पर सरकारी सेवा से त्याग पत्र दे दिया और हरदुआगंज, अलीगढ़, लौट आए।
आयुर्वेद की शिक्षा प्राप्त कर एक सफल आयुर्वेद चिकित्सक के रूप में लोकप्रिय हो गए। चिकित्सा से बचे समय में साहित्य की सेवा करते थे।
शंकरजी ने अनेको रचनाओं की रचना की है —-शंकर सर्वस्व, अनुराग रतन, गर्भरंडा रहस्य, पीयूष पांडित्य, कविता कामिनी आदि आदि।
समस्या पूर्ति के तो वे सम्राट थे। मिनटों मे बडी सुंंदर पूर्तियां कर देते थे। अनेको पारितोषिक प्राप्त किए थे।संस्कृत और फारसी की कविताओं के हिंदी अनुवाद बडी सफलता से किए है।आचार्य पदमसिंह शर्मा ने एक शेर पढकर उसका अनुवाद करने को कहा—-
इश्क अववल हर दिले माशूक पेदा मी शवद,
तान सोजद शम अके परवाना शैदा मी शवद।
शंकरजी ने तुरंत अनुवाद कर दिया——
पहले तिय के हीय में उपजत प्रेम उमंग,
आगे बाती बरत है पीछे जलत पतंग।
शंकरजी ने सभी विषयों पर लेखनी चलाई है।
शंकर जी, बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। निडर, साहसी, स्वाभिमानी, समाज सुधारक, कुशल आयुर्वेद के चिकित्सक, साहित्यकार। कई विद्यार्थियो ने उन पर शोध ग्रंथ लिखे है।
श्री बालकृष्ण नवीन जी के शब्दों में —-शंकर जी शब्दों के स्वामी ,भाषा के अधीश्वर और साहित्य के अटल पहलवान थे। शंकर जी ने उस समय लिखना शुरु किया जब सामाजिक हृदय एक नवीन भा्वना से कंपित हो रहा था।देश के उस नेत्रोन्मीलन के युग में प्रभात की उस बेला मे प्रथम रवि रश्मि स्नात उस वाटिका में जिन विहगों ने अपने विभास भैरव भैरवी और आसावरी से नव जीवन प्रद स्वरों में हमें उदबोधन के,विनाश के और नव निर्माण के गीत सुनाए उनमें महाकवि शंकरजी भी थे।
श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जी का शंकर जी के विषय में विचार है—–उनके काव्य में उनकी कविता देखते ही बनती है। समस्या में दार्शनिक भाव भर देना आपकी सबसे बडी खूबी है।
महाकवि की रचनाएं अपने युग और समाज की संवेदनाओं से सदा जुडी है।शंकर जैसी प्रखर एवं उग्र राष्ट्रीय भावना उस युग के कवियों में अलभ्य थी।
छूआछूत, विधवा विवाह, नारी शिक्षा, नशाखोरी, का विरोध पाखंड खंडन आदि अनेक ऐसे विषय है जिससे सामाजिक जीवन में शांति लाई जा सकती है।
और अंत में हिंदी के महत्व के विषय में आदरणीय दादाजी की कुछ पंक्तियाँ –
‘शंकर’ प्रतापी महामण्डल की पूजा करो,
भेद वेदव्यास के पुराणों में बखानिए।
बोध के विधाता मतवालों को बताते रहो,
आपस में भूलकै भिड़न्त की न ठानिए।
जूरी जाति-पांति की पटेल-बिल में न घुसे,
भिन्नता को एकता के सांधे में न सानिये।
हिन्दुओं के धर्म की है घोषणा घमण्ड-भरी,
हिन्दी नहीं जाने उसे हिन्दी नहीं जानिये।।
प्रस्तुति : वसुंधरा व्यास
( मेरे आदरणीय पिताजी और परिजनों के संस्मरण के आधार पर)
RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

error: Content is protected !!