अब तक आपने महाकवि नाथूराम शर्मा “शंकर”, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त ,आचार्य शिवपूजन सहाय, रामबृक्ष बेनीपुरी जी, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, नागार्जुन, नरेश मेहता और प्रयाग शुक्ल की पत्नी के बारे में पढ़ा। आज पढ़िए प्रेमचन्द युग के महत्वपूर्ण लेखक राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह की पत्नी के बारे में। वे हिंदी गद्य के विशिष्ट शैलीकार के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। 1911 में आगरा के एक कॉलेज पत्रिका में और बाद में जयशंकर प्रसाद की इंदु पत्रिका में प्रकाशित उनकी कहानी “कानों में कंगना” गुलेरी जी की ” उसने कहा था “से पहले की कहानी है और अपने शिल्प और रचाव में बहुत आधुनिक भी । राजा जी का महत्व इस बात से भी समझा जा सकता है जब गांधी जी आरा आये थे तो गांधी जी की सभा के आयोजक वही थे। राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू को 1950 मेंआरा में शिवपूजन सहाय द्वारा संपादित
अभिनंदन
ग्रंथ भेंट किया गया तो उस समारोह के अध्यक्ष राजा जी ही थे। आज की पीढ़ी उनके योगदान से परिचित नहीं होगी। भला वह उनकी पत्नी को कैसे जाने। प्रसिद्ध कथाकार उषाकिरण खान ने बेनीपुरी और नागर्जुन की पत्नी के बाद राजा जी की पत्नी के बारे में लिखा है।
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बिहार के प्रसिद्ध कथाकार, उपन्यासकार राजा राधिकारमण प्र सिंह की विशिष्ट शैलीकार के रूप में बडी पहचान रही है। वे अद्भुत कथाकार उपन्यासकार थे। उनकी कहानी कानों में कंगना तथा उपन्यास पुरुष और नारी को हमने बेहद लोकप्रिय पाया। राजा साहब आराजिले के सूर्यपुरा स्टेट के थे । वे बेहद जनप्रिय वक्ता थे। स्वातंत्र्यचेता थे। साहित्य सेवक तो थे ही। उनका विवाह आरा के संपन्न घर में हुआ।
राजा राधिकारमण सिंह की पत्नी का नाम रानी ललिता देवी था। उनका विवाह 1910 में हुआ था। ललिता देवी को सीधे सीधे नहीं पर पहले जमाने के अनुसार अनजान नाउन ने देखकर स्वभाव गुण परख कर पास कर दिया था। सुंदर होने के साथ साथ वे साक्षर भी थीं। राजा साहब राधिकारमण की शादी का वर्णन आरा जिला में वातावरण में व्याप्त था। शादी उनके गाँव चाँदी में हुई थी। अत्यधिक संख्या में बाराती थे सो आरा से बैलगाडी पर लादकर पूरी और बुंदिया गया था। हद तो यह थी कि गाँव के सभी कुओं में चीनी बोरे के बोरे गिरा दियेगये थे ताकि बाराती मीठा शरबत ही पीयें।
ऐसे घर की बिटिया ललिता को एक पारंपरिक बडे घर के साथ एक सामाजिक तथा साहित्यिक सरोकारों वाला पति मिला था। राजा साहबसे ललिता देवी का प्रेम इतना प्रगाढ़ था कि वे उनके लिये खाना स्वयं बनाना चाहतीं। उस कारण जब वे होते तब कच्ची रसोई में जुटी रहतीं। रसोईए महाराज बताते कि ललिता देवी ने फुल्के बनाने में कितनी मिहनत की। 10 जलाकर एक बनाना सीखा। पहले लकडी और उपले की आँच पर हाथ भी खूब जलते होते। खाना परोसने के सुरुचिपूर्ण वर्णन राजा साहब की कथाओ में खूब आया है। यह वह समय था जब पति पत्नी या तो विमुख होते या प्रेमी प्रेमिका की तरह फासले से मिलते।
ललिता देवी अक्सर बीमार रहतीं। सूर्यपुरा हवेली में पहली संतान हुई जो सही इलाज न होने से कालकवलित हो गई। ललिता देवी के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर बहुत असर पडा। बाद के बच्चे आरा में पिता के घर हुए जहाँ डॉक्टर की देख रेख मिली। ललिता देवी ने घर पूरी तरह संभाल रखा था। राजा साहब अपने लेखन में मशगूल रहते, अपनी गोष्ठियों में लगे रहते। लगभग 50-52 साल की होते न होते वे राजा साहब को अकेला छोड गईं। वे खूब स्वाभाविक रहने की चेष्टा करते पर बरबस आँसू निकल आते।
ललिता देवी ने आधुनिक शिक्षित बहुओं की कल्पना की। अपनी बहूओं को उस जमाने में वे पढाने की हिमायती थी। उनके ही सत्प्रयास से संतानवती बहुएँ ग्रैजुएट हो सकीं।
ललिता देवी की सबसे बडी पौत्री मंजरी जरुहार जो स्वयं बिहार की प्रथम आइ पी एस, रिटायर डी जी पुलिस बताती हैं कि उन्हें दादी की छवि याद है। वे लाल रेशमी चुनरी जिसमें गोटकिरण टंका था पहनकर धरती पर लेटी थी, नाक में नथिया और मांग में टीका सजा था नाक से लेकर माँग तक लाल सिंदूर लगा था। उसके बाद फिर उसने उन्हें न देखा।
उसके बाद ललिता देवी राजा साहब के दावात में समा गईं, उनके कलम की निब में समा गईं। उनकी खूबसूरत शेफर्ड फाउंटेनपेन बन सीने पर टँक गईं। जानकार जानते हैं कि आचार्य शिवपूजन सहाय की भाँति राजा साहब की प्रेरणापुंज पत्नी ताज़िंदगी उनके साथ रहीं।
– उषाकिरण खान