अब तक आपने भारतेंदु युग के लेखक महाकवि नाथूराम शर्मा “शंकर”, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, मैथिली शरण गुप्त, राजा राधिक रमण प्रसाद सिंह, आचार्य शिवपूजन सहाय, रामबृक्ष बेनीपुरी, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, नागार्जुन, रामविलास शर्मा नरेश मेहता, अरविन्द कुमार, प्रयाग शुक्ल और विनोद कुमार शुक्ल की पत्नियों के बारे में पढ़ा। अब पढ़िये गीतों के राजकुमार गोपाल सिंह नेपाली जी की पत्नी के बारे में।
11 अगस्त 1911 में जन्मे नेपाली जी दिनकर के समकालीन थे। कुछ लोग उन्हें दिनकर से अधिक सच्चा और संवेदनशील राष्ट्रवादी कवि मानते हैं। यह अलग बात है कि उन्हें दिनकर की तरह ख्याति नहीं मिली। उन्होंने नेपाल सरकार के गुरु पुरोहित विक्रम राज की पुत्री वीणा रानी से विवाह किया था जो गहरी आर्थिक संकट में परिवार की देखभाल करती रहीं।
नेपाली जी की पहली कविता 1930 में छपी। 1931 में कोलकत्ता हिंदी साहित्य सम्मेलन में उनकी मुलाकात शिवपूजन सहाय बेनीपुरी और दिनकर से हुई। 1932 में काशी में महावीर प्रसाद द्विवेदी अभिनन्दन समारोह में अपनी कविता से बहुत प्रसिद्ध हुए और मंच के लोकप्रिय कवि बने। 1944 से 56 तक 45 फिल्मों में करींब तीन सौ से ऊपर गाने लिखे। तीन फिल्में भी बनाई। मजदूर सफर तुलसीदास नरसी भगत हर हर महादेव जैसी फिल्मों के गीत लिखे। उनकी पत्नी के बारे में जानकारी मिलती नहीं। नेपाली जी के जीवनीकार नंद किशोर नंदन ने बड़ी मुश्किल से कुछ जानकारियां एकत्र की हैं।उनका लेख हम दे रहे हैं।
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प्रिये, तुम्हारी इन आँखों में मेरा जीवन बोल रहा है’
कवि नेपाली का दाम्पत्य प्रेम
नंदकिशोर नंदन
उत्तर-छायावाद के प्रसिद्ध कवि गोपाल सिंह नेपाली, केवल राष्ट्रप्रेम के ही नहीं बल्कि प्रकृति, प्रेम और वंचित मनुष्यता की मुक्ति के महान गायक थे। उनके प्रकृति-प्रेम और मानव-प्रेम के समान ही उनका दाम्पत्य भी सहज और अनाविल प्रेम से ओत-प्रोत था। उसकी गहराई का अनुमान उनकी इन पंक्तियों से लगाया जा सकता हैः
तुम मुझमें जीवन भरती हो।
बनकर गान क्षणिक सुख-दुख के
तुम मुझको मुखरित हो।
यह महज संयोग नहीं है कि ‘सुधा’ के सम्पादन-क्रम में निरालाजी के साथ छः महीने के साथ रहे नेपाली भी प्रेम की उसी गहनता के मर्मी कवि थे। मनोहरा देवी के प्रेम की गहरी अनुभूति ने ही यह लिखने के लिए अनुप्रणित किया होगा, जिन्होंने उनकी जीवन को काव्य-रस परिपूर्ण कर दिया थाः
तुम्हीं गाती हो अपना गान
व्यर्थ ही मैं पाता सम्मान।
कवि नेपाली के जीवन में प्रेरणा बनकर आनेवाली वीणा सिंह नेपाली का विवाद मात्र सोलह साल की उम्र में हुआ था। वह सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति थीं। वह नेपाल-राज के पुरोहित के पाण्डे-परिवार की कन्या थीं। यह एक अन्तर्जातीय विवाह था। वीणा जी ब्राह्मण थीं तो नेपाली जी क्षत्रिय। लेकिन दोनों का प्रेम आज भी अद्वितीय उदाहरण है। फिल्मी दुनिया की रंगीनी और चमक-दमक के बीच प्रेम की यह एक निष्ठता ही है, जिसने प्रेम को इस ऊंचाई तक पहुंचाया है।
तू पढ़ती है मेरी पुस्तक, मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ
तू चलती है पन्ने-पन्ने, मैं लोचन-लोचन बढ़ता हूँ
तू छंदों के द्वारा जाने, मेरी उमंग के रंग-ढंग
मैं तेरी आँखों से देखूँ, अपने भविष्य के रुप-रंग
तू मन-मन मुझे बुलाती है, मैं नयना-नयना मुड़ता हूँ।
तू पढ़ती है, मेरी पुस्तक मैं तेरा मुखड़ा पढ़ता हूँ।
जिस कवि के जीवन का घट दाम्पत्य के प्रेम-रस से छलक रहा हो, वही तो यह कह सकता है-
हृदय द्रवित ये लोचन गीले
एक प्रेम सब बंधन ढीले।
यह किसी कामी पुरुखा की देहासकिृ नहीं है जो यह कहता हो- ‘उर्वशी मैं, तुम्हारे रक्त के कण में समाकर प्रार्थना के गीत गाना चाहता हूँ, अथवा वह प्रेम भी नहीं है, जो किसी के चले जाने पर किसी और को अपनाने के लिए तर्क गढ़ता है- ‘है अंधेरी रात तो दीप जाना कब मना है?’ प्रेम की एकनिष्ठता ही उसे गहराई प्रदान करती है। ‘वे आंखें देखी हैं जब से, और नहीं देखी है तब से’। निस्सन्देह नेपाली की प्रेमानुभूति उनके प्रेमाविष्ट दाम्पत्य की मार्मिक व्यंजना हैः
मोती-सी आज चमकती है
दो बूंद तुम्हारी आँखों में।
उस बार देखकर समझाया
बस तुम्हें समझना मुश्किल है
इस ओर हमारी मंजिल है
उस ओर तुम्हारी महफिल है
इस बार तुम्हें देखा मैंने
दिलदार, तुम्हारा भी दिल है
मोती-सी आज चमकती है
दो बूंद तुम्हारी आंखों में।
(नीलिमा, 1944)
नेपालीजी की एकमात्र जीवित संतान— उनकी कमला जी ने मुझे फोन पर अपने माता-पिता के दाम्पत्य के सम्बन्ध में मुंबई से फोन पर बतलाया कि पिताजी माँ को न केवल अपने प्राणों से अधिक प्यार करते थे बल्कि उनके साथ अपनी लिखी जा रही कविताओं के सम्बन्ध में विमर्श करते थे और उनकी भावनाओं को, विचारों को भी जगह देते थे। माँ के प्रति उन्हें कठोर होते कभी नहीं देखा। उन्हें तरबूज बहुत प्रिय था। तरबूज लाते तो हम सबको माँ के साथ बिठाकर अपने हाथों से काटकर तरबूज खिलाते और स्वयं भी खाते थे। पाँच भाईयों और हम दो (लक्ष्मी छोटी बहन दिवंगत) बहनों के बड़े परिवार को माँ ने पाला-पोसा लेकिन उनकी सृजनशीलता को अबाधगति से चलने दिया, उनकी मस्ती और फकड़पन में कभी कोई बाधा नहीं डाली।
‘अलाव’ के कवि नेपाली विशेषांक में प्रकाशित कमलाजी की ये पंक्तियां प्रमाण हैं कि दोनों में कितना गहरा प्रेम था- ‘‘मेरी माता जी वीणारानी जो अभी नहीं रहीं, पिताजी की काव्य-रचना में सहयोग दिया करती थीं। उनसे बातें करते हुए पिताजी उनके विचारों, भावनाओं को चुटकी में काव्यात्मक बना लेते थे। वो कहते है ना कि किसी पुरुष की सफलता में उसकी स्त्री का बड़ा सहयोग होता है। माँ ऐसी ही थीं।’’
17 अप्रैल, 1963 में नेपाली जी संदेहास्पद मृत्यु के पश्चात ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित एक साक्षात्कार में श्रीमती वीणा सिंह नेपाली ने कहा था ‘माॅफ करना, मुझे हिन्दी नहीं आती, कुछ पढ़ी-लिखी भी नहीं हूँ। लेकिन मैं बहुत गुस्सा करती थी मैं इसके पापा के ऊपर (दिवंगता छोटी पुत्री लक्ष्मी)। क्या करती ? बस कहती थी और रह जाती थी। आठ बच्चे हैं। सब बच्चों को खराब कर दिया सिर चढ़ाकर। मैं घर में ज्यादा गुस्सा करती तो कहते- ‘‘मुझसे किसी की खुशामद नहीं होती। मैं नहीं जाऊँगा किसी के पास।’’ पटना जाने से पहले हम लोगों के दिन बहुत ही खराब गुजर रहे थे। मैंने ही एक दिन मजबूर कर दिया। आखिर घर में बैठे-बैठे कैसे होगा। बस बैठे-बैठे चीन पर कविताएं लिखोगे। वे बराबर कहते रहे- ”जो भी है बस हमारे लिए कविता ही भली।’’ स्पष्ट है कि कवि नेपाली के दाम्पत्य की अबाध प्रेमिल धारा के बीच दरिद्रता आकर चट्टान की भांति खड़ी हो जाती थी अन्यथा उनका दाम्पत्य अनुपम और अदभुत था। जिस कवि ने अपनी जीवन-संगिनी को सांसों में सुगन्ध के समान बसा लिया हो, वही तो यह लिख सकता हैः
आधी दुनिया मैं हूँ, आधी तुम हो मेरी रानी
तुमने हमने मिलकर कर दी पूरी एक कहानी।
(नीलिमा)
नेपाली जी की पत्नी के बारे में उनके परिवार के लोगों को अब अधिक जानकारी नहीं। 17 अप्रैल 1963 को भागलपुर रेलवे स्टेशन पर रहस्यमयी परिस्थितियों में नेपाली का निधन हो गया।