स्त्री दर्पण ने कुछ दिन पहले हिंदी के महान लेखकों की पत्नियों के बारे में एक श्रृंखला शुरू की। उसकी पहली कड़ी में आपने बच्चन देवी के बारे में जाना जो आचार्य शिवपूजन सहाय की पत्नी थीं।
आज आचार्य रामचंद्र शुक्ल की पत्नी के बारे में एक टिप्पणी दी जा रही है। सावित्री देवी के बारे में शुक्ल जी की प्रपौत्री एवम लेखिका मुक्ता जी ने हमें यह जानकारी दी है। मुक्ता जी ने अपनी मां कुसुम चतुर्वेदी के साथ मिलकर शुक्ल जी की एक जीवनी लिखी है। वैसे शुक्ल जी के भतीजे चन्द्रशेखर शुक्ल ने पहले एक जीवनी लिखी थी।मुक्ता जी का आभार।
“क्या आप सावित्री देवी को जानते हैं?”
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आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म 4 अक्टूबर 1884 को हुआ था। वे प्रेमचन्द से 4 साल छोटे थे। उनका का बाल विवाह तेरह वर्ष की आयु में मिर्जापुर में सावित्री देवी के साथ हुआ था। दरअसल सावित्री जी का असली नाम शिवमूर्ति देवी था लेकिन विवाह के बाद शुक्ल जी के परिवार की प्रथा के अनुसार उनका नाम बदलकर सावित्री देवी कर दिया गया। वह बनारस के एक वैद्य और ज्योतिष पंडित रामफल की पुत्री थीं। शुक्ल जी अपनी पत्नी का नाम बदले जाने से रुष्ट थे लेकिन देवकी जी के आगे उनकी एक न चली। 1898 में सावित्री देवी का गौना हुआ और एक साल बाद देवकी जी गुजर गई। इससे बड़ी जिम्मेदारी सावित्री देवी पर आ गयी।
देवकी जी आचार्य शुक्ल की दादी थीं। शुक्ल जी उन्हें दूधू कहकर पुकारते थे। शुक्ल जी की माँ का निधन 12 वर्ष की आयु में राठ जिले में हुआ था जहाँ चंद्रबली शुक्ल कानूनगो के पद पर कार्यरत थे। माँ के निधन के पश्चात दादी देवकी जी ने शुक्ल जी का पालन पोषण किया।
शुक्ल जी के पिता चन्द्रबली शुक्ल ने जो कानूनगो थे , दूसरा विवाह कर लिया और दूसरी शादी से तीन संतानें उत्पन्न हुईं। जगदीश चन्द्र, श्यामा और विमला।
1918 में चन्द्रबली शुक्ल का निधन हो गया। शुक्ल जी ने विमला और जगदीश को पढ़ाया और विमला का विवाह भी किया। जाहिर है शुक्ल जी को संयुक्त परिवार चलाने में आर्थिक संघर्ष करना पड़ा और इस तरह के संघर्ष की मार पत्नियों पर पड़ती हैं।
मुक्ता जी और कुसुम जी द्वारा लिखित पुस्तक के अनुसार सावित्री देवी जब विवाह कर के आयी तो उनके पिता ने नथ और बाजूबंद के साथ बेटी की विदाई की। लेकिन शुक्लजी को यह सब पसंद नहीं था। उन्होंने पहले ही दिन कहा “यह कौन सा जंगलीपन है। नथ उतार कर फेंको।”
सावित्री देवी आजीवन शुक्ल जी की सहयोगी बनी रहीं।काशी में बड़े कुटुम्ब का भार शुक्ल जी पर था। यह बहुत कम लोग जानते होंगे कि आर्थिक कष्ट में सहयोग करने के लिए सावित्री देवी ने “शैलबाला” एवं “कलंकिनी” दो बांग्ला उपन्यासों का हिंदी में अनुवाद किया था। यह भी कम लोगों को पता होगा कि शुक्ल जी ने ‘शैलबाला’ की भूमिका लिखी थी। आचार्य शुक्ल की तरह ही सावित्री देवी को बंगला का अच्छा ज्ञान था।
सावित्री देवी ने बंगला राजेन्द्र बाला घोष से सीखी थी जो बंग महिला नाम से हिंदी की पहली महिला कथाकार मानीं जाती हैं। बंग महिला शुक्ल जी के घर आती जाती थीं। शुक्ल जी ने पहली बार बंग महिला को प्रेमधन के घर के सामने छत पर देखा था। जब बंग महिला दस साल की थीं।
‘हिंदी शब्द सागर’ शब्दकोश के संपादन के सिलसिले में शुक्ल जी को छह महीने जम्मू रहना पड़ा था। इस समय परिवार का पूरा दायित्व सावित्री देवी पर था। उस समय वह चार सन्तानों का लालन पालन कर रहीं थीं।
मालवीय जी शुक्ल जी को बी एच यू अध्यापक पद पर लाने के इक्छुक थे। शुक्ल जी कोष एवं अन्य पुस्तकों के कार्य में व्यस्त थे। वह नागरी प्रचारिणी सभा नहीं छोड़ना चाहते थे। मालवीय जी ने सावित्री देवी से अनुरोध किया और शुक्ल जी को बी एच यू लाने में सफल हुए। सावित्री देवी की पठन पाठन एवं लेखन में रुचि थी। लेकिन गृह कार्य एवं शुक्ल जी की अस्वस्थता के कारण समय नहीं निकल पाती थीं। सावित्री देवी सही अर्थों में आचार्य शुक्ल की सहगामिनी थीं। वह अपनी पति के लिए किताबों को खोजकर लाती थी और पुस्तकालय भी जाती थीं।
मालवीय जी ने शुक्ल जी और लाला भगवानदीन का चयन 1916 में ही काशी विश्विद्यालय के हिंदी विभाग के लिए किया था। लेकिन शुक्ल जी को हिंदी शब्दसागर का काम अधिक महत्वपूर्ण लगा।1919 में मालवीय जी शुक्ल जी के घर आये और सावित्री देवी से कहा -“शुक्लाईन जी मैं याचक हूँ। आज तक लक्ष्मी की भीख मांगकर विश्विद्यालय बनाया। अब सरस्वती की भीख मांगने आया हूं। शुक्ल जी को मना कर विश्विद्यालय भेजिए”।
शुक्ल जी अध्यापक बने तो उनका वेतन 50 रुपए था। 15 रुपये में किराए का मकान लिया था। बाद में जब आवास मिला तो स्थिति सुधरी। 1937 में मकान बनवाया पर आर्थिक अभाव से बिजली न लगवा सके।
इस तरह के माहौल में परिवार और घर मकान को संभालते सावित्री का जीवन बीता। शुक्ल जी खूनी बवासीर और प्लुरोसी के मरीज। सावित्री जी उनका देखभाल करती अन्यथा वह भी एक प्रसिद्ध अनुवादक तो हो ही सकती थीं। लेकिन लेखकों की पत्नियों का जीवन पर्दे के पीछे गुजर जाता है। शुक्ल जी अमर हो गए।सावित्री देवी विस्मृत। 1941 में उम्र के 56 साल में शुक्ल जी का निधन हुआ। एक साल बाद सावित्री देवी भी गुजर गईं।