अब तक आपने भारतेंदु युग के लेखक महाकवि नाथूराम शर्मा शंकर, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, मैथिली शरण गुप्त, राजा राधिक रमण प्रसाद सिंह, आचार्य शिवपूजन सहाय, रामबृक्ष बेनीपुरी , आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी , नागार्जुन, रामविलास शर्मा नरेश मेहता, प्रयाग शुक्ल और विनोद कुमार शुक्ल की पत्नियों के बारे में पढ़ा।
अगर आपने माधुरी पत्रिका बचपन में पढ़ी हो तो आप उसके संपादक अरविंद कुमार को जानते होंगे और अगर आपने हिंदी थिसारस देखा हो तो उनका नाम कैसे भूल सकते हैं। लेकिन आपको ये नहीं पता होगा कि ऐतिहासिक समांतर कोश के निर्माण में उनकी पत्नी कुसुम कुमार ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है।
कोविड काल में 92 साल की उम्र में अरविंद जी हम से बिछड़ गए।
उनकी बेटी और अंग्रेजी की लेखिका मीता लाल बता रही अपनी मां के बारे में।
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“मेरे पिता की हमसाया ~ मेरी माँ”
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– मीता लाल
जब मेरे पिता अरविंद अपने विवाह के वास्ते हिंदुस्तान टाइम्स अखबार के वैवाहिक विज्ञापनों को टटोल रहे थे, तो उन्होंने मेरी माँ कुसुम को चुना क्योंकि वे बी ए-एल टी थीं। जिस डिग्री से उन्हें टीचर की नौकरी मिल सकती थी। छह लोगों के परिवार में अकेले अरविंद कमाने वाले थे; एक और कमाऊ सदस्य से बहुत फ़र्क़ पड़ जाता।
और हुआ भी ऐसा ही। 1959 में शादी के बाद, मेरी माँ की नौकरी सरकारी स्कूल में लग गयी और घर की माली हालत एक दम से सुधरने लगी। माडल टाउन में ज़मीन ख़रीदने और घर बनाने के लिए लिया गया क़र्ज़ जल्द ही चुकाया गया और मेरी दादी बहुत खुश होकर सब से कहतीं: मुझे तो एक और बेटा मिल गया!
इस तरह शुरू हुआ मेरे पिता और मेरी माँ का दांपत्य जीवन। तब वे कभी ये न सोच सकते थे कि उनके जीवन में मेरी माँ का योगदान कितना महत्वपूर्ण और यादगार रहेगा।
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मेरी माँ मेरठ की हैं, अपने माता-पिता की चार में से तीसरी संतान। मेरे नाना सरकारी स्कूल में टीचर थे और उन्होंने हमेशा चाहा कि मेरी माँ उनका ही पेशा अपनाए। अफ़सोस, माँ के रघुनाथ कालिज से बी ए और मेरठ कालिज से टीचर ट्रेनिंग करने के बहुत पहले ही मेरे नाना चल बसे।
मेरी माँ की सबसे बड़ी खूबी ये है कि वे बेहद आशवादी हैं और सकारात्मक दृष्टि की हैं। उनके जीवन का सूत्र वाक्य हमेशा रहा: सब ठीक होगा। जब मैं चिंतित होती हूँ, परेशान होती हूँ, तब माँ से प्रेरित होकर, एक दम से शांत हो जाती हूँ क्योंकि, माँ की ही तरह मुझे विश्वास है कि सब कुछ ठीक हो जाएगा।
मेरी माँ में एक अनोखे क़िस्म की संतुष्टि है। जीवन की विषम से विषम परिस्थिति में भी, मैंने उन्हें कभी शिकायत करते नहीं सुना, कभी तक़ाज़ा करते नहीं देखा, कभी ज़िंदगी से असंतुष्ट नहीं पाया।
वे खुद अपने आप में ही तृप्त हैं। कठिन से कठिन काम करने से नहीं घबरातीं, और अपने तन-मन-धन से उसमें जुट जाती हैं, चाहे काम में कितना भी समय क्यों न लग जाए।
मेरा यह मानना है कि अनेक भूमिकाओं में से, मेरी माँ की पत्नी की भूमिका सबसे उल्लेखनीय रही है। हमेशा मेरे पिता के साथ रहीं हैं, उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलीं हैं। बिना किसी शर्त के सहारा देते हुए। पूरे समर्पण के साथ।
सातवें दशक तक आते आते, माधुरी, वह हिंदी फ़िल्म पत्रिका जो मेरे पिता अरविंद ने टाइम्स आफ इंडिया ग्रुप के लिए निकाली थी, संपूर्ण परिवार की पत्रिका बन चुकी थी। माधुरी के लोग दीवान थे। हर अंक का बेसब्री से इंतज़ार करते थे। लेकिन अरविंद को एक अजीब सी ऊब होने लगी थी. वे जीवन में कुछ और सार्थक करना चाहते थे। अंतर्मन में सवाल उठता: ये सब क्यों? किस लिए? कब तक?
और इस सवाल का जवाब उन्हें दिसम्बर १९७३ की एक रात मिला जब उन्हें अचानक अपने जीवन का लक्ष्य मिल गया: हिंदी में थिसारस बनाना। एक ऐसा चुनौती भरा काम जो संसार में किसी ने अभी तक नहीं किया था (आम तौर से थिसारस बनाने जैसा विशाल काम संपादक मंडल करता है और संस्थाएं यह काम करवाती हैं।)
अगली ही सुबह, हैंगिंग गार्डेंज़ में सैर करते हुए, अरविंद ने हिंदी थिसारस बनाने की बात कुसुम से कही। और ये भी कहा की इसके लिए उन्हें माधुरी की नौकरी छोड़नी होगी और परिवार को दिल्ली के अपने घर वापिस लौट जाना होगा, और जब तक थिसारस छप नहीं जाता, बचत के पैसों में गुज़ारा करना होगा।
और कुसुम ने हाँ कर दी। फ़ौरन। कितनी महिलाएँ ऐसा कर पातीं? कितनी महिलाएँ दक्षिण मुंबई का सुख-सुविधा वाला रहन सहन, फ़िल्मी लोगों के साथ उठने बैठने वाला समृद्ध जीवन त्याग कर एक ऐसा जीवन अपनाने को तैयार हो जातीं जिस में सिर्फ़ अनिश्चितता हो, अस्पष्टता हो, संयुक्त परिवार में समझौता करना हो?
कुसुम ने किया। बिना संकोच। इच्छा से। ख़ुशी ख़ुशी। अरविंद की सरजोश सहयोगी।
उस दिन से ही, कुसुम ने घर खर्च में कटौती कर दी और भविष्य के लिए पैसे जुटाने में लग गयी। अरविंद ने सुबह शाम माधुरी की नौकरी के साथ साथ थिसारस पर काम शुरू कर दिया। उनके साथ कुसुम ने भी थिसारस पर काम किया। अगले 2० सालों तक, कुसुम ने अरविंद की समांतर कोश के बृहत् डेटा को एकत्रित करने में मदद की। और फिर अकेले ही, कई महीनों तक, उस डेटा के कम्प्यूटरीकरण का नीरीक्षण किया। हर रोज़ कुसुम हस्तलिखित कार्डों की क़तार टाइपिस्ट के लिए जुटातीं, कम्प्यूटरायज़्ड डेटा को प्रूफ़ रीड करतीं और फिर एक बार करेक्टेड डेटा को चेक करतीं। अरविंद की सच्ची साझेदार।
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तमाम चुनौतियों, दिक्कतों, परेशानियों को अनदेखा करते हुए वह इस काम में डटी रहीं और उसे बखूबी पूरा किया।
जब दिल्ली आते ही, माडल टाउन में अचानक भयंकर बाढ़ आई और उनके घर का सारा सामान पानी में बह गया, तब भी कुसुम ने दुःख नहीं मनाया। दोनों कुसुम और अरविंद इस बात से खुश थे की उनका भविष्य – उनके थिसारस के कार्ड – बाढ़ के पानी से बच गए थे क्योंकि उनका काम का कमरा घर की मियानी में था!
भविष्य में बाढ़ आने के डर से, मेरे दादाजी ने माडल टाउन का घर बेच दिया – जिस घर के भरोसे अरविंद और कुसुम बम्बई छोड़ कर दिल्ली आए थे, वही घर ना रहा! लेकिन उन्होंने इस आघात के बाद भी हिम्मत नहीं हारी और बचीकुछी बचत से ग़ाज़ियाबाद बार्डर के चंद्रा नगर मुहल्ले में ज़मीन ख़रीदी। मजबूरन, अरविंद को पत्रकारिता में फिर लौटना पड़ा ~ और रीडर्स डायजेस्ट का हिंदी संस्करण सर्वोत्तम निकाला।
पैसों की तंगी के कारण चंद्र नगर का घर रोज़नदारी पर बनवाना पड़ा, कुसुम की निगरानी में। अकेले, कुसुम सामान की व्यवस्था करतीं, नक़्शे पास करवाती, ग़ाज़ियाबाद जाकर कोटा की २५ बोरी सीमेंट लदवाकर, ट्रक में अकेले बैठ कर लातीं। बिना किसी शिकायत। पूरे जोश और हिम्मत से। अरविंद की बहादुर योद्धा।
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ये सब कुसुम ने घर की देखभाल और हम बच्चों के पालन पोषण के साथ साथ बखूबी से किया। संसाधन कम थे लेकिन उन्होंने हमें कभी कमी महसूस होने नहीं दी। उन्होंने मेरे पिता की सेहत का ख़ास ख़याल रखा ख़ासतौर से १९८८ में पड़े भारी दिल के दौरे के बाद। अरविंद की बाइपास सर्जरी के बाद, उन्होंने पिता की सेहत को सही सलामत रखने को अपने जीवन का उद्देश बना लिया। अरविंद की सुदृढ़ रक्षक।
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और ऐसा ही रहा। ६२ लंबे वर्षों तक। कुसुम और अरविंद अपने चंद्र नगर के घर में रहे, बिलकुल आत्माधीन, ख़ुदमुख़्तार। अरविंद रोज़ सुबह ५ बजे काम शुरू करते और कुसुम उनकी हर ज़रूरत का ध्यान रखतीं। साथ साथ थीयटर में नाटक देखते, फ़िल्म देखते, समारोह में जाते। साथ साथ घर का सामान लाते, बाहर खाना खाते, दोस्तों और परिवार जनों से मिलते।
कुसुम ~ एक ऐसी स्त्री जिसने अपने पति के सपने को अपना सपना बना लिया और उनकी प्रेरणा, प्रोत्साहन और ऊर्जा का निरंतर स्त्रोत बनी रहीं। अरविंद की पत्नी। उनकी सहयोगी। उनकी समर्थक। उनकी संगिनी। कुसुम और अरविंद का साथ – एक ऐसा साथ जो प्रकृति ने नियत किया हो।
दुनिया जिस समांतर कोश और माधुरी वाले अरविंद कुमार को जानती है उसकी कहानी कुसुम के बिना पूरी नहीं हो सकती। वह वाकई हम साया थी। तू जहाँ जहाँ चलेगा तेरा साया भी साथ होगा…..।
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अरविंद के घनिष्ठ कवि मित्र श्री बलस्वरूप राही ने हाल में ही कहा, “उन्होंने (अरविंद जी) जो काम किया वो अन्तःप्रेरणा से किया और उस प्रेरणा का साथ दिया उस महिला ने जो उनके जीवन की प्रेरणा बन कर रही हैं – ये अरविंद हैं तो वो कुसुम हैं – दोनों फूल हैं. ये दोनों फूल एक साथ खिले हैं, दोनों की ख़ुशबू एक साथ में हैं.
अगर इस यात्रा में किसी का बहुत ही अंतरंग साथ रहा हो तो वो उनकी पत्नी का है, कुसुम जी का है… हम एक शब्द सुनते आए हैं हमसफर, एक शब्द सुनते आए हैं सहधर्मिणी, एक शब्द सुनते आए हैं जीवन संगिनी. अगर इन शब्दों के अर्थ समझने हैं तो आप कुसुम कुमार से मिलिए।