Sunday, December 22, 2024
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स्त्री प्रतिरोध की कविता और उसका जीवन

प्रतिरोध की कविताएं

कवयित्री सविता सिंह

स्त्री दर्पण मंच पर प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह के संयोजन से आयोजित ‘प्रतिरोध कविता श्रृंखला’ में विभिन्न कवयित्रियों की कविताओं में आपने अब तक शुभा, शोभा सिंह, निर्मला गर्ग, कात्यायनी, अजंता देव, प्रज्ञा रावत, सविता सिंह, रजनी तिलक, निवेदिता, अनिता भारती, हेमलता महिश्वर जैसी वरिष्ठ कवयित्रियों की कविताएं एवं साथ ही समकालीन कवयित्री वंदना टेटे, रीता दास राम एवं नीलेश रघुवंशी की कविताओं को पढ़ा।
आज मंच पर कवयित्री निर्मला पुतुल की कविताएं प्रस्तुत हैं।
“प्रतिरोध कविता श्रृंखला” पाठ – 14 में कवयित्री नीलेश रघुवंशी की कविताओं को आप पाठकों ने पढ़ा। आपके विचार और महत्वपूर्ण टिप्पणियों से सभी लाभान्वित हुए।
आज “प्रतिरोध कविता श्रृंखला” पाठ – 15 के तहत आप पाठकों के लिए कवयित्री निर्मला पुतुल की कविताएं परिचय के साथ प्रस्तुत हैं।
पाठकों के सहयोग, स्नेह व प्रोत्साहन का सादर आभार व्यक्त करते हुए आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार है।
– सविता सिंह
रीता दास राम
आज हिन्दी में स्त्री कविता अपने उस मुकाम पर है जहां एक विहंगम अवलोकन ज़रुरी जान पड़ता है। शायद ही कभी इस भाषा के इतिहास में इतनी श्रेष्ठ रचना एक साथ स्त्रियों द्वारा की गई। खासकर कविता की दुनिया तो अंतर्मुखी ही रही है। आज वह पत्र-पत्रिकाओं, किताबों और सोशल मिडिया, सभी जगह स्त्री के अंतस्थल से निसृत हो अपनी सुंदरता में पसरी हुई है, लेकिन कविता किसलिए लिखी जा रही है यह एक बड़ा सवाल है। क्या कविता वह काम कर रही है जो उसका अपना ध्येय होता है। समाज और व्यवस्थाओं की कुरूपता को बदलना और सुन्दर को रचना, ऐसा करने में ढेर सारा प्रतिरोध शामिल होता है। इसके लिए प्रज्ञा और साहस दोनों चाहिए और इससे भी ज्यादा भीतर की ईमानदारी। संघर्ष करना कविता जानती है और उन्हें भी प्रेरित करती है जो इसे रचते हैं। स्त्रियों की कविताओं में तो इसकी विशेष दरकार है। हम एक पितृसत्तात्मक समाज में जीते हैं जिसके अपने कला और सौंदर्य के आग्रह है और जिसके तल में स्त्री दमन के सिद्धांत हैं जो कभी सवाल के घेरे में नहीं आता। इसी चेतन-अवचेतन में रचाए गए हिंसात्मक दमन को कविता लक्ष्य करना चाहती है जब वह स्त्री के हाथों में चली आती है। हम स्त्री दर्पण के माध्यम से स्त्री कविता की उस धारा को प्रस्तुत करने जा रहे हैं जहां वह आपको प्रतिरोध करती, बोलती हुई नज़र आएंगी। इन कविताओं का प्रतिरोध नए ढंग से दिखेगा। इस प्रतिरोध का सौंदर्य आपको छूए बिना नहीं रह सकता। यहां समझने की बात यह है कि स्त्रियां अपने उस भूत और वर्तमान का भी प्रतिरोध करती हुई दिखेंगी जिनमें उनका ही एक हिस्सा इस सत्ता के सह-उत्पादन में लिप्त रहा है। आज स्त्री कविता इतनी सक्षम है कि वह दोनों तरफ अपने विरोधियों को लक्ष्य कर पा रही है। बाहर-भीतर दोनों ही तरफ़ उसकी तीक्ष्ण दृष्टि जाती है। स्त्री प्रतिरोध की कविता का सरोकार समाज में हर प्रकार के दमन के प्रतिरोध से जुड़ा है। स्त्री का जीवन समाज के हर धर्म जाति आदि जीवन पितृसत्ता के विष में डूबा हुआ है। इसलिए इस श्रृंखला में हम सभी इलाकों, तबकों और चौहद्दियों से आती हुई स्त्री कविता का स्वागत करेंगे। उम्मीद है कि स्त्री दर्पण की प्रतिरोधी स्त्री-कविता सर्व जग में उसी तरह प्रकाश से भरी हुई दिखेंगी जिस तरह से वह जग को प्रकाशवान बनाना चाहती है – बिना शोषण दमन या इस भावना से बने समाज की संरचना करना चाहती है जहां से पितृसत्ता अपने पूंजीवादी स्वरूप में विलुप्त हो चुकी होगी।
निर्मला पुतुल स्त्री प्रतिरोध श्रृंखला की हमारी पंद्रहवीं कवि हैं। इनकी कविताएं विद्रोह की ऐसी यादें लेकर अपने को प्रस्फुटित होने देती हैं जिनसे इनका हरापन बना रहता है। बिरसा मुंडा को आखिर ये कैसे भूल सकती हैं जिन्होंने आदिवासी जीवन की गरिमा और स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी। वही जीवन तो अब बिलाता जा रहा है। शहरी लोगों को इस जीवन का सब कुछ हेय लगता है, सिवाय इनकी स्त्रियों की गदराई देह के। निर्मला पुतुल की कविताओं में भी लोग “तलाशते हैं मेरी देह”, वो लिखती हैं। इनकी सब्जियों, फल, पुष्ट अनाज और मुर्गियों के अलावा इनको प्रताड़ित करने वालों को इनकी स्त्रियों का मांस भी चाहिए। निर्मला पुतुल की इन कविताओं को पढ़ते हुए हमारी अपनी ही अमानुषिकता का तीक्ष्ण अहसास होता है जो इनके हिस्से आई। ये कविताएं हमारी अंतरात्मा में छेद कर देती हैं। फिर भी अभी बहुत कुछ बचाने को बचा है, वो कहती हैं। लगभग अपनी पूरी उदारता खर्च कर इस मुहिम में सबको साथ आने को कहती हैं। ऐसी महत्वपूर्ण कविताओं को इस श्रृंखला में शामिल कर हमें अपनी ही सार्थकता महसूस होती है। नगाड़े की तरह बजती इन कविताओं को आप भी पढ़ें।
निर्मला पुतुल का परिचय :
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जन्म : 06 मार्च 1972 ई., दुधनी कुरूवा, जिला – दुमका (संताल परगना, झारखंड) शिक्षा : प्रारंभिक शिक्षा (दुमका), दुधनी कुरूवा एवं दुमका (जिला दुमका) से, स्नातक (राजनीति शास्त्र में प्रतिष्ठा), अन्य योग्यता : नर्सिंग में डिप्लोमा, भाषा ज्ञान : संताली, हिन्दी, नागपुरी, बांग्ला, खोरठा, भोजपुरी, अंगिका, अंग्रेजी। सम्प्रति : सचिव, जीवन रेखा, अपना पूरा समय लेखन, सामाजिक एवं शैक्षणिक कार्यों को समर्पित। ग्रामीण, पिछड़ी, दलित, आदिवासी, आदिम जनजाति महिलाओं के बीच शिक्षा एवं जागरूकता के लिए विशेष प्रयास।
साहित्यिक योगदान : मातृभाषा संताली (आदिवासी भाषा) में प्रकाशित पुस्तकें। लेखन, संकलन एवं संपादन। ईं×ााक् ओडाक् सेंदरा रे, (हिन्दी-संताली, रमणिका फाउण्डेशन, नई दिल्ली), ओनोंड़हें (संताली कविता संग्रह) शीघ्र प्रकाश्य। हिन्दी में प्रकाशित कविता-संग्रह: नगाड़े की तरह बजते शब्द (भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली), अपने घर की तलाश में (रमणिका फाउण्डेशन, नई दिल्ली), फूटेगा एक नया विद्रोह (शीघ्र प्रकाश्य)। पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ कविताओं व आलेखो का प्रकाशन। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन, रांची, भागलपुर व दिल्ली से अनेक कहानियाँ, कविताएँ और आलेखों का प्रसारण। एन.सी.ई.आर.टी, नई दिल्ली द्वारा झारखंड, बिहार, जम्मू-कश्मीर के ग्यारहवीं तथा एस.सी.ई.आर.टी.,केरल द्वारा नवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तक में कविताएं शामिल। अंग्रेजी, मराठी, उर्दू, उड़िया, कन्नड़, नागपुरी, पंजाबी, नेपाली में कविताएँ अनुदित। संपादन। स्थानीय व राष्ट्रीय स्तर के अनेक पत्र-पत्रिकाओं के संपादन, सह संपादन से संबद्ध।
सामाजिक क्षेत्र में भागीदारी, कार्य एवं संबद्धता।
सम्मान : साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा ‘साहित्य सम्मान’ 2001; झारखंड सरकार द्वारा ‘राजकीय सम्मान’, 2006; ‘मुकुट बिहारी सरोज स्मृति सम्मान’, ग्वालियर द्वारा, 2006; ‘भारत आदिवासी सम्मान’, मिजोरम सरकार द्वारा 2006; ‘विनोबा भावे सम्मान’ नगरी लिपि परिषद्, दिल्ली द्वारा 2006; ‘हेराल्ड सैमसन टोपनो स्मृति सम्मान’, झारखण्ड, 2006; ‘शिला सिद्धान्तकर स्मृति सम्मान’, नई दिल्ली, 2008; महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित, 2008; हिमाचल प्रदेश हिन्दी साहित्य अकादमी्, द्वारा सम्मानित, 2008; ‘राष्ट्रीय युवा पुरस्कार’, भारतीय भाषा परिषद्, कोलकत्ता द्वारा, 2009 म इत्यादि।
ऑडियो-विजुवल : जीवन पर आधरित फिल्म ‘बुरू-गारा’, जिसे 2010 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त हुआ।
निर्मल पुतुल की की कविताएं :
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1. अपने घर की तलाश में
अंदर समेटे पूरा का पूरा घर
मैं बिखरी हूँ पूरे घर में
पर यह घर मेरा नहीं है
बरामदे पर खेलते बच्चे मेरे हैं
घर के बाहर लगी नेम-प्लेट मेरे पति की है
मैं धरती नहीं पूरी धरती होती है मेरे अंदर
पर यह नहीं होती मेरे लिए
कहीं कोई घर नहीं होता मेरा
बल्कि मैं होती हूँ स्वयं एक घर
जहाँ रहते हैं लोग निर्लिप्त
गर्भ से लेकर बिस्तर तक के बीच
कई-कई रूपों में…
धरती के इस छोर से उस छोर तक
मुट्ठी भर सवाल लिए मैं
छोड़ती-हाँफती-भागती
तलाश रही हूँ सदियों से निरंतर
अपनी ज़मीन, अपना घर
अपने होने का अर्थ!
2. कुछ मत कहो सजोनी किस्कू
बस ! बस !! रहने दो !
कुछ मत कहो सजोनी किस्कू !
मैं जानती हूँ सब
जानती हूँ कि अपने गाँव बागजोरी की धरती पर
जब तुमने चलाया था हल
तब डोल उठा था
बस्ती के माँझी-थान में बैठे देवता का सिंहासन
गिर गई थी पुश्तैनी प्रधानी कुर्सी पर बैठे
मगजहीन ‘माँझी हाड़ाम’ की पगड़ी
पता है बस्ती की नाक बचाने ख़ातिर
तब बैल बनाकर हल में जोता था
ज़ालिमों ने तुम्हें
खूँटे में बाँधकर खिलाया था भूसा
वे भूल गए
सन्थाल-विद्रोह के समय
जब छोड़ गए थे तुम पर सारा घर-बार
तुम्हीं ने किए थे तब हल जोतने से लेकर
फसल काटने तक के सारे कार्य-व्यापार
तब नहीं गिरी थी उनकी पगड़ी
धरती नहीं पलती थी तब
कटी नहीं थी किसी की नाक
आज धनुष छूते ही तुम्हारे
धरती पलट जाएगी
मच जाएगा प्रलय सजोनी किस्कू
मत छूना धनुष !
घर चुऽ रहा है तो चूने दो
छप्पर छाने मत चढ़ना
‘जातीय टोटम’ के बहाने
पहाड़पुर की ‘प्यारी हेम्ब्रम’ की तरह
तुम्हारी मदद पाने वाला भी भी करेगा तुमसे जानवराना बलात्कार
और नाक-कान काट धकिया निकाल फेंकेगा घर से बाहर
हक की बात न करो मेरी बहन
मत माँगो पिता की सम्पत्ति पर अधिकार
ज़िक्र मत करो पत्थरों और जंगलों की अवैध कटाई का
सूदखोरों और ग्रामीण डॉक्टरों के लूट की चर्चा न करो बहन
मिहिजाम के गोआकोला की
‘सुबोधिनी मारण्डी’ की तरह तुम भी
अपने मगजहीन पति द्वारा
भरी पंचायत में डायन करार कर दण्डित की जाओगी
‘माँझी हाड़ाम’ ‘पराणिक’ ‘गुड़ित’ ठेकेदार, महाजन और
जान-गुरुओं के षड्यन्त्र का शिकार बन
इन गूँगे-बहरों की बस्ती में
किसे पुकार रही हो सजोनी किस्कू ?
कहाँ लगा रही हो गुहार ?
यहाँ तो जाहेर और माँझीथान के देवता भी
बिक जाते हैं बोतल भर दारू में
और फिर उन्हें स्वीकार भी तो नहीं है
तुम्हारे हाथों का चढ़ावा
देखो कहीं कोई सुन न ले तुम्हारी फुसफुसाहट
पड़ न जाए कहीं किसी ‘पराणिक’ की दृष्टि
गूँज उठे न बस्ती में ‘गुड़ित’ का हाँका
भरी पंचायत में सरेआम
नचा न दी जाओ नंगी ‘पकलू मराण्डी’ की तरह
बस रहने दो
कुछ मत कहो सजोनी किस्कू
सब जानती हूँ मैं ! सब जानती हूँ !! ।
3. वह जो अक्सर तुम्हारी पकड़ से छूट जाता है
एक स्त्री पहाड़ पर रो रही है
और दूसरी स्त्री
महल की तिमंजिली इमारत की खिड़की से बाहर
झांक कर मुस्कुरा रही है
ओ, कविगोष्ठी में स्त्रियों पर
कविता पढ़ रहे कवियों!
देखो कुछ हो रहा है
इन दो स्त्रियों के बीच छूटी हुई जगहों में,
इस कहीं कुछ हो रहे को दर्ज करो
कि वह अक्सर तुम्हारी पकड़ से छूट जाता है
एक स्त्री गा रही है
दूसरी रो रही है
और इन दोनों के बीच खड़ी एक तीसरी स्त्री
इन दोनों को बार-बार देखती कुछ सोच रही है
ओ, स्त्री विमर्श में शामिल लेखकों
क्या तुम बता सकते हो
यह तीसरी स्त्री क्या सोच रही है?
एक स्त्री पीठ पर बच्चा बांधे धान रोप रही है
दूसरी सरकार गिराने और बनाने में लगी है
ओ आदिवासी अस्मिता पर बात करने वाली
झंडाबरदार औरतों
इन पंक्तियों के बीच
गुम हो गयी उन औरतों का पता
जिनका नाम तुम्हारी बहस में शामिल नहीं है!
4. क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए
क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए…?
एक तकिया
कि कहीं से थका-मांदा आया और सिर टिका दिया
कोई खूँटी
कि ऊब, उदासी थकान से भरी कमीज़ उतारकर टाँग दी
या आँगन में तनी अरगनी
कि कपड़े लाद दिए
घर
कि सुबह निकला और शाम लौट आया
कोई डायरी
कि जब चाहा कुछ न कुछ लिख दिया
या ख़ामोशी-भरी दीवार
कि जब चाहा वहाँ कील ठोक दी
कोई गेंद
कि जब तब जैसे चाहा उछाल दी
या कोई चादर
कि जब जहाँ जैसे तैसे ओढ-बिछा ली
क्यूँ ? कहो, क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए ?
5. उतनी ही जनमेगी निर्मला पुतुल
यह तो लगी है आग
इस छोर से उस छोर तक
तुम्हारी व्यवस्था में
उसमें जल रही हूँ मैं
और रह-रहकर भड़क रही है
मेरे भीतर आग…
इसलिए चुप नहीं रहूँगी अब
उगलूँगी तुम्हारे विरुद्ध आग
तुम मना करोगे जितना
उतनी ही ज़ोर से चीख़ूँगी मैं
मुझे पता है
झल्लाकर उठाओगे पत्थर
और दे मारोगे सिर पर मेरे
पर याद रहे
नहीं टूटूँगी इस बार
बिखरूँगी नहीं तिनके की भाँति
तुम्हारे भय की आँधी से
अबकी फूटेगा नहीं मेरा सिर
चकनाचूर हो जाएँगे बल्कि
तुम्हारे हाथ के पत्थर
और अगर किसी तरह हारी इस बार भी
तो कर लो नोट दिमाग़ की डायरी में
आज की तारीख़ के साथ
कि गिरेंगी जितनी बूँदें लहू की धरती पर
उतनी ही जनमेगी निर्मला पुतुल
हवा में मुट्ठी-बँधे हाथ लहराते हुए!
6. ये वे लोग हैं जो …
ये वे लोग हैं जो
मुझे देख नाक-भौं-सिकोड़ते हैं
और अपनी गोरी चमड़ी से ढंके चलते हैं
अपना कालापन
ये वे लोग हैं जो दिन के उजाले में
मिलने से कतराते
और रात के अंधेरे में
मिलने का मांगते आमंत्रण
ये वे लोग हैं जो रात का लबादा ओढ़े
शहर के आखिरी छोर पर
गिरा अपने अंदर की सारी गंदगी
गंदला रहे हैं हमारी बस्तियां
ये वे लोग हैं जो खींचते हैं
हमारी नंगी-अधनंगी तस्वीरें
और संस्कृति के नाम पर
करते हमारी मिट्टी का सौदा
उतार रहे हैं बहस में हमारे ही कपड़े
ये वे लोग हैं जो
हमारे ही नाम पर लेकर
गटक जाते हैं हमारे हिस्से का समुद्र
ये वे लोग हैं जो मुंह पर
करते हैं मेरी बड़ाई
और पीठ-पीछे की फुसफुसाहटों में देते हैं
बदनाम, बदचलन औरत की संज्ञा
ये वे लोग हैं
जो हमारे बिस्तर पर करते हैं
हमारी बस्ती का बलात्कार
और हमारी ही जमीन पर खड़े हो
पूछते हैं हमारी औकात !
ये वे लोग हैं
जो मेरी कविताओं में भी तलाशते हैं
मेरी देह !
7. मेरा सब कुछ अप्रिय है उनकी नज़र में
वे घृणा करते हैं हमसे
हमारे कालेपन से
हँसते हैं, व्यंग्य करते हैं हम पर
हमारे अनगढ़पन पर कसते हैं फब्तियाँ
मज़ाक़ उड़ाते हैं हमारी भाषा का
हमारे चाल-चलन रीति-रिवाज
कुछ पसंद नहीं उन्हें
पसंद नहीं है, हमारा पहनावा-ओढ़ावा
जंगली, असभ्य, पिछड़ा कह
हिक़ारत से देखते हैं हमें
और अपने को सभ्य श्रेष्ठ समझ
नकारते हैं हमारी चीज़ों को
वे नहीं चाहते
हमारे हाथों का छुआ पानी पीना
हमारे हाथों का बना भोजन
सहज ग्राह्य नहीं होता उन्हें
वर्जित है उनके घरों में हमारा प्रवेश
वे नहीं चाहते सीखना
हमारे बीच रहते, हमारी भाषा
चाहते हैं, उनकी भाषा सीखें हम
और उन्हीं की भाषा में बात करें उनसे
उनका तर्क है कि
सभ्य होने के लिए ज़रूरी है उनकी भाषा सीखना
उनकी तरह बोलना-बतियाना
उठना-बैठना
ज़रूरी है सभ्य होने के लिए उनकी तरह पहनना-ओढ़ना
मेरा सब कुछ अप्रिय है उनकी नज़र में
अप्रिय है तो बस
मेरे पसीने से पुष्ट हुए अनाज के दाने
जंगल के फूल, फल, लकड़ियाँ
खेतों में उगी सब्ज़ियाँ
घर की मुर्गियाँ
उन्हें प्रिय है
मेरी गदराई देह
मेरा मांस प्रिय है उन्हें!
8. एक बार फिर
एक बार फिर
हम इकट्ठे होंगे
विशाल सभागार में
किराए की भीड़ के बीच
एक बार फिर
ऊँची नाक वाली
अधकटे ब्लाउज पहने महिलाएँ
करेंगी हमारे जुलुस का नेतृत्व
और प्रतिनिधित्व के नाम पर
मंचासीन होंगी सामने
एक बार फिर
किसी विशाल बैनर के तले
मंच से खड़ी माइक पर वे चीख़ेंगी
व्यवस्था के विरुद्ध
और हमारी तालियाँ बटोरते
हाथ उठा कर देंगी साथ होने का भरम
एक बार फिर
शब्दों के उड़न-खटोले पर बिठा
वे ले जाएँगी हमे संसद के गलियारों में
जहाँ पुरुषों के अहम से टकराएँगे हमारे मुद्दे
और चकनाचूर हो जाएँगे
उसमे निहित हमारे सपने
एक बार फिर
हमारी सभा को सम्बोधित करेंगे
माननीय मुख्यमंत्री
और हम गौरवान्वित होंगे हम पर
अपनी सभा में उनकी उपस्थिति से
एक बार फिर
बहस की तेज़ आँच पर पकेंगे नपुंसक विचार
और लिए जाएँगे दहेज़-हत्या, बलात्कार, यौन उत्पीडन
वेश्यावृत्ति के विरुद्ध मोर्चाबंदी कर
लड़ने के कई-कई संकल्प
एक बार फिर
अपनी ताक़त का सामूहिक प्रदर्शन करते
हम गुज़रेंगे शहर की गालियों से
पुरुष-सत्ता के खिलाफ़
हवा में मुट्ठी बाँधे हाथ लहराते
और हमारे उत्तेजक नारों की ऊष्मा से
गरम हो जाएगी शहर की हवा
एक बार फिर
सड़क के किनारे खडे मनचले सेकेंगे अपनी ऑंखें
और रोमांचित होकर बतियाएँगे आपस में कि
यार, शहर में बसंत उतर आया है
एक बार फिर
जहाँ शहर के व्यस्ततम चौराहे पर
इकट्ठे होकर हम लगाएँगे उत्तेजक नारे
वहीं दीवारों पर चिपके पोस्टरों में
ब्रा-पेंटी वाली सिने-तारिकाएँ
बेशर्मी से नायक की बाँहों में झूलती
दिखाएँगी हमें ठेंगा
धीर-धीरे ठंडी पड़ जाएगी भीतर की आग
और एक बार फिर
छितरा जाएँगे हम चौराहे से
अपने-अपने पति और बच्चों के
दफ़्तर व स्कूल से लौट आने की चिंता में
9. ….माँ के लिए, ससुराल जाने से पहले….
माँ !
चली जाऊँगी एक दिन छोड़कर
तुम्हारा घर आँगन
बरतुहारी जो कर आई हो
तुम
रस्सी में गांठ-सी
बाँध जो आई हो मेरी शादी की तिथि !
पर क्या सचमुच
जा सकूँगी पूरी की पूरी यहाँ से ?
आँगन में पड़े टूटे झाड़ू-सा
पड़ी रह जाऊँगी कुछ-न-कुछ यहाँ
बची रह जाऊँगी
गोहाल में गोबर फेंकने के डलिये में
सटे गोबर की तरह
पानी के खाली घड़े में
भरी रह जाएँगी मेरी यादें
जंगल से लाई लकड़ियों के गट्ठर में बँधी
रस्सी की तरह
बँधी रह जाऊँगी तुमसे
सोचती हूँ,
कौन दबाएगा अब तुम्हारे पाँव ?
थके-माँदे वापस लौटे बापू को
कौन देगा अगुवाकर लोटा भर पानी ?
कौन लाएगा जंगल से बीनकर लकड़ियाँ ?
गायों को चराने कौन ले जाएगा ?
प्यासा रह जाएगा घड़ा
खूँटे में बँधी बकरियाँ
मिमियाकर बुलाएंगी मुझे
और यह जो लगा रही हूँ पेड़
खिलेंगे एक दिन इसमें फूल
और मुरझा-मुरझाकर गिर जाएँगे
मेरे खोपे की आस में
तब क्या रोओगी नहीं मुझे याद कर ?
आधी रात को
बेर गाछ पर बैठे,
पंडुक चिड़िया-सी
कू-कू कुहुकोगी नहीं
मेरी याद में ?
बड़का भैया तो डूबा रहेगा हड़िया में
छोटका गुलेल लेकर पड़ा रहेगा
चिड़िया-चिरगुन के पीछे
बापू भी चला जाएगा खेत
तुम रह जाओगी निपट अकेली घर में
चटाइयाँ बुनती
और ऐसे में जब लगेगी प्यास
उठना चाहकर उठ नहीं पाओगी
बार-बार निहारोगी घड़े
झाँकोगी इधर-उधर
तब क्या याद नहीं आएगी मेरी ?
कहो न माँ,
याद नहीं आएगी मेरी ??……
10. आओ, मिलकर बचाएं
अपनी बस्तियों की
नगी होने से
शहर की आबो-हवा से बचाएँ उसे
अपने चहरे पर
सथिल परगान की माटी का रंग
बचाएँ डूबने से
पूरी की पूरी बस्ती को
हड़िया में
भाषा में झारखडीपन
ठडी होती दिनचय में
जीवन की गर्माहट
मन का हरापन
भोलापन दिल का
अक्खड़पन, जुझारूपन भी
भीतर की आग
धनुष की डोरी
तीर का नुकीलापन
कुल्हाड़ी की धार
जगंल की ताज हवा
नदियों की निर्मलता
पहाड़ों का मौन
गीतों की धुन
मिट्टी का सोंधाप
फसलों की लहलहाहट
नाचने के लिए खुला आँगन
गाने के लिए गीत
हँसने के लिए थोड़ी-सी खिलखिलाहट
रोने के लिए मुट्ठी भर एकात
बच्चों के लिए मैदान
पशुओं के लिए हरी-हरी घास
बूढ़ों के लिए पहाड़ों की शांति
और इस अविश्वास-भरे दौर में
थोड़ा-सा विश्वास
थोड़ी-सी उम्मीद
थोडे-से सपने
आओ, मिलकर बचाएँ
कि इस दौर में भी बचाने को
बहुत कुछ बचा हैं
अब भी हमारे पास!
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