प्रतिरोध की कविताएं
कवयित्री सविता सिंह
स्त्री दर्पण मंच पर मुक्तिबोध की स्मृति में ‘प्रतिरोध कविता श्रृंखला’ प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह द्वारा संयोजित किए जा रहे इस श्रृंखला में अब तक शुभा, शोभा सिंह, निर्मला गर्ग, कात्यायनी, अजंता देव, प्रज्ञा रावत, सविता सिंह, रजनी तिलक, निवेदिता, अनिता भारती, हेमलता महिश्वर, सुशीला टाकभौरे जैसी वरिष्ठ कवयित्रियों की कविताओं के साथ समकालीन कवयित्रियों वंदना टेटे, रीता दास राम, नीलेश रघुवंशी, निर्मला पुतुल, सीमा आज़ाद एवं कविता कृष्णपल्लवी की कविताएं प्रस्तुत की गई जिसे आप सभी ने पढ़ा।
आज मंच पर कवयित्री जसिंता केरकेट्टा की कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं।
“प्रतिरोध कविता श्रृंखला” पाठ – 18 में कवयित्री कविता कृष्णपल्लवी की कविताओं को आप पाठकों ने पढ़ा। आपके महत्वपूर्ण विचार व टिप्पणियों से सभी लाभान्वित हुए।
आज “प्रतिरोध कविता श्रृंखला” पाठ – 19 में कवयित्री जसिंता केरकेट्टा की कविताएं परिचय के साथ आप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की जा रही हैं।
पाठकों के सहयोग, स्नेह व प्रोत्साहन का सादर आभार व्यक्त करते हुए प्रतिक्रियाओं का इंतजार है।
– सविता सिंह
रीता दास राम
आज हिन्दी में स्त्री कविता अपने उस मुकाम पर है जहां एक विहंगम अवलोकन ज़रुरी जान पड़ता है। शायद ही कभी इस भाषा के इतिहास में इतनी श्रेष्ठ रचना एक साथ स्त्रियों द्वारा की गई। खासकर कविता की दुनिया तो अंतर्मुखी ही रही है। आज वह पत्र-पत्रिकाओं, किताबों और सोशल मिडिया, सभी जगह स्त्री के अंतस्थल से निसृत हो अपनी सुंदरता में पसरी हुई है, लेकिन कविता किसलिए लिखी जा रही है यह एक बड़ा सवाल है। क्या कविता वह काम कर रही है जो उसका अपना ध्येय होता है। समाज और व्यवस्थाओं की कुरूपता को बदलना और सुन्दर को रचना, ऐसा करने में ढेर सारा प्रतिरोध शामिल होता है। इसके लिए प्रज्ञा और साहस दोनों चाहिए और इससे भी ज्यादा भीतर की ईमानदारी। संघर्ष करना कविता जानती है और उन्हें भी प्रेरित करती है जो इसे रचते हैं। स्त्रियों की कविताओं में तो इसकी विशेष दरकार है। हम एक पितृसत्तात्मक समाज में जीते हैं जिसके अपने कला और सौंदर्य के आग्रह है और जिसके तल में स्त्री दमन के सिद्धांत हैं जो कभी सवाल के घेरे में नहीं आता। इसी चेतन-अवचेतन में रचाए गए हिंसात्मक दमन को कविता लक्ष्य करना चाहती है जब वह स्त्री के हाथों में चली आती है। हम स्त्री दर्पण के माध्यम से स्त्री कविता की उस धारा को प्रस्तुत करने जा रहे हैं जहां वह आपको प्रतिरोध करती, बोलती हुई नज़र आएंगी। इन कविताओं का प्रतिरोध नए ढंग से दिखेगा। इस प्रतिरोध का सौंदर्य आपको छूए बिना नहीं रह सकता। यहां समझने की बात यह है कि स्त्रियां अपने उस भूत और वर्तमान का भी प्रतिरोध करती हुई दिखेंगी जिनमें उनका ही एक हिस्सा इस सत्ता के सह-उत्पादन में लिप्त रहा है। आज स्त्री कविता इतनी सक्षम है कि वह दोनों तरफ अपने विरोधियों को लक्ष्य कर पा रही है। बाहर-भीतर दोनों ही तरफ़ उसकी तीक्ष्ण दृष्टि जाती है। स्त्री प्रतिरोध की कविता का सरोकार समाज में हर प्रकार के दमन के प्रतिरोध से जुड़ा है। स्त्री का जीवन समाज के हर धर्म जाति आदि जीवन पितृसत्ता के विष में डूबा हुआ है। इसलिए इस श्रृंखला में हम सभी इलाकों, तबकों और चौहद्दियों से आती हुई स्त्री कविता का स्वागत करेंगे। उम्मीद है कि स्त्री दर्पण की प्रतिरोधी स्त्री-कविता सर्व जग में उसी तरह प्रकाश से भरी हुई दिखेंगी जिस तरह से वह जग को प्रकाशवान बनाना चाहती है – बिना शोषण दमन या इस भावना से बने समाज की संरचना करना चाहती है जहां से पितृसत्ता अपने पूंजीवादी स्वरूप में विलुप्त हो चुकी होगी।
स्त्री प्रतिरोध कविता श्रृंखला में हमारी उन्नीसवीं कवि जसिंता केरकेट्टा हैं। इनकी कविताओं में आदिवासी जीवन को बचाने, उसे समझने और इसका सम्मान करने की बातें शिद्दत से कही जाती हैं। इनका एक मासूम सा सवाल है, यह देश जब जानवरों तक को बचाने के हैरतअंगेज कोशिशें करता तब वह आदिवासियों को ही क्यों हतता हैं। यह देश तब क्यों नरभक्षी बन जाता है। विकास के नाम पर पेड़ों की हत्याएं इस कवि को बेहद उदास कर जाती है। इनके सवालों में ही इतने सुलझे जवाब प्रस्तुत हैं कि ‘कोई यहीं से नई दुनिया के लिए शब्द उठा कर ले जा सकता है’ यानि कुछ ईंटें और मिट्टी। आदिवासी होना आखिर धरती के करीब होना ही तो है। इनकी बातें आज भी क्यों आदिवासी ही सुनता है, दूसरे क्यों नहीं। इसलिए ही तो ये पूछतीं है, आदिवासी क्यों न प्रतिरोध करे या फिर बताती है वह क्यों प्रतिरोध करता है। जसिंता आदिवासी जीवन में घुस आए पितृसत्तामक मूल्यों एवम हिंसा को भी कविता में लाती हैं और दिखाती हैं कैसे देवता भी स्त्री को नहीं बचाते। स्त्रियों के जीवन में जितने ही देवता हैं उतनी ही मार और यातनाएं हैं। इनकी मां ही इस बात की सबूत हैं। जीवन भर चुप रहीं, जिल्लत सहती रहीं, पिता की, भाई की, पूरे समाज की और देवताओं की संख्या बढ़तीं रही इनके जीवन में। इन महत्वपूर्ण कविताओं को आप भी पढ़ें।
जसिन्ता केरकेट्टा का परिचय :
————————————–
जसिंता केरकेट्टा झारखंड के उरांव आदिवासी समुदाय से हैं। स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं। हिंदी में कविताएं लिखती हैं। अब तक उनका दो कविता संग्रह प्रकाशित है। पहला कविता संग्रह “अंगोर” आदिवाणी , कोलकाता से और “जड़ों की ज़मीन” भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से प्रकाशित है। पहला संग्रह का अनुवाद संथाली, इंग्लिश, जर्मन, इतालवी, फ्रेंच में भी प्रकाशित है। तीसरा संग्रह “ईश्वर और बाज़ार” राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशाधीन है।
पिछले साल हार्वर्ड यूनिवर्सिटी, यू. एस में उसने कविता पाठ किया। और फ्रेंच दूतावास, नई दिल्ली व फ्रेंच इंस्टीट्यूट के संयुक्त सहयोग से फ्रांस के पेरिस शहर में कविताओं का पाठ और लोगों से संवाद किया है। साथ ही वह एशिया इंडिजिनश पीपुल्स पैक्ट, थाईलैंड द्वारा वायस ऑफ एशिया के रिकॉग्निशन अवॉर्ड से सम्मानित हैं।
जसिंता केरकेट्टा की कविताएं
————————————-
1. पहाड़ और प्यार
प्यार जीवन से कब निकल गया
और किसी सिनेमा ह१ल के
बड़े से पर्दे पर पसर गया
पता ही नहीं चला
अब उसे देखते हुए लोग
अपनी कल्पनाओं में प्रेम तलाशते हैं
पर प्रेम की जगह सिर्फ़ देह देख पाते हैं
और बाहर निकल
बच्चियों का बलात्कार करते हैं
जिन्हें लगा था कभी प्रेम हुआ है
वे भी नहीं जानते
वह प्रेम अब कहाँ रहता है
बिस्तर से उठने के बाद
क्यों देह ख़ाली-ख़ाली
मन भारी-भारी सा लगता है
और भीतर सिलवटों के सिवा
कुछ भी नहीं बचता है
कुछ लोग प्रेम के नाम पर
स्त्रियों का गला काट ले जाते हैं
कुछ गाय के प्रेम में पेड़ों पर
आदमियों को टाँग आते हैं
कुछ कथित देश प्रेम के नाम पर कहीं भी
किसी को भरी भीड़ में
मौत के घाट उतार देते हैं
इस तरह जानवर ईश्वर देश
सब प्रेम से इंसानों को मारने का
अंतहीन अभ्यास करते हैं
प्रेम इतना डरा हुआ है कि
अपनी जाति के भीतर छिपकर रहता है
वह भी जानता है
बाहर निकलते ही
किसी भी बहाने से मारा जाता है
ऐसे समय समाज के बीच भी
पहाड़ पर प्रेम कैसे साँस लेता है जीता है
पहाड़ का साँझ जवानी की दहलीज़ पर
क़दम रखते ही किसी दिन
धाँगड़ीबासा में घुस आता है
और स्त्री को सारी रात सुनता है
उसे धीरे-धीरे समझता है
और किसी भोर की तरह
उसके जीवन में उतरता है
आकाश के कैलेंडर पर दिन
ख़ुद की तारीख़ें बदलता है
और लड़की क्या चाहती है
दिन चढ़ने तक इसका इंतज़ार करता है
जब इंतज़ार की रातें ख़तम होती हैं
तब वह मनुहार दुलार और प्यार की बात करता है
पहाड़ स्त्री के नाम की गालियाँ नहीं जानता
वह ग़लत आदमी को ग़लत
झूठ बोलने वाले को झूठा
बेईमानी करने वालों को बेईमान
हत्या करने वाले को हत्यारा कहता है
सजा सुनाता है दंडित करता है
समाज से बहिष्कृत करता है
पर पुरुषों के सारे कुकर्मों के लिए
स्त्री योनि को दोषी नहीं ठहराता
पहाड़ पर साथ चलते-चलते
एक दूसरे को सुनते-सुनते
साथ काम करते-करते
जब आने लगता है भीतर
दो इंसानों के एक होने का भाव
तब एक साथ वे कह उठते हैं
”हाँ यही तो है प्यार“
फिर पहाड़ और जीवन के लिए
प्यार के साथ बढ़ जाती है उनकी परवाह
पहाड़ बतलाता है
आदमी अकेला आया है अकेला जाएगा
सिर्फ़ प्यार ही अकेले आदमी को साथ लाता है
उनके साथ आने से जीवन साँस लेता है
इस तरह पहाड़ पर प्यार ज़िंदा रहता है।
2. स्त्रियों का ईश्वर
पिता और भाई की हिंसा से
बचने के लिए मैंने बचपन में ही
माँ के ईश्वर को कसकर पकड़ लिया
अब कभी किसी बात को लेकर
भाई का उठा हाथ रुक जाता
तो वह सबसे बड़ा चमत्कार होता
धीरे-धीरे हर हिंसा हमारे लिए
ईश्वर द्वारा ली जा रही परीक्षा बन गई
और दिन के बदलने की उम्मीद
बचे रहने की ताक़त
मैं ईश्वर के सहारे जीती रही
और माँ ईश्वर के भरोसे मार खाती रही
मैं बड़ी होने लगी
और माँ बूढ़ी होने लगी
हम दोनों के पास अब भी वही ईश्वर था
माँ की मेहनत का हिस्सा
अब भी भाई छीन ले जाता
और शाम होते ही पिता
पीकर उसपर चिल्लाते
वे कभी नहीं बदले
न माँ के दिन कभी सुधरे
मैंने ऐसे ईश्वर को विदा किया
और ख़ुद से पूछा
सबके हिस्से का ईश्वर
स्त्रियों के हिस्से में क्यों आ जाता है?
क्यों उसके पास सबसे ज्य़ादा ईश्वर हंै
और उनमें से एक भी काम का नहीं?
वह जीवन भर सबको नियमित पूजती है
फिर पूजे जाने और हिंसा सहने के लिए
ताउम्र बुत बनकर क्यों खड़ी रहती है?
3. आदिवासी लड़कियां
किसी आदिवासी गाँव से गुज़रती कविता में
कुछ लोग ढूँढ रहे हैं
नदी में नहाती किसी आदिवासी स्त्री की नंगी पीठ
एक कपड़े में लपेट अपनी पूरी देह
भीगी-भीगी सी घर लौटती कोई जवान लड़की
कुछ ढूँढ रहे कविता में अब गोटुल
धुमकुड़िया गितिः-ओड़ा
और आग के इर्द-गिर्द रातभर नाचते लोग
पीली रोशनी में सोने सा चमकता सीना
और चिंगारी सी कोई अल्हड़ हँसी
सुबह चुप सी दीवार के पीछे
डरी लड़की की बाहर झाँकती दो आँखें
जो किसी अजनबी को देख
घुस जाती हैं घर के अंदर
जब वह धीरे-धीरे निकलती है
हँसती है बतियाती है
और बात-बात में हँसते हुए
उसका कंधा छू लेती है
तब वह समझता है
बहुत सस्ती है यह सहजता
और पलटकर फेरने लगता है
अपनी अँगुलियाँ उसकी पीठ पर
सालों बाद भी अपनी भूखी नींद में
वह ढूँढता है उस लड़की की पीठ
बात-बात पर कंधा छू लेते उसके हाथ
कोई अल्हड़पन
कोई सहजता
जिसे वह हमेशा सस्ती ही रहा समझता
नींद से जाग वह चकराता है
अब किसी कविता में उसे
ऐसी कोई लड़की नहीं मिलती
कविता चलाती है उसकी पीठ पर हँसिया
तोड़ देती है उसकी गंदी अँगुलियाँ
और चीख़ती है
बंद करो कविता में ढूँढना आदिवासी लड़कियाँ।
4. मेरा आदिवासी होना
ना साड़ी, ना खोपा
ना गोदना, ना गहना
कुछ भी नहीं पहनती
फिर कैसी आदिवासी हो तुम?
अक्सर लोग पूछते हैं मुझसे
पर मैं उनसे कहना चाहती हूं
धरती के क़रीब रहना ही आदिवासी होना है
प्रकृति के साथ चलना ही आदिवासी होना है
नदी की तरह बहना
और सहज रहना ही आदिवासी होना है
भीतर और बाहर हर बंधन के ख़िलाफ़
लड़ना ही आदिवासी होना है
और अपने सुंदर होने के सारे चिन्हों के साथ
ज्यादा मनुष्य होना ही आदिवासी होना है
पर किसी के मन में सिर्फ़ रह गया हो
कोई गहना, गोदना
और कोई नहीं समझ पाता हो
क्या होता है आदिवासी होना
तो मैं चाहती हूं बदले समय में नए सिरे से
प्रतीकों में फंस गए हर भ्रम को तोड़ देना
इसी आदिवासियत के साथ बचा रह सकता है
धरती पर किसी का आदिवासी होना ।।
5. आदिवासी क्यों प्रतिरोध करता है?
अगर कोई यह कहता है
कि आदिवासी इस देश में सिर्फ़ प्रतिरोध करता है
तो हां वह प्रतिरोध करता है
इसलिए नहीं कि प्रतिरोध करना उसकी आदत है
इसलिए कि उसका हक जो छीन लिया गया
इसी देश के विकास के नाम पर
उस देश में वह सिर्फ़ अपना हिस्सा चाहता है
ज्यादा कुछ नहीं मांगता है
आदिवासी इस देश से कुछ पूछता है
इसलिए नहीं कि उसे सिर्फ़ सवाल पूछना आता है
इसलिए कि सिर्फ़ उसी से कोई नहीं पूछता
कि वह क्या चाहता है
अब अगर यह देश समझता है
कि आदिवासी इस देश का विकास नहीं चाहता
इसलिए प्रतिरोध करता है
सत्ता के खिलाफ रहता है
तो यह समझना चाहिए
कि यह देश अपने लोगों को
सीधे-सीधे और साफ़-साफ़ यह नहीं बताता
कि विध्वंश को विकास बताने वाला यह देश
शाकाहार बचाए रखने वाला यह देश
पेड़ और पशु की पूजा करने वाला यह देश
जब आदिवासियों की बली चढ़ाने आता है
उनको जिबह करने से ठीक पहले
खुद जबरन अंधा और बहरा बन जाता है
ताकि उसे किसी की आवाज़ सुनाई ना दे
बोलता हुआ कोई आदिवासी दिखाई ना दे
ऐसे अंधे और बहरे देश में
ऐसे नरभक्षी देश में
अगर कोई आदिवासी
अपने जीवित रहने के हक के लिए लड़ता है
तो क्या ग़लत करता है ?
6. समय की सबसे सुंदर तस्वीर
इस समाज में
पुरुष के भीतर के स्त्रीत्व की हत्या
बचपन से ही धीरे-धीरे की जाती है
उसके भीतर की स्त्री भी
एक दिन भागकर
किसी विश्वविद्यालय में ही बच पाती है
विश्वविद्यालय में ही युवा
इतिहास, भूगोल, गणित पढ़ते हुए
सीखते हैं समाज बदलना
और अपने ही नहीं
दूसरों के हक़ के लिए भी घर से निकलना
वे धीरे-धीरे पुरुष से मनुष्य होना सीखते हैं
और साथ संघर्ष करती स्त्रियों को भी
देह से ज्य़ादा जानने, समझने लगते हैं
विश्वविद्यालय के युवा
आदमी के हक़ की आवाज़ उठाते हैं
व्यवस्था के लिए किसी आदमी को
मशीन भर हो जाने से बचाते हैं
लाश बनकर घर से दफ़्तर
और दफ़्तर से घर लौटते आदमी को
ज़िंदा होने की वजह बताते हैं
एक आत्मा विहीन समाज
जो पुरुषों को स्त्रियों से
सामूहिक दुष्कर्म करना सिखाता है
और उसकी हर हत्या पर
चुप्पी साधे रहता है
जहाँ सदियों से यही रीति चलती है
उसी समाज के किसी विश्वविद्यालय में
साथ पढ़ती, लड़ती स्त्रियाँ
घेरकर एक पुरुष को
पुलिस के निर्मम डंडों से बचाती हैं
विश्वविद्यालय ही पेश कर सकता है
किसी समाज को बेहतर बनाने की नज़ीर
विश्वविद्यालय से ही निकल सकती हैं
इस धरती को सुंदर बनाने वाली
समय की सबसे सुंदर तस्वीर।
7. मारे जाने के लिए
हथियारबंद पुलिस को जंगल में देख
गांव के निहत्थे लोग भागने लगे
पुलिस ने कहा रुको, पर वे नहीं रुके
वे शहर की भाषा नहीं समझते थे
पुलिस ने झुंझलाकर गोली चला दी
और कुछ लोग मारे गए
पुलिस जंगल की भाषा नहीं समझती
आदिवासी पुलिस की भाषा नहीं समझते
उस दिन बच गए गांव के लोगों ने सोचा
वे अपने बच्चों को शहर की भाषा सिखाएंगे
ताकि वे मारे जाने से बच जाएंगे
जंगल में फिर हथियारबंद पुलिस आई
उनकी भाषा समझने वाले लोगों ने
उन्हें देखकर पहले सवाल किया
पर इस तरह सवाल करने पर वे
बंदूक की बट से फिर मारे गए
कुछ ने उनके सवालों का जवाब दिया
पर वे उनके मनमाफिक जवाब नहीं दे सके
वे नहीं जानते कि किस आरोप में वे जेल गए
कोई भी भाषा जंगल के आदमी को
किसी भी अत्याचार से क्यों बचा नहीं पाती?
वे दिन-रात यही सोचते हैं
पर आज वे समझते हैं
दरअसल शहर की भाषा जानना या नहीं जानना
जंगल में बचे रहने की शर्त नहीं है
जंगल के लोगों के मारे जाने के लिए
जंगल में उनका होना भर काफ़ी है
जैसे दुनिया के किसी भी कोने में
किस्तों में मारे जाने के लिए
एक आदिवासी का
आदिवासी होना भर काफ़ी है
जैसे अमेरिका में बच गए
विस्थापित नेटिव अमेरिकन के मारे जाने
या आजीवन जेल में होने के लिए
उनका नेटिव होना भर काफ़ी है
जैसे काले लोगों के मारे जाने के लिए
उनका काला होना भर काफ़ी है।।
8. परवाह
मां
एक बोझा लकड़ी के लिए
क्यों दिन-भर जंगल छानती
पहाड़ लांघती
देर शाम घर लौटती हो?
मां कहती है —
जंगल छानती
पहाड़ लांघती
दिनभर भटकती हूं
सिर्फ़ सूखी लकड़ियों के लिए।
कहीं काट न दूं कोई ज़िंदा पेड़!
9. उससे मेरा संबंध क्या था?
वो आम का पेड़
ठीक यहीं था सड़क किनारे
जहाँ से मुझे हर दिन
बस पकड़नी होती
बस जब तक पहँुचती नहीं
वह मुझे तंग करता
पहले मेरी ओर एक आम फेंकता
मैं ख़ुश होकर जैसे ही दाँत गड़ाती
“ये तो थोड़े खट्टे है” ग़ुस्से में बोलती
वह हँसता
तुम बस में सोती रहती हो न!
यह नींद भगाने के लिए था
अच्छा अब मीठे आम गिराता हँू
सच्ची में!
और तब तक बस आ जाती
उस दिन बस पकड़ने सड़क पर पहँुची
वह ग़ायब था
सालों से मेरा ठीक यही इंतज़ार करता
वह आम का पेड़
कहाँ जा सकता है भला?
दूसरे दिन अख़बार में पढ़ी
उसके मारे जाने की ख़बर
मैं उस दिन ख़ूब रोयी
जैसे मारा गया हो कोई घर का अपना
मैं उस दिन सोई नहीं रात भर
कैसे काट दिया गया वह यही सोच कर
दूसरे दिन दौड़ी उधर
सोचा उसकी गंध समेट ले आऊँगी
अपने आँगन में रोप दूँगी
उसकी गंध बढ़ेगी
तब मैं उसकी गंध लेकर
घर से निकलूँगी
लौटूँगी जब उसकी गंध को
आँगन में खड़ी पाऊँगी
मगर मेरे सपने टूट गए
धूल का बवंडर जब हँसने लगा मुझपर
देखा मेरे आम के पेड़ की गंध
धूल के बवंडर से लड़ रही थी
बिल्कुल गुत्थमगुत्था
मैं भागी थाने की ओर
यह रपट लिखवाने कि
मेरे साथी की हत्या हुई है
थाना ठहाके लगा कर हँसने लगा
डंडा दिखाता हुआ बोला
पहले तू बता
तेरा उसके साथ संबंध क्या था?
मैं आज तक दर दर भटक रही
यही बताने के लिए कि
उसके साथ मेरा संबंध क्या था
मगर वहाँ कोई नहीं अब
ग़ायब हो चुका है सब
अब सिर्फ़ दूर दूर तक धूल उड़ाती
चैड़ी सपाट सड़कें भर हैं।
10. मैं देशहित में क्या सोचता हूं
मैं एक साधारण सा आदमी हूं
व्यवसाय करता हूं
रोज अपने फ्लैट से निकलता हूं
और देर रात फ्लैट में घुसता हूं
बाहर पहरा बिठाए रखता हूं
टीवी देखता हुआ सोचता हूं
कश्मीर में सभी भारतीय क्यों नहीं घुस सकते ?
अच्छा हुआ सरकार ने 370 हटा दिया
और ये आदिवासी इलाके?
ये क्या बाहरी-भीतरी लगाए रखते हैं?
वहां भी सभी भारतीय क्यों बस नहीं सकते?
मैं तो दलितों को जाहिल
और आदिवासियों को जानवर समझता हूं
मुस्लिम और ईसाई को देशद्रोही
और इस देश से इन सबकी सफ़ाई चाहता हूं
मैंने कभी जीवन में
गांव नहीं देखे, बस्ती नहीं देखी
झुग्गी नहीं देखे, जंगल नहीं देखे
मैं किसी को भी ठीक से जानता नहीं
मुठ्ठी भर लोगों को जानता-पहचानता हूं
जिन्हें मैं भारतीय मानता हूं
और चाहता हूं
ये भारतीय हर जगह घुसें
और सारे संसाधनों पर कब्ज़ा करें
देशहित में यही सोचता हुआ
अपनी फ्लैट में घुसता हूं
बाहर पहरा बिठाए रखता हूं
मेरे सुकून और स्वतंत्रता में दख़ल देने
यहां कोई घुस न पाए
इस बात का पूरा ध्यान रखता हूं ।।