स्त्री दर्पण मंच पर प्रतिरोध की कविताओं की श्रृंखला का शुभारंभ हो चुका है। जिसका संयोजन ख्यात कवयित्री सविता सिंह जी कर रही हैं। महत्वपूर्ण टिप्पणियों के साथ सविता जी के उदबोधन और पहली कवयित्री शुभा जी की कविता आप पाठकों के लिए प्रस्तुत है।
सविता सिंह –
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आज हिन्दी में स्त्री कविता अपने उस मुकाम पर है जहां एक विहंगम अवलोकन ज़रुरी जान पड़ता है। शायद ही कभी इस भाषा के इतिहास में इतनी श्रेष्ठ रचना एक साथ स्त्रियों द्वारा की गई। खासकर कविता की दुनिया तो अंतर्मुखी ही रही है। आज वह पत्र-पत्रिकाओं, किताबों और सोशल मिडिया, सभी जगह स्त्री के अंतस्थल से निसृत हो अपनी सुंदरता में पसरी हुई है, लेकिन कविता किसलिए लिखी जा रही है यह एक बड़ा सवाल है। क्या कविता वह काम कर रही है जो उसका अपना ध्येय होता है। समाज और व्यवस्थाओं की कुरूपता को बदलना और सुन्दर को रचना, ऐसा करने में ढेर सारा प्रतिरोध शामिल होता है। इसके लिए प्रज्ञा और साहस दोनों चाहिए और इससे भी ज्यादा भीतर की ईमानदारी। संघर्ष करना कविता जानती है और उन्हें भी प्रेरित करती है जो इसे रचते हैं। स्त्रियों की कविताओं में तो इसकी विशेष दरकार है। हम एक पितृसत्तात्मक समाज में जीते हैं जिसके अपने कला और सौंदर्य के आग्रह है और जिसके तल में स्त्री दमन के सिद्धांत हैं जो कभी सवाल के घेरे में नहीं आता। इसी चेतन-अवचेतन में रचाए गए हिंसात्मक दमन को कविता लक्ष्य करना चाहती है जब वह स्त्री के हाथों में चली आती है। हम स्त्री दर्पण के माध्यम से स्त्री कविता की उस धारा को प्रस्तुत करने जा रहे हैं जहां वह आपको प्रतिरोध करती, बोलती हुई नज़र आएंगी। इन कविताओं का प्रतिरोध नए ढंग से दिखेगा। इस प्रतिरोध का सौंदर्य आपको छूए बिना नहीं रह सकता। यहां समझने की बात यह है कि स्त्रियां अपने उस भूत और वर्तमान का भी प्रतिरोध करती हुई दिखेंगी जिनमें उनका ही एक हिस्सा इस सत्ता के सह-उत्पादन में लिप्त रहा है। आज स्त्री कविता इतनी सक्षम है कि वह दोनों तरफ अपने विरोधियों को लक्ष्य कर पा रही है। बाहर-भीतर दोनों ही तरफ़ उसकी तीक्ष्ण दृष्टि जाती है। स्त्री प्रतिरोध की कविता का सरोकार समाज में हर प्रकार के दमन के प्रतिरोध से जुड़ा है। स्त्री का जीवन समाज के हर धर्म, जाति, आदि-जीवन पितृसत्ता के विष में डूबा हुआ है। इसलिए इस श्रृंखला में हम सभी इलाकों, तबकों और चौहद्दियों से आती हुई स्त्री कविता का स्वागत करेंगे। उम्मीद है कि स्त्री दर्पण की प्रतिरोधी स्त्री-कविता सर्व जग में उसी तरह प्रकाश से भरी हुई दिखेंगी जिस तरह से वह जग को प्रकाशवान बनाना चाहती है – बिना शोषण दमन या इस भावना से बने समाज की संरचना करना चाहती है जहां से पितृसत्ता अपने पूंजीवादी स्वरूप में विलुप्त हो चुकी होगी। इस श्रृंखला में पहली कविता शुभा जी की विशेष कर जा रही है, वही शुभा जिन्होंने आज़ तक अपना एक संकलन भी नहीं प्रकाशित करवाया, लेकिन जिनकी कविताएं हमारी आदमख़ोर सभ्यता की सम्यक आलोचना के साथ हमें झिंझोड़ती रही है। अपने संघर्षमय जीवन की कविताओं से कुछ मोती उन्होंने हमें दिया हैं जिनसे हम एक माला बनाने जा रही हैं। प्रस्तुत है शुभा जी की दस कविताएं –
शुभा जी का परिचय –
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आठवें दशक की प्रमुख कवयित्री शुभा राजनीतिक रूप से सक्रिय रही हैं और जमीनी स्तर पर जुड़ी रही हैं।
6 सितंबर 1953 को अलीगढ़ में जन्मी शुभा ने ‘अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी’ से पढ़ाई के बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से ‘मुक्तिबोध के विचारों और काव्य पर पीएचडी की।
हरियाणा के सांपला के राजकीय महिला विद्यालय में आप प्राचार्या के पद से सेवानिवृत्त हुईं। आप ‘सर्च’ – राज्य संसाधन केंद्र, हरियाणा और ‘भारत ज्ञान विज्ञान समिति’ से जुड़ी रही। ‘पहल’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘वर्तमान साहित्य’, ‘कथन’, ‘नया पथ’, ‘शुक्रवार’, ‘नई दुनिया’ आदि प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित हैं। उनका कविता संग्रह अभी बहुप्रतीक्षित है।
शुभा ‘एडवा’ नामक महिला संगठन की स्थापकों रही हैं। हरियाणा में विभिन्न नाट्य-मंडलियों का गठन कर उन्होंने गांवों में हाशिए पर खड़े दलितों, वंचितों एवं स्त्रियों में नवचेतना भरने का कार्य भी किया।
शुभा की कविताएं
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1 सहजात
दुख मुझसे पहले बैठा था
मां के गर्भ में
हम साथ-साथ पैदा हुए
वह मुझसे बड़ा था।
2 एक ख़याल
वह टीला वहीं होगा
झड़बेरियां उसपर चढ़ जमने की कोशिश में होंगी
चींटियां अपने अंडे लिए बिलों की ओर जा रही होंगी
हरा टिड्डा भी मुट्ठी भर घास पर बैठा होगा कुछ सोचता हुआ
दोपहर को और सफेद बना रही होगी आसमान में पांव ठहराकर उड़ती हुई चील
कीकर के पेड़ों से ज़रा आगे रुकी खड़ी होगी उनकी परछांई
कव्वे प्यासे बैठे होंगे और भी सभी होंगे वहां
ऐसे उठंग पत्थर जैसे कोई सभा कर रहे हों
हवा आराम कर रही होगी शीशम की पत्तियों में छिपी
हो सकता है ये सब मेरी स्मृति में ही बचा हो
यह भी हो सकता है मेरी स्मृति न रहे
और ये सब ऐसे ही बने रहें।
3 अतिमानवीय दुख
इतना दुख आंसुओं से नहीं उठाया जाता
वे हार गए कब के
चीख़ इसे और वीभत्स बनाती है
गुस्सा तो सिर्फ़ राख पैदा करता है
कुछ देर इसे ख़ामोशी ने उठाया
कभी उठाया कविता ने
विचार ने उठाया इसे
इसे उठाया दोस्तों ने
मिलकर गीत गाते हुए
काम्युनिस्ट पार्टियां बिखरीं
कितनी बार इसे उठाते हुए
इसे उठाने के लिए
कुछ और चाहिए
इन सबके साथ
उठाने का कोई नया ढब
इतिहास ने इसे उठाया कभी-कभी
अब इसकी चिन्दियां बिखरी हैं
इन्हें बच्चे उठा रहे हैं
यह पहुंच रहा है प्रकृति तक
तूफ़ान और कन्दराएं
उठायेंगी इसका बोझ
अगर धरती इसे न उठा सकी
अन्तरिक्ष में नाचेंगी इसकी चिन्दियां।
4 संवाद
इस दुनिया का सबसे आसान काम रहा है
या यूं कहिये कि सबसे मुश्किल
असल में सबसे आसान काम ही
सबसे मुश्किल होते हैं
आसान काम होता है ऐसे
जैसे ख़ुद हो रहा हो
और जब वह ख़ुद नहीं होता
तो वह सबसे मुश्किल काम होता है
वसंत में संवाद चलता है
हर ज़र्रे के बीच
जितनी कोपलें उतनी भाषा
जितनी तितलियां उतने नृत्य
जितनी ओस उतनी किरणें
कुछ कम नहीं होता
कुछ ज़्यादा नहीं होता
जैसे सब अपने आप होता है
सब अपने आप होता है
इसका मतलब न होना नहीं है
इसका मतलब साथ होना है
जड़ें ज़मीन में चलती हैं
कोंपलें आसमान में
गहराई और ऊंचाई
एक ही दिशा होती है
कैसे बनती है एक ही दिशा
जिसमें होती हैं उतनी ही भाषाएं
जितनी होती है चिडियाएं
जितनी चींटियां
उतने ही सांप
गिनती में नहीं अनुपात में।
5 गैंगरेप
लिंग का सामूहिक प्रदर्शन
जिसे हम गैंगरेप कहते हैं
बाकायदा टीम बनाकर
टीम भावना के साथ अंजाम दिया जाता है
एकांत में स्त्री के साथ
ज़ोर जबरदस्ती तो ख़ैर
सभ्यता का हिस्सा रहा है
युद्धों और दुश्मनियों के संदर्भ में
वीरता दिखाने के लिए भी
बलात्कार एक हथियार रहा है
मगर ये नई बात है
लगभग बिना बात
लिंग का हिंसक प्रदर्शन
लिंगधारी जब उठते बैठते हैं
तो भी ऐसा लगता है
जैसे वे लिंग का प्रदर्शन करना चाहते हैं
खुजली जैसे बहानों के साथ भी
वे ऐसा व्यापक पैमाने पर करते हैं
मां बहन की गालियां देते हुए भी
वे लिंग पर इतरा रहे होते हैं
आखिर लिंग देखकर ही
माता-पिता थाली बजाने लगते हैं
दाईयां नाचने लगती हैं
लोग मिठाई के लिए मुहं फाड़े आने लगते हैं
ये ज्यादा पुरानी बात नही है
जब फ्रायड महाशय
लिंग पर इतने मुग्ध हुए
कि वे एक पेचीदा संरचना
को समझ नही सके
लिंग के रूप पर मुग्ध
वे उसी तरह नाचने लगे
जैसे हमारी दाईयां नाचती हैं
पूंजी और सर्वसत्ताओं के मेल से
परिमाण और ताकत में गठजोड़ हो गया
ज़ाहिर है गुणवत्ता का मेल
सत्ताविहीन और वंचित से होना था
हमारे शास्त्र, पुराण, महान धार्मिक कर्मकाण्ड, मनोविज्ञान
मिठाई और नाते रिश्तों के योग से
लिंग इस तरह स्थापित हुआ
जैसे सर्वशक्तिमान सृष्टिकर्ता
आश्चर्य नही कि मां की स्तुतियां
कई बार लिंग के यशोगान की तरह सुनाई पड़ती है
लिंग का हिंसक प्रदर्शन
उस समय ज़रूरी हो जाता है
जब लिंगधारी का प्रभामण्डल ध्वस्त हो रहा हो
योनि, गर्भाशय-अण्डाशय, स्तन, दूध की ग्रंथियों
और विवेक सम्मत शरीर के साथ
गुणात्मक रूप से अलग मनुष्य
जब नागरिक समाज में प्रवेश करता है
तो वह एक चुनौती है
लिंग की आकृति पर मुग्ध
विवेकहीन लिंगधारी सामूहिक रूप में अपना
डगमगाता वर्चस्व जमाना चाहता है।
6 भविष्य की ओर
बच्चे जहरीली गैस से अच्छी तरह
नीले पड़ गए हैं
उनपर रोग के जीवाणुओं की बारिश भी की गई है मिसाईलों से
पहले वे भीख मांग रहे थे
उन्होने बाल मजदूर बने रहने की भी कोशिश की
सैक्स बाजार में वे धीमे सुर में रोए
रिफ्यूजी कैम्प में वे सर्दी से
अधमरे हो गए और बस हल्के से कुनमुनाए
भूख से मरते हुए वे चुप रहे
उन्होंने कुछ कहा नहीं
उनकी मासूमियत
किसी काम न आई
पंखुड़ियों जैसे दिल
एक धमाके से खून में गर्क़ हो गए
रात को सोते हुए वे
बारूद से ढके हैं अच्छी तरह
वे हमारा भविष्य हैं।
7 असहाय
कभी फेफड़े भर जाते हैं
गूंगे दुख से
दिल का कहीं पता नहीं मिलता
भ्रम की पीठ दिखाई देती है
चेहरा नहीं।
8 दिलरूबा के सुर
हमारे कन्धे इस तरह बच्चों को उठाने के लिए
नहीं बन हैं
क्या यह बच्चा इसलिए पैदा हुआ था
तेरह साल की उम्र में गोली खाने के लिए
क्या बच्चे अस्पताल जेल और क़ब्र के लिए बने हैं
क्या वे अन्धे होने के लिए बने हैं
अपने दरिया का पानी उनके लिए बहुत था
अपने पेड़ घास-पत्तियां और साथ के बच्चे उनके लिए बहुत थे
छोटा-मोटा स्कूल उनके लिए बहुत था
ज़रा सा सालन और चावल उनके लिए बहुत था
आस-पास के बुज़ुर्ग और मामूली लोग उनके लिए बहुत थे
वे अपनी मां के साथ फूल पत्ते लकड़ियां चुनते अपना जीवन बिता देते
मेंमनो के साथ हंसते खेलते
वे अपनी ज़मीन पर थे
अपनों के सुख-दुख में थे
तुम बीच में कौन हो
सारे क़रार तोड़ने वाले
शेख़ को जेल में डालने वाले
गोलियां चलाने वाले
तुम बीच में कौन हो
हमारे बच्चे बाग़ी हो गए
न कोई ट्रेनिंग न हथियार
वे ख़ाली हाथ तुम्हारी ओर आए
तुमने उन पर छर्रे बरसाए
अन्धे होते हुए उन्होंने पत्थर उठाए जो
अनके ही ख़ू और आंसुओं से तर थे
सारे क़रार तोड़ने वालों
गोलियों और छर्रों की
बरसात करने वालों
दरिया बच्चों की ओर है
उगना और बढ़ना
हवाएं और पतझड़
जाड़ा और बारिश
सब बच्चों की ओर है
बच्चे अपनी कांगड़ी नहीं छोड़ेंगे
मां का दामन नहीं छोड़ेंगे
बच्चे सब इधर हैं
क़रार तोड़ने वालों
सारे क़रार बीच में रखे जाएंगे
बच्चों के नाम उनके खिलौने
बीच में रखे जाएंगे
औरतों के फटे दामन
बीच में रखे जाएंगे
मारे गए लोगों की बेगुनाही
बीच में रखी जाएगी
हमें वजूद में लाने वाली धरती
बीच में रखी जाएगी
मुक़द्मा तो चलेगा
शिनाख्त तो होगी
हश्र तो यहां पर उट्ठेगा
स्कूल बंद है
शादियों के शामियाने उखड़े पड़े हैं
ईद पर मातम है
बच्चों को क़ब्रिस्तान ले जाते लोग
गर्दन झुकाए हैं
उन पर छर्रों और गोलियों की बरसात है।
9 आदमखोर
1
आदमखोर उठा लेता है
छह साल की बच्ची
लहूलुहान कर देता है उसे
अपना लिंग पोछता है
और घर पहुँच जाता है
मुँह हाथ धोता है और
खाना खाता है
रहता है बिलकुल शरीफ़ आदमी की तरह
शरीफ़ आदमी को भी लगता है
बिलकुल शरीफ़ आदमी की तरह।
2
एक स्त्री बात करने की कोशिश कर रही है
तुम उसका चेहरा अलग कर देते हो धड़ से
तुम उसकी छातियाँ अलग कर देते हो
तुम उसकी जाँघें अलग कर देते हो
तुम एकांत में करते हो आहार
आदमखोर तुम इसे हिंसा नहीं मानते।
10 सौभाग्य
एकमुश्त
शरीर का दर्द महसूस करना
जैसे घर लौटना हुआ
आत्मा की उदासी देखना
जैसे प्रियजन से मिलना हुआ।
– शुभा