प्रतिरोध की कविताएं
कवयित्री सविता सिंह
स्त्री दर्पण के मंच पर प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह के संयोजन में ‘प्रतिरोध’ की कविता श्रृंखला के पाठ 4 में वरिष्ठ कवयित्री एवं सांस्कृतिक कार्यकर्ता कात्यायनी की कविताओं को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं।
“प्रतिरोध-कविता श्रृंखला” पाठ – 3 में हमने वरिष्ठ कवयित्री कवयित्री निर्मला गर्ग की यथार्थपरक कविताएं पढ़ी।
प्रोत्साहन के लिए हम आप पाठकों का आभार व्यक्त करते हैं।
आज “प्रतिरोध-कविता श्रृंखला” पाठ – 4 में हम जनवादी सरोकारों की कवयित्री कात्यायनी की कविताएँ उनके परिचय के साथ पेश कर हैं।
– सविता सिंह
रीता दास राम
आज हिन्दी में स्त्री कविता अपने उस मुकाम पर है जहां एक विहंगम अवलोकन ज़रुरी जान पड़ता है। शायद ही कभी इस भाषा के इतिहास में इतनी श्रेष्ठ रचना एक साथ स्त्रियों द्वारा की गई। खासकर कविता की दुनिया तो अंतर्मुखी ही रही है। आज वह पत्र-पत्रिकाओं, किताबों और सोशल मिडिया, सभी जगह स्त्री के अंतस्थल से निसृत हो अपनी सुंदरता में पसरी हुई है, लेकिन कविता किसलिए लिखी जा रही है यह एक बड़ा सवाल है। क्या कविता वह काम कर रही है जो उसका अपना ध्येय होता है। समाज और व्यवस्थाओं की कुरूपता को बदलना और सुन्दर को रचना, ऐसा करने में ढेर सारा प्रतिरोध शामिल होता है। इसके लिए प्रज्ञा और साहस दोनों चाहिए और इससे भी ज्यादा भीतर की ईमानदारी। संघर्ष करना कविता जानती है और उन्हें भी प्रेरित करती है जो इसे रचते हैं। स्त्रियों की कविताओं में तो इसकी विशेष दरकार है। हम एक पितृसत्तात्मक समाज में जीते हैं जिसके अपने कला और सौंदर्य के आग्रह है और जिसके तल में स्त्री दमन के सिद्धांत हैं जो कभी सवाल के घेरे में नहीं आता। इसी चेतन-अवचेतन में रचाए गए हिंसात्मक दमन को कविता लक्ष्य करना चाहती है जब वह स्त्री के हाथों में चली आती है। हम स्त्री दर्पण के माध्यम से स्त्री कविता की उस धारा को प्रस्तुत करने जा रहे हैं जहां वह आपको प्रतिरोध करती, बोलती हुई नज़र आएंगी। इन कविताओं का प्रतिरोध नए ढंग से दिखेगा। इस प्रतिरोध का सौंदर्य आपको छूए बिना नहीं रह सकता। यहां समझने की बात यह है कि स्त्रियां अपने उस भूत और वर्तमान का भी प्रतिरोध करती हुई दिखेंगी जिनमें उनका ही एक हिस्सा इस सत्ता के सह-उत्पादन में लिप्त रहा है। आज स्त्री कविता इतनी सक्षम है कि वह दोनों तरफ अपने विरोधियों को लक्ष्य कर पा रही है। बाहर-भीतर दोनों ही तरफ़ उसकी तीक्ष्ण दृष्टि जाती है। स्त्री प्रतिरोध की कविता का सरोकार समाज में हर प्रकार के दमन के प्रतिरोध से जुड़ा है। स्त्री का जीवन समाज के हर धर्म जाति आदि जीवन पितृसत्ता के विष में डूबा हुआ है। इसलिए इस श्रृंखला में हम सभी इलाकों, तबकों और चौहद्दियों से आती हुई स्त्री कविता का स्वागत करेंगे। उम्मीद है कि स्त्री दर्पण की प्रतिरोधी स्त्री-कविता सर्व जग में उसी तरह प्रकाश से भरी हुई दिखेंगी जिस तरह से वह जग को प्रकाशवान बनाना चाहती है – बिना शोषण दमन या इस भावना से बने समाज की संरचना करना चाहती है जहां से पितृसत्ता अपने पूंजीवादी स्वरूप में विलुप्त हो चुकी होगी।
स्त्री प्रतिरोध की कविताओं की इस श्रृंखला में हमारी चौथी कवयित्री कात्यायनी हैं। इनकी चेतना से कविताएं न सिर्फ अपना रूप लेकर आती हैं बल्कि राजनैतिक और सामाजिक उद्देश्य भी। हॉकी खेलती लड़कियाँ और सात भाइयों के बीच चम्पा जैसी कविताओं ने इन्हें हिंदी जगत में एक ऐसी कवयित्री के रूप में स्थापित किया जिन्हें बाद के कवियों ने बहुत धीरज और स्नेह से पढ़ा। इनकी सारी कविताएं हमारे राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक चेतना को बदलने की जुगत में लगी रहती हैं। इस महत्वपूर्ण कवयित्री को पढ़ना सचमुच खुद को बदलने जैसा है याकि उसके लिए तत्पर होना।
कात्यायनी का परिचय –
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जन्मतिथि : 7 मई, 1959, जन्मस्थान : गोरखपुर (उ.प्र.) शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी), एम फ़िल।
1980 से सांस्कृतिक-राजनीतिक सक्रियता। 1986 से कविताएं लिखना और वैचारिक लेखन प्रारंभ। नवभारत टाइम्स, स्वतंत्र भारत और दिनमान टाइम्स आदि के साथ कुछ वर्षों तक पत्रकरिता।
पुस्तकें :
चेहरों पर आँच, सात भाइयों के बीच चम्पा, इस पौरुषपूर्ण समय में, जादू नहीं कविता, राख-अंधेरे की बारिश में, फुटपाथ पर कुर्सी (कविता संकलन),
दुर्ग द्वार का दस्तक, षड्यंत्ररत मृतात्माओं के बीच, कुछ जीवंत कुछ ज्वलंत, प्रेम परंपरा और विद्रोह (स्त्री-प्रश्न, समाज, संस्कृति और साहित्य पर केंद्रीत निबंधों के संकलन)
पाश की कविताओं के संकलन ‘लहू है कि तब भी गाता है’ का सम्पादन। राजकमल विश्व क्लासिकी श्रृंखला का संपादन जिसमें अब तक अट्ठाईस विश्व प्रसिद्ध कृतियाँ प्रकाशित। आर्लिन ज़िडे के संपादन में प्रकाशित एंथोलोजी ‘इन डेयर ओन वॉयस’ और श्टिख्टिंग इंडिया इंस्टीट्यूट से डच अनुवाद में प्रकाशित आधुनिक भारतीय कविताओं के संकलन में कविताएं शामिल। नेपाली के अलावा गुजराती बंगला, मराठी, मैथिली, पंजाबी, मलयालम सहित कई भारतीय भाषाओं में विभिन्न कविताओं के अनुवाद प्रकाशित।
पुरस्कार : शरद बिल्लौरे पुरस्कार, गिरजा कुमार माथुर पुरस्कार, अपराजिता पुरस्कार, मुकुट बिहारी सरोज सम्मान, केदारनाथ अग्रवाल पुरस्कार।
कई विश्वविद्यालयों में इनकी कविता और गद्य पुस्तकें पाठ्यक्रम में शामिल हैं और कविताओं पर करीब दो दर्जन शोध हो चुके हैं।
कात्यायनी की कविताएं
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1. सात भाइयों के बीच
चम्पा
सात भाइयों के बीच
चम्पा सयानी हुई।
बाँस की टहनी-सी लचक वाली
बाप की छाती पर साँप-सी लोटती
सपनों में काली छाया-सी डोलती
सात भाइयों के बीच
चम्पा सयानी हुई।
ओखल में धान के साथ
कूट दी गई
भूसी के साथ कूड़े पर
फेंक दी गई
वहाँ अमरबेल बन कर उगी।
झरबेरी के साथ कँटीली झाड़ों के बीच
चम्पा अमरबेल बन सयानी हुई
फिर से घर में आ धमकी।
सात भाइयों के बीच सयानी चम्पा
एक दिन घर की छत से
लटकती पाई गई
तालाब में जलकुम्भी के जालों के बीच
दबा दी गई
वहाँ एक नीलकमल उग आया।
जलकुम्भी के जालों से ऊपर उठकर
चम्पा फिर घर आ गई
देवता पर चढ़ाई गई
मुरझाने पर मसल कर फेंक दी गई,
जलायी गई
उसकी राख बिखेर दी गई
पूरे गाँव में।
रात को बारिश हुई झमड़कर।
अगले ही दिन
हर दरवाज़े के बाहर
नागफनी के बीहड़ घेरों के बीच
निर्भय-निस्संग चम्पा
मुस्कुराती पाई गई।
2. हॉकी खेलती लड़कियाँ
आज शुक्रवार का दिन है
और इस छोटे से शहर की ये लड़कियाँ
खेल रही हैं हॉकी।
खुश हैं लड़कियाँ
फिलहाल
खेल रही हैं हॉकी
कोई डर नहीं।
बॉल के साथ दौड़ती हुई
हाथों में साधे स्टिक
वे हरी घास पर तैरती हैं
चूल्हे की आँच से
मूसल की धमक से
दौड़ती हुई
बहुत दूर आ जाती हैं।
वहाँ इन्तज़ार कर रहे हैं
उन्हें देखने आए हुए वर पक्ष के लोग
वहाँ अम्मा बैठी राह तकती है
कि बेटियाँ आएँ तो
सन्तोषी माता की कथा सुनाएँ
और
वे अपना व्रत तोड़ें।
वहाँ बाबूजी प्रतीक्षा कर रहे हैं
दफ़्तर से लौटकर
पकौड़ी और चाय की
वहाँ भाई घूम-घूम कर लौट आ रहा है
चौराहे से
जहाँ खड़े हैं मुहल्ले के शोहदे
रोज़ की तरह
लड़कियाँ हैं कि हॉकी खेल रही हैं।
लड़कियाँ
पेनाल्टी कार्नर मार रही हैं
लड़कियाँ
पास दे रही हैं
लड़कियाँ
‘गो…ल- गो…ल’ चिल्लाती हुई
बीच मैदान की ओर भाग रही हैं।
लड़कियाँ
एक-दूसरे पर ढह रही हैं
एक-दूसरे को चूम रही हैं
और हँस रही हैं।
लड़कियाँ फाउल खेल रही हैं
लड़कियों को चेतावनी दी जा रही है
और वे हँस रही हैं
कि यह ज़िन्दगी नहीं है
— इस बात से निश्चिंत हैं लड़कियाँ
हँस रही हैं
रेफ़री की चेतावनी पर।
लड़कियाँ
बारिश के बाद की
नम घास पर फिसल रही हैं
और गिर रही हैं
और उठ रही हैं
वे लहरा रही हैं
चमक रही हैं
और मैदान के अलग-अलग मोर्चों में
रह-रहकर उमड़-घुमड़ रही हैं।
वे चीख़ रही हैं
सीटी मार रही हैं
और बिना रुके भाग रही हैं
एक छोर से दूसरे छोर तक।
उनकी पुष्ट टाँगें चमक रही हैं
नृत्य की लयबद्ध गति के साथ
और लड़कियाँ हैं कि निर्द्वन्द्व निश्चिन्त हैं
बिना यह सोचे कि
मुँह दिखाई की रस्म करते समय
सास क्या सोचेगी।
इसी तरह खेलती रहती लड़कियाँ
निस्संकोच-निर्भीक
दौड़ती-भागती और हँसती रहतीं
इसी तरह
और हम देखते रहते उन्हें।
पर शाम है कि होगी ही
रेफ़री है कि बाज नहीं आएगा
सीटी बजाने से
और स्टिक लटकाए हाथों में
एक भीषण जंग से निपटने की
तैयारी करती लड़कियाँ लौटेंगी घर।
अगर ऐसा न हो तो
समय रुक जाएगा
इन्द्र-मरुत-वरुण सब कुपित हो जाएँगे
वज्रपात हो जाएगा, चक्रवात आ जाएगा
घर पर बैठे
देखने आए वर पक्ष के लोग
पैर पटकते चले जाएँगे
बाबूजी घुस आएँगे गरज़ते हुए मैदान में
भाई दौड़ता हुआ आएगा
और झोंट पकड़कर घसीट ले जाएगा
अम्मा कोसेगी —
‘किस घड़ी में पैदा किया था
ऐसी कुलच्छनी बेटी को !’
बाबूजी चीख़ेंगे —
‘सब तुम्हारा बिगाड़ा हुआ है !’
घर फिर एक अँधेरे में डूब जाएगा
सब सो जाएंगे
लड़कियाँ घूरेंगी अँधेरे में
खटिया पर चित्त लेटी हुईं
अम्मा की लम्बी साँसें सुनतीं
इन्तज़ार करती हुईं
कि अभी वे आकर उनका सिर सहलाएँगी
सो जाएँगी लड़कियाँ
सपने में दौड़ती हुई बॉल के पीछे
स्टिक को साधे हुए हाथों में
पृथ्वी के छोर पर पहुँच जाएँगी
और ‘गोल-गोल’ चिल्लाती हुईं
एक दूसरे को चूमती हुईं
लिपटकर धरती पर गिर जाएँगी !
3. इस स्त्री से डरो
यह स्त्री
सब कुछ जानती है
पिंजरे के बारे में
जाल के बारे में
यंत्रणागृहों के बारे में
उससे पूछो।
पिंजरे के बारे में पूछो,
वह बताती है
नीले अनन्त विस्तार में
उड़ने के
रोमांच के बारे में।
जाल के बारे में पूछने पर
गहरे समुद्र में
खो जाने के
सपने के बारे में
बातें करने लगती है।
यंत्रणागृहों की बात छिड़ते ही
गाने लगती है
प्यार के बारे में
एक गीत।
रहस्यमय हैं इस स्त्री की उलटबाँसियाँ
इन्हें समझो।
इस स्त्री से डरो।
4. गार्गी
मत जाओ गार्गी प्रश्नों की सीमा से आगे
तुम्हारा सिर कटकर लुढ़केगा ज़मीन पर,
मत करो याज्ञवल्क्यों की अवमानना,
मत उठाओ प्रश्न ब्रह्मसत्ता पर,
वह पुरुष है!
मत तोड़ो इन नियमों को।
पुत्र बन पिता का प्यार लो
अंकशायिनी बनो
फिर कोख में धारण करो
पुरुष का अंश
मत रचो नया लोकाचार
मत जाओ प्रश्नों की सीमा से आगे।
गार्गी, तुम जलो रुपयों की ख़ातिर
बिको बीमार बेटे की ख़ातिर
नाचो इशारों पर
गार्गी तुम ज़रा स्मार्ट बनो
तहज़ीब सीखो
सीढ़ी बन जाओ हमारी तरक़्क़ी की
गार्गी तुम देवी हो – जीवनसंगिनी हो
पतिव्रता हो गार्गी तुम
हम अधूरे हैं तुम्हारे बिना
महान बनने में हमारी मदद करो
दुनिया को फ़तह करने में
आसमान तक चढ़ने में
गार्गी तुम एक रस्सी बनो।
त्याग-तप की प्रतिमा हो तुम
सोचो परिवार का हित
अपने इस घर को सँभालो
मत जाओ प्रश्नों की सीमा से आगे
तुम्हारा सिर कटकर लुढ़केगा ज़मीन पर!
5. प्रार्थना
प्रभु!
मुझे गौरवान्वित होने के लिए
सच बोलने का मौक़ा दो,
परोपकार करने का
स्वर्णिम अवसर दो प्रभु मुझे।
भोजन दो प्रभु, ताकि मैं
तुम्हारी भक्ति करने के लिए
जीवित रह सकूँ।
मेरे दरवाज़े पर थोड़े से ग़रीबों को
भेज दो,
मैं भूखों को भोजन कराना चाहता हूँ।
प्रभु, मुझे दान करने के लिए
सोने की गिन्नियाँ दो।
प्रभु, मुझे वफ़ादार पत्नी, आज्ञाकारी पुत्र
लायक़ भाई और शरीफ़ पड़ोसी दो।
प्रभु, मुझे इहलोक में
सुखी जीवन दो ताकि बुढ़ापे में
परलोक की चिन्ता कर सकूँ।
प्रभु,
मेरी आत्मा प्रायश्चित करने के लिए
तड़प रही है,
मुझे पाप करने के लिए
एक औरत दो!
6. नयी ईश-वन्दना
प्रभु! भर दे
भर दे इस जगत को
क़ाहिलों और कंजूसों से
मनहूसों और चापलूसों से
ढोंगियों और कूपमण्डूकों से।
प्रभु! क़र्ज़ दे और दिला।
कुछ खा और खिला।
प्रभु! हमारे दिलों में भक्ति भर!
विचार हर! विवेक हर!
तर्क से हमें मुक्त कर!
हमारी बाहरी आँखें ले ले प्रभु।
हमें भीतरी आँखें दे दे।
अब तो आ जा प्रभु! ओ कल्कि अवतार!
धर्मध्वजा लहराते
निकल पड़ पापियों को रौंदते!
उन्हें सबक़ सिखा प्रभु, जो नहीं भोगना चाहते
पिछले जनम के पापों का दण्ड।
प्रभु! यूनियनों की रीढ़ निकाल ले,
इन्हें भ्रष्ट नेताओं से भर दे,
हड़तालियों को कुचलवा दे प्रभु,
जो नहीं रहना चाहते भूखे,
उन्हें गोलियाँ खिला दे।
प्रभु! जनतंत्र को बचा
ज़रूरत हो तो आपातकाल ला।
तू चिरन्तन है,
जैसे कि लूट है चिरन्तन,
सिद्ध कर दे प्रभु!
तू सार्वभौमिक है,
दुनिया का आर्थिक एकीकरण बतला रहा है।
यही तो है संचार क्रान्ति का सन्देश मेरे प्रभु!
पेरेस्त्रोइका की चेतना से
जन-जन को भर दे प्रभु!
अपने विधान में हस्तक्षेप का नतीजा
हर बार वैसे ही दिखला दे
जैसे कि दिखलाया है रूस और पूर्वी यूरोप में!
प्रभु! आसमान में स्वर्ग है, अज्ञानियों को बता।
इस दुनिया को नर्क बना।
महँगाई बढ़ा! हमें उसकी पीठ पर बैठा
आसमान तक चढ़ा।
प्रभु! तू है, यह बता दे! दंगे करा दे।
आज़ाद ख़याल बेशर्म औरतों पर
बलात्कार करा दे।
गोलियाँ चलवा दे प्रभु।
अपनी असीम सत्ता का अहसास करा दे।
प्रभु! इस तरह, तू है, यह सिद्ध कर दे!
नास्तिकों, अधर्मियों और कम्युनिस्टों का
मुँह बन्द कर दे!
7. एक बग़ावती प्रार्थना
हे ईश्वर!
या तो इस जगत को
स्कूलों से मुक्त करो
या हमें ही उठा लो। ‘किडनैप’ करा दो।
चमत्कार कर दो
लीला दिखा दो
हे प्रभु आनन्ददाता!
बस्तों में किताबों की जगह
चॉकलेट भर दो या
मिसरी की डलियाँ।
परमात्मा!
सभी पोथियों में आग लग जाये।
सभी मास्टरों को हैज़ा हो जाये।
पहाड़े रटाते समय चाचा की ज़ुबान ऐंठ जाये।
बाढ़ में सभी स्कूल डूब जायें।
वहाँ हम काग़ज़ की नाव चलायें।
हाज़िरी रजिस्टर के पन्ने फाड़कर पतंग उड़ायें।
शिक्षा को लेकर बहस करने वाले और नीतियाँ बनाने वाले
सभी शिक्षाशास्त्री
सीधे पागलख़ाने जायें।
(अगस्त, 1994)
8. आस्था का प्रश्न
तर्क नहीं होता
आस्था के प्रश्न पर
आस्था का न्याय से
कोई सम्बन्ध नहीं होता।
आँखें नहीं होतीं आस्था की,
कुछ भी कर सकती है –
सड़कों पर
नाच सकती है डायनों-सी
खप्पर में पीती हुई बच्चों का ख़ून,
विकट रूप धर, बस्तियों को
राख करती
दिल्ली तक जा सकती है,
मच्छर बन मतपेटियों में
समा सकती है,
भीम रूप धर संसद में
प्रवेश पा सकती है।
तर्क को सैकड़ों फुट नीचे
दफ़्न कर सकती है आस्था,
इतिहास की कपाल-क्रिया कर
अपने तथ्य ख़ुद गढ़ सकती है।
आस्था केवल बहुमत का
अधिकार होती है,
आस्था उन्माद की अम्मा होती है,
मतदान-यज्ञ की कृत्या होती है
आस्था।
रहना चाहते हो यदि इस मुल्क़ में
तो आस्थावान बनो।
महान पूर्वजों के वारिस
महान बनो।
(जनवरी 1993)
9. गुजरात – 2002 – (तीन)
भूतों के झुण्ड गुज़रते हैं
कुत्तों-भैसों पर हो सवार
जीवन जलता है कण्डों-सा
है गगन उगलता अन्धकार ।
यूँ हिन्दू राष्ट्र बनाने का
उन्माद जगाया जाता है
नरमेध यज्ञ में लाशों का
यूँ ढेर लगाया जाता है ।
यूँ संसद में आता बसन्त
यूँ सत्ता गाती है मल्हार
यूँ फासीवाद मचलता है
करता है जीवन पर प्रहार ।
इतिहास रचा यूँ जाता है
ज्यों हो हिटलर का अट्टाहास
यूँ धर्म चाकरी करता है
पूँजी करती वैभव-विलास ।
(रचनाकाल : अप्रैल 2002)
10. एक असमाप्त कविता की अति प्राचीन पाण्डुलिपि
स्त्री हूँ, अज्ञान के अन्धकार में भटकने को पैदा हुई – यह जानने में ही उम्र का एक बड़ा हिस्सा ख़त्म हो गया। पशु नहीं थी फिर भी। या बन नहीं पायी। जो अपरिचित रह जाती ज्ञान से।
गुरु बिना ज्ञान नहीं सम्भव। यह जाना। सुना। गुरु मिले। उम्र का एक और बड़ा हिस्सा ख़र्च करने के बाद। ‘पेड़ बनकर फल और छाया दो’ – गुरु ने कहा। बतलाया मुक्ति-मार्ग। आज्ञा शिरोधार्य। वैसा ही किया मैंने। बहुत सारे लोग आये भूख मिटाने। मेरी छाया में करने आराम। कुछ ने मेरी टहनियाँ तोड़ डालीं। मसल डालीं फुनगियाँ। कुछ ने काट दी डालियाँ। और कुछ ने तनों की ख़ाल खुरचकर अपने नाम लिख डाले।
फिर गुरु ने कहा – ‘धरती बनो।’ धरती भी बनी मैं। सर्वसहा। सदियों वे चीरते रहे मेरी छाती और जो कुछ भी पैदा किया उसके लिए लड़ते रहे। उनका ख़ून जज़्ब होता रहा मेरी खुली छाती में। दूध नहीं, सिर्फ़ ख़ून ही चूस सकते थे वे मेरे स्तनों से। और मातृत्व की महानता पर रच सकते थे अनगिन कविताएँ।
तब गुरु ने कहा – ‘एक विशाल, हवादार, रौशन घर बन जाओ।’ तत्क्षण किया ऐसा ही। शीत-आतप की चिन्ता किये बिना। पर उन्होंने मेरी सारी खिड़कियाँ बन्द कर दीं। मूँद दिये सभी रोशनदान। दरवाज़ों पर वज़नी ताले डाल चाभियाँ तेज़ाब की एक नदी में फेंक दीं। और मेरी रूह को घुप्प अँधेरे में क़ैद कर दिया।
इस बार गुरु ने कहा – ‘एक किताब बन जाओ।’ सो बन गयी मैं। पर उन्होंने सीधी-सादी बातें कहतीं मेरी तमाम लाइनों को तरह-तरह की रोशनाइयों से अण्डरलाइन कर दिया। जटिल व्याख्याओं के पेपरवेट से मुझे कुचल दिया। फिर तकिये के नीचे दबाकर सो गये।
आख़िरी राह सुझायी गुरु ने – ‘धरती छोड़ उड़ जाओ आकाश में। ग्रह बन जाओ। रात के अन्धकार में चमकती रहो सूर्य के प्रकाश से। और फिर उसे भेजती रहो धरती पर।’ टिमटिमाती भर रही मैं। थोड़ी-सी रोशनी से अपनी पहचान कराती। धरती पर रोशनी न भेज पाने के असन्तोष को झेल भी लेती शायद अपनी अस्मिता की मान्यता के सुख में जीती हुई। पर आवारा उन्मुक्तमना उल्कापिण्ड लगातार टकरा-टकराकर मुझे लहूलुहान करते रहे। तब जाना कि उड़कर इस पृथ्वी से दूर जा सकते हैं सिर्फ़ महान कवि। कोई आम आदमी नहीं। स्त्री क़तई नहीं।
लौटी फिर गुरु की शरण में। वहाँ मौन था मेरे लिए। चतुर्दिक एक निरुपाय नितान्त नीरवता। सहना – कुछ न कहना। जाहि बिधि राखे राम ताहि बिधि रहना। पर हालात इस क़दर बुरे थे और मन इस हद तक बेचैन कि रह पाना सम्भव ही न था अकेले चुपचाप या जी पाना स्वान्तःसुखाय। फिर जब जीना ही था मरना तो चार युगों, चौरासी करोड़ योनियों का दुख झेल, तैंतीस करोड़ देवताओं का कोप झेल, ऋषियों-मुनियों-यतियों-यक्षों से शापित, उतर पड़ी उस काले जल वाले सरोवर में जिसके तल में था रसातल। वहाँ वे रसातलवासी लगातार बकते रहे गालियाँ। सुनाते रहे उलटबाँसियाँ। पर अन्तिम ठौर था मृत्यु से भी आगे यह। फिर जाती कहाँ मैं? वहीं भटकती रही। तब फिर बरसों बाद अर्थ खुले उन तमाम उलटबाँसियों के। चीज़ों को जानना हुआ एक हद तक। और यह कि चीज़ों को बदलने की प्रक्रिया में लोग ख़ुद को भी बदल लेते हैं। और यह कि स्त्री के लिए भी पहली ज़रूरी चीज़ यह जानना है कि एक बेहतर दुनिया के वास्ते कविता लिखने की हद तक जीना एक बेहद बुरी दुनिया की बुनियादी बुराइयों और उन्हें बदलने की इच्छा और उद्यम को शब्द देने और शक्ति देने के बाद ही सम्भव हो सकेगा।
तब मैंने वह करने की सोची। और जो भी ज़रूरी था इसके लिए, वह करना शुरू किया। पर समय अब बहुत कम ही बचा था मेरे पास। इतना कम कि लिखने से पहले, लिखने की शर्त पूरी करने में ही ख़तम होने को आ गया। और तब आने वाली दुनिया के तमाम लोगों के लिए मैंने एक लम्बा प्रेम पत्र लिखा। रहस्यपूर्ण और तमाम रहस्यों को खोलता हुआ। और फिर उस रहस्य को लिये हुए साथ, क़ब्र में जा लेटी।
वहाँ से भेज रही हूँ यह एक कलाहीन कविता दुनिया के तमाम सुधी आलोचकों-सम्पादकों के नाम। मेरी क़ब्र के ऊपर नहीं बना है कोई पक्का चबूतरा। कोई पहचान नहीं उसकी। न कोई नामपट्टी, न कोई समाधि-लेख जिससे कि आप मेरे सफ़र के आख़िरी मुक़ाम की शिनाख़्त कर सकें अपने तमाम सम्पादकीय अनुभवों और आलोचनात्मक विवेक के बावजूद। यदि यह कविता बन सकी एक थकी हुई मगर अजेय स्त्री की पहचान तो यह कविता रहेगी असमाप्त। और यह दुनिया जब तक रहेगी, चैन से नहीं रहेगी।
(अगस्त 1994)