Tuesday, May 14, 2024
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स्त्री प्रतिरोध की कविता और उसका जीवन

कवयित्री सविता सिंह

स्त्री दर्पण में आयोजित कविता पाठ श्रृंखला में ‘प्रेम’ और ‘प्रतिरोध’ की कविताएं पाठक सुनते और पढ़ते रहे हैं।
मुक्तिबोध स्मृति पाठ में “प्रतिरोध-कविता श्रृंखला” का संयोजन देश विदेशों में प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह कर रही हैं।
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“प्रतिरोध-कविता श्रृंखला” पाठ – 2 में हमने वरिष्ठ कवयित्री शोभा सिंह की सटीक, समकालीन तथ्यपरक, मुद्दों पर अपनी बात रखती बेहतरीन कविताएं पढ़ी।
प्रतिक्रियाओं द्वारा पाठकों के सार्थक सहयोग के लिए सभी का हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं जो हमारे लिए प्रोत्साहन का विषय है।
आज “प्रतिरोध-कविता श्रृंखला” पाठ – 3 में हम जनवादी सरोकारों की कवयित्री निर्मला गर्ग की कविताएँ उनके परिचय के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं।
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– सविता सिंह
रीता दास राम

आज हिन्दी में स्त्री कविता अपने उस मुकाम पर है जहां एक विहंगम अवलोकन ज़रुरी जान पड़ता है। शायद ही कभी इस भाषा के इतिहास में इतनी श्रेष्ठ रचना एक साथ स्त्रियों द्वारा की गई। खासकर कविता की दुनिया तो अंतर्मुखी ही रही है। आज वह पत्र-पत्रिकाओं, किताबों और सोशल मिडिया, सभी जगह स्त्री के अंतस्थल से निसृत हो अपनी सुंदरता में पसरी हुई है, लेकिन कविता किसलिए लिखी जा रही है यह एक बड़ा सवाल है। क्या कविता वह काम कर रही है जो उसका अपना ध्येय होता है। समाज और व्यवस्थाओं की कुरूपता को बदलना और सुन्दर को रचना, ऐसा करने में ढेर सारा प्रतिरोध शामिल होता है। इसके लिए प्रज्ञा और साहस दोनों चाहिए और इससे भी ज्यादा भीतर की ईमानदारी। संघर्ष करना कविता जानती है और उन्हें भी प्रेरित करती है जो इसे रचते हैं। स्त्रियों की कविताओं में तो इसकी विशेष दरकार है। हम एक पितृसत्तात्मक समाज में जीते हैं जिसके अपने कला और सौंदर्य के आग्रह है और जिसके तल में स्त्री दमन के सिद्धांत हैं जो कभी सवाल के घेरे में नहीं आता। इसी चेतन-अवचेतन में रचाए गए हिंसात्मक दमन को कविता लक्ष्य करना चाहती है जब वह स्त्री के हाथों में चली आती है। हम स्त्री दर्पण के माध्यम से स्त्री कविता की उस धारा को प्रस्तुत करने जा रहे हैं जहां वह आपको प्रतिरोध करती, बोलती हुई नज़र आएंगी। इन कविताओं का प्रतिरोध नए ढंग से दिखेगा। इस प्रतिरोध का सौंदर्य आपको छूए बिना नहीं रह सकता। यहां समझने की बात यह है कि स्त्रियां अपने उस भूत और वर्तमान का भी प्रतिरोध करती हुई दिखेंगी जिनमें उनका ही एक हिस्सा इस सत्ता के सह-उत्पादन में लिप्त रहा है। आज स्त्री कविता इतनी सक्षम है कि वह दोनों तरफ अपने विरोधियों को लक्ष्य कर पा रही है। बाहर-भीतर दोनों ही तरफ़ उसकी तीक्ष्ण दृष्टि जाती है। स्त्री प्रतिरोध की कविता का सरोकार समाज में हर प्रकार के दमन के प्रतिरोध से जुड़ा है। स्त्री का जीवन समाज के हर धर्म जाति आदि जीवन पितृसत्ता के विष में डूबा हुआ है। इसलिए इस श्रृंखला में हम सभी इलाकों, तबकों और चौहद्दियों से आती हुई स्त्री कविता का स्वागत करेंगे। उम्मीद है कि स्त्री दर्पण की प्रतिरोधी स्त्री-कविता सर्व जग में उसी तरह प्रकाश से भरी हुई दिखेंगी जिस तरह से वह जग को प्रकाशवान बनाना चाहती है – बिना शोषण दमन या इस भावना से बने समाज की संरचना करना चाहती है जहां से पितृसत्ता अपने पूंजीवादी स्वरूप में विलुप्त हो चुकी होगी।
स्त्री प्रतिरोध श्रृंखला की हमारी तीसरी महत्वपूर्ण कवयित्री निर्मला गर्ग की कविताएं इस बार आप पढिए। इनकी कविताएं जन सरोकारों की सीधी कविताएं हैं। इनमें हमारे सुंदर जीवन के लिए संघर्ष करती हुई वे अपने सुंदरतम रूपों में मिलेंगी। हमें खुशी है कि हमारी इस श्रृंखला में वे जुड़ पाई हैं और जो हम मोतियों की माला बना रहे हैं उसकी अगली मोती के रूप में हमारे साथ है।
निर्मला गर्ग का परिचय :
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दरभंगा ( बिहार ) में 1955 में जन्म।
जनवादी लेखक संघ में सहभागिता।
सफ़दर हाशमी की निर्मम हत्या के बाद जन नाट्य मंच गाजियाबाद से 20 – 22 प्रदर्शन ।
कविताएँ बांग्ला , मराठी , पंजाबी इंग्लिश और जर्मन में अनुवादित।
पाँच कविता – संग्रह प्रकाशित हैं : 1. यह हरा गलीचा (1992 ) , 2. कबाड़ी का तराजू ( 2000 ) , 3. सफ़र के लिए रसद ( 2007 ) , 4. दिसंबर का महीना मुझे आखिरी नही लगता ( 2012 ) , 5. अनिश्चय के गहरे धुंए में ( 2021 )।
कविता संग्रह ‘ दूसरी हिंदी ‘ का सम्पादन ( 2017 )।
कुछ आलोचनात्मक लेखन।
कविता – संग्रह ‘ कबाड़ी का तराजू ‘ को हिंदी अकादेमी , दिल्ली का कृति सम्मान।
निर्मला गर्ग की कविताएं –
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1. कुहरा
घर से दफ़्तर तक
संसद से सड़क तक
खेत से कारखाने तक
सचिवालय से न्यायालय तक
फैल रहा है हर ओर गाढ़ा मटमैला कुहरा
फैल रहा है यह
किताबों पर पोस्टरों पर विचारों पर।
2. तानाशाह
तानाशाह खुश होता है
खुद के तानाशाह कहे जाने पर
उसे लगता है यह उसकी
इज्जत आफजाई है।
3. युद्ध
युद्ध के शुरू होने का शोर मेरे बाहर है
युद्ध के बाद का सन्नाटा
मेरे भीतर
कभी- कभी क्रम उलट भी जाता है
ताकतवर देश अंधेरे की भाषा बोलते हैं
उपनिवेशों की सरकारें उसे दुहराती हैं
वे चाहते हैं पूरी पृथ्वी को अपनी ऐशगाह बनाना
उनका दम्भ रौंदता है दूसरों की स्वतंत्रता
में खिलाफ हूँ इस लालच के और इस बर्बरता के
शब्दों के अलावा भी तलाशना चाहती हूँ
दूसरे औज़ार
मैं पूर्ण प्रकाश में जीना चाहती हूँ।
4. कलावादी का प्रलाप
झाँको झाँको भीतर झाँको
वहीं है अच्छी कविता
वहीं है सच्ची कविता
वहीं वहीं मिलेंगी देवियाँ कला की
बाहर क्या है :
गर्द – ओ – गुबार
चीख – ओ – पुकार
अधनंगे अधभूखे बच्चे
नहीं जानते उनके हिस्से की रोटी गई कहाँ
कड़ी धूप में सीझते
कतार- दर – कतार
बेरोजगार
नहीं जानते उनके हिस्से की नौकरियां गई कहाँ
किसानों की तो कथा अनंत
इस तरह मरें उस तरह मरें मरना ही है
नहीं है जीने का विकल्प कोई इस निजाम में
छोड़ो यह अल्लम गल्लम
यह कचरा कल्लम
फितूर यह वामपंथियों का है
तुम तो झाँको भीतर
और भीतर
और और भीतर
वहीं है अच्छी कविता
वहीं है सच्ची कविता
वहीं वहीं मिलेंगी देवियाँ कला की
5. डार्करूम
लड़की फ़ोटोग्राफ़र बनना चाहती है
रोटी गोल नहीं बिलती उससे
बन जाता है कोई न कोई नक्शा
कर आती है सैर वह अनदेखे द्वीपों की
द्वीपों के जिस्म पर उगे घास के मैदानों की
गिलाफों पर स्वागतम काढ़ना उसे नहीं आता
वह सीखती भी नहीं
तकियों पर सादे गिलाफ़ चढ़ा उठा लेती है किताब
बताई गई है जिसमें तरक़ीब रौशनी से लिखने की
उसके सपनों में अंट नहीं पाती
सुगंधियों लिपिस्टिकों से सजी प्रसाधन मेज़
डिज़ाइनर टाइलों वाला भव्य स्नानघर भी
दरवाजे से ही झाँक कर लौट आता है
मौजूद है वहाँ तो पहले से अपने साजो – सामान के
साथ
एक छोटा – सा डार्करूम
तैयार करेगी जहाँ वह अपनी खींची तस्वीरों के प्रिंट
तस्वीरें जिनमें कार और बंगले में ख़त्म होती यात्राएँ हैं
तस्वीरें जिनमें घोंसले खाली और दीवारें बिना कैलेंडरों
की हैं
लड़की किसी निर्णय पर पहुँचना चाहती है
फैलाएगी सब ब्ल्यू प्रिंट की तरह
मेज पर।
6. डायना
वह बार-बार साधारणता की ओर मुड़ती । बार-बार
उसे ख़ास की तरफ ठेला जाता । उसके चारों ओर
पुरानी भव्य दीवारें थीं । उनमें कोई खिड़की नहीं थी
सिर्फ बुर्जियाँ थीं । वहाँ से झाँकने पर सर चकराता था ।
कमरों में बासीपन के अलावा और कई तरह की बू शामिल थी ।
एक दिन यह सब लाँघकर वह बाहर चली आई । हवा
और धूल की तरह सब ओर फैल गई
वह एक मुस्कुराहट थी टहनी और पत्ती समेत । सुबह का
धुला हुआ बरामदा थी । उसे प्रेम चाहिए था अपनी
कमज़ोरियों और कमियों के बावजूद । जैसी वह थी वैसी
होने के बावजूद । उसमें प्रेम था । उसे उलीचना चाहती
थी अपने पर औरों पर । उलीचती भी थी कच्चा
पक्का जो तरीका आता था
दुःख और तनाव अक्सर उसे घेर लेते । वह मृत्यु की
तरफ भागती । मृत्यु उसे लौटा देती । बाद में यह सब
एक खेल में बदल गया ।
7. आस्था का कारोबार
बदलते मौसम बदलती हवा
जरूरी चेतावनी है इस समय की
हमारे त्योहारों के कर्मकांड भी बिगाड़ते हैं पर्यावरण
वर्षा वन नष्ट हो गए पहले ही
हर साल फागुन में हजारों पेड़ कटते हैं
बुराई की प्रतीक होलिका नहीं जलता है अग्नि में
जीवन – द्रव
प्रदूषित हवा में घुलता है टनों कार्बन डायऑक्साइड
कार्तिक अमावस्या की रात वायुमंडल का थरथराना
हम नहीं देखते
हम नहीं सुनते ध्वनि का उलाहना
भोर तक पटाखे जलाए जाते हैं
जितनी अतिरिक्त बिजली खर्च होती है उस दिन
रौशन हो सकते हैं उससे
सैकड़ों अंधेरे गाँव
दिशाहीन विकास का दंश झेल रहे नदी तालाब
खो रहे अपनी आब
मछलियाँ निस्पंद हैं कारखानों के दूषित जल से
सरस्वती दुर्गा और गणेश की रासायनिक रंगों से पुती
प्रतिमाएं
और कहर ढाती हैं
और विषाक्त होता है जल
मूर्तियों !
तुम ही कर दो इनकार
स्थापित होना
फिर प्रवाहित होना
नहीं चाहिए आस्था का यह कारोबार !
8. अक्षरधाम में अक्षर नहीं
अक्षरधाम का परिसर तो स्निग्ध और शांत है
पौराणिक कथाओं के कुछ मूर्तिशिल्प भी हैं वहाँ
पर मूल मंदिर की साज – सज्जा मूर्तियों की पोशाकें
काफी भड़कीली है
पटना कोलकाता मुंबई से लोग दिल्ली आते थे तो
पहले लाल किला जामा मस्जिद और कुतुबमीनार
देखने जाते थे
अब उनकी उत्सुकता के शीर्ष पर है अक्षरधाम !
अमेरिका से बहन आई तो उसने भी सबसे पहले
अक्षरधाम ही देखना चाहा
स्कूल के बच्चे कतार में आ रहे हैं
मंदिर की चौखट पर सिर नवा रहे हैं
बहन को सबकुछ भव्य लग रहा है
पर मैं सोच रही हूँ :
यमुना के कछार पर बना यह स्थापत्य
यमुना की सेहत को कितनी हानि पहुँचाएगा !
अक्षरधाम के निर्माण में जितनी पूँजी लगी है
उतने में दिल्ली के सारे ग़रीब बच्चे शिक्षित हो
सकते थे
सार्थक होता अक्षरधाम भी तब अपने नाम और
अस्तित्व में
इतने सारे लोग इसे देखने आते हैं उन्हें आध्यात्मिक
सुकून वगैरह मिलता है जो उसका मूल्य भी तो कम
नहीं
प्रतिप्रश्न है
खाए अघाए लोगों को ही आध्यात्म सूझता है
रजनी बहन जी कहती थीं दसवीं कक्षा में
इस देश में शिक्षा- स्थलों से उपासना – स्थलों की
संख्या कहीं ज्यादा है
इसके पीछे सिर्फ़ ईश्वर वग़ैरह है , या कोई सनातन
षड्यंत्र ?
खुद से कहती हुई घूम रही थी बहन के साथ देखा
एक कक्ष में उन्हीं बच्चों को बैठे
बच्चे उबासी ले रहे थे उन्हें स्वामी नारायण का उपदेश
और जीवन चरित सुनाया जा रहा था।
इन्हें कुछ बताना ही है तो उन बच्चों का जीवन – संघर्ष
बताया जाए
सफल रहे जो प्रशासनिक सेवाओं जैसी उँची पढ़ाई में
सिर्फ़ अपनी मेहनत और आत्मविश्वास के बल पर
जबकि माता – पिता उनके मामूली जन हैं माँ
घरों में खाना बनाती है और बर्तन पोंछा करती है
पिता ठेला चलाते हैं और सब्जी बेचते हैं
बताने को उन खिलाड़ियों की कहानियाँ भी है जिनकी
वजह से राष्ट्रमंडल खेलों में चमक आई उसी हरियाणा
की बेटियाँ हैं ये जहाँ बेटों का अनुपात उनसे ज़्यादा है
खाप पंचायतें अलग गला कसे रखती हैं…
मंदिर से बाहर आए हम जब बहन विह्वल थी सर से पाँव तक
देख नहीं पाई मेरी खिन्नता…
बहुत सारे लोग जहाँ घोर अभाव का आसव पीते हैं
धन का ऐसा दुरुपयोग मुझे अश्लील लगता है।
9. जनु समुंदर के लहर
बचिया के बोखार त बढ़ रहल है
की करब ?
केकरा पास जाईब
एगो डक्टर त हय कलोनी में
पर पइसा लिए बिना उ त देखबेगा नय
आ पइसा हमरे पास हय नय
उधारो केम्हर से लेंगे
ललित परमोद से पहिला ही ले लिए
आ फेर उ सब भी त हमरे जैसन परिसान हय
हम सब गत्ता के डिब्बा बनावे का मील में काम करते
रहे
मीले बंद हो गया काहे की मील मालीक को करखना
से जियादा मोनाफ़ा जमीन के बेपार में देखाता हय
उहाँ एक ठो माल बनेगा आ तीन हाल बला सिनेमा
बचिया के माय चर- पांच घर में बरतन मंजले है आ
फरस पोंछले है
पिछला घर छूट गया अभी नाया पकड़ी है
ऊ माइडम त एडभान्स देगी नय
अरजून को एगो ढाबा में रखा दिए हैं
जनते हैं हम सरकारी कयदा कनून के खेलाफ है ई
बात
हमरा मन भी दोखाता हय
खेले खाए के उमीर में बचवा दीन रात खटता हय पर
कउनो ओपाय नई हय हमरा पास
हमको कउनो काम नहिये मिल रहा हय न !
गाँव में जमीन था भले जियादा नए
गोजारा चलबे करता था जइसन तइसन
तीन बरिस पहिले हम उसको बेच के आ गए दिल्ली
काहे त साबन भादो सुख्खल गया
आ सेंचाई का कोनो बेबस्था नय था
धान सुख गया सब का सब
बीजो नय बचा
बैंक से करजा लिए थे
वापिस नय कर पाए त ऊ दू ठो लठैत भेजा
खेत बेचकर गला छोड़ाए
गाँव छोड़कर त हम सहर में आए
अब ईहां से केम्हर जाएं !
आपे बतइये
हमको त बोझाता हय हमरा कोनो देस नय है
न ई माटी हमरा हय न ई असमान
न ई पानी हमरा न ई बतास
सब ई ठो बड़का लोगन का ख़ातिर
सरकार हो चाहे कचहरी
सब उनका चाकिर
मुठिये भर हैं अइसन लोग
आ हम सब जनु समुंदर के लहर
लहर पर लहर लहर पर लहर।
10. ह्यगो शॉवेज
कॉमरेड शावेज़ मैं तुमसे प्यार करती हूँ
उसी तरह जिस तरह वेनेज़ुएला के लोग तुमसे प्यार
करते हैं
तुम प्रकाश हो पारदर्शी
पृथ्वी का
चचा सैम तुमसे डरते हैं मन ही मन
और यह शुभ संकेत है तुम
उनके मंसूबे समझते हो समझाते हो दूसरे लातीनी देशों को
तुमने अपनी जुदा राह बनाई है
तुम्हें सर्वहारा की तानाशाही नहीं जंचती
तुम्हें किसी की तानाशाही नहीं जंचती
बिना पुराना ढाँचा गिराए तुम उसके समानांतर
नया ढाँचा खड़ा करते हो
और इस तरह अनावश्यक रक्तपात से बचाते हो
वेनेजुएला को
फ़िदेल कास्त्रो का नैतिक उत्तराधिकारी मानते हो तुम
खुद को
कास्त्रो की ही तरह रहोगे तुम
हमारे दिलों में
हमारे दिमाग में।
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