Friday, November 22, 2024
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स्त्री प्रतिरोध की कविता और उसका जीवन

प्रतिरोध की कविताएं

कवयित्री सविता सिंह

स्त्री दर्पण मंच पर ‘प्रतिरोध कविता श्रृंखला’ जिसका संयोजन प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह कर रही हैं। इस श्रृंखला में आप पाठकगण अब तक वरिष्ठ कवयित्रियों में शुभा, शोभा सिंह, निर्मला गर्ग, कात्यायनी, अजंता देव, प्रज्ञा रावत एवं सविता सिंह की कविताओं से रूबरू हुए। आपकी इस श्रृंखला में बढ़ती रुचि हमें प्रोत्साहित करती रही है।
इस श्रृंखला की अगली कड़ी दलित महिला सरोकारों की वरिष्ठ कवयित्री रजनी तिलक हैं। आज आपके समक्ष इनकी की कविताएं प्रस्तुत की जा रही है।
“प्रतिरोध कविता श्रृंखला” पाठ – 7 में आपने प्रतिष्ठित कवयित्री सविता सिंह की कविताओं को पढ़ा। इनके बाद “प्रतिरोध कविता श्रृंखला” पाठ – 8 के तहत दलित महिला सरोकारों की वरिष्ठ कवयित्री रजनी तिलक की कविताएं परिचय के साथ प्रस्तुत की जा रही हैं।
पाठकों का आभार व्यक्त करते हुए हम प्रतिक्रियाओं का इंतजार करते हैं।
– सविता सिंह
रीता दास राम
आज हिन्दी में स्त्री कविता अपने उस मुकाम पर है जहां एक विहंगम अवलोकन ज़रुरी जान पड़ता है। शायद ही कभी इस भाषा के इतिहास में इतनी श्रेष्ठ रचना एक साथ स्त्रियों द्वारा की गई। खासकर कविता की दुनिया तो अंतर्मुखी ही रही है। आज वह पत्र-पत्रिकाओं, किताबों और सोशल मिडिया, सभी जगह स्त्री के अंतस्थल से निसृत हो अपनी सुंदरता में पसरी हुई है, लेकिन कविता किसलिए लिखी जा रही है यह एक बड़ा सवाल है। क्या कविता वह काम कर रही है जो उसका अपना ध्येय होता है। समाज और व्यवस्थाओं की कुरूपता को बदलना और सुन्दर को रचना, ऐसा करने में ढेर सारा प्रतिरोध शामिल होता है। इसके लिए प्रज्ञा और साहस दोनों चाहिए और इससे भी ज्यादा भीतर की ईमानदारी। संघर्ष करना कविता जानती है और उन्हें भी प्रेरित करती है जो इसे रचते हैं। स्त्रियों की कविताओं में तो इसकी विशेष दरकार है। हम एक पितृसत्तात्मक समाज में जीते हैं जिसके अपने कला और सौंदर्य के आग्रह है और जिसके तल में स्त्री दमन के सिद्धांत हैं जो कभी सवाल के घेरे में नहीं आता। इसी चेतन-अवचेतन में रचाए गए हिंसात्मक दमन को कविता लक्ष्य करना चाहती है जब वह स्त्री के हाथों में चली आती है। हम स्त्री दर्पण के माध्यम से स्त्री कविता की उस धारा को प्रस्तुत करने जा रहे हैं जहां वह आपको प्रतिरोध करती, बोलती हुई नज़र आएंगी। इन कविताओं का प्रतिरोध नए ढंग से दिखेगा। इस प्रतिरोध का सौंदर्य आपको छूए बिना नहीं रह सकता। यहां समझने की बात यह है कि स्त्रियां अपने उस भूत और वर्तमान का भी प्रतिरोध करती हुई दिखेंगी जिनमें उनका ही एक हिस्सा इस सत्ता के सह-उत्पादन में लिप्त रहा है। आज स्त्री कविता इतनी सक्षम है कि वह दोनों तरफ अपने विरोधियों को लक्ष्य कर पा रही है। बाहर-भीतर दोनों ही तरफ़ उसकी तीक्ष्ण दृष्टि जाती है। स्त्री प्रतिरोध की कविता का सरोकार समाज में हर प्रकार के दमन के प्रतिरोध से जुड़ा है। स्त्री का जीवन समाज के हर धर्म जाति आदि जीवन पितृसत्ता के विष में डूबा हुआ है। इसलिए इस श्रृंखला में हम सभी इलाकों, तबकों और चौहद्दियों से आती हुई स्त्री कविता का स्वागत करेंगे। उम्मीद है कि स्त्री दर्पण की प्रतिरोधी स्त्री-कविता सर्व जग में उसी तरह प्रकाश से भरी हुई दिखेंगी जिस तरह से वह जग को प्रकाशवान बनाना चाहती है – बिना शोषण दमन या इस भावना से बने समाज की संरचना करना चाहती है जहां से पितृसत्ता अपने पूंजीवादी स्वरूप में विलुप्त हो चुकी होगी।
प्रतिरोध कविता श्रृंखला की आठवीं कवयित्री रजनी तिलक हैं। इनके बारे में हम सहजता से कह सकते हैं कि हिंदी की ये वैसी समर्थ दलित स्त्री कवयित्री हैं जिन्हें पहली बार ठीक से पढ़ा गया। यानि के दलित स्त्री वादी कविता को इन्होंने एक सशक्त पहचान दी। इनकी कविताओं में जीवन के कटु अनुभव तो आते ही हैं लेकिन प्रतिरोध और उम्मीद लगातार अभिव्यक्त होते जाते हैं। इनकी कविता ‘औरत–औरत में अंतर है’ यह एक ऐसी कविता है जिसने स्त्री वादी चेतना में फर्क पैदा किया और हम सबों को सजग ढंग से सोचने के लिए प्रेरित किया। इस श्रृंखला में उनकी इन महत्वपूर्ण कविताओं को शामिल कर हमें बेहद खुशी हो रही है।
रजनी तिलक का परिचय :
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जन्म : 27 मई 1958 दिल्ली, दलित स्त्रीवादी लेखिका और कार्यकर्ता। बामसेफ, दलित पैंथर, अखिल भारतीय आंगनबाड़ी वर्कर एंड हेल्पर यूनियन, आह्वान थियेटर, नेशनल फेडरेशन फॉर दलित वीमेन, नेकडोर, वर्ल्ड डिगनिटी फोरम, दलित लेखक संघ और राष्ट्रीय दलित महिला आंदोलन से जुड़ी रहीं। रजनी तिलक सेण्टर फॉर अल्टरनेटिव दलित मीडिया (सीएडीएएम) की कार्यकारी निदेशक भी थीं।
कुछ प्रमुख कृतियाँ : पदचाप, हवा-सी बेचैन युवतियाँ, दलित-निर्वाचित कविताएँ, (कविता-संग्रह) ‘अपनी ज़मीं, अपना आसमाँ’(आत्मकथा), बेस्ट ऑफ करवाचौथ (कहानी-संग्रह)
निधन : 30 मार्च 2018
रजनी तिलक की कविताएं :
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1 प्यार
सोचा था
प्यार की दुनिया
बड़ी हसीन होगी
’उसके’ साथ ज़िन्दगी
रंगीन होगी
पाया एक अनुभव
प्यार एक पदार्थ
थकावट भरी नींद
विवाह की कल्पना थी
मृदुल शान्त
प्यार की छत
अहसासों की दीवारें
परन्तु वह निकली
एक रसोई और बिस्तर
और आकाओं का हुक़्म
2 वजूद है
आज जब अख़बार देते हैं ख़बरें
हमारी अस्मिता लुट जाने की
बर्बरता और घिनौनी चश्मदीद
घटनाओं की
ख़ून खौल क्यूँ नहीं उठता हमारा?
सफ़ेदपोशी में ढँकते-ढाँपते
हम मुर्दा ही हो चले हैं।
ख़ाक होना है एक दिन सबको
फिर आज ही लड़कर
ख़ाक क्यों नहीं होते?
जानते हो न?
एक ज़माने में अख़बारों में
हमारी परछाइयाँ भी वर्जित थीं
अभिव्यक्ति पर पाबंदी थी
अशिक्षा-अंधकार नियति थी
तब मुर्दों से अछूतों में
स्वाभिमान की चिंगारी
फूटती थी
चिथड़ों से लिपटे कंकालों ने
तुम्हारे-हमारे लिए दो गज़ ज़मीन
स्वाभिमान और आज़ादी
की जंग जीती थी
चिथड़ों में लिपटे इंसान आज भी हैं
उनकी भूख और बूढ़ी आँखें देख
मुँह फेर कर चल सकते हो,
परंतु यह हमारा अतीत है
हमारी सफ़ेदपोशी
उनके संघर्षों का वजूद है।
3 अर्धांगिनी नहीं पूरा शरीर हूं
वो गृहणी घर की स्वामिनी
पति की अर्धांगिनी?
सुबह सवेरे सबके उठने से पहले
नित्य अपने काम में लग जाती
झाड़ू पोंछा, खाना पकाना
बर्तन मांजना, कपड़े धोना
क्या यह तो ‘अहोभाग्य’ उसका ?
घर भर को नाश्ता कराना
साथ में लंच डिब्बा पकड़ाना
टाई बनियान रूमाल जुराबें थमाना
रसोई से बाथरूम, बाथरूम से ड्राईंगरूम
चक्कर पे चक्कर फिरकी सी जिंदगी
क्यूं उसका भार बन गया है ?
थकी हारी गृहणी थककर
दो कौर खाती
उसके श्रम का मूल्य एक कटाक्ष
‘घर का काम भी कोई काम है
यह तो औरत का धर्म है’
के गृहणी घर की स्वामिनी
अर्धांगिनी नहीं, पूरी है
जीती जागती पूरा शरीर
जिसका अपना मस्तिष्क है
दो हाथ दो पांव
और
दुनिया पलट देने का
संपूर्ण साहस भी!
4 शिक्षा का परचम
तू पढ़ महाभारत
न बन कुन्ती, न द्रोपदी।
पढ़ रामायण
न बन सीता, न कैकेयी।
पढ़ मनुस्मृति
उलट महाभारत, पलट रामायण।
पढ़ कानून
मिटा तिमिर, लगा हलकार।
पढ़ समाजशास्त्र, बन जावित्री
फहरा शिक्षा का परचम।
5 नाचीज़
औरत होने की वजह से
बहुत कुछ झेलना पड़ता है
रात को दिन, दिन को रात
सूरज को चाँद कहना पड़ता है।
औरत जो ख़ुद को इंसान समझे
तो दुनिया ख़िलाफ़ हो जाती है,
समाज तूफ़ान ले आता है
परिवार सहम जाता है।
औरत तूफ़ान पर चलती है
घृणा की ओढ़नी ओढ़ती है
क्या फ़र्क़ पड़ता है
कोख में जीवन रखती है
औरत जो नाचीज़ होती है।
6 औरत – औरत में अंतर है
औरत औरत होती है,
उसका न कोई धर्म
न कोई ज़ात होती है,
वह सुबह से शाम खटती है,
घर में मर्द से पिटती है
सड़क पर शोहदों से छिड़ती है।
औरत एक बिरादरी है।
वह स्वयं सर्वहारी है,
स्त्री वर्ग-लिंग के कारण
दबाई और सताई जाती है।
एक-सी प्रसव पीड़ा झेलती है।
उनके हृदय में एक-सा वात्सल्य
ममता-स्रोत फूटते हैं,
औरत तो औरत है
सबके सुख-दु:ख एक हैं।
औरत औरत होने में
जुदा-जुदा फ़र्क़ नहीं क्या?
एक भंगी तो दूसरी बामणी
एक डोम तो दूसरी ठकुरानी
दोनों सुबह से शाम खटती हैं
बेशक, एक दिन भर खेत में
दूसरी घर की चहारदीवारी में
शाम को एक सोती है बिस्तर पे
तो दूसरी काँटों पर।
छेड़ी जाती हैं दोनों ही बेशक
एक कार में, सिनेमा हॉल और सड़कों पर
दूसरी खेतों, मोहल्लों में, खदानों में और
सब सर्वहारा हैं संस्कृति में?
एक सताई जाती है स्त्री होने के कारण,
दूसरी सताई जाती है स्त्री और दलित होने पर
एक तड़पती है सम्मान के लिए
दूसरी तिरस्कृत है भूख और अपमान से।
प्रसव-पीड़ा झेलते फिर भी एक-सी
जन्मती है एक नाले के किनारे
दूसरी अस्पताल में,
एक पायलट है
तो दूसरी शिक्षा से वंचित है,
एक सत्ताहीन है,
दूसरी निर्वस्त्र घुमाई जाती है।
औरत नहीं मात्र एक जज़्बात
हर समाज का हिस्सा,
बँटी वह भी जातियों में
धर्म की अनुयायी है
औरत औरत में भी अंतर है।
7 योनि है क्या औरत
हर स्त्री मर्द के लिए
एक योनि
एक जोड़ी स्तन
लरजते होंठ है !
बहनापे वाली बहनों ने
मर्दों को धिक्कारा
उन्हें चेताया और कहा
योनि! स्तन! होंठ …
सब हमारे व्यक्तिगत हैं!
हमारा शरीर हमारा है
हमारी भावनाएं,
हमारी आजादी, इच्छाएं
पतंग सी उड़ती महत्वाकांक्षाएं
सब हमारी,
हम सपनों के महल की तारिकाएं हैं!!
कल तक हमने भी बहनापे के राग अलापे
हां, ‘जागोरी’ ‘सहेली’ ‘निरंतर’
फ़ोरम की सहेलियों के साथ
हमारे जज़्बात
सब सांझे थे
परंतु आज शरीर और मन से आज़ाद
तुम
तुम्हारा सुन्दर संसार
हम कहां हैं इस दुनिया में ?
भारत के नक्शे पर भिनभिनाती
मक्खियों सी ?
हुनर नहीं, शिक्षा नहीं
रोज़गार नहीं
रहने को आवास नहीं
रात को अंधेरे में
डूबी हुई आंखें हैं
निराशा में डूबे मां बाप
सुबह सवेरे दूधमुंहों को
भेजते हैं सड़कों पर
बटोरती है
लोहा रद्दी कूड़ा
बुहारती
सड़क गली चौबारा !!
तुमने हमसे कहा
क्या हुआ अगर
तुम्हारे पास स्किल नहीं
शिक्षा नहीं, पैसे की विरासत नहीं
अस्तित्व नहीं, अभिजात नहीं
वर्ण शंकर देवदासी हो
कोल्हाटी की बार गर्ल
या नौटंकी की बेड़नी
एक योनि तुम्हारी भी है
तुम इसे जमीं बना लो
‘सेक्स वर्क’ का बीज जमा दो
पीढ़ी पर पीढ़ी तर जाओगी
हम बहनें तुम्हारी
तुम्हारे लिए लड़ जाएंगी
पुलिस, कानून, पार्लियामेंट
से भिड़ जाएगी
‘सेक्स वर्क को इज्जत दिलाएगी
हम
संसद पहुंच कानून बनाएंगी
पूछती हूं तुमसे मैं
एक योनि सवर्ण बहिना की
उन्हें अपनी योनि पर
खुद का नियंत्रण चाहिए
तब दलित स्त्री की आबरू पर
बाजारू नियंत्रण क्यों ?
धन्य हो … आपके बहनापे का
आप जैसी जिनकी मुक्ति दात्री हों
उनकी मुक्ति क्या?
गुलामी क्या?
8 वेश्या
चले आइए
धीरे से दरवाजा उढकाकर
मैं दुःख बांटती हूं
जी हां
मैं दुःख बांटती हूं
तुम्हारी मुस्कराहट के लिए
अपनी खुशी बेचती हूं
तन्हाई
मेरी क्या तन्हाई ?
मैं तो सिर्फ तुम्हारे लिए
तुम्हारी तन्हाई के लिए जीती हूं
चले आइए बेझिझक
देहरी लांघकर
इस जालिम पेट के लिए
अपना रूप, अपना स्वाभिमान
अपनी अस्मत बेचती हूं
9 बुद्ध चाहिए युद्ध नहीं
क्यों खड़ी की तुमने
बारूद के ढेर पर हमारी दुनिया
मुझे जीवन की आस है।
मैं सावन को आँखों में भरकर
बहारों में झूलना चाहती हूँ
शाँति, ज्ञान, करुणा मेरा गहना
युद्ध, क्रूरता, तृष्णा तुम्हारा हथियार
हिरोशिमा की तड़प मैं भूलना चाहती हूँ।
तुमने जो मृत्यु बीज
परमाणु युद्ध क्यों बोया?
यह घृणा-मृत्यु का वटवृक्ष
पल में लाखों को भी लेगा,
बुद्ध के देश में
पंचशील, संकल्प टूट जाएगा।
मैं जीवन की हथेलियों में
दुलारना चाहती हूँ,
मैं अपने बच्चों को
इंसान बनाना चाहती हूँ,
उस देश में भी मेरी सीमाएँ
अपने बच्चों पर अरमान सजाती होंगी
वह भी उन्हें ‘कुछ’ बनाने की
ललक लिए दुलारती होंगी।
हिरोशिमा की माँओं की सिसक
अभी बाक़ी है।
ये जंग की तलवार
हमारे सिर से हटा दो
बारूद के ढेर पर
क्यों खड़ी हो हमारी दुनिया?
हम जंग नहीं चाहते,
जीना चाहते हैं
हम विनाश नहीं सृजन चाहते हैं
हम युद्ध नहीं
बुद्ध चाहते हैं।
10 जीवन बदलेगा अवश्य
दूसरे की रात
अपने जीवन का
सपना न बनाओ,
उन्हें न सजाओ
अपनी आँखों में।
वीरानी रात,
कभी सुख न देगी
अपना जीवन अपना
गाओ, नाचो, ख़ुशी मनाओ
जीवन को आज़ाद होने दो
सूरज निकलेगा अवश्य
जीवन बदलेगा अवश्य।
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