प्रतिरोध की कविताएं
कवयित्री सविता सिंह
स्त्री दर्पण मंच पर ‘मुक्तिबोध की स्मृति में’ प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह द्वारा संयोजित ‘प्रतिरोध कविता श्रृंखला’ की शुरुआत मुक्तिबोध के जन्म दिवस 13 नवंबर 2021 को की गई। आज हम इस श्रृंखला की अंतिम कड़ी को प्रस्तुत कर रहे हैं।
इस श्रृंखला में अब तक आप पाठकों के समक्ष शुभा, शोभा सिंह, निर्मला गर्ग, कात्यायनी, अजंता देव, प्रज्ञा रावत, सविता सिंह, रजनी तिलक, निवेदिता, अनिता भारती, हेमलता महिश्वर, सुशीला टाकभौरे जैसी वरिष्ठ कवयित्रियों की कविताओं के साथ समकालीन कवयित्रियों वंदना टेटे, रीता दास राम, नीलेश रघुवंशी, निर्मला पुतुल, सीमा आज़ाद, कविता कृष्णपल्लवी एवं जसिंता केरकेट्टा की कविताओं को प्रस्तुत किया गया।
आज मंच पर इस श्रृंखला की अंतिम कवयित्री रुचि भल्ला की कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं।
“प्रतिरोध कविता श्रृंखला” पाठ – 19 में कवयित्री जसिंता केरकेट्टा की कविताओं को आप पाठकों ने पढ़ा। आपके महत्वपूर्ण विचार व टिप्पणियों से सभी लाभान्वित हुए।
आज “प्रतिरोध कविता श्रृंखला” की कड़ी के अंतिम पाठ – 20 में कवयित्री रुचि भल्ला की कविताएं परिचय के साथ आप पाठकों के समक्ष हैं।
पाठकों के सहयोग, स्नेह व प्रोत्साहन का सादर आभार व्यक्त करते हैं कि आपने इस श्रृंखला की तारीफ की, सराहा। आपके इस प्यार का तहे दिल से धन्यवाद अदा करते हैं। हम आपकी प्रतिक्रियाओं से अवगत हुए और होते रहेंगे ऐसी आशा के साथ आपके महत्वपूर्ण विचारों का इंतजार है।
– सविता सिंह
रीता दास राम
आज हिन्दी में स्त्री कविता अपने उस मुकाम पर है जहां एक विहंगम अवलोकन ज़रुरी जान पड़ता है। शायद ही कभी इस भाषा के इतिहास में इतनी श्रेष्ठ रचना एक साथ स्त्रियों द्वारा की गई। खासकर कविता की दुनिया तो अंतर्मुखी ही रही है। आज वह पत्र-पत्रिकाओं, किताबों और सोशल मिडिया, सभी जगह स्त्री के अंतस्थल से निसृत हो अपनी सुंदरता में पसरी हुई है, लेकिन कविता किसलिए लिखी जा रही है यह एक बड़ा सवाल है। क्या कविता वह काम कर रही है जो उसका अपना ध्येय होता है। समाज और व्यवस्थाओं की कुरूपता को बदलना और सुन्दर को रचना, ऐसा करने में ढेर सारा प्रतिरोध शामिल होता है। इसके लिए प्रज्ञा और साहस दोनों चाहिए और इससे भी ज्यादा भीतर की ईमानदारी। संघर्ष करना कविता जानती है और उन्हें भी प्रेरित करती है जो इसे रचते हैं। स्त्रियों की कविताओं में तो इसकी विशेष दरकार है। हम एक पितृसत्तात्मक समाज में जीते हैं जिसके अपने कला और सौंदर्य के आग्रह है और जिसके तल में स्त्री दमन के सिद्धांत हैं जो कभी सवाल के घेरे में नहीं आता। इसी चेतन-अवचेतन में रचाए गए हिंसात्मक दमन को कविता लक्ष्य करना चाहती है जब वह स्त्री के हाथों में चली आती है। हम स्त्री दर्पण के माध्यम से स्त्री कविता की उस धारा को प्रस्तुत करने जा रहे हैं जहां वह आपको प्रतिरोध करती, बोलती हुई नज़र आएंगी। इन कविताओं का प्रतिरोध नए ढंग से दिखेगा। इस प्रतिरोध का सौंदर्य आपको छूए बिना नहीं रह सकता। यहां समझने की बात यह है कि स्त्रियां अपने उस भूत और वर्तमान का भी प्रतिरोध करती हुई दिखेंगी जिनमें उनका ही एक हिस्सा इस सत्ता के सह-उत्पादन में लिप्त रहा है। आज स्त्री कविता इतनी सक्षम है कि वह दोनों तरफ अपने विरोधियों को लक्ष्य कर पा रही है। बाहर-भीतर दोनों ही तरफ़ उसकी तीक्ष्ण दृष्टि जाती है। स्त्री प्रतिरोध की कविता का सरोकार समाज में हर प्रकार के दमन के प्रतिरोध से जुड़ा है। स्त्री का जीवन समाज के हर धर्म जाति आदि जीवन पितृसत्ता के विष में डूबा हुआ है। इसलिए इस श्रृंखला में हम सभी इलाकों, तबकों और चौहद्दियों से आती हुई स्त्री कविता का स्वागत करेंगे। उम्मीद है कि स्त्री दर्पण की प्रतिरोधी स्त्री-कविता सर्व जग में उसी तरह प्रकाश से भरी हुई दिखेंगी जिस तरह से वह जग को प्रकाशवान बनाना चाहती है – बिना शोषण दमन या इस भावना से बने समाज की संरचना करना चाहती है जहां से पितृसत्ता अपने पूंजीवादी स्वरूप में विलुप्त हो चुकी होगी।
स्त्री प्रतिरोध की इस कविता श्रृंखला में हमारी बीसवीं और अंतिम कवि रूचि भल्ला हैं। इनकी कविताओं की भाषा और बिंब इतने नए और ताजगी भरे हैं कि इन्हें पढ़ते हुए नए एहसासों के भीतर जाना संभव होता है। शहर इलाहाबाद इनके लिए एक ऐसे मेटाफर की तरह है जिसके जरिए न सिर्फ इसके लोप होने की वह बात कर पाती हैं, बल्कि उस डर को भी सामने लाती हैं जिसके भीतर ऐसी कई जानी मानी चीज़ों और मूल्यों का लोप होना भी बाकी लगता है। एक शहर के भीतर एक पुराना शहर, एक स्त्री के भीतर छिपती एक स्त्री यह सिलसिला तभी शुरू होता है जब लोकतंत्र का मिट जाना भी एक संभावना बन जाए। आखिर इलाहाबाद से ही तो लखनऊ और रामपुर जाना है सबको और शाहीनबाग भी पहुंचना है इनकी कविताओं में प्रयुक्त हुए शब्दों को और साथ में हवा भी है जिसके बगैर कोई काम नहीं होता। वह कभी भी अपना रुख बदल सकती है। वे कहती है, “फर्क होता है हवा हवा में” एक नीलकंठ का काम ईश्वर के बगैर तो चल सकता है जब वह जाकर बैठता है पलटन कोर्ट की लाल दीवार पर, अयोध्या की हवा में जब झूला रहें हैं लोग रामलला का झूला, अगले पल यह सब कुछ बदल जा सकता है। रुचि भल्ला की ये महत्वपूर्ण कविताएं आप भी पढ़ें।
रुचि भल्ला का परिचय :
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जन्म : 25 फरवरी 1972 इलाहाबाद,
प्रकाशन : जनसत्ता, दैनिक भास्कर ,दैनिक जागरण, प्रभात खबर आदि समाचार-पत्रों में कविताएँ प्रकाशित।
पहल, तद्भव, हंस, नया ज्ञानोदय, वागर्थ, लमही, मधुमती, कथादेश, सदानीरा, परिकथा के अलावा विभिन्न पत्रिकाओं एवं ब्लॉग में कविताएँ और संस्मरण प्रकाशित। कुछ कविताएँ साझा काव्य संग्रह में भी ….
कहानी गाथांतर ,यथावत, परिकथा, दोआबा पत्रिका में प्रकाशित।
प्रसारण : ‘शालमी गेट से कश्मीरी गेट तक …’ कहानी का प्रसारण रेडियो FM Gold पर।
आकाशवाणी के इलाहाबाद, सातारा, हल्दवानी तथा पुणे केन्द्रों से कविताओं का प्रसारण …
मेल : [email protected]
रुचि भल्ला की कविताएं :
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1) शहर की तलाश
ईश्वर क्यों नहीं मिलता ऐसे
जैसे शराब होती है जाम में
अल्लाह भी क्यों नहीं मिलता ऐसे
जैसे कत्था -चूना होता है पान में
मैंने तलाशा ईश्वर को आइनस्टीन के आविष्कार में
वेद व्यास की महाभारत में
अंतोन चेखव की कहानियों में भी नहीं था भगवान
मैकडोनाल्ड बर्गर टिक्की के पास भी नहीं पड़ती थी छाया
मैंने उसे सेब में तलाशा जहाँ हाथ आया था
न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त
ईश्वर वहाँ भी नहीं था अरब सागर में
गहरे तले बैठी मछली के पेट में
अल्लाह मस्जिद की सीढ़ियाँ भी नहीं चढ़ा
ढूँढते रह गए नमाज़ी कदमों के निशान
ईश्वर हुगली नदी में तैरती कश्ती पर भी नहीं बैठा
ठाकुर दा को जो मिल जाता
तो न कहते वह ऐकला चलो रे! संसार से
गाँधी के पास जो होता
हे! राम कह कर न निकलते प्राण
भगत सिंह न कहते –
मैं नास्तिक हूँ
इलाहाबाद में भी नहीं था भगवान
जो होता बचा लेता शहर को अपने हाथ से
अल्लाह भी नहीं था उसके पास
दिखा लेता वह हाथ का करतब अपने
इलाहाबाद कहीं नहीं था
ईश्वर और अल्लाह की तरह सारे जहान में
उसके होने का पाल रखा है वहम दुनियावालों ने
वह शहर जो इतिहास हो गया
मिलेगा इतिहास की किताब की तरह
नये शहर की पुरानी होती लाइब्रेरी में
2) एक हक़ीकत एक फ़साना
जबकि कविताएँ पुरानी आकृष्ट करती हैं
सोचती हूँ पुरानी होती दुनिया में
मेरे शहर के कवि ने नया क्या लिखा है
अब जब वक्त के पाँव वर्तमान के घेरे में खड़े हैं
वह कवि भविष्य के बारे में क्या सोचता है
सोचते हुए पड़ जाती हूँ सोच में
देखने लगती हूँ सहयाद्रि के पठार
पठार के आगे है दुनिया
दुनिया की पीठ से टेक लगाए खड़ा है इलाहाबाद
डूबा रहता है मेरे ख्याल में दिन -रात
संगम में जाकर मेरे नाम की डुबकी लगाता नहीं
मेरा नाम खो जाने का उसे लगता है डर
उसने खोया है शहर में अपना नाम
डर के भीतर रहता है मेरा शहर
जैसे रहती हैं लड़कियाँ अपने देश में डर कर
जबकि देश होता है घर
घर की होकर लड़कियाँ हैं बेघर
बेघर हैं इसलिए नहीं है उनके पास घर की वह दीवार
जिसकी कील पर टाँग सकें दुर्गा काली
लक्ष्मी बाई इंदिरा गांधी की याद
डर -डर कर वे पढ़ती रहीं हनुमान चालीसा
डर कर चढ़ती रहीं मंदिर की सीढ़ियाँ
चढ़ाती रहीं ताउम्र शिवलिंग पर जल
देव पुरूषों से माँगती रहीं निर्भय होने का वर
देश में रहते हुए नहीं मिल सकी उन्हें एक ऐसी सड़क
जहाँ बेखौफ़ लगा सकें रात में गश्त
वे दिन की सड़क पर अगर उतरीं तो भी मोमबत्ती
जला कर
3) करेलाबाग से शाहीनबाग तक
कलयुगी चाँद से पूछा मैंने
कब आएँगे दिन अच्छे तुम्हारे
चाँद ने हँस कर कहा
मुझसे तो रात की बात करो
सूरज से भी दोहराया मैंने यही सवाल
सतयुग से नहीं पूछ सकी
गोकि मैंने कलयुग ही देखा
त्रेतायुग का राम देखने की अभिलाषा नहीं रही मेरी
द्वापर के कृष्ण को भी आवाज़ नहीं दी कभी
अनादि शिव पर भरोसा ज़रूर किया
शिव ईश्वर होते तो कोई और बात होती
शिव जपने का एक नाम रहा
नाम जपने पर मैं भरोसा करती रही
भरोसा मुझे प्रधान सेवक की बात पर भी नहीं था
जिसने जनता से कहा – आएँगे अच्छे दिन तुम्हारे
वह लोकताँत्रिक होता
तो बात कुछ और होती
प्रयागराज की ताजपोशी इलाहाबाद की गद्दी पर
न होती
फिर भी कहूँगी शुक्र है !
वह ईश्वर बना
जनता बनी भक्त उसकी
यह शुक्रतारे का कमाल था
कि डूबते तारे की भक्ति में जाना
हिन्दोस्तान में एक बाग
शाहीनबाग भी है
नहीं तो करेलाबाग की यह लड़की
इलाहाबाद के चक्कर में पड़ी रहती
लखनऊ की गाड़ी रामबाग से छूट जाती मेरी
कलयुग में वह ईश्वर न होता
शाहीनबाग की ईंट न खड़ी होती
शाहीनबाग रह जाता शाहीनबाग हो जाने से
एक ख़्वाब की हक़ीकत
4) इस्तानबुल से इलाहाबाद तक
नाज़िम हिकमत कहते हैं –
“मैं तुम्हें देखता हूँ, इस्तानबुल लाख आँखों से
और मेरी पत्तियाँ धड़कती हैं
लाख दिलों के साथ धड़कती हैं
मैं गुलख़ाना बाग़ में अखरोट का एक पेड़ हूँ”
मैं उस अखरोट के पेड़ को देखती हूँ
सोचती हूँ
काश ! हो पाती मैं इलाहाबाद के बाग का मीठा अमरूद
इस्तानबुल की गलियों से गुज़रते हुए
पहुँच जाती हूँ इलाहाबाद
दोस्त कहते हैं
लौट आओ !
कि अब शहर प्रयागराज है
इलाहाबाद नहीं रहा
मैं नाज़िम की नीली आँखों में देखते हुए
संगम के जल की सीढ़ियाँ उतरने लगती हूँ
बँधुआ वाले हनुमान जी अब मंदिर में नहीं रहते
चले गए हैं अक्षय वट को बचाने किले के अंदर
दरख्त के नीचे जाकर सुस्ताते हैं
सोचते हैं …
लंका जलाना आसान था
मुश्किल था इलाहाबाद के नाम को बचाए रखना
राम लला भी कुछ नहीं कहते
भक्तों ने बाँध रखे हैं हाथ उनके
मैं नैनी पुल पर खड़े होकर बुड्ढा ताज़िया की ओर
देखने लगती हूँ
लाज की टोपी अब भी पहन रखी है मस्जिद ने सर पर
तारों भरे आसमान में
अब चाँद नहीं उगता
सूरज के सहारे रात काट लेते हैं लोग
ईश्वर से ज़्यादा मैंने लोगों पर विश्वास किया
लोग जिन्होंने बदल दिया मेरे शहर का नाम
छोड़ दिया मुझे तन्हा
पत्थर गिरजे के बाहर रोते हुए
2018 की दोपहर तबसे बीतती नहीं है
सूली पर टंग गई जाकर यीशू की कील के साथ
एक राहगीर ने रोते देख कर
किया था मुझसे सवाल
तुमने क्या किया है अपने शहर के लिए
मैंने उससे जवाब में कहा –
क्या तुमने देखा है इस्तानबुल
गुल़खाना बाग में लगा है अखरोट का पेड़
जिसका नाम है नाज़िम हिकमत
मैं वह पेड़ नहीं हो सकी
इलाहाबाद की मोहब्बत में पत्थर हो गई
मैं पत्थर दिल अब बोल नहीं पाती
कि जिस शहर से प्यार किया मैंने शख्स की तरह
शहर का नाम लोग बदल सकते हैं
मैं मोहब्बत का नाम बदल नहीं सकती
5) बत्तीस दाँतों का सच
जब मेरे दाँत दूध के थे
मोहनदास करमचंद गाँधी की तस्वीर मैं तबसे
बापू के नाम से पहचानती रही
नमक का स्वाद चखने से पहले
नहीं जानती थी नमक सत्याग्रह के मायने
एक किताब में पढ़ा था
जवाहर लाल नेहरू हिन्दोस्तान के खजाने का जवाहर हैं
किताबें झूठी नहीं थीं
उनका सच
ज़्यादा सच बोलने वालों ने
पढ़ते-पढ़ाते बदल दिया
मैं कलयुग का काला जादू देखती रही
देखते -देखते टूटते रहे मेरे दूधिया दाँत
दाँत टूटना करिश्मा नहीं था
हैरतअंगेज़ था जानना कि बापू को
अपने देश में गोली मार दी
इंदिरा जो थीं लौह महिला
सफ़दर जंग रोड पर एक सुबह सारा लोहा पिघलता देखा
सन् 84 के बाद किसी ने इंदिरा प्रियदर्शनी को देखा नहीं
अचानक वह इतिहास की किताब के एक पन्ने में
दर्ज़ हो गईं
यह अलग बात है राजधानी की किसी लाइब्रेरी में
इतिहास की वह किताब हाथ लगती नहीं
बाईबिल में लिखा है यीशू ने जहाँ सलीब को ढोया
मैं उस जेरूसलेम को उनका जन्मस्थल समझती थी
सुकरात का जीवन दर्शन इतना तो कठिन नहीं था
जितनी सरलता से थमा दिया क्रीटो ने विष का प्याला
मैं और नाम नहीं गिनाऊँगी
टूट कर गिरते जाएँगे मेरे बत्तीस दाँत
जिन किताबों को पढ़ कर बड़ी होती गई
सीखा जीवन का पाठ
उनका लिखा खारिज करते देखना उतना ही कठिन है
जितना कठिन है देखना अपने टूटते हुए दाँत
6) मेरी आँखों में ठहरा शहर
इससे पहले कि कह सकूँ
आई एम प्राउड टू बी एन इंडियन
हिन्दू होने का मतलब तब तक नहीं जाना
जब तक मुस्लमाँ को नहीं देखा था
बशीर मियाँ की बगीची में खिला गुलाब देखती हूँ
जाना नामदास माली के हाथों का बोया बीज है
बंटी बिल्ली को देखा करती हूँ
सकीना बी के घर के दूध से उसका मन भर पेट
भरता है
दादी बताती थीं सन् 66 में हामिद मियाँ लाते थे अंडे
रसोई में तबसे बनती है एग करी
लाल काॅलोनी के बाहर जाने का रास्ता
रसूलपुर की सड़क से होकर गुज़रता है
रियाज़ होता था नुक्कड़ की दुकान में
दालमोठ खाता हुआ
उससे निगाह मिलने का मतलब
हिन्दू -मुस्लमाँ होना नहीं होता था
आज भी उसके पठानी सूट का बादामी रंग याद है मुझे
रियाज़ से ज्यादा उसकी हीरोहौंडा अच्छी लगती थी
वह हीरोहौंडा का ज़माना था
उस ज़माने में हुई दोस्ती की बात करूँगी
कहकशाँ के नाम का अर्थ है -सितारों का झुरमुट
मेरे लिए कहकशाँ चाँद है
चाँद वह नहीं जो मस्जिद का ताज होता है
मंदिर में जलता दीपक भी नहीं
मेरे लिए चाँद तश्तरी है जिस पर रख कर खाते थे तहरी
कहकशाँ के हाथ से लेकर पहला निवाला
हाँ ! मैं हिन्दू हूँ
यह मैंने जाना मुस्लमाँ की नज़र के आईने में देख कर
जाना कि ज़्यादा हिन्दू होने के लिए
थोड़ा मुस्लमाँ भी होना पड़ता है
उतना जितना तहरी में होता है नमक
दोस्ती के नमक को चखते हुए
मैंने देखा एक दोपहर मौलवी और पंडित को
खाट पर बैठे हुए
दो दोस्त एक बीड़ी सुलगा रहे थे
उनके कश में धुँआ हो रहा था धर्म और मज़हब
7) दो जाम
‘ग़ालिब’ छुटी शराब पर अब भी कभी -कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र ओ शब-ए-माहताब में ‘
ग़ालिब कूच कर गए दुनिया से
चाँद रह गया तन्हा
मोहब्बत करने वाले अब भी हैं
मोहब्बत का दुनिया में निशाँ नहीं रहा
जैसे मयखाने नहीं रह नहीं गए बीच बाज़ार में
रह गई है नाम की मधुशाला
शहर की आखिरी गली के संग्रहालय में
यकीन न आता हो मयखाने में जाकर पूछ लो
क्या अब भी आती है बच्चन की साकी हाला
मेरा शहर तो इस दौर में गुमनाम हुआ
किस पथ पर चल कर जाएगा कोई मधुशाला
जिस शहर के बाशिंदे अपने शहर का नाम न बचा सके
क्या खोल सकेंगे मयखाने का बंद ताला
चले गए हैं शहर के सारे शराबी
जैसे चले गए ग़ालिब -बच्चन जहाँ से
बची रह गईं हैं चुनावी पार्टियाँ
कुछ हिन्दू रह गए
रह गए मुसलमाँ
भाईचारे के नाम पर टकरा सकें
ऐसे दो अदद जाम न रहे
यूँ तो काँच के बर्तन बहुतेरे बिक रहे हैं
हिन्दोस्ताँ के सरे बाज़ार में
एक काफ़िर ने कहा ….
आप आगरा को अग्रवन कह सकते हैं
कह सकते हैं मुझे काफ़िर
शाहजहाँ का नाम नहीं बदल पाएँगे
मुमताज़ भी रहेगी मुमताज़
ताज भले खो सकता है ताज
कब्र खोदने के इस दौर में
देश न खो बैठे अपना नाम
देश की पेशानी पर पड़ जाते हैं बल
बल देखते हुए दत्तात्रेय फूँकता है पताका बीड़ी
जानता है बीड़ी पीना ग़म का इलाज नहीं
हाथ थाम कर देश का नहीं ले जाता राजवैद्य के पास
पठार पर बैठा देखता है दिन में तारे
दत्तात्रेय ज्योतिषी नहीं
होता तो देखता देश का पंचांग
मैं फिर भी नहीं पूछती उससे देश का भविष्य
देश की कुंडली अभी सरकार के हाथ में है
सरकार के हाथ देखने से बेहतर
मैं दत्तात्रेय का हाथ देखती
जो लिखता है सुफला के प्रेम में खुले खत
मैं देखती लौतिफ़ा का हाथ
छुरी से एक टमाटर के काट देती है स्लाइस साठ
मैं उस बच्चे का हाथ देखती हूँ
जिसकी उड़ रही है खुले आसमान में पतंग
हरिभाऊ किसान के हाथ जिसने रंग दिये हैं
तिरंगे के रंग में बैलों के सींग
बैल जो चलते जा रहे हैं
फलटन की सड़क पर निर्भीक
उन्हें अपने नाम बदल जाने का किसी से कोई
खतरा नहीं
9) दो दिल एक राह
दो शहर होते हैं दो दिल
दो दिलों के बीच से निकलता है रास्ता
रास्ता जो जाता है मंज़िल तक
मैं मंज़िल के सफ़र पर चलती देख रही हूँ आफ़ताब
आप आफ़ताब को कह सकते हैं सूरज
जैसे मैं कहती हूँ चाँद को माहताब
दो कबूतरों ने पहन लिया है सूर्य किरणों का हार
रचा लिया है बादशाही मस्जिद की गुम्बद पर स्वयंवर
स्वयंवर की बात से बेखबर
एक बुलबुल जा बैठी है कीकर के झाड़ पर
उसके पाँव में कीकर का काँटा नहीं चुभता
हवा दम साधे देखती है बुलबुल का करतब
हवा के चेहरे का रंग बदलता जाता है
बदलता तो सूरज भी है
सुबह का सूरज
शाम का सूरज नहीं होता
बदलती तो हवा भी है रुख
देश की हवा एक चाल नहीं चलती
फलटन की हवा दिल्ली जैसी नहीं
गोवा की हवा भी जैसेलमेर सी नहीं
फ़र्क होता है हवा हवा में
अयोध्या की हवा में जब झुला रहे हैं लोग
राम लला का झूला
एक नीलकंठ जा बैठा है फलटन कोर्ट की लाल दीवार पर
उसका काम ईश्वर के बगैर चल जाता है
हवा के बिना नहीं चलता
10) दुनिया टाइटैनिक जहाज नहीं
यह दुनिया कागज़ी नक़्शा नहीं कि नक़्शे को मोड़ कर
टाइटैनिक जहाज की डूबती शक्ल दे दी जाए
मैं सोचती हूँ सपने में
बेशक यह सपने में डूबता जहाज देखने का दौर नहीं
इस दौर में याद आती हैं नाज़िम हिकमत की कविताएँ
कवि नहीं रहते
बची रहती है प्रेम शब्द की तरह कविताएँ
जैसे बची हुई है मेरे पास इलाहाबाद नाम की स्मृति
फलटन में ऐसी कोई जगह नहीं
जहाँ मैं रख सकूँ याद इलाहाबाद की
मेरे आँगन में रोज़ पठारी कव्वा उड़ा आता है
उड़ा कर ले जा सकता है याद पेस्ट्री की
क्या तुम्हें याद है रफ़ीक!
वह शाम कैलकटा पेस्ट्री शाॅप की
जहाँ खायी थी तुमने सन् 94 की गर्म शाम में
पाइनएपल पेस्ट्री
पेस्ट्री नहीं पेस्ट्री की कसम खायी थी
खायी थी दो अक्षरों के नाम की
वह नाम इलाहाबाद नहीं जो बदल जाएगा
अब जबकि तुम रहने लगे हो नवाबों के शहर में
याद आता होगा तुम्हें चन्द्रलोक का चौराहा भी
उसकी दाँयी गली में होता था घर आसमानी
उसकी खिड़की के नाम तुमने नहीं लिखा खत
कोई गुलाबी
छोड़ो उस खत की बात
क्या याद आती है तुम्हें नेतराम की कचौड़ी
कचौड़ी खाते हुए तुम गीत गाते थे
ओ! प्रिया ओ! प्रिया
प्रिया ने तुम्हारी आवाज़ कभी नहीं सुनी
नेतराम की आलू सब्जी की देसी घी से तर बात भी छोड़ो
क्या लखनऊ में तुम्हें मिला एक और सुलाकी
बीएचएस स्कूल तो नहीं होगा नवाबों के शहर में
न मिलेगी जीएचएस स्कूल की पासआउट वह
सन् 94 की लड़की
कहते थे तुम मुँह चिढ़ा कर किशमिश
उसे तुम शर्तिया भूल गए
भूलने लायक था उसका चेहरा
दुनिया का सबसे सादा
ऐसा कहते थे तुम मुझसे
मैं कौन
मैं तुम्हारी प्रिया नहीं
जैसे किशमिश मेरे लिए मेवे का नाम नहीं
और यह दुनिया शर्तिया टाइटैनिक का डूबता जहाज नहीं