स्त्री नवजागरण
भारत की आजादी का संघर्ष आज इतिहास के पन्नों में दर्ज है और इन्हीं पन्नों में कहीं खो सी गयी है भारत की क्रांतिकारी बेटियों की दास्तान जिनके संघर्ष के बिना आजादी का ख्वाब शायद अधूरा ही होता।तारीख गवाह है कि 1857 से लेकर 1947 तक के लंबे भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में स्त्रियां, पुरूषों के बराबर ही ब्रिटिश शासन से बराबर टक्कर लेती रहीं।इसमें भी संपूर्ण भारत में जो महिला आंदोलनकारियों का दल सक्रिय था ,उसने तो ब्रिटिश हुकूमत की चूलें ही हिलाकर रख दी थीं।जिसे तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत की खूफिया रिपोर्ट में भी दर्ज किया गया है।
ऐसी ही एक जुझारू महिला थीं,श्रीमती उर्मिला शास्त्री ,जिन्होंने मात्र इक्कीस वर्ष की उम्र में लगभग पाँच हजार महिला सत्याग्रहियों का मेरठ में नेतृत्व किया था।आर्य समाजी संस्कारों एवं गांधीवादी विचारों से दीक्षित उर्मिला जी का जीवन पूरी तरह समाज एवं राष्ट्र को समर्पित था।
सत्याग्रह में जेल जाने वाली महत्वपूर्ण महिलाओं में उर्मिला शास्त्री भी शामिल थीं।अपने जेल जीवन के कटु अनुभवों को उर्मिला जी ने संस्मरणात्मक रूप में लिखा जो पुस्तकाकार रूप में ‘कारागार’नाम से सन्1931 में प्रकाशित हुयी।जेल जाने से लेकर ,जेल से मुक्ति के कुल छह महीने के अनुभवों को अपने संक्षिप्त कलेवर में समेटे यह पुस्तक कई मायनों में खास है।ब्रिटिश शासन के तहत स्त्रियों को जेलों में जो पीड़ा और असुविधा झेलनी पड़ती थी यह पुस्तक उसका जीवंत बयान है।ब्रिटिश शासन के तहत उस समय शासन की पोल खोलकर उर्मिला शास्त्री ने अभिव्यक्ति का जो जोखिम उठाया था,ऐसा विरले ही कर पाते हैं।जहां तक ज्ञात है स्वतंत्रता से पूर्व किसी स्त्री द्वारा जेल जीवन के बारे में यह पहली पुस्तक है ,यह पुस्तक एक तरफ तो स्त्री लेखन और औपनिवेशिक समाज में सत्याग्राहियों के संघर्ष को उकेरती है तो दूसरी तरफ तत्कालीन सामाजिक सरोकारों की ओर भी इशारा करती है।इस तरह यह छोटी सी पुस्तक स्त्री संघर्ष और उर्मिला शास्त्री के देशहित में किये गये बलिदान का एक ज्वलंत दस्तावेज है।