मित्रो आज हम लोग रोहिणी अग्रवाल जी का जन्मदिन मना रहा है। युवा आलोचक आशीष कुमार का लेख पढ़िये।
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(सृजन का रचनात्मक सौंदर्य और रोहिणी अग्रवाल की आलोचना-प्रक्रिया )
आशीष कुमार
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” हरीफों ने रपट लिखवाई है जा – जा के थाने में,
कि ‘ अकबर ‘नाम लेता है खुदा का इस ज़माने में ।”
( अकबर इलाहाबादी )
शे’र की ज़मीन है – नए और पुराने संबंधों के बीच पनपने वाला अजनबीपन । क्योंकि जो नया है,वो लगातार नया नहीं रह सकता है,पुराना होना उसकी नियति है।नए और पुराने के इस कश्मकश में दुनियावी जहान की तमाम बातें कैद हैं ।यहां मैं बहुत सलीके से अदब की दुनिया में प्रवेश करना चाहता हूं ।जाहिर है, इस दुनिया में दाखिल होने के बाद मै कुछ नामचीन लेखकों और आलोचकों के पास भी गया हूं । आश्चर्य ! कि मै भटके हुए मुसाफ़िर की तरह नहीं लौटा हूं।मेरे पास कुल जमा पूंजी के नाम पर कुछ उद्धरण / हवाले जरूर हैं ।
1.आलोचक कुकुरमाछियों जैसे होते हैं,जो घोड़े को हल नहीं चलाने देती।” चेखोव मुस्कुराते हुए कहते ।घोड़ा काम करता है,उसकी एक – एक रग तनी होती है,पर तभी पुट्टे पर कुकुरमाछी आ बैठती है और उसे गुदगुदाने लगती है, भिनभिनाती है। खाल से उसे झटकना होता है,पूंछ हिलानी पड़ती है।और वह भिनभिनाती क्या है ?उसे भी शायद ही पता हो।बस, स्वभाव ही ऐसा है और फिर यह दिखाना चाहती है कि देखो दुनिया में मैं भी हूं। भिनभिना भी सकती हूं।पच्चीस बरस से मैं अपनी कहानियों की आलोचनाएं पढ़ रहा हूं।आज तक एक भी काम की बात,एक भी नेक परामर्श नहीं सुना ।
(चेखव पर लिखे संस्मरण में उन्हें उद्घृत करते हुए गोर्की, अंतोन चेखव की चुनी कहानियां,पृष्ठ संख्या –
2.हमारे समय में शायद आलोचना की यही सबसे समर्थ,सार्थक भूमिका हो सकती है कि वह समाज में रचना के सत्य,उसकी समूची विशिष्टता के साथ स्पष्ट कर सके। न केवल शब्दों के भीतर छिपे बहुआयामी अर्थों को उद्घाटित करे,बल्कि शब्दों के बीच फैले उस मौन को भी वाणी दे सके।एक कलाकार के लिए आलोचना भले ही प्रत्यक्ष रूप से कोई अर्थ न रखती हो, किन्तु परोक्ष रूप से वह उसके लिए ऐसे संवेदनशील प्रबुद्ध पाठकों का समाज तैयार करती है,जिसके साथ एक रचनाकार अपने एकांत में बैठा हुआ भी संवाद कर सकता है।एक संस्कृति इसी संवाद से संजीवनी – शक्ति प्राप्त करती है ।”
(कलाकृति,समाज और आलोचना,अंतर्यात्रा:निर्मल वर्मा (नंदकिशोर आचार्य) पृष्ठ संख्या – 453 )
3. उसके बारे में लिखना सबसे ज्यादा मुश्किल काम है।अगर उसे भला – बुरा कहा जाए,तो समझा जाएगा कि हजरत उसकी आलोचनात्मक टिप्पणियों से तिलमिला उठे हैं और बदला ले रहे हैं।अगर तारीफ़ करें,तो यह सोचा जाएगा कि भविष्य को ध्यान में रखते हुए चापलूसी हो रही है ।”
(मेरा दागिस्तान,रसूल हमजातोव,खंड – एक, ‘संशय ‘
नामक अध्याय से, पृष्ठ संख्या – 243)
4.किसी भी समाज में आलोचना का स्वास्थ्य उस समाज के बौद्धिक वातावरण पर निर्भर होता है।अगर समाज का बौद्धिक वातावरण उन्मुक्त और संवाद धर्मी होगा तो आलोचना भी मूलगामी,उत्सुक, तेजस्वी, प्रश्नाकुल और सत्यनिष्ठ होगी,लेकिन अगर बौद्धिक वातावरण रूढ़िवादी, पीछे देखूं और सहमतिवादी होगा तो आलोचना वैसी ही होगी।हिंदी आलोचना के बेजान और बीमार होने का एक कारण हमारे समाज का बौद्धिक वातावरण है,जिसमें साहित्यवाद का सहयोगी सहमतिवाद है।ऐसे वातावरण में पलने वाली
आलोचना अगर असामाजिक हो,तो आश्चर्य की क्या बात है ?”
(आलोचना की सामाजिकता, मैनेजर पांडेय, भूमिका से)
5.आलोचक की कल्पना और अंतर्दृष्टि नया लोक रचने में नहीं,स्थितियों के भीतर गूंथे महीन संजालों की जकड़बंदियों को उजागर करने में होती है।आलोचना न केवल मूल कृति के गर्भ में छिपी अर्थ – व्यंजक संभावनाओं को ढूंढकर बाहर निकालती है बल्कि समय के दीर्घ अंतरालों को पार कर विस्मृति के किसी कोने में पड़ी कृति विशेष का पुनर्पाठ कर उसे आज के साथ जोड़ती है।आलोचना मूल रचना को अपने विश्लेषणात्मक पाठ के सहारे नित नवा करती है और परंपरा से चले आते ‘ एकल पाठ ‘ को तार – तार कर अपनी रचनात्मकता के जरिए उसे समयानुकूल और प्रासंगिक बनाती है ।”
(कथालोचना के प्रतिमान,रोहिणी अग्रवाल, पृष्ठ संख्या – 22)
बेशक ! उद्धहरण हमारे विवेक को समृद्ध करते हैं लेकिन कहीं न कहीं हमें अपने मन – मुताबिक़ चलाने की कोशिश भी करते हैं। मैं आलोचक और आलोचना के रिश्ते पर अपनी बात केंद्रित नहीं करना चाहता हूं लेकिन न जाने क्यों मेरा ध्यान उस तरफ़ ही खींचा चला जा रहा है ।अपने भीतर रब्त – जब्त संवेदना से इतर मैं आलोचना और रचना के आत्म सत्य को खंगालना चाहता हूं लेकिन ठिठककर सवालों के मुहाने पर खड़ा हो गया हूं ।क्या आलोचना रचना का अंतिम सत्य होता है ?क्या आलोचना रचना के भीतर पैठे लेखक से संवाद होता है ?क्या आलोचक की भूमिका आखेटक के मानिंद होती है,जो रचयिता को अपने शिकंजे में दबोच लेती है।क्या आलोचक कोई राजगीर – मिस्त्री है कि वह करनी ,खुरपी, हथौड़ा लेकर रचना के भीतर प्रवेश करे ? मैं बेहद पशोपेश में हूं और हैरत में भी ।मुझे लगता है न सिर्फ़ रचना बल्कि आलोचना भी अपने भीतर अकुलाहट, व्यग्रता और बेचैनी जज़्ब किए होती है कि कोई विवेकी और संवेदनशील पाठक आए और वह अपने सीने में दफ़न राज उसे सुपुर्द कर उड़ जाए । जबकि,आलोचक एक दुनिया के समानांतर शब्दों के जरिए दूसरी दुनिया का सृजन भी करता है।निर्मल वर्मा को याद करें तो उन्होंने ताकीद किया है कि हर महत्वपूर्ण आलोचक के पास अपनी दृष्टि या दर्शन होना चाहिए सिर्फ कला के संबंध में नहीं,बल्कि समूची संस्कृति के बारे में ।निर्मल वर्मा का कथन सार्वभौमिक सच हो यह भी जरूरी नहीं । अव्वल तो,रचना और आलोचना का संबंध अपने समय ,समाज और संवेदना पर नज़र रखते हुए खुद की शिनाख्त भी होती है।इस क्रम में लेखक / आलोचक कई खतरों और दुश्वारियों को फलांगता अपनी मंजिल तक पहुंचना चाहता है। भटकाव सृजन का अभिन्न अंग तो नहीं लेकिन नए सिरे से पड़ताल की जमीन जरूर तैयार करता है।क्या वास्तव में,सृजन का दंभ भर लेने और मुस्तैद होकर कलम का सिपाही भर हो जाने से मुक्ति संभव है ? शायद,नहीं !मुक्ति की अवधारणा अपने कोने – अतरों
में फैले अंधेरों से आत्मसाक्षात्कार की प्रक्रिया है। इस संधान में खुद को अपदस्थ करते हुए रचना / कृति से संवाद की जरूरत होती है ।रचना पर सवार हो जाने से बटोहिया तो बना जा सकता है लेकिन कुशल गोताखोर बनने के लिए समन्दर में छलांग तो लगानी ही पड़ती है ।
( एक )
” सफ़र शुरू करने के लिए एक जोड़ी पैर और अकूत हौसले के अलावा और क्या चाहिए इंसान को ?’ उर्फ़ विचारो का आत्मसंघर्ष और नए अन्न की आहट !
जब चारो तरफ़ दुःख,उदासी और बेबसी के तस्वीरों से
रचनात्मक ऊर्जा छीजने लगे और खुद अपने कदमों को चारदीवारी के भीतर कैद कर लिया जाए,तो थके – हारे व्यक्ति की हालत उस परकटे परिंदे की तरह हो जाती है, जो चाहकर भी उड़ नहीं पाता है।अपने भीतर की हरियाली को जिंदा रखना भी इतना मुश्किल होता है क्या ? मैं खुद से प्रति – प्रश्न करता हूं ।अचानक मुझे फिनलैंड के एक स्टेचू पर उभरे इबारत की याद आती है, ‘ अगर तुम डूब भी रहे हो तो पढ़ना -लिखना ना छोड़ो।’ यानी तालीम ही बर्बादी से बचाती है।सच कहूं,तो मुझे रचना के साथ उड़ने में जैसा सुकून मिलता है वैसा लाख जतन करने पर भी कहीं नहीं मिलता।मुझे किताबों और विचारों की दुनिया रास आती है। ये अलग बात है कि भीड़ का शक्ल अख्तियार करती किताबों के इस समय में गंभीर पाठकों के मन में प्रश्नों का एक पुलिंदा तैयार रहता है और वह अपने सवालों के समाधान का रास्ता खोजता है। चूंकि मुझे आलोचना और रचना दोनों पसंद है, इसलिए मेरे सामने दिक्कत यह है कि पहले आलोचना पढ़े या मूल रचना ?गर आलोचना में रचना का स्वाद मिले तो ?जाहिर है मै उमगकर आलोचना पढ़ना पसंद करूंगा और अगर आलोचक के टेक्नीक या रेसिपी पर बात करनी हो तो ? अचानक मेरे ज़ेहन में कई भारी -भरकम आलोचकों के कोट्स तैरने लगते हैं।
1.आलोचना पढ़कर आलोचना नहीं लिखी जाती ,इसके लिए रचना में जाना पड़ता है। फल में फल नहीं लगता है।(नामवर सिंह )
2.मैंने यह कभी नहीं चाहा कि मै अपनी पसंदगी को एक मानदंड या तुला का उच्च पद प्रदान करू। पसंदगीे को मैं कसौटी नहीं मानता ।(मुक्तिबोध )
3.समकालीनता बोध से रहित आलोचना को आलोचना नहीं कहा जा सकता।शोध,पांडित्य कुछ और भले ही कह दिया जाए ।(देवीशंकर अवस्थी )
वैसे,दिल की बात तो यह है कि नेम – ड्रॉपिंग से मुझे सख़्त ऐतराज़ है।उस दौर को याद करता हूं, जब कभी परम्परागत और ठस्स आलोचना वाली किताबों को मैंने सीने से लगाकर पढ़ा था ।अब उस दुनिया में दम घुटता है मेरा ।आलोचना की गुट्टल और पारिभाषिक शब्दावली की तंग गलियों से जी उकता चुका है।मुझे फ्लो पसंद है।दरिया की तरह बहता चला जाऊं।रचना और आलोचना के साथ गुफ्तगू भी करूं।क्या समकालीन आलोचना में ऐसी कोई मुकम्मल तस्वीर नज़र आती है ?जवाब बिल्कुल सकारात्मक है।फिर कौन है वो जहीन आलोचक ?नहीं, मैं उन्हें जनाना खांचे में नहीं रखूंगा। सिर्फ़ आलोचक का तमगा ही काफी है।कुछ चीजें जेंडर से अलग भी होती है।स्त्री और पुरुष लेखन की विभाजक रेखा अब धुंधली हो गई है।आलोचना की दुनिया उनके नाम से गुलज़ार है।कथालोचना में नया नाम तो नहीं लेकिन अपने प्रयोग धर्मी कंटेंट और अनूठे शिल्प के कारण जिनका लेखन मुझे बेहद आकर्षित करता है,उनका तआरुफ़ यह कि पहले वह कथाकार है,बाद में आलोचक।’ आओ मां,हम परी हो जाएं ‘,’घने बरगद तले ‘ नामक कहानी – संग्रहों और हिंदी उपन्यास में कामकाजी महिला,एक नज़र कृष्णा सोबती पर,समकालीन कथा साहित्य :सरहदें और सरोकार,स्त्री लेखन :स्वप्न और संकल्प,साहित्य की जमीन और स्त्री -मन के उच्छवास, इतिवृत की संरचना और संरूप, हिंदी उपन्यास का स्त्री – पाठ,साहित्य का स्त्री – स्वर,हिंदी कहानी : वक़्त की शिनाख्त और सृजन का राग और कथालोचना के प्रतिमान जैसे आलोचनात्मक किताबों की लेखिका।रोहिणी अग्रवाल । ठहरिए ! मैं कहानीकार के आगोश में नहीं,आलोचक को समझना चाहता हूं।तमाम कोशिशों के बावजूद भी मैं कथाकार के गिरफ्त में हूं। मै सिरे टटोलने की कोशिश में हूं।जिससे बातचीत शुरू की जाए।वैसे कहा भी जाता है कि आलोचना के सूत्र कृति के भीतर ही कैद होते हैं।फिर खोजने से क्या नहीं मिलता ?रचना में पैबस्त सूत्रों की पड़ताल में खुद की शिनाख्त भी होती है।किताबों के साथ रचनात्मक यात्रा पर जाने से पहले मै खुद सवालों के जाल फंस गया हूं।सर्जक और सृजन के जद्दोजहद में बिना किसी
जमीन पर बात करना हवा में तीर चलाने के जैसा है।दूर आसमान तक फैले कलाकृतियों को एक मजमून में समेटना संभव नहीं,लेकिन रचना में बिखरे सूत्रों को पकड़कर आलोचना – कर्म पर बात जरूर किया जा सकता है।रोहिणी अग्रवाल की भाषा में कहूं तो ,” अकसर रचना की भीतरी गहराइयों में छिपा रहता है रचना का मर्म ।जिसे ठोस परिप्रेक्ष्य देकर थहाना और पुर्नसंयोजित करना जरूरी हो जाता है। इस दृष्टि से बाजार का विस्तार आधारभूमि बनकर न केवल दोनों रचनाओं को परस्पर पूरक बनाता है बल्कि रचना में ही हाशिए पर फेंके गए पात्रों -घटनाओं को केंद्र में लाकर एक नया पाठ बुनने लगता है।”(इतिवृत की संरचना और संरुप, पृष्ठ सं.- 111)
पाठ – पुनर्पाठ के इस क्रम में मेरे सामने तमाम सिरे खुले हुए हैं।किसी एक सिरे को पकड़कर लेखक /आलोचक के समग्र रचना – कर्म को परिभाषित तो नहीं किया जा सकता लेकिन मानीखेज बिंदुओं की पड़ताल की जा सकती है।मृदुला गर्ग के इस कथन से सहमत होते हुए कि,’ शोध की अपनी गति होती है,सृजन की अपनी।’ हालांकि,मेरे पास आलोचना को खोलने के कोई मुकम्मल टूल्स नहीं हैं। बशर्ते,मेरे प्रिय आलोचक देवीशंकर अवस्थी,मुक्तिबोध और निर्मल वर्मा का साहित्य धरोहर के रूप में जरूर है।जिनके आलोक में मैंने रोहिणी अग्रवाल की आलोचना को समझने का विवेक जागृत किया है।हमारे यहां एक बहुत मशहूर जुमला बोला जाता है कि भात पका है कि नहीं,ये देखने के लिए अदहन पर खदबदाते चावल के केवल एक दाने को देखा जाता है।रोहिणी अग्रवाल के समूचे आलोचना – कर्म में अपनी निगाह से मैंने उनकी किताबों के मार्फ़त कुछ ऐसे बिंदुओं को खोजा है,जिसके द्वारा उनके लेखन के सूत्रों को समझने में मदद मिलती है।वे बीज – सूत्र हैं –
1.साहित्यिक कृतियों का पाठ -पुनर्पाठ और आलोचना का सौन्दर्यशास्त्र ।(इतिवृत की संरचना और संरुप )
2.अंतस्थल का पूरा विप्लव और आलोचना की स्त्रीवादी अनुगूंजे ।(स्त्री लेखन :स्वप्न और संकल्प )
3.विवेचन,विश्लेषण और सवालों का जखीरा बनाम आलोचना की प्रामाणिकता । (हिंदी उपन्यास का स्त्री -पाठ )
4.समय और संदर्भ के बीज – सूत्र एवं आलोचना का नया रंग – ढंग।( साहित्य की जमीन और स्त्री -मन के उच्छवास )
5. कथा – साहित्य के अनकहे रास्ते और रचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन।( कथालोचना के प्रतिमान )
(दो )
जो तारीख नहीं, तवारीख में दर्ज हैं बनाम कागजों पर फैले हर्फ और रचना के भीतर धड़कते आलोचक की सांस !
” रचनात्मक साहित्य जहां अपना काम समाप्त करता है,आलोचना वहीं से अपनी जमीन तैयार करती है। सृजनात्मक साहित्य जहां सागर के सीने पर तैरता जहाज है तो आलोचना पानी की सतह के नीचे कार्यरत पनडुब्बी जो भीतर की सच्चाइयों और रहस्यों को चीरती भी है और उन पर टिकी हलचलों से अपने समय को बाख़बर करने का बीड़ा भी उठाती है।परिपक्व बौद्धिक चेतना का पर्याय है – आलोचना ।लेकिन परिपक्वता का अर्थ ठस्स,निष्प्राण, रूखा – सूखा होना नहीं । गंभीरता में हार्दिकता,विश्लेषण में सृजन और निस्संगता में आत्मीयता का सही अनुपात आलोचना में सृजनात्मक लय पैदा करता है।”
(कथालोचना के प्रतिमान,रोहिणी अग्रवाल,पृष्ठ सं.- 28)
बेहद साधारण सी लगने वाली ये पंक्तियां अपने अर्थ में असाधारण हैं।जहां रचना और आलोचना के संदर्भों में अपने समय,समाज और संवेदना को देखने की बात हो रही है।दरअसल,रोहिणी अग्रवाल किसी भी रचना को खांचे में देखना पसंद नहीं करती हैं।यही कारण है कि,वह मेरी उम्मीदों की लेखिका हैं।स्मृतियों में गोता लगाता हूं तो शायद सदी के अंतिम दशक में मैंने उनकी एक रचना ‘ कठगुलाब : इक्कीसवीं सदी का स्त्री – विमर्श ‘ पढ़ा था । वह रचना क्या,आलोचना था । सच्चाई तो यह है कि मैं उनकी हर आलोचना को रचना मानना ही ज्यादा पसंद करता हूं।बकौल, काशीनाथ सिंह,’ आलोचना भी रचना है।’मैंने कई बार थमकर यह सोचा है कि अगर उनके रचना – कर्म पर बात करनी हो ,तो उनके किस पक्ष पर फोकस करना मुनासिब होगा ? आलोचक,कथाकार या स्त्री – विमर्शकार ?चूंकि आलोचना भी रचना है इस तर्ज़ पर उनकी आलोचना दृष्टि सृजन का पर्याय है।वह एक जहीन आलोचक हैं। गझिन बुनावट की रचनाकार ।एक – एक वाक्य में विचार पिरोने वाली ।मजाल है कि आप उनके लिखे हुए को सरसरी तौर पर पढ़कर समझ ले।उनका आलोचना – कर्म डूब कर पढ़े जाने की मांग करता है।उन्हीं की भाषा के कहूं तो ,’ डूब कर पार जाने की कोशिश ‘।लेकिन मै खुद से प्रति- प्रश्न करता हूं कि यह उनकी खूबी है या खामी ?आलोचक को तो सबसे पहले अपने आपको जांचना होता है।वह फतवेबाज तो होता नहीं कि उसने कह दिया अच्छा है, तो अच्छा है।इस संदर्भ में मुझे शिद्दत से नामवर सिंह की किताब ‘ कविता के नए प्रतिमान ‘की भूमिका में लिखा कथन याद आता है – ” मूल्यवान है एक भी ऐसे आलोचक का होना,जो किसी भी चीज़ को तब तक ‘ अच्छा ‘ न कहे ,जब तक उस निर्णय के लिए वह अपना सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार न हो ।”
किसी भी लेखक /आलोचक के लिए ये कथन गांठ बांधने की चीज़ है।बहुधा, ऐसा होता नहीं है ।आलोचकों को बोलने/लिखने से पहले उन बातों को खुद पर आजमाना भी चाहिए।ऐसा होता तो पंत के एक चौथाई साहित्य को कूड़ा नहीं कहा जाता ।बहरहाल,वह एक अलग प्रसंग है ।आलोचक का यह नैतिक दायित्व भी बनता है कि अपनी कही बातो को
तर्क और विचार से पुख्ता भी करे।अक़्सर जब मुझे किसी भी लेखक या रचना पर बात करनी होती है तो मै उस किताब के पास खाली दिमाग से जाता हूं।यहां मुझे इवान क्लिमा भी याद आती है कि,’ विचार से रचना की तरफ जाने की अपेक्षा रचना से विचार की तरफ़ ‘ जाना चाहिए।रोहिणी अग्रवाल के समूचे आलोचना – कर्म को विचार के साथ – साथ कुछ बीज – शब्दों ( की – वर्ड्स ) की सहायता से भी समझा जा सकता है।ये सारे बीज – शब्द उनके आलोचना के टूल्स हैं ।बकौल, नामवर सिंह ,अक्ल का एक पेचकस ही किले को ध्वस्त करने के लिए काफी है।वैसे,हिंदी आलोचना में बीज – शब्दों का महत्व इतना ज्यादा है कि कुछ एक आलोचकों ने बाकायदा आलोचना के बीज – शब्दों पर मुकम्मल शब्दकोश और ग्रंथ ही लिख डाले हैं।और फिर वह ग्रंथ ही क्या,जो तुम्हारे भीतर की ग्रंथि ( गांठ ) को न खोल दे ।( गीत चतुर्वेदी )आलोचना बंदिशों को खोलती भी है और खुले आसमान में उड़ने का निमंत्रण भी देती है।अपने शब्दो
से कल्पना का वितान भी बुनती है।रोहिणी अग्रवाल के यहां ये खासियत बहुतायत में देखने को मिलती है ।उनकी खूबी है कि सबसे पहले चरित्र – चित्रण और पात्रों को जोड़ने वाली स्मृतियों को केंद्र में रखकर रचना और आलोचना के बीच इन बीज – शब्दों के द्वारा आवाजाही करती हैं। बीज – शब्दो को केंद्र में रखकर वे पात्र / व्यक्ति के अंतर्मन की बारीकियों को मनोवैज्ञानिक की तरह कुशलता से खोलती है।लगता है,लेखिका को इन शब्दों के खासा लगाव है।तकरीबन उनके हर लेख में ये शब्द मिल जाएंगे इसे दूसरी तरह कहा जाए तो इन शब्दों के बगैर उनके लेख अधूरे से मालूम होते हैं। इन बीज – शब्दो का काफिला कुछ यूं हैं – आत्मसाक्षात्कार, आत्मविश्लेषण,आत्मलोचन, आत्मानुशासन, आत्मान्वेषण, आत्मकेंद्रित, आत्म चेतस, आत्मालाप, आत्मपरक, आत्मरतिग्रस्तता,आत्मपड़ताल, आत्ममुग्धता, आत्मोपलव्धि, आत्मनिर्भरता, आत्मविस्मृति, आत्मविस्तार, आत्मसम्मान, आत्मप्रवंचिता ।
( तीन )
कई किरदार हैं मुझमें जो दम नहीं लेते उर्फ़ स्मृतियों में कहानियां और कहानियों में चरित्र !
सृजन आनंद है !
अमृतमयी बरसात !!
भीजने में आपादमस्तक हरषाने का सुख !!!
लेकिन कोरे कागज़ पर टिके पेन में कोई जुंबिश नहीं हुई । हरहराती सलिला इन्तजार करते – करते सूूख गई…और अड़ियल टट्टू बने पेन के इस पार में अंतस
को जड़ – पत्थर होते देखती रही । न भाव की हिलोरे … न विचार का उजास…तर्क – विश्लेषण की जीवंत औजार सब जाने किस खोह -कंदरा में …मन के आंगन में धूल भरे बगूले …।
(समय के सीने पर इबारत लिखना आसान नहीं, कथा लोचना के प्रतिमान,रोहिणी अग्रवाल, पृष्ठ -123)
इसे कहते हैं ,कलम तोड़ कर लिखना ।बेशक !लिखना अपने भीतर के झंझावातों से जद्दोजहद भी करना है।इस धुन में बेदखल होते हुए भी खुद रचना / कृति के साथ चहलकदमी करना अनिवार्य शर्त है।लिखने के दौरान संवेदना और अनुभवों की थाती हमसफ़र बनकर साथ चलती है । ओरहान पामुक ने कहा है ,’ लिखना …अगर आपको इसमें सुख मिलता है तो …इससे सारे दुःख मिट जाते हैं।’गौरतलब है कि हर रचनाकार /आलोचक के सृजन की प्रक्रिया एक – दूसरे से नितांत अलग होती है।एक सच यह भी है कि रचना के साथ स्वयं को बांधकर रखना भी एक कला है।रचना और रचनाकार का संबंध अपने समय,समाज और संवेदना से भी होता है। मै कदम – दर – कदम रोहिणी अग्रवाल की आलोचना से बतियाते हुए आगे बढ़ रहा हूं लेकिन जेहन में उभरते सवालों से पार पाना भी आसान नहीं ? रचनात्मक लेखन पाठक के भीतर बेचैनी और छटपटाहट पैदा करती है। कुलबुलाहट का आलम यह कि जब तक मैं रीडिंग लेकर स्टडी – टेबल का रुख करता हूं तब तक पात्रों का जमघट मेरे सामने उपस्थित हो जाता है।ऐसे में कलम को साधना कितना मुश्किल होता है ? सच तो यह है, सृजन की प्रक्रिया स्वयं का अनुसंधान होती है।भले ही मुक्ति की प्रेरणा साहित्य का अविभाज्य अंग है लेकिन मुक्ति अपने अंतस के अंधेरों को चीन्हकर
उजाले भरने का नाम भी है ।अल्लामा इकबाल एक शे’र याद आता है,
“साकी की मोहब्बत में दिल साफ़ हुआ इतना,
जब सर को झुकाता हूं तो शीशा नज़र आता है।”
दरअसल,अपने वक़्त की मुकम्मल आलोचना यही काम करती है।वह जड़ता और यथास्थिति को तोड़ती भी है । आश्चर्य,आस्वाद और आत्मतोष के साथ ज्यो – ज्यो मै रोहिणी अग्रवाल के आलोचना की तह में घुसता हूं,मुझे लगता है कि मै ‘ एलिस ‘ की दुनिया में दबे पांव प्रवेश कर रहा हूं ।वैसे तो, उनकी आलोचना – पद्धति की कई विशेषताएं हैं,लेकिन जो चीज मुझे छूती है,वह है उनकी आलोचना में एक साथ कई पात्रों की उपस्थिति ।एक कलाकार के लिए ये उसके लेखन का चरम होता है ।जहां कई बिखरे हुए कहानियों को जोड़कर चलना आसान काम नहीं है। यहां धुन भी है,ध्यान भी और संधान भी ।जैसे,शिलावहा (किरण सिंह ) के उपन्यास की भूमिका लिखते समय उन्हें महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘ अग्निगर्भ ‘ के नायक ‘ बसाई टुडू ‘ की याद आती है और साथ ही साथ उनके अंतर्मन पर छाई रहती है, धर्मवीर भारती की कनुप्रिया । शिलावहा की भूमिका में लिखती है – ” लंबे अरसे तक अन्तर्ध्यान रहने के बाद फिर मिशन पर निकले हो आज ।यानी पुलिस के साथ लुका छिपी का खेल …और कल के अखबारों में तुम्हारी मौत की ख़बर ।इस बार कौन सी बार मर रहे हो तुम, आठवीं कि नवीं ? अमोघ है तू बसाई टुडू ।वह मुस्कुराकर जंगल की सांय – सांय गूंजती चुप्पियों में अपने मिशन को ट्रांसमिट कर रहा है । ” अमूमन,अपने हर लेख में लेखिका स्मृतियों में कहानियों के जरिए चरित्र को दर्ज़ करती हैं तो अनायास नहीं कि सत्यनारायण पटेल की कहानी ‘ लाल छींट वाली लूगडी का सपना ‘ पर लिखते हुए उन्हें ‘ गोदान ‘ में गोबर के लड़के ‘ मंगल ‘ की याद और एस आर हरनोट की कहानी ‘ पत्थरों का खेल ‘ पर लिखते हुए प्रेमचन्द की कहानी ईदगाह के ‘हामिद ‘ के साथ ही जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘छोटा जादूगर ‘ के नायक की याद भी आती है।
इसके अलावा जब वे हिंदी की प्रेम कहानियों को लेकर तुलनात्मक ढंग से सोचती है,तो वहां भी किसी दूसरे उपन्यास या कहानी के किरदारों को शिद्दत से चित्रित करती हैं ।एक उदाहरण देखिए, “लेकिन बीच में ही अंधड़ की तरह दौड़कर सुरभि घोष (मृदुला गर्ग की कहानी ‘ साठ साल की औरत ‘ की नायिका ) अान टपकी ।”( कथालोचना के प्रतिमान, पृष्ठ – 155)
और तो और फ्लाबेयर गुस्ताव की ‘ मादाम बावेरी ‘
‘ द डॉल्स हाउस ‘ एवं मेरी वोलस्टन क्राफ्ट की ‘ द विंडिकेशन ऑफ द राइट्स ऑफ वूमेन ‘ को भी याद करती हैं । बहुपठित होने के कारण रोहिणी अग्रवाल की आलोचकीय दृष्टि ‘ मुक्तिबोध के आलोचनात्मक संघर्ष ‘ से प्रभावित है । मुक्तिबोध आलोचना को सभ्यता – समीक्षा के रूप में देखते हैं। सभ्यता समीक्षा रचना और आलोचना के बीच समानधर्मिता की बात करती है और आलोचना को सांस्कृतिक समालोचना में देखने की गुजारिश करती है।यह दिलचस्प है कि रोहिणी अग्रवाल आलोचना को सांस्कृतिक कर्म और सांस्कृतिक प्रक्रिया का पक्ष मानती है।उनके यहां आलोचना का विकास ‘ सभ्यता – समीक्षा ‘ के रूप में विकसित होता दिखता है ।उनकी आलोचना पढ़ते हुए आपको अज्ञेय को पढ़ना होगा ।मुक्तिबोध को समझना होगा । कुप्रिन को भी और मृदुला गर्ग को भी । लंबी फेहरिस्त है ।आप सिर्फ पढ़ते जाइए और एक दिन आपको लगेगा कि आप कितने धनात्मक हो गए हैं।रोहिणी अग्रवाल का लेखन यही ताकत देती है।एक जमीन तैयार करती है ।पाठक के मानस को सींचती हैं। खाद – पानी देती हैं । गर जमीन परती है तो उसमें हल, फावड़े चलाओ ।उस काबिल बनाओ कि बीज रोपा जा सके ।सच कहूं,तो रोहिणी अग्रवाल को पढ़कर ही मैंने जाना कि साहित्य किसी फ्रेम में कैद नहीं होता है।निर्मल वर्मा के शब्दो में कहूं तो , ” हर रचना का सत्य उसकी स्वयं सिद्ध सत्ता में वास करता है,कही बाहर से अपनी वैधता या प्रामाणिकता प्राप्त नहीं करता ।”( कलाकृति,समाज और आलोचना, पृष्ठ – 443)
( चार )
रचनाधर्मिता, संवादधर्मिता और मुक्तिधर्मिता के बरा स्ते सृजन – प्रक्रिया से संवाद बनाम आलोचना में कहानियां और कहानियों की आलोचना !
” जिस तरह कोई भी कथाकार हर कहानी /उपन्यास के साथ अपने कहन को बदलता चलता है, उसी प्रकार हर आलोचक अपनी हर आलोचनात्मक कृति में अमूमन एक नए रूप में उभरकर आता है। स्त्रियों की दुनिया से उदाहरण दूं तो कह सकते हैं कि पाक – कला के बुनियादी तत्व होते हैं मसाले, घी, आंच और समय।इन्हीं के संस्पर्श से व्यंजन अपना नया बाना और स्वाद पाता है।ठीक इसी प्रकार हर लेखक के पास कथा के बुनियादी तत्व होते हैं, लेकिन इसके बावजूद हर कथाकार प्रेमचन्द नहीं होता, न ही हर आलोचक रामचंद्र शुक्ल । “
(कथालोचना के प्रतिमान, रोहिणी अग्रवाल, पृष्ठ – 27)
बेहद एहतियात के साथ एक – एक कदम फूंक – फूंक कर बढ़ रहा हूं , सांस सम पर और उत्साह इतना कि मुदित भाव से शब्दो को सोख रहा हूं ।चारों तरफ़ लेखकों और रचनाओं से घिरा हुआ मै ।आनंद का कोई अंत भी होता है भला ?एक के बाद दूसरे की प्यास । अतृप्त इच्छाएं । बेसाख्ता !मुक्तिबोध की कविता कौंधती हैं, ‘ मुझे यहां हर तरफ चौराहे नज़र आते हैं ।’
महसूस करता हूं , कथा – सूत्र हाथ लगते ही विवेचन का रास्ता कितना आसान हो जाता है ।’ विश्लेषण का सर्जनात्मक विवेक ही आलोचना है ‘ आप्तवचन /वेदवाक्य बनकर मुझे खुमार में बहाए जा रहा है ।क्या मै आगोश में हूं ?नहीं ! मदमस्त होकर मोर की तरह नाच रहा हूं।खुद को सृजन में समाहित कर मैं आनन्द से वंचित नहीं होना चाहता हूं।प्रति – प्रश्नों की दुनिया
से एक सवाल उभरकर और आता है कि मै आलोचना पढ़ने से आनंदित होता हूं या गढ़ने से ? आलोचना और रचना से कदमताल करते अब मै अपनी बात रोहिणी अग्रवाल के आलोचना – प्रक्रिया की अलहदा खासियत की तरफ केन्द्रित करना चाहता हूं।’ यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहि ‘ की तरह उनकी आलोचना की दुनिया में बारीकी और पैनी नजर के साथ प्रवेश करना जरूरी है ।आलोचना और रचना की मूल संरचना में बुनियादी फर्क को दरकिनार करते हुए रोहिणी अग्रवाल की आलोचना रचना के भीतर पैबस्त पात्र, संवाद , कथानक ,रंग और ध्वनि को सुनते हुए समय से संवाद करती है ।इस क्रम में वे रचना और आलोचना के बीच स्वयं को गूंथ देती है ।अपने भीतर छिपे हुए कथाकार को आलोचना का सिरा थमा देती हैं ।विचार और शब्दो के सहारे सुनने, गुनने और बुनने की प्रक्रिया का आगाज करती हैं । कथासाहित्य के संदर्भ में बात करूं तो रोहिणी अग्रवाल का आलोच कीय विवेक चरित्रों के खासकर स्त्री – पात्रों के टेक्सचर और जेस्चर को ध्यान में रखते हुए सर्जक रचनाकार से प्रश्न – प्रतिप्रश्न करते हुए आगे बढ़ती है।जहां वे ‘ उसने कहा था ‘कहानी का पुनर्पाठ करते हुए ‘ चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ‘ को कठघरे में खड़ा करती हैं – ” मै जानती हूं दीवानबाई की पारदर्शी निर्भीकता के बरक्स सूबेदारनी का तिरिया चरित्तर समूची स्त्री जाति के लिए आत्माभिमान पर प्रहार कर रहा है ,लेकिन सूबेदारनी भी क्या करे ।मनुष्य या स्त्री के रूप में कहानी में आईं होती तो मुंह खोलकर प्रतिवाद भी करती ।वह तो मां और पत्नी की कठपुतली बनकर कहानीकार के निर्देशों पर अपना ‘ खेल ‘ खेल रही है । इसलिए अंत तक उसका कपट सच्चरित्रता की कसौटी बना रहा और स्वामी (पति और बॉस ) होने के अभिमान में सूबेदार पत्नी और लहना सिंह दोनों का भरपूर इस्तेमाल करता रहा ।यह गुलेरी जी की पुरुष – दृष्टि का कमाल है कि कहानी लहना सिंह, सूबेदारनी दोनों को अपदस्थ कर सूबेदार को केंद्र में ले आती है ।”( कथालोचना के प्रतिमान , रोहिणी अग्रवाल, पृष्ठ – 166)
निसंदेह, यह रचनाकार / आलोचक के स्व – विवेक का मामला है कि वह कृति के भीतर किन सूत्रो की पड़ताल करता है ? एक स्त्री होने के नाते लेखिका का ज्यादातर आलोचना – कर्म स्त्री -जीवन के मार्फत पितृ सत्ता की संरचना और संघटनाओं को समझने की निगाह देती है । बनिस्बत इसके कि उनकी दुनिया में प्रवेश के लिए पुरुष – दंभ को तिलांजलि देकर स्त्री – मन के संवेगों के साथ ‘ मनुष्यता ‘ को लेकर प्रवेश करें ।वास्तव में,उनकी आलोचना की दुनिया में प्रवेश का मार्ग – द्वार बहुत उन्नत है।यहां हर बड़े से बड़े सहयात्री को साथ लेकर वे आलोचना के मार्ग को प्रशस्त करती हैं । इस राह में उनके सहयात्री कभी सीमोन द बुआ, वर्जीनिया वुल्फ, एदिता मारिस और न जाने कितने जाने – अनजाने घटनाओं और तारीखों का उल्लेख उनके आलोचक रूप को अपने समकालीनों से अलग एक नए पेडस्टल पर खड़ा करता है ।
मैं उनकी रचनाओं ( आलोचना भी रचना है के तर्ज़ पर )को जितनी बार पढ़ता हूं,हर बार एक नए रंग,रूप और गंध के साथ इन्द्रजाल में फंस जाता हूं ।हर बार मेरा मन नया होता है ।मेरे भीतर का चंद्रमा नया और पानी का विस्तार भी नया होता है । मै विस्मित हूं और मगन भी ।क्या हर बार नयी रचना और हर नए लेखक के साथ ऐसा ही होता है ?
और अंत में, कुछ सवाल ,कुछ गुजारिशें,कुछ अपने कुबूलनामे बनाम चढ़िए हाथी ज्ञान का सहज दुलीचा
डार !
तो सबसे पहले आत्मस्वीकृतियां,
यह मजमून उनके आलोचनात्मक कर्म का एक छोटा सा खाका हैं।समग्रता और विस्तार के लिए स्वतंत्र पुस्तक की आवश्यकता है,क्योंकि रोहिणी अग्रवाल संदर्भवान आलोचकों में से एक हैं । लेकिन फिर वही सवाल कि वे क्यों संदर्भवान हैं ?अपने अध्ययन, मनन और चिंतन से उन्होंने जो अस्मिता विमर्श मूलक दृष्टि अर्जित की है, वह अपने जड़ों से जुड़े होने के कारण सच्चे अर्थों में रेडिकल है।यह दृष्टि ही उन्हें समकालीन हिंदी आलोचना में ‘ नदी के द्वीप ‘ की तरह भीड़ से अलग करती है ।
दूसरी बात यह कि मैंने इस पूरे लेख में उन्हें ‘ रोहिणी अग्रवाल ‘ कहकर संबोधित किया है।उनके लिए ‘ श्री ‘ और ‘ जी ‘ का इस्तेमाल नहीं किया है ।दरअसल, ‘ श्री ‘ और ‘ जी ‘ संबोधन में श्रद्धा भाव तो निहित है लेकिन भाव – संवेदना और आदर के अतिरेक से मेरे प्रतिबद्धता और विचार धार्मिता के विगलित होने का खतरा बरक़रार रहता,इस कारण मैंने सिर्फ़ रचनाकार के रचना – कर्म को ध्यान में रखा है।इस बात को याद रखते हुए कि,” सच्चा लेखक अपने खुद का दुश्मन होत�