Tuesday, May 14, 2024
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.”..विभाजन एक ऐसा हिंसक अनुभव रहा है जिसे भूलना कठिन है और याद करना खतरनाक…. “

आज हिंदी की प्रख्यात लेखिका कृष्णा सोबती की चौथी पुण्यतिथि है।उनके लेखों की एक किताब” रचना का गर्भ गृह “हाल ही में आयी है जिसका संकलन हिंदी के कवि आर चेतन क्रांति ने किया है।राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस किताब से साभार हम उनका एक सम्पादित लेख दे रहे हैं।

लेखक के रूप में स्त्री
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मैं कहूँगी कि आज के लेखन का लिंग स्त्री है। यह मैं आपको भड़काने के लिए नहीं कह रही। मेरे कहने का अर्थ यह है कि उसके होने में एक और भी शामिल है। उसने अपने लड़का या लड़की होने से बाई सेक्सुअलिटी को खत्म नहीं किया है। स्त्रीत्व और बाईसेक्सुअलिटी साथ-साथ चलते हैं। एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के बीच मात्रा का फ़र्क हो सकता है जिसके अनुसार इसकी ताकत अलग-अलग सामने आती है जिसका सम्बन्ध इतिहास के उनके अपने क्षण से भी होता है। पुरुष के लिए यह ज्यादा मुश्किल होता है कि यह दूसरे को अपने अन्दर प्रवेश करने दे।
स्त्रियों के लिए लेखन एक रास्ता है, एक प्रवेश, एक निकास, एक स्थान जहाँ उनका ‘अन्य’ उनके बीच रह सकता है, वह भी जो ये नहीं हैं, और वह भी जो वे हैं। वह नहीं जानती कि उसका होना क्या है, लेकिन वह चलते हुए महसूस करती है। जो उसे जीवित करता है, जो उसे दो फाड़ करता है, विचलित करता है, बदलता है। पर कौन?
एक स्त्रीलिंग। एक पुल्लिंग।
कुछ?
या बहुत सारे।
कुछ ऐसा अज्ञात जो वास्तव में मुझे इच्छा देता है, जानने की और उसकी जो पूरे जीवन टीसता है। यह जनाकीर्णता न तो आराम देती है, न सुरक्षा और सम्बन्धों को हमेशा विचलित करती है।
-हेलेन सिक्सू
एक स्त्री-लेखक होने के नाते मुझे पता है कि हेलेन क्या कह रही हैं। लेखक के रूप में मुझे ये भी पता है कि लेखन का संसार पुरुषों के अधीन हैं। साहित्य की राजनीति और रणनीति उनके ही हाथों में है। लेकिन इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि लैंगिक राजनीति के बावजूद स्त्रियों की अपनी दृष्टि के चलते स्त्री-लेखन से एक बड़ा संसार रचा जा चुका है।
हमारी उदार, लोकतान्त्रिक व्यवस्था ने भी भारतीय स्त्री को बराबर का नागरिक माना है। यह व्यवस्था बहुत मूल्यवान है क्योंकि इसने स्त्री को लेखन के जरिए अपनी एक जगह बनाने और समाज का ध्यान अपनी तरफ खींचने के लिए उसे एक मौक़ा दिया है। हमें यह भी पता है कि साहित्य अपने आप में एक बौद्धिक राजनीति है। लेखन जो कि देह और आत्मा, दोनों से एक जीवित धागे से जुड़ा है, अपने आप में एक सच है जिसकी अपनी एक विचारधारा है। किसी भी रचनात्मक लेखक के भीतर का सबसे गहरा हिस्सा, वह चाहे स्त्री हो या पुरुष, सत्य तक पहुँचने की ईमानदारी और सरोकार है। मुझे यह जानकर अच्छा लगता है कि स्त्री और व्यक्ति के रूप में मेरा अपने ऊपर अधिकार है और एक लेखक के रूप में मुझे विकसित होने की स्वतंत्रता है। और जब व्यक्तिकरण का अर्थ एक समूह के दायरे में एक अकेला व्यक्ति होना है तो हमारी वैयक्तिकता ही हमारी आन्तरिक और अनुपमेय विशिष्टता की पहचान बन जाती है। यह हमारे आत्म का ही एक रूप हो जाती है, मेरी बौद्धिक और रचनात्मक प्रतिक्रियाएँ एक उदात्त और सघन, संग्रथित मानवीय अनुभव में मूलबद्ध रही हैं। काम करते हुए मैं अपने अन्दर की दो इकाईयों
दो तत्वों के प्रति सजग रहती हूँ। अर्धनारीश्वर की रहस्यवादी अवधारणा में मेरा रचनात्मक विश्वास रहा है, जिसमें स्त्री और पुरुष की लय, उनकी इच्छाएँ और आवेग एकीकृत और विरोधाभासी रूप में जुड़े होते हैं। साहित्य में लेखन अब कोई ऐसी गतिविधि नहीं रहा है जो सिर्फ़ पुरुषों के हाथ में हो। यह भी कहा जाता रहा है कि व्यवसाय के रूप में लेखन ज्यादातर पुरुषों के पास रहा है लेकिन अब स्त्रियों को भी इसमें स्वीकार किया जाने लगा है लेकिन अभी बस अल्पसंख्यक के रूप में।
विश्व भर में फैली नारीवाद की लहर ने लैंगिक भेदों को, जो कि सामाजिक मोर्चे पर सबसे विवादास्पद राजनीतिक मुद्दा बना हुआ है, अब ऐसी असमानताओं के रूप में व्याख्यायित किया जाने लगा है, जो स्त्री और पुरुषों के पालन-पोषण के कारण जन्म लेती हैं। पारंपरिक तौर पर कहा जाता रहा है कि आक्रमण पुरुष का क्षेत्र है और समर्पण स्त्री का। आक्रामक होना अधिकारसम्पन्न और शासक समूह का गुण है और समर्पण उनका जो उनके अधिकार के अधीन, उनके विषय हैं। इस संरचना के चलते मानव-परिवार में दो भिन्न सांस्कृतिक प्रारूप या कहें पैटर्न, बन गए हैं। एक स्त्री और एक पुरुष । जब हम अपना ध्यान लैंगिक राजनीति पर केन्द्रित करते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि परम्परा ने स्त्री को पुरुष के अधिकार में दिया है और स्त्रीत्व की एक गुलाम संस्कृति की रचना की है; क्या इसकी अभिव्यक्ति भाषा के प्रयोग में भी होती है?
कहा जाता है कि स्त्री परिवार और समाज में जिसका स्थान निम्न है, सभी संस्कृतियों और समाजों में एक भिन्न और विपरीत भाषा का प्रयोग करती है। यह भी कहा जाता है कि यह भाषा अतार्किक होती है, मूल रूप से तात्त्विक, अनैतिहासिक और भावुक। इस नज़रिए से सिर्फ़ स्त्री की रचनात्मक भाषा की सीमाओं को रेखांकित किया जाता है। और यह मानने के हमारे पास कारण है कि भारतीय स्त्री अब पुरुष की अन्यता से मुक्त हो चुकी है। अपनी भावनात्मक निर्भरता से मुक्त होकर वह अब अपनी आर्थिक स्वतंत्रता को हासिल करने जुट गई है। बाहर एक बड़े संसार के सम्पर्क में आने से परिवार, जीवन औ कार्य के प्रति उसके नज़रिये में काफ़ी बदलाव आया है। व्यवसाय में होने कारण वह अपने परिवार से दूर नहीं चली गई है। और यह उसके लेखन में बखूबी झलकता है। वास्तव में वह एक बड़े परिवर्तन की ऐतिहासिक जरूरत को प्रतिबिम्बित कर रही है। उसे यह महसूस हो चुका है कि अगर वह अपने परम्परागत स्त्री रूप से ही जुड़ी रहेगी, अर्थात जैसा तुम चाहते हो मैं वैसी बनूँ तो यह ज्यादातर मामलों में उसके लेखन के विरुद्ध जाएगा। उसने यह भी स्वीकार कर लिया है कि अपनी सम्भावनाओं के अनुरूप अपने व्यक्तित्व को विकसित करना हर स्त्री या पुरुष का अधिकार है।
एक लेखक या कहूँ कि एक लेखिका होने के नाते मुझे भी अपने भीतर और बाहर एक बड़ा स्पेस रचना होता है। मैंने जीवन को एक कुँआरी लड़की के रूप में स्वीकार किया है। न मैं घर चला सकती हूँ और न परिवार बना सकती हूँ। वह मेरा मॉडल ही नहीं है, मेरे अन्दर गहरी भावनाएँ हैं लेकिन मैं उनमें नहीं जो बैठी सपनों में खोयी रहती हैं। मेरे अपने अनुभव बहुत खराब नहीं रहे लेकिन वे इतने अच्छे भी नहीं हैं कि मैं अपने आप को दूसरों में विलीन कर सकूँ। एक स्त्री के रूप में मेरे अनुभव कोई असाधारण नहीं रहे, वे मेरे होने का हिस्सा हैं लेकिन वे मेरे भीतर को प्रभावित नहीं कर सके, न ही उनके चलते मेरे अपने आत्म की धुरी कहीं खिसकी, इसका करण यह रहा है कि मैंने जीवन में कभी आसान और नरम विकल्पों को नहीं चुना। मुझे पता चल गया था कि अपने भीतर के लेखक को पोसने में मेरा कोई दूसरा व्यक्तित्व काम नहीं आ सकता।
मुझे वही होना पड़ा जो मैं हूँ, पूरी तरह मेरा मैं, लेकिन मैंने अपने व्यक्तिगत और गैर-व्यक्तिगत को शब्दबद्ध करना जारी रखा। लेखन निजता का अतिक्रमण है, और एक लेखक को अपना एक ऐसा आन्तरिक जगत निर्मित करना होता है जो हर प्रकार के अतिक्रमण से परे हो। एक ऐसा स्थान जिसे हर वक़्त बौद्धिक खुराक की ज़रूरत रहती है। इस पर कोई लेखक बाहर की दुनिया से कटा हुआ भी नहीं रह सकता। उसे हर क्षण समाज, परम्परा, प्यार, घृणा, हिंसा, रिश्तों और सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था का सामना भी करना होता है। एक अनुशासन के रूप में लेखन आपको अपने ही जटिल और विरोधाभासी आधिपत्य में रखता है।
अपने समकालीनों को सामने रखकर जब मैं अपने लेखन की पड़ताल
करती हूँ, तो मालूम होता है कि रचनात्मक उत्थान और पतन के दौर हम सब के जीवन में एक ही तरह आते हैं। इसके अलावा, अगर एक लेखक जरूरत से ज्यादा कल्पना से ग्रस्त रहता है तो वह एक क़िस्म का नशा पैदा करता है, वह चाहे स्त्री लेखक हो या पुरुष व्यक्तिगत चेतना के स्तर पर हम एक दूसरे से अलग हो सकते हैं। स्त्री और पुरुष दोनों ही, अपनी जीवन-शैली और अपनी भीतरी और बाहरी परिस्थितियों से अन्तर्क्रिया करते हुए अपने-अपने ढंग के गुणों के स्वामी होते हैं। रचनात्मकता को लेकर प्रचलित सभी क्रिस्म की जैविक व्याख्याओं के बावजूद में मानती हूँ कि हर अच्छा लेखन एक जैविक एकात्मता से सज्जित होता है। इस एकात्मता को हम अलग-अल औजारों और माध्यमों से हासिल करते हैं। कुछ होते हैं जो दूसरों के मुक़ाब ज्यादा मूल्यवान होते हैं। उदाहरण के लिए इसका कारण वह तीसरा आया है, वहाँ गहराई है, जिसके माध्यम से कोई भी लेखक अन्तर्दृष्टि, कल्प और भावनात्मकता की सघन प्रक्रिया से मानव अनुभव की अदेखी दुनि में प्रवेश करता है। इसे हासिल करने के लिए लेखक अपनी संवेदना, अ बौद्धिक क्षमता और अपनी कला का प्रयोग करता है। जीवन के प्रति उस प्रतिक्रियाएँ ही उसकी रचना को निर्धारित करती हैं।
लेखन एक चुनौतीपूर्ण अनुशासन है। वह आपको अपने नियम अनुसार चलाता है। यह एक एकान्तप्रेमी व्यवसाय है लेकिन यह शून्य में सम्भव नहीं है।
सभी रचनात्मक लेखक, वह चाहे स्त्री हों या पुरुष, अपनी कल्पना लिए एक क्षेत्र चुनते हैं, या तो आन्तरिक या बाह्य- जिसमें वे वास्तविकता को रूपान्तरित करते हैं। और लेखन के आयाम इतने व्यापक हैं कि इस को सबसे दूर जाकर एकाकी और वैयक्तिक अभिव्यक्ति के रूप में संभव किया जा सकता। इसके अलावा इससे स्त्री और पुरुष की एक स्टीरियोटाइप धारणा भी बनती है, जिससे स्त्री और पुरुष लेखन की प्रकृति निर्धारित है। स्त्री और पुरुष में एकमात्र अन्तर सिर्फ़ शारीरिक है। बाक़ी हर वे एक जैसे हैं। स्त्री की आत्मा का लिंग कोई और नहीं होता। दोनों बिलकुल एक जैसी आत्मा होती है। दोनों को ही आत्मा, तर्क और भाषा का एक जैसा उपहार मिला है।उन दोनों की रचनाएक जैसे ढंग से काम करने के लिए हुई है और उनकी नियति भी एक जैसी होती है।
करती हूँ, तो मालूम होता है कि रचनात्मक उत्थान और पतन के दौर हम सब के जीवन में एक ही तरह आते हैं। इसके अलावा, अगर एक लेखक जरूरत से ज्यादा कल्पना से ग्रस्त रहता है तो वह एक क़िस्म का नशा पैदा करता है, वह चाहे स्त्री लेखक हो या पुरुष व्यक्तिगत चेतना के स्तर पर हम एक दूसरे से अलग हो सकते हैं। स्त्री और पुरुष दोनों ही, अपनी जीवन-शैली और अपनी भीतरी और बाहरी परिस्थितियों से अन्तर्क्रिया करते हुए अपने-अपने ढंग के गुणों के स्वामी होते हैं। रचनात्मकता को लेकर प्रचलित सभी क्रिस्म की जैविक व्याख्याओं के बावजूद में मानती हूँ कि हर अच्छा लेखन एक जैविक एकात्मता से सज्जित होता है। इस एकात्मता को हम अलग-अल औजारों और माध्यमों से हासिल करते हैं। कुछ होते हैं जो दूसरों के मुक़ाब ज्यादा मूल्यवान होते हैं। उदाहरण के लिए इसका कारण वह तीसरा आया है, वहाँ गहराई है, जिसके माध्यम से कोई भी लेखक अन्तर्दृष्टि, कल्प और भावनात्मकता की सघन प्रक्रिया से मानव अनुभव की अदेखी दुनि में प्रवेश करता है। इसे हासिल करने के लिए लेखक अपनी संवेदना, अ बौद्धिक क्षमता और अपनी कला का प्रयोग करता है। जीवन के प्रति उस प्रतिक्रियाएँ ही उसकी रचना को निर्धारित करती हैं।
कोई भी लेखक किसी तकनीकी हुनर या कौशल से सजीव पात्रों की रचना नहीं कर सकता। किसी संवेदना, स्पर्श, स्थितियों, किसी विचार, और किसीसपने को चित्रित करने के लिए एक भीतरी संवेदनशीलता, और आखिरकार एक पागलपन, एक छलाँग की जरूरत पड़ती है जिससे आप विशेष और सजीव पात्रों की रचना कर सकते हैं। किसी भी लेखक को वह ताक़त और वह अन्तर्दृष्टि चाहिए होती है जो उन जीवित इलाक़ों की तलाश कर सके जहाँ नैतिकता और नैतिक मूल्य सामाजिक औचित्य की हदें लाँघ रहे हों। लेखक को उन इलाकों में प्रवेश
करना होता है, प्यार और संवेदनशीलता के साथ, किसी विधिसम्मत निश्चितताऔर निर्णयात्मकता के साथ नहीं।
लेखन में वस्तुगत होना हमें चीजों, स्थितियों, लोगों, घटनाओं, और सबसे ज़्यादा अपने आप को झुठलाने और विकृत करने से बचाता है। इसका बहुत महत्त्व है। स्त्री और पुरुष दोनों ही उस लेखकीय निरपेक्षता की अवहेलना कर सकते हैं जो उनके लेखन का एक अहम हिस्सा है जब किसी लेखक की आधारभूत चीजें विकृत या विचलित होती हैं, तो उसकी, उसके लेखन की और कथ्य की जैविक सम्पूर्णता गड़बड़ाने लगती है। इसका परिणाम कलात्मक उत्तरजीविता के लिए आत्म-रक्षात्मक मनस्थिति के रूप में सामने आता है जो तनाव और ‘ब्लॉक्स’ को जन्म देती है। इससे वह स्पष्टता भी बाधित होती है जो किसी भी ईमानदार लेखक के लिए जरूरी होती है। हर अच्छे लेखक के पास साफ़ निगाह और स्वच्छ आत्मा का होना जरूरी है।
सभी कलाएँ जब जन्म ले रही होती हैं, तो किसी भी अन्य प्राणी की तरह व्यवहार करती हैं। आपकी मेज़ पर मौजूद लिखित पाठ आपको सोख लेता है। और अपनी मनीषा के साथ अपनी एक लय का निर्माण करता है। लेखक को अपने आलोक में आलोकित इस मूल्यवान उपस्थिति को एक आध्यात्मिक वातावरण देना होता है।
कोई लेखक अगर रचनात्मक पहचान को अपनी ताकत का प्रयोग करते हुए रचना के उपकरणों से नियंत्रित करने का प्रयास करती है तो उसके नतीजे बहुत विनाशकारी होते हैं। उसके पास न सिर्फ उसके अपने विचार होना जरूरी हैं बल्कि कागज पर उतरने वाली अपनी पहली पंक्ति से मिलने वाले संकेतों की ग्रहण करने के लिए भी उसे अपने एंटिना को लगातार जागृत रखना होता है। हर अच्छी रचना के अध्ययन से हमें पता चलता है कि वह सिर्फ कल्पना और स्मृति की भाषिक कारीगरी भर नहीं होती बल्कि उसके पीछे बौद्धिक और भावनात्मक संलग्नता की एक जटिल प्रक्रिया होती है।
पाठ अपनी इयत्ता का स्वामी खुद हो जाता है और लेखक की सृष्टि मानवीय शोर, रंगों, आकारों और तमाम सजीव ख़यालों और चित्रों का स्थान लेने लगते हैं। किसी भी लिंग के हों, सभी लेखक जानते हैं कि पुनर्रचना में उन्हें कोई वास्तविक मूल्य इसके अलावा कुछ नहीं मिलता कि वे जो करते हूँ वह लेखन में यथार्थ का अनुवाद होता है। इसी कारण, किसी भी विमर्श के नेपथ्य में भाषा की लोच और क्षमता के बावजूद एक और पाठ प्रवाहित रहता है। व्यक्ति अपने जीवन के तौर-तरीके, अपने जीने-रहने, सोचने और अपने आसपास के साथ, बाहरी व्यवस्था और अपने उन मूल्यों के साथ जिनमें उसका विश्वास है, अपनी प्रतिक्रियाओं से जो पाता है, वही उसकी भाषा होती है। विश्वासों की अपनी जगह होती है, वे पाठ के भीतर बहते हैं।
मेरे लिए अच्छी अभिव्यक्ति का सबसे सरल प्रमाण उसकी स्पष्टता और सहजता होती है। हो सकता है यह मेरी प्रकृति का मेरी स्पष्टवादिता का ही प्रतिबिम्ब हो। अच्छी भाषा को जीवन्त, सारगर्भित और स्पन्दनशील होना चाहिए, हठधर्मी, अविचल और सजावटी नहीं।
मैं यहाँ उस वाचिक भाषा की अकूत ताक़त का ज़िक्र करना चाहूँगी जो मैंने परम्परा से हासिल की है। ‘ज़िन्दगीनामा’ लिखते समय मुझे किसानी बोली पर अपना ध्यान केन्द्रित करना पड़ा और उसकी सूक्ष्म दृश्यात्मकता और नाटकीय बोध पर। दृश्यता और श्रव्यता का अपना एक संसार घटित होता है, जो इस सदी के आरम्भ से वास्तविक संसार के साथ-साथ चल रहा है।
‘जिन्दगीनामा’ जैसा कोई भी काम सिर्फ़ विषय की भावनात्मक पकड़ के संभव नहीं है,
…..विभाजन एक ऐसा हिंसक अनुभव रहा है जिसे भूलना कठिन है और याद करना खतरनाक………..
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