अनुराधा गुप्ता जो कि कमला नेहरू दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग की सहायक प्रवक्ता हैं। अमृतराय जी के लघु उपन्यास “नागफनी का देश” पर प्रस्तुत है उनका आलेख जो कि लमही पत्रिका में प्रकाशित हुआ है….
हिंदी साहित्य की दुनिया में ´अमृतराय´ का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं।१९२१ वाराणसी में जन्मे अमृतराय का यह जन्मशताब्दी वर्ष है।अपने पिता व आधुनिक हिंदी कथा साहित्य के आधार स्तंभ प्रेमचंद के जीवन पर ´कलम का सिपाही´ नामक अमरगाथा लिखने वाले अमृतराय ने विपुल मात्रा में लेखन किया। सात उपन्यास, आठ कहानी- संकलन, तीन नाटक, हास्य व्यंग्य और साहित्यिक समालोचना की पाँच-पाँच पुस्तकों, एक जीवनी और एक यात्रा-वृत्त की रचना के साथ आठ पुस्तकों के अनुवाद, अपने पिता प्रेमचंद के बाद ´हंस´हिंदी पत्रिका का सम्पादन तथा अन्य महत्त्वपूर्ण शोध परक कार्यों के साथ देश का सर्वाधिक प्रतिष्ठित पुरस्कार ´साहित्य अकादमी ´ उनकी उल्लेखनीय उपलब्धियों में शुमार है।
प्रस्तुत लेख अमृतराय के ९९ पृष्ठों में फैले एक लघु उपन्यास ´नागफनी का देश´ पर केंद्रित है। बात यदि उपन्यास विधा की संरचना और शिल्प के आधार पर की जाए तो इस उपन्यास की रेंज स्थल, काल , विचार व ट्रीटमेंट की दृष्टि से अपेक्षाकृत सीमित है। अमृतराय पचास के दशक के बाद के महत्त्वपूर्ण कथाकरों में से एक हैं। गोपाल राय अपनी पुस्तक हिंदी कहानी का इतिहास -२: १९५१-१९७५ में ‘विरासत पर एक नज़र’ शीर्षक के अंतर्गत लिखते हैं, “अमृत राय, रांगेय राघव और धर्मवीर भारती को उन कहानीकारों में गिना जा सकता है, जो इस दशक को मिले तो थे विरासत के रूप में ही, पर जिन्होंने अपने को समय के अनुरूप ´नया´ बनाने का यत्किंचित प्रयास किया।” (पृष्ठ,२६)
‘नागफनी का देश’ एक ऐसा ही उपन्यास है जो बदलते दौर में रिश्तों की बदलती नब्ज को पकड़ने का प्रयास करता है। यह कहना ग़लत न होगा कि ऐसे प्रयासों पर ही आगे चलकर ‘नयी कहानी’ जैसा सशक्त हिंदी कहानी आंदोलन खड़ा हुआ।
आज़ादी के कुछ वर्षों पहले और बाद की कथा पर आधारित अमृतराय का पहला उपन्यास ‘बीज’ १९५२ में आया। भदन्त आनन्द कौशल्यायन ने इसकी तुलना गोर्क़ी के ‘मदर’ से की है। प्रकाशचन्द्र गुप्त लिखते हैं कि “बीज ने अमृतराय को अनायास ही पाँचवे दशक के जीवित उपन्यासकारों की प्रथम पंक्ति में ला खड़ा किया।” ‘बीज’ जैसे एक व्यापक वितान के उपन्यास को लिखने वाले अमृतराय एक नई क़िस्म की आधुनिक स्त्री चरित्र के निर्माण , पत्नी के आज़ाद ख़यालात व भौतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण पति-पत्नी के जीवन में नए तरह के तनावों व दबावों की खोज व उनके दुष्परिणामों को लेकर अपने अगले उपन्यास में आते हैं। एक तरह से १९५३ में प्रकाशित अमृतराय का उपन्यास ‘नागफनी का देश’, ‘ बीज’ में उकेरे सामाजिक व राजनैतिक चेतना के व्यापक फलक के बाद उनके सृजन का अगला पड़ाव है। जहाँ पति-पत्नी के तनावपूर्ण सम्बन्ध, स्त्री की अतृप्ति व असंतोष के कारण पर-पुरुष की ओर आकर्षण फिर मोहभंग और अपनी ग़लती का एहसास, अंत में पत्नी का अपने नागफनियों से कँटीले जीवन में रहने की अभिशप्ती के साथ त्रासद अंत को बेहद मार्मिक व ज़हीन भाषा -शैली में दर्ज किया गया है।
आधुनिक हिंदी कहानी साहित्य में बदलते दौर के जटिल होते स्त्री पुरुष सम्बंधों की आहट इससे पूर्व सुनाई देने लगी थी। ये आहटें अपने दौर की और उससे आगे की कहानी अपने अपने तईं बख़ूबी बयान कर रहीं थीं। दाम्पत्य सम्बंधों में तनाव, स्त्री मन की गूढ़, तलस्पर्शी तस्वीरें मनोवैज्ञानिक कथाकारों जैसे इलाचंद्र जोशी, जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल की पीढ़ी के अलावा अमृत राय के लगभग समकालीन कुछ ख़ास रचनाओं जैसे रांगेय राघव की ‘गदल’, धर्मवीर भारती की ‘ सूरज का सातवाँ घोड़ा’ में मानीखेज रूप में खींची जा चुकी थीं।
भारती का उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ कथ्य, शिल्प, भाव, अभिव्यंजना, प्रयोग हर दृष्टि से, अपने समय से आगे की रचना है,जबकि रांगेय की ‘गदल’ नयी कहानी आंदोलन का प्रस्थान बिंदु मानी जा सकती है। इन दोनों रचनाओं में जो मानीख़ेज है, वो है आधुनिक विचार और सम्वेदना। किसी भी रचना को समझने के लिए यह समझना ज़रूरी है कि वो अपने समकालीन, पूर्व व भविष्य की सृजन परंपरा में कहाँ स्टैंड करती है। यह बात इन तीनों रचनाओं को तुलनात्मक रूप में देखकर समझी जा सकती है। अमृत राय के आलोच्य उपन्यास पर बात करने के लिए जहाँ उनके समकालीन कथा साहित्य का ज़ेहन में आना स्वाभाविक है, वहीं उनके पूर्ववर्ती कथाकर यशपाल की ‘तुमने क्यों कहा था कि मैं सुंदर हूँ’ जैसी कहानी का स्मरण भी अस्वाभाविक नहीं।
यशपाल की उपरोक्त वर्णित कहानी स्त्रियों के लिए समाज द्वारा बनाए नैतिक-अनैतिक, पाप-पुण्य, की बासी, गंधाती, जर्जर परम्पराओं और सोच पर एक कठोर प्रहार है। कह सकते हैं कि यह कहानी अमृत राय के उपन्यास ‘नागफनी का देश’ का विरोध रचती है। दोनो का समय लगभग एक है, दोनों लेखक एक विचारधारा के हैं, किंतु इन दोनों गद्य रचनाओं में लगभग एक सी सामाजिक समस्या पर बात करते हुए, विचार बिंदु और उसके प्रवाह को दो विपरीत ध्रुवों पर पाते हैं। ‘नागफनी का देश’ कहानी है एक ऐसी अति महत्वाकांक्षी, आत्मकेंद्रित, विलासी स्त्री की जिसका अपने डॉक्टर पति से, (जो विवाह पहले कभी उसका प्रेम भी था) की परोपकारी प्रवृत्ति व थोड़ी आर्थिक रस्साकस्सी के कारण मोहभंग होता है और वह मोहभंग कारण बनता है एक छद्म कलाकार की ओर गहरे आकर्षण का। बिना पति की भावनाओं की परवाह किए, अपनी बसी बसाई गृहस्थी को ताक पर रखने को अमादा वह बावली सी स्त्री तब तक उसके प्रेम और वासना में अंधी रहती है जब तक की उसके छद्म प्रेमी की शिकार एक दूसरी स्त्री उसकी आँख नहीं खोल देती। इस उपन्यास को कुछ आलोचकों ने प्रेम त्रिकोण की कहानी कहा है। किंतु असल में ये प्रेम त्रिकोण की कहानी न होकर एक श्रेष्ठ गुण वाले पति के होते हुए भी पर पुरुष के प्रेम में पड़ी अति महत्वाकांक्षी स्त्री के समझावन या सबक़ की कहानी है।मनोविज्ञान की दृष्टि से यह कहानी एकतरफ़ा काम करती है। कुछ कुछ उसी तरह जैसे हिंदी व हिंदुस्तानी साहित्य की शुरूवात में अधिकांश साहित्यिक रचनाएँ काम कर रहीं थीं।
दरअसल बीसवीं सदी की आधी शताब्दी बीत जाने के बाद भी तत्कालीन रचनाकारों के वैचारिक निर्माण में पितृसत्तात्मक भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। स्त्री सुधारोन्मुख भाव प्रकारांतर से इसी व्यवस्था का पुष्टिकरण है। महत्वपूर्ण आलोचक व स्त्री सरोकारों की गम्भीर अध्येता व लेखिका गरिमा श्रीवास्तव आधुनिक हिंदी साहित्य के उद्भव काल के key point व key thought व रचना प्रोसेस पर लिखती हैं, “ उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जिस गद्य का निर्माण हो रहा था, वह उनके इस एजेंडे की पूर्ति में सहायक बना। उपन्यास लेखन के प्रारम्भिक दौर में हिंदी समेत कई भारतीय भाषाओं के लेखक अपने-अपने समुदाय के भीतर स्त्रियों की दशा में सुधार की चिंता करते दिखने लगे।…..उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्ध वह समय था जब गद्य साहित्य के ज़रिए एक नए ढंग का सामाजिक और राजनीतिक सुधार आगे बढ़ाया जा रहा था। शुरुआती उपन्यास सुधारकों की कल्पना की आदर्श स्त्रियाँ हैं। लेखक समाज के लिए अपेक्षित और काम्य स्त्री का प्रतीक रचते हैं। ..ध्यान देने की बात यह है कि उन्हें यह तो मालूम था कि राष्ट्र और समाज को कैसी स्त्री चाहिए, लेकिन यह नहीं पता कि स्त्री को क्या चाहिए। …अपनी दुर्दशा के लिए स्त्री ही ज़िम्मेदार है। गुणों और आचरण द्वारा ही वे अपनी स्थिति में परिवर्तन और सुधार ला सकतीं हैं।”- गरिमा श्रीवास्तव : नवजागरण, स्त्री प्रश्न और आचरण
अब ‘नागफनी का देश’ उपन्यास के कथ्य को देखते हैं। बेला और रनजीत पति-पत्नी हैं और इसके केंद्रीय पात्र भी। उपन्यास अपने पहले ही पैराग्राफ़ में लखनऊ के डिक रोड में स्थित बंगले के आसपास की मरघट सी खामोशी के सघन विस्तार का संकेत देकर सम्बंधित जिंदगियों और उनके आपसी रिश्तों की बानगी पेश कर देता है। हलंकि दोनो की जान पहचान पुरानी है किंतु शादी के ग्यारह वर्ष हुए हैं….इन ग्यारह वर्षों की एक सी दिनचर्या। यहाँ मामला ऊब, नीरसता अर्थात् monotone का नहीं है। मामला है पति-पत्नी के रिश्ते में तमाम वजहों से उपजे असंतोष के कारण गहरी होती जाती फाँक का..ये फाँक गहरी होते होते खाई बनने की कगार पर है। बेला और रनजीत के कमरे अब अलग हो चुके हैं। आपसी मान मनुहार, गिले शिकवे, प्रेम की आख़िरी से आख़िरी तपिश ख़त्म होकर बर्फ़ की मोटी परत में तब्दील हो चुकी है। उन दोनों के बीच की एक कड़ी है उनका बेटा ‘कुमी’ ..पति-पत्नी नाम के रिश्ते की निशानी। पत्नी का पति के प्रति अत्यंत ठंडे, लगभग क्रूरता की हद तक बेपरवाह रवैये का कारण पति के अपने चिकित्सक पेशे के प्रति अति उदारता व अति भौतिक सुविधाओं- बाह्य दिखावे के प्रति उदासीनता है। इन दोनो का विवाह उनके बचपन के समय से रहे प्रेम की परिणति है। उनका पच्चीस साल का प्रेम..विवाह के कुछ ही वर्षों बाद हवा हो गया। आपसी कलह की छोटी छोटी वजहें महाभारत की वजह बनने लगीं।लेकिन तब कम से कम भीतर दबे ग़ुस्से को बाहर फूटने का मौक़ा तो मिलता था। अब तो यह नासूर की तरह भीतर ही भीतर पनपता जाता है। रनजीत को ख़त्म होती मुहब्बत गहरे सालती है। पत्नी और बच्चे के घर में होते हुए भी उसका अकेलापन उसे भूतों के हमले की तरह सालता है।
दोनो के रिश्तों में अलगाव इस क़दर बढ़ गया है कि वो एक ही घर में अपनी अपनी दो अलग दुनियाओं में रहते हुए बिल्कुल अलग जिंदगियाँ जी रहे हैं जैसे, ‘ एक ही कब्र और एक ही ताबूत में दो लाशें दफ़न हैं’ … ज़िंदगी के ऊष्म जज़्बात मानो मुर्दे में तब्दील हो गए हों। रनजीत की यह कसक उसे हर पल कचोटती है, ‘ कभी कभार भूले भटके रात के खाने पर हम दोनो की मुलाक़ात हो जाती है और हम एक ही मेज़ पर आमने सामने बैठकर ज़हर के निवाले निगल लेते हैं। हमारी आँखें नीचे प्लेट पर गड़ी रहती हैं या दाएँ बाएँ देखती हैं मगर कभी भूल कर भी सामने की तरफ़ नहीं देखतीं। हम शायद ही कभी मुस्कारते या बात करते हैं और अगर कभी मुस्कारते या बात करते हैं तो वह न मुस्कारने और न बात करने से भी बदतर, उससे भी ज़्यादा तकलीफ़देह साबित होता है और हम अगले पाँच दिन तक पछताते रहते हैं कि ऐसी गलती हमने क्यों की।”
बेला ने अपने पिता के ख़िलाफ़ जाकर शादी की। वह एक बेहद सम्भ्रांत घर की लड़की है, अभिजात्य परिवेश उसके रक्त में है। रनजीत का अपने चिकित्सक पेशे को जन कल्याण भाव से लेने के कारण घर में मायके सा भौतिक ऐश्वर्य- विलास का अभाव तो उसे सालता ही है, उसकी व्यस्तता के चलते घर परिवार व बेला को समय न देने पर उसका स्त्री स्वाभिमान व दम्भ भी उसे कचोटता है, धिक्कारता है। हालाँकि दूसरी वजह के संकेत बहुत कम मिलते हैं।बेला का आधुनिक विद्रोही स्त्री मन ऐसे व्यक्ति पर अपना सर्वस्व निज दांव पर नहीं लगाने देता जिसे बेला के मन, उसकी आशाओं और आकांक्षाओं की परवाह नहीं, “ मैं तो बस इतना समझ पाती हूँ कि रनजीत को ही मुझसे अब वह पहले सा प्रेम नहीं रहा। वह उमंग ही ख़त्म हो गई मेरे देखते देखते। वह न जाने कहाँ भटकते रहते हैं। घर पर उनका जी ही नहीं लगता। पहले वह मेरे चारों तरफ़ मंडराते रहते थे, अब बरसों से यह हाल है कि वह मेरी ख़बर ही नहीं लेते। जैसे मैं भी कोई आटे दाल का बोरा हूँ, लाकर घर में डाल दिया। और फिर जब उन्हीं को मेरी फ़िक्र नहीं, मेरे संग कहीं आने जाने का वक्त नहीं तो फिर ठीक है, मैं क्यों उनके पीछे मरूँ। मुझसे तो यह नहीं हो सकता कि मुझे कोई दुरदराए और मैं उसके सामने दुम हिलाऊँ। मैं ऐसी बेग़ैरत नहीं हूँ। मैं किसी की लौंडी नहीं हूँ। बिक नहीं गई हूँ।…प्यार से चाहे कोई मेरा गला ही काट ले, मगर धौंस मैं किसी की नहीं सह सकती।”
बेला की रनजीत से बढ़ती दूरी की वजह उसका घर के ऐश ओ आराम के भरपूर साधन ही न जुटा पाना नहीं है बल्कि उस की असहमति, आपत्ति, असंतोष को कोई तवज्जो न देना भी है। रनजीत अपनी नज़र में जो वो जन सेवा कर रहा है वो सर्वथा उचित है, और इसीलिए बेला की आपत्ति व असंतोष उसे बहुत वाजिब नहीं लगते । कदाचित इसीलिए वो न बेला को समझने की कोशिश करता है और न अपने को समझाने की। हालंकि दोनो की माली हालत अच्छी है। बंगला, कार, नौकर, रसोईया ये सुविधाएँ तंगी के संकेत नहीं। उपन्यास में चित्रित ये पात्र मध्य या उच्च मध्य वर्ग के क़रीब हैं। फिर ऐसे में बेला का असंतोष गहनो, महँगे कपड़ों का अभाव और उसका अपनी ज़रूरतों के लिए सिलाई कढ़ाई की बात बहुत मुनासिब नहीं लगती। ये स्थिति पाठकों को बहुत convince नहीं करती। बेला का आर्थिक अभाव का असंतोष भी बाह्य है, असल असंतोष कहीं और है। वह जानती है उसकी ज़िंदगी उतनी भी ख़राब नहीं, वह सोचती भी है कि इसमें भी चैन से जिया जा सकता है, मायके के सुख वैभव को भुला कर। पर मन की कुढ़न नहीं जाती क्योंकि रंजीत को फ़र्क़ नहीं पड़ता।
शांत स्वभाव का रंजीत बेला से बहस नहीं करता, नम्र होकर धैर्य से बात करता है किंतु करता अपने मन की ।बेला की खीझ की यह बड़ी वजह है। रंजीत की ख़राब होती तबियत, बदहवास सी स्थिति, उसकी कराह को सुनकर और देखकर मदद के लिए रात में बेला के बढ़े कदम रंजीत के कमरे के बाहर तक आकर ठहर जाते हैं। उसकी हठ धर्मिता और उसका स्वाभिमान उसे रोक लेता है।
‘मगर आदमी का शायद स्वभाव है कि वह किसी न किसी मृग छलना के बिना नहीं जी सकता। जब बाहर उसे कोई चीज़ नहीं मिलती तब वह मकड़ी की तरह अपने ही भीतर से उसकी सृष्टि कर लेता है।’ बेला के इस उजाड़, बेजान मन में मृगछलना का काम करता है श्रीकांत। श्रीकांत चित्रकार है, लोगों के मन को बखूबी पहचानता है। पहचानता ही नहीं उन्हें सम्मोहित करना भी जानता है, विशेषकर स्त्रियों के। उसकी हर अदा ख़ूबसूरत व एकाकी स्त्रियों के लिए मकड़ी के सुनहरे जाल की तरह है। उसके छद्म मोह पाश से उनका निकलना कतई आसान नहीं। इस छद्म की शिकार अकेली बेला नहीं और भी कई स्त्रियाँ हैं। श्रीकांत का अपने लखनऊ, बेला के घर, आने का ख़त बेला के शुष्क निराश जीवन में बारिश की ठंडी फुहार की तरह है। वो सोचती है, “क्यों कोई व्यक्ति किसी को इतना ज़्यादा भाता है और दूसरा नहीं भाता, यह राज आज तक कोई नहीं खोल सका”
उसके आने की सूचना भर से उसकी चहक से पूरा घर गुलज़ार है। वो रंजीत से अपनी ख़ुशी छिपाती भी नहीं। श्रीकांत अछूती कलात्मक रुचि का आदमी है, ‘ हिंदुस्तानियों के बीच साहब और हिंदुस्तानी साहबों के बीच हिंदुस्तानी’ जैसा अनोखा अन्दाज़ भी। बेला की नज़र में रंजीत और श्रीकांत दोनो दो विपरीत ध्रुव के चरित्र हैं।रंजीत से उसका गहरा विकर्षण ही श्रीकांत की ओर प्रबल आकर्षण का कारण है। श्रीकांत के साथ उसकी पुरानी स्मृतियाँ उसे एक सुनहरी अंजान दुनिया में खींचे ले जा रही है, जहां है सिर्फ़ सुख, रोमांच की हसीन दुनिया। बेला को वह किसी जादूगर सा लगता था। श्रीकांत में हमेशा नएपन की भूख रहती। ‘हर नई चीज़ उसके लिए एक दो बार के बाद बासी पड़ जाती और तब उसे कोई नया अन्दाज़ ईजाद करना पड़ता क्योंकि उसे चाहे अपने में चाहे दूसरे में, बासी अन्दाज़, पिटी हुई रबिश क़तई ज़हर मालूम होती थी।’ हालांकि बेला ये नहीं समझ पाती कि श्रीकांत की नए के प्रति भूख स्त्रियों के साथ सम्बंध बनाने के संदर्भ में भी है। बल्कि बेला को श्रीकांत की सब बातें उसे धीरे धीरे अपने मोह की गिरफ़्त में लेती जाती हैं।
बेला श्रीकांत को अपना प्रेम स्वीकार नहीं करती बल्कि जीवन स्वप्न मानती है। हालाँकि जिस तरह वो उसकी गिरफ़्त में है इस सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। ‘जीवन स्वप्न’ और ‘प्रेम’ के बीच में कौन सी बारीक लाइन है ये समझना यहाँ थोड़ा मुश्किल है। प्रेम को स्वीकार न कराके लेखक ने बेला को पाठक की ओर से एक ‘ Doubt of benefit’ तो दिया है। ‘ प्यार मैं उसे नहीं कह सकती। पर उसके पास होने से जैसे मन की भूख मिटती है, जीवन का सारा रीतापन जैसे भर उठता है। कोई मुझसे पूछे कि क्या तुम श्रीकांत से प्रेम करती हो? तो मैं निःसंकोच कहूँगी नहीं और वह झूठ भी नहीं होगा।लेकिन अगर श्रीकांत कहे तो मैं उसके लिए प्राण भी दे सकती हूँ….श्रीकांत मेरा प्रेम नहीं जीवन स्वप्न है।’
बेला अपने पति के मित्र श्रीकांत के साथ पहाड़ की सैर पर अकेले किस वज़ह से गई और उस पर रंजीत की क्या प्रतिक्रिया थी, इसका उपन्यास में कहीं ज़िक्र नहीं। बस बेला की हर पल की स्मृति में वहाँ की श्रीकांत के संग साथ की हसीन यादें हैं। वो उन बीतें क्षणों को हमेशा के लिए अमर कर लेना चाहती है, उन्हें हर समय जीना चाहती है, ‘ आज भी क्यों मेरी साँस-साँस में रची हुई है वह पागल हवा, वह ठंडा पानी, वह ख़ामोश जंगल, वह चमकती हुई नीली बर्फ़ की चोटियाँ, वह पेड़, वह फूल, वह ठंडक, वह गुदगुदी, वह गम्भीर एकांत, वह मौन, वह रोमांच, भय का और आनंद का- वह सब कैसे मिटा नहीं आज भी? वह झरने के ठंडे पानी में पैर डालकर बैठे रहना, वह श्रीकांत का मुझे अपनी बाँहों में उठाकर दौड़ना और छपाछप भिगो देना क्यों नहीं भूलता मुझे? उसके बाद तो मनों राख पड़ी है उस पर, तब भी वह आग बुझी क्यों नहीं? क्यों ज़रा सा ही कुरेदने से वह आज फिर धधकने लगी है? वह आग सच है या राख ? कब मिटेगा यह द्वन्द।’
बेला के द्वन्द को उपन्यास कहीं भी नहीं उभार पाया बल्कि एक तरह से उसके चरित्र को एकपक्षीय judgemental होते हुए नकारात्मक रूप में गढ़ा गया है। श्रीकांत के लिए घर की साफ़ सफ़ाई और स्वागत की तैयारी में लगी बेला के प्रति घरेलू सहायकों की बेहद छिछली टिप्पणी एक साथ कई निशाने साध जाती है, उसके चरित्र का खाका और स्पष्ट तरह से खिंच जाता है, और रंजीत की छवि एक बेहद नेक और उदार नायक की बनी रहती है। नौकर तो निम्न वर्ग के कम शिक्षित या अशिक्षित हैं, इसलिए उनके द्वारा बेला के बारे में ऐसा कहा जाना सर्वथा उचित है, ‘ ऐसी कुल्च्छनी औरत तो और देखी नहीं। मेरी जोरू ऐसी हो तो मैं पीट पीट कर हलवा बना दूँ। ..रत्ती भर भी दया नहीं है मेम साहब के कलेजे में। .. साहब बड़े अच्छे आदमी हैं। ..पिछले जन्म का भोग दंड है जो ऐसी जोरू मिली। दूसरी कोई औरत होती तो चरण धोकर पीती। नहीं तो यह एक मेमसाहब हैं कि आदमी की परवाह ही नहीं , जैसे आदमी न हुआ गोबर की चोंथ।रात की रात बेचारे कराहते रहते हैं और इस औरत से यह नहीं होता कि एक बार जाकर पूछ ले कि जी कैसा है, जीते हो कि मर गए। औरत आदमी अपने आराम के लिए रखता है, कि झूठ कहता हूँ? और यहाँ औरत ऐसी कि हरदम छाती पर सवार। मारें एक घूँसा नाक पर, सब अकल ठिकाने लग जाए।’
बहरहाल ये बेला और रंजीत के चरित्र की ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर है बरक्स घर के नौकरों के, जिनके मुँह से कहलाना लेखक के लिए अधिक सुभीते का काम था।
श्रीकांत के घर आने की ख़ुशी पूरे घर में बेला के मन की चुग़ली कर रही है। रंजीत सब समझते हुए भी कुछ भी ज़ाहिर नहीं करता। ‘बावजूद कि न सवाल पूछा गया, न जबाव दिया गया मगर फिर भी बात पूरी हो गई और उसका तनाव और बोझ रंजीत और बेला दोनों महसूस करने लगे। रंजीत ने उससे ऊपर उठने की कोशिश की- ‘जिसको जिसमें ख़ुशी हासिल हो…जिसका जिससे मन मिले…मुहब्बत तो दिल का सौदा है।…इसमें ज़बरदस्ती कैसी।’लेकिन ये इतना आसान कहाँ बार बार श्रीकांत का व्यंग्य से मुस्कराता चेहरा उसके सामने आ जाता है। उसकी दिल की बेचैनी फिर से बढ़ने लगती है पर इलाज कहाँ। इलाज तो घर में है और घर घरवालों से होता है, यहाँ अपना कोई नहीं। श्रीकांत की अदृश्य उपस्थिति उससे उसकी मर्दानगी पर सवाल कर, उसका उपहास उड़ा कर, उसे haunt कर रही है, ‘ तुम मुहब्बत का राग अलापते हो और उसके ग़म में टेसुए बहाते हो। यह नामर्दों का काम है और मैं मर्द हूँ। औरतों की जात बेवफ़ा होती है। वह किसी की होकर नहीं रहती। उसे अपना बना कर रखना पड़ता है। जो उस पर हुकूमत करता है वह उसकी होकर रहती है। और इसीलिए तुम्हारे अपने घर में तुम्हारी अपनी हैसियत एक अजनबी की है और मैं, श्रीकांत राज करता हूँ।….तुम्हारी मुहब्बत की रानी मेरे पैरों की जूती है। मैं उससे जो माँगूँ वह देगी और जो न माँगूँ वह भी। मैं आज चाहूँ तो तुम्हारी बीवी मेरी ख़ातिर तुम्हें ज़हर दे सकती है।’ कहना न होगा कि यह असुरक्षा, हीनता का बोध रंजीत का अपना है। रंजीत अपने दोस्त और अपनी बीवी के अनकहे अप्रकट सम्बन्धों को बर्दाश्त नहीं कर पाता।रंजीत जानता है कि ‘उसकी मुहब्बत को साँप डँस चुका है, उसकी लाश उसके और बेला के बीच बराबर यकसाँ पड़ी रहती है, ठंडी, निःस्पंद।’ उसका रंग महल अब महज़ मलबे का एक ढेर रह गया है।
बेला को न इसका एहसास है न इस बात का कि श्रीकांत का अलहदा अन्दाज़ एक बड़े फ़रेब के अलावा और कुछ नहीं। उसका सुनहरा भ्रम टूटता है जब श्रीकांत के आगमन की बेचैनी से करती प्रतीक्षा ख़त्म होती है श्रीकांत की जगह मुम्बई से आई मदालसा के आने से। मदालसा रंजीत के छल की शिकार का जीता जागता नमूना है। एक बेहद सम्भ्रांत घर की कलाप्रेमी लड़की को किस तरह पहले से शादीशुदा तीन-चार बच्चों का पिता श्रीकांत झूठ का एक पूरा जाल बुनकर फँसाता है। और जब उसके सच से पर्दा हटता है तब तक मदालसा के गर्भ में श्रीकांत का अंश जन्म ले चुका था, मदालसा के पिता चाहते तो उसे चींटी की तरह मसल कर ख़त्म कर सकते थे, किंतु वह ऐसा नहीं करने देती, बल्कि वह सोचती है, ‘ कहानी का यह अंत ठीक नहीं, यह तो घटिया अंत है। नायक भी जिएगा, नायिका भी जिएगी और दोनों का पाप भी जिएगा और कहानी आगे बढ़ेगी।’ मदालसा की कहानी चलती रही और बेला को लग रहा था कि ‘उसके आँखों के सामने किसी डरावने सपने की परतें खुलती जा रही हैं और वो गिर रही है, गिर रही है.. एक ऐसे खड्ड में जिसका कहीं अंत नहीं।’ जिस प्रेम को बेला द्वारा उपन्यास में अभी स्वीकार नहीं कराया गया था, वही मुहब्बत अब लाख चाहने पर भी वह एकदम से नोच कर नहीं फेंक सकती।
श्रीकांत के छद्म का पर्दाफ़ाश उसके लिए किसी बड़े सदमे से कम नहीं, शायद इससे अपने को थोड़ा सम्हालने की गरज से उसके कदम अरसे बाद रंजीत के कमरे की ओर बढ़ चलते हैं, जहाँ उसके लिए कभी न उबरने दे सकने वाला एक और सदमा प्रतीक्षा में है। रंजीत बेला को बग़ैर कुछ कहे हमेशा हमेशा के लिए छोड़ कर जा चुका है, सिर्फ़ एक पत्र है जिसमें वह बेला को कहता है कि वह आज़ाद है, अपनी मर्ज़ी से अपनी ज़िंदगी जीने के लिए। यह पत्र रंजीत के बरसों पकते दर्द, उसकी टीस के बह जाने के लिए है। रंजीत बेला में उसके प्रति मुहब्बत के ख़त्म होने के बाद उसको अपने साथ जबरन बाँध कर रखने का अपराध नहीं करना चाहता। वह जानता है कि एक न एक दिन बेला को अपनी ग़लती का एहसास ज़रूर होगा, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। वह लिखता है, “मुहब्बत बड़े पेंच का खेल है। वह ऊपर से जितना आसन दिखाई देता है, दो दिलों का भोला सा लेन देन हक़ीक़त में उतना आसान नहीं है। क्योंकि कोई नदी हमेशा चढ़ी हुई नहीं रहती। और जब वह उतरती है तभी असल इम्तिहान होता है।…..हमदर्दी के बिना कोई मुहब्बत ज़िंदा नहीं रहती।”
पत्र में रंजीत का बेला के प्रति असीम प्रेम, उसकी करुणा , उदार हृदय, उसे महान बना जाती है। ज़िंदगी भर वह उसे उसके और कुमी के पालन पोषण का खर्चा वहन करने का वायदा तो करता ही है, साथ ही यदि वह बेटे को न पालन चाहे तो उसे रखने के लिए भी वह सहर्ष तैयार है, छोड़ इसलिए रहा है कि बच्चे पर माँ का हक़ ज़्यादा है। वह लिखता है,” ज़िंदगी बड़ी बेरहम है और इसीलिए बड़ी रहमदिल होती है, कोई किसी के लिए सदा यकसाँ रो नहीं सकता।न मैं न तुम।” पत्र बेला के लिए अप्रकट समझाइश भी है जो यह संकेत देता है क़ि एक न एक दिन उसे अपनी ग़लती का एहसास भी ज़रूर होगा। बेला को उसके किए की इससे बड़ी सज़ा क्या होगी, वह ताउम्र अपने अपराधबोध और आत्मग्लानि से बाहर नहीं आ सकेगी। पूरी ज़िंदगी वह एकाकी अभिप्शत जीवन जीने के लिए विवश है। रंजीत उसे अपने मरते दम तक अपने होने न होने जैसी किसी भी ख़बर से महरूम रख, पत्नी होने के सारे अधिकार छीन लेता है। बेला को लगता है मानो वह जीते जी मरे के समान है।
उपन्यास का अंत पाठकों को कतिपय चौंकाने वाला और स्पष्ट तस्वीर न प्रस्तुत करने वाला है। लगभग चार पन्नों के ख़त के बाद आधे पेज का नाटकीय मोड़ उपन्यास की दिशा बदल देता है। फाटक पर हर रात जानी पहचानी आवाज़ में कन्हई की पुकार रंजीत के वापस आने या पत्र लिखकर निर्णय बदलने की तस्दीक़ है। और बेला… जैसे बहुत बड़े सबक़ से गुज़रा हारा हुआ जुआरी … ‘ बेला के चेहरे पर अजब एक कड़वी कसैली सी मुस्कराहट तैर गई, जो हँसने से ज़्यादा रोने के पास थी, और रोने से ज़्यादा कराहने के पास थी, और कराहने से ज़्यादा एक घुटी हुई चीख के पास थी….कि जैसे वह नागफनी के काँटों से बिंधी हुई एक एक ज़िंदगी हो, इधर भी उधर भी, जो आदत का ही दूसरा नाम है।”
यानी अब ये कँटीली ज़िंदगी उसके आदत का हिस्सा तो है ही, उसके भाग्य का भी हिस्सा है, यानी बदला कुछ नहीं। पूरा घटित क़िस्सा उसे सबक़ सिखाने के लिए काफ़ी था।
इस उपन्यास को पढ़ते हुए राजेंद्र यादव की पुस्तक का शीर्षक ‘आदमी की निगाह में औरत’ याद हो आया।हालाँकि उसके कंटेट का इस उपन्यास के कथ्य से कोई सरोकार नहीं। बहरहाल एक बेहद अच्छी भाषा और रवानगी के साथ लिखे इस उपन्यास में आधुनिक स्त्री के चरित्र को एक पुरुष की निगाह से उकेरा गया है। जहाँ पति-पत्नी के तनावपूर्ण रिश्ते का कोई अंत नहीं, विशेषकर स्त्री अपनी महत्वाकांक्षाओं, स्वाभिमान और असंतोष के साथ ताउम्र नागफनियों के देश में रहने को अभिशप्त है।
लेखिका- अनुराधा गुप्ता
सहायक प्रवक्ता हिंदी विभाग कमला नेहरू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
नई दिल्ली
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