आपने आब तक 30 से अधिक नामी गिरामी लेखकों की पत्नियों के त्याग समर्पण की कहानियां पढ़ीं।कल आपने विनोद भारद्वाज की पत्नी देवप्रिया की कहानी पढ़ीं थी ।आज पढ़िये हिंदी के प्रसिद्ध कवि आलोचक एवम अनुवादक गिरधर राठी की पत्नी चन्द्रकिरण राठी के बारे में जिनको कोरोना ने हमसे अचानक छीन लिया। किरण जी एक साहित्यिक परिवार की थीं और उनके दोनों बड़े भाई हिंदी के जाने माने लेखक के रूप में जाने गए।खुद चंद्रकिरण जी एक अच्छी लेखिका और अनुवादक रहीं।तो आइए पढ़ते हैं हिंदी की चर्चित कथाकार निधि अग्रवाल के सुंदर शब्दों में चंद्रकिरण जी की कहानी —
एक चाँद जिसने आलोकित होने को उजास उधार नहीं लिया
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डॉ. निधि अग्रवाल
साहित्यकारों की पत्नियों के परिचय में हम अधिकतर उन्हें उनकी पहली पाठक या प्रूफरीडर के रूप में दो कदम पीछे खड़ा पाते हैं। आज जानिए ऐसी स्त्री के बारे में जिसने अपनी बौद्धिक आभा से अपनी दुनिया को स्वयं प्रकाशित किया। जिसने अपने परिवार के लिए अपने सपनों को विस्मृत नहीं किया बल्कि किसी चमत्कार की भांति अपने पारिवारिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए सपनों को यथार्थ के धरातल पर साकार किया।
1944 की फरवरी की 29 तारीख को चंद्रमा कुछ अधिक दीप्त था। एक किरण ने पृथ्वी को छुआ और कलकत्ता के वैभवशाली परिवार में किलकारी गूंज उठी।कलकत्ता में उपजे दंगों के कारण उस समय यह परिवार अपने पैतृक गाँव तिवारीपुर, हुसैनगंज, जिला फतेहपुर, उत्तर प्रदेश में रह रहा था। बैजनाथ शुक्ल व बिन्दुमती शुक्ल की यह पुत्री उनकी सातवी संतान थी। विशिष्ट तिथि को जन्मी यह बच्ची विशिष्ट प्रतिभा की स्वामिनी थी।नाम रखा गया- चन्द्रकिरण! तब कौन जानता था कि चाँद की यह बगावती किरण उधार के आलोक से नहीं, स्वयप्रभा बन अपने इर्दगिर्द एक विशाल आलोक-वृत्त निर्मित करेगी।
इसी किरण की चमक से परिचित होने मैं, उनके बडे भाई पत्रकार/साहित्यकार/ पेंटर प्रयाग शुक्ल जी की राह पकड़ती हूँ। ‘पारिवारिक प्रतिष्ठा से पृथक उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व में आप क्या अनोखा पाते हैं? ‘
‘ऊर्जा!’ वे उत्तर देते हैं।
निश्चित ही अदम्य और सतत ऊर्जा का निर्झर सोता उनके अंदर बसता था। भरे पूरे इस परिवार का मुख्य व्यवसाय किताबों की बिक्री था। कलकत्ता की प्रतिष्टित दुकान ‘कालीचरण एंड संस’ पर ब्रिटिशर्स और विदेशी सैनिकों के अलावा सत्यजीत रे सरीखे व्यक्ति मन की किताब तलाशते आते थे। उनकी प्राम्भिक शिक्षा गाँव में हुई। आठ वर्ष की उम्र में उनका पुनः कलकत्ता आगमन हुआ। जहाँ बालिका शिक्षा सदन में उनका दाखिला कराया गया। किताबों की दुकान से शब्दों की सम्मोहक गन्ध घर तक भला कैसे न पहुँचती। छोटी उम्र से ही किरण अपने बड़े भाई- बहन रामनारायण शुक्ल, प्रयाग शुक्ल व चन्द्रप्रभा के साथ शेखर एक जीवनी जैसी किताबें पर चर्चा करते बड़ी होने लगीं।
हुगली नदी के तट पर रवींद्र संगीत की लय पर मंथर चलती यह नाव 1958 में अचानक डोल उठी। व्यवसाय में हुए भारी नुकसान के कारण आर्थिक व्यवस्था गड़बड़ा गई और परिवार छिन्न-भिन्न हो गया। चन्द्रकिरण अपनी माँ के साथ इलाहाबाद आ गईं। लक्ष्मी का साथ भले ही छूट गया किन्तु सरस्वती की कृपा उनपर सदा बनी रही। मन्नू भंडारी, भारती नारायण जैसे शिक्षकों और मृणाल पांडे और हरीश त्रिवेदी जैसे सहपाठियों के सानिध्य में किरण को आजीवन बौद्धिक खुराक मिली। विशेषकर भारती नारायण जी का उन पर अपार स्नेह सदा बना रहा।
उन्होंने अंग्रेजी साहित्य से ग्रेजुएशन किया और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य से एम ए. कर रही थीं। इसी समय बड़े भाई प्रयाग इलाहाबाद आए और एक अचानक मुलाकात में गिरधर राठी जी से मिले। गिरधर राठी जी से उनकी पहली मुलाकात दिल्ली में दिनमान के ऑफिस में हो चुकी थी। यह जानने पर कि वे भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य के पहले वर्ष में हैं, वे उन्हें बहन से मिलवाने घर लाए । किरण के चेहरे की बौद्धिक आभ ने गिरधर जी को प्रथम दृष्टि में ही प्रभावित किया था। इस अनौपचारिक मुलाकात ने गहरे बंधन की नींव रखी। न केवल कॉलेज की बहसों में बल्कि जीवन में भी अपनी स्प्ष्ट और बेबाक राय से किरण जी ने अपनी पृथक सत्ता कायम की।
एम. ए. फाइनल के समय राठी जी जर्नलिज्म के लिए हंगरी चले गए ।दोनों के बीच पत्राचार से यह स्नेह डोर और मजबूत होती गई इस समय किरण के बड़े भैया सुप्रसिद्ध कथाकार रामनारायण शुक्ल की मेनिनजाइटिस से 32 वर्ष की अवस्था में हुई असमय मृत्यु ने किरण जी को भावनात्मक रूप से गहरा आघात दिया। कठिन समय में गिरधर जी से उन्होंने बहुत बल पाया। उनकी बेटी मंजरी बताती हैं कि हमेशा खुश रहने वाली माँ की आँखों में अचानक आँसू भर आते थे। पूछने पर वे कहतीं कि दिवंगत भाई की याद आ गई।
गिरधर जी के वापस लौटने पर 1969 में वे परिणय सूत्र में बंध गए। जातिप्रथा की संकीर्ण मानसिकता में जकड़े समाज में यह विवाह सहज स्वीकार्य नहीं था किंतु भाई प्रयाग किसी ढाल की तरह मजबूती से अपने दोस्त और बहन के साथ खड़े रहे। सम्भवतः वह जानते थे कि इस मेल से साहित्यिक और सांस्कृतिक दुनिया की चमक कई गुना बढ़ जाने वाली है। पूर्णिमा और अमावस्या की आवर्ती नियम है। किरण जी को भी बार बार कड़ें इम्तिहानों से गुजरना पड़ा किंतु उनके आत्मसम्मान की चमक कभी कम न होने दी। इमरजेंसी के समय को याद करते हुए उनके बेटे विशाख बताते हैं-
“1975 — जून। रात का समय, मैं लगभग पाँच साल का, बहन मंजरी दो साल की। दिल्ली के हौज़ ख़ास इलाके में किराए के घर में हम चारों बैठे है – दूध-रोटी खिला रही हैं वह हम दोनों बच्चों को। बहुत धुंधली याद है – बाद में मम्मी ने कई बार उस रात का ज़िक्र किया इसलिए कुछ याद, कुछ सुनी हुई बातों से एक धुंधला चित्र मन में बरसों से बैठा ही हुआ है। पुलिस के कुछ अफ़सर दरवाज़ा खटखटाते हैं, कुछ बातचीत होती है, पापा को ले जाते हैं अपने साथ। मम्मी हमें कहती हैं की कल सुबह वह वापस आ जायेंगे। फिर MISA में गिरफ़्तारी, जॉर्ज फ़र्नांडेस के अख़बार ‘प्रतिपक्ष’ के सम्पादक के बतौर इंदिरा गाँधी के ख़िलाफ़ सामग्री छापने के आरोप में 16 महीने जेल।
दो छोटे बच्चों की परवरिश — अकेले। आर्थिक तंगी, एक छोटी सी नौकरी का सहारा। मगर फिर भी मम्मी ने पापा से कहा कि माफ़ीनामा दाखिल कर के सज़ा कम करवाने की कोई ज़रुरत नहीं – ऐसा कुछ नहीं करना जो मन को बाद में बुरा लगे। मैं संभाल लूंगी घर को जब तक आप घर वापस नहीं आते।
सिर्फ 31 बरस की थीं तब मम्मी, उस समय किसी को नहीं पता था की इमरजेंसी कब उठेगी, कब रिहा होंगे पापा और उनके जैसे हज़ारों लोग। उसके बाद दिल्ली के केन्द्रीय कारागार तिहाड़ जेल (और बाद में जयपुर के जेल) में पापा से मिलने जाना, उनकी रिहाई के लिए बड़े-बड़े वकीलों से मिलना जो बिना पैसे के इन गिरफ़्तारियों के विरोध में जुटे हुए थे – वी. एम. तारकुंडे, ओ. पी. मालवीय याद है मुझे उन नामों में से ।”
ऐसा ही एक और कठिन समय याद करते हुए वे बताते हैं-
“कॉलेज खत्म हुआ तो उन्होंने कहा एम.ए. कर लो, मगर घर के हालात देख मेरा मन और पढ़ाई के लिए नहीं माना। जिस साल पहली नौकरी की, उसी साल बाबरी मस्जिद ढहाई गयी — घर में सब बहुत दुखी थे। पापा ने जनसत्ता में लेख लिखा, तो धमकी भरे फ़ोन आने लगे — उसी साल पहली बार हमारे घर में लैंडलाइन फ़ोन भी लगा था।
मेरी नौकरी मुझे घर से कई बार दो-दो, तीन-तीन दिनों के लिए अलग रखती थी। बहन कॉलेज में थी। एक रात मुझे घर आने में बहुत देर हो गई। मम्मी घर की बॉलकनी में खड़े मेरा इंतज़ार कर रहीं थीं, उनके मन में ख्याल आ रहे थे कि मेरी गिरफ़्तारी हो गई है शायद, जबकि ऐसा होना किसी भी तरह से संभव नहीं था क्योंकि मेरा सक्रिय राजनीति से दूर-दूर तक का सम्बन्ध नहीं था।
इमरजेंसी और जनता सरकार के वर्षों के बाद पापा ने भी सक्रिय राजनीति से जो हल्का-फुल्का नाता था, वह पूरी तरह तोड़ लिया था। मम्मी, पापा दोनों – किताबों, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं की दुनिया से पूरी तरह जुड़ गए थे। मम्मी ने कई साल ‘केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो’ में नौकरी करने के बाद ‘प्री-मैच्योर रिटायरमेंट’ ले लिया था, और अब वह घर से ही अनुवाद और लेखन का काम करने लगीं थीं। रविंद्रनाथ के निबंधों का अनुवाद, सत्यजीत राय की कहानियों का अनुवाद, ऋत्विक घटक की कहानियों का अनुवाद मूल बांगला से उन्होंने हिंदी में किया। हंगारी कहानियों का अनुवाद अंग्रेजी से हिंदी में किया, और भी बहुत कुछ।
1992 के कुछ वर्ष बाद तक मम्मी के मन में कई तरह के demons ने घर बना लिया। Paranoia जैसा, और लगातार Deja Vu की feeling आते रहना। आर्थिक रूप से जब घर की तंगी नहीं रही तो उनके मन की हालत बिगड़ने लगी। कभी सुधार, फिर बिगड़ाव ऐसा कई वर्षों तक चलता रहा।”
चन्द्रकिरण जी ने कुछ समय प्रतापगढ़ में अंग्रेजी लेक्चरर के तौर पर कार्य किया। ‘केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो’ में नौकरी करने के अतिरिक्त वे बीबीसी में ऑडियंस रिलेशन ऑफिसर के रूप में भी कार्यरत रहीं। 9:00 से 5:00 की जॉब में उनका मन नहीं रमता था वे स्त्रियों के लिए फ्लैक्सिबल वर्क आवर्स के पक्ष में थीं। उन्होंने पाठकों को दुर्लभ किताबों की तलाश में परेशान होते पाया और यहीं से उनके मन में एक ऐसे बुकशॉप का सपना पँख पसारने लगा जहां हिंदी की सभी किताबें उपलब्ध हो। उन्होंने ग्रेटर नोएडा के एम. एस. एक्स. मॉल में ‘पोथी वितरण केंद्र’ के नाम से दुकान खोली इस दुकान के लिए किताब तलाशने वह दरियागंज नई पुरानी दिल्ली की गलियों में घूमा करती थी और प्रकाशको से संपर्क करती थी उत्तर प्रदेश के छोटे-छोटे स्कूल कॉलेज तक हिंदी की किताबें पहुंचाने के लिए वे सदा तत्पर रहती उन्होंने जाना कि यहां के बच्चे अधिक महंगी किताबें नहीं खरीद पाते तथापि उनके माता-पिता की आंखों में बच्चों के हाथ में अच्छी किताबें देखने की ललक है बड़े प्रयास से कम दामों की अच्छी किताबें तक पहुंचाने का प्रयास करती हालांकि बड़े स्कूलों के बड़े प्रोजेक्ट के लिए जिस प्रकार के कमीशन बाजी अपेक्षित थी वे उसके पूरी तरह खिलाफ थी। व्यवसायिक दृष्टि से अधिक सफल न होने पर भी साहित्यिक दृष्टि से उनका यह प्रयास साधुवाद के योग्य तो अवश्य है। यही नहीं जैविक खेती और आयुर्वेद मैं भी उनकी गहरी आस्था थी। कई हॉर्टिकल्चर ग्रुप से भी जुड़ी हुई थी और अपने घर की छत पर कई गमलों में पौधे लगाया करती थी। केंचुए की खाद घर पर बनाती थी। वे जीवन में तमाम आडंबरों और कृत्रिमता के विरोध में थी। रीति-रिवाजों में धर्म में बहुत गहरी आस्था ना होने पर भी वह परंपराओं को सहेजने के पक्ष में थी और होली पर टेसू से नेचुरल रंग बनाया करती थी।
अपनी माँ को स्मरण करते हुए मंजरी भीगे स्वर में बताती हैं कि “संस्कृति और साहित्य से अपने बच्चों का परिचय कराने के लिए वे उन्हें छोटी उम्र में ही पब्लिक ट्रांसपोर्ट से ब्रिटिश काउंसिल की लाइब्रेरी व नाटकों के मंचन दिखाने मंडी हाउस लेकर जाया करती थीं।”
घर और बाहर दोनों की ज़िम्मेदारी वे कैसे संभाल लेती थीं? इसका उत्तर मैं पाठकों से भी अधिक स्वयं के लिए जानना चाहती थीं।
मंजरी भीगे स्वर में कहती हैं- “कैसे करती थीं तो मैं उनके साथ रहकर भी नहीं जान पाई। सम्भवतः वे कोई जादू जानती थीं! उनके होने से हमारा बचपन आर्थिक विपन्नता के बावजूद बेहद सम्पन्न था।”
वे हिंदी, अंग्रेज़ी, बंगला व अवधी की ज्ञाता थीं। उन्होंने रविंद्रनाथ टैगोर, सत्यजीत, ऋत्विक घटक, नवनीता देव सेन, सुकुमार राय, ‘उड़न छू गाँव’ हंगारी शॉर्ट स्टोरी आदि कई महत्वपूर्ण अनुवाद किए। उन्होंने अपना मौलिक लेखन भी किया जो कुछ कहानियों व आलेखों तक सीमित रहा क्योंकि वह कागजों पर न लिखकर लोगों के जीवन में कहानी लिखने में विश्वास रखती थीं।
उनके पति गिरधर राठी जी उन्हें याद करते हुए कहते हैं- “वह हमारे साहित्यिक समाज के आडंबर को भलीभांति देख लेती थी और निश्चित ही मैं भी इस आडंबर का भाग रहा हूंगा। वे मेरे जीवन में एक आईना बन कर आई जहाँ मैं अपने जीवन की छद्मता को पहचान लेता था। उनका विश्वास सदा समाज के प्रति ठोस कार्य करने में रहा। मैं विचारों से सेवा कर रहा था वह कर्म से। उनके साथ की बौद्धिक बहस ने मुझे सदा स्वयं को परखने के लिए कसौटी उपलब्ध कराई। जितनी ऊर्जा और नई चीजों के प्रति लालसा उनके अंदर थी, वह मेरे भीतर नहीं थी अब मुझे यह ग्लानि होती है कि उनकी कल्पनाओं को साकार करने के लिए जितना साथ मुझे उनका देना चाहिए था शायद कुछ संकोच और कुछ असुरक्षाओं के चलते मैं नहीं दे पाया।”
उनकी इस ईमानदार स्वीकृति से उनकी बेटी मंजरी सहमत नहीं दिखतीं। वे अपनी माँ को स्मरण करते हुए कहती हैं कि पिता सदा उनके साथ खड़े रहे।
सन 2020 में कोविड की आहट को वह सुन न सकीं और उस समय भी वह पुरानी दिल्ली की गलियों में किताबों की खोज में घूम रही थीं। अदृश्य वायरस ने उन्हें जकड़ लिया। कोविड काल की तमाम जद्दोजहद से गुज़रकर उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। कुछ समय वे वेंटिलेटर पर रहीं। तत्पश्चात अपने बेटा-बहू, बेटी- दामाद व पति के सानिध्य में भरापूरा जीवन जीकर, 17 दिसम्बर को इस जगत को अलविदा कहा। अपने अंत समय में वे ऋत्विक घटक के अनुवाद की पांडुलिपि देख रही थीं और अपने काम से बेहद संतुष्ट थीं। उनके जाने की कोई एक माह बाद यह किताब प्रकाशित होकर आई। हरसिंगार का यह निश्छल फूल भले ही झर गया किंतु उसकी सुवासित स्मृति हम सबके मन में सदा बनी रही।