Tuesday, November 19, 2024
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“स्त्री और प्रकृति : समकालीन हिंदी साहित्य में स्त्री कविता”

‘स्त्री दर्पण’ मंच पर महादेवी वर्मा की जयंती के अवसर पर शुरू हुईं नई शृंखला ‘प्रकृति संबंधी स्त्री कविता शृंखला’ का संयोजन प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह कर रही हैं। इस शृंखला में स्त्री कवि की कविताओं को प्रस्तुत किया जा रहा है। जिसमें उनकी प्रकृति संबंधी कविताएं हैं।
पिछले दिनों आपने इसी शृंखला में अज्ञेय द्वारा संपादित तीसरे सप्तक की कवयित्री रही लोकप्रिय कीर्ति चौधरी की कविताओं को पढ़ा।
आज आप 9 मई 1935, मौरावाँ, उन्नाव, उत्तर प्रदेश में जन्मी, दिल्ली विश्वविद्यालय कॉलेज में हिंदी अध्यापक रह चुकी, अजित कुमार की पत्नी, चर्चित व महत्वपूर्ण कवयित्री स्नेहमयी चौधरी की कविताएं पढ़ेंगे। सातवें दशक में ही एक महत्वपूर्ण कवयित्री के रूप में जिन्होंने अपनी पहचान बनाई। कालेज से सेवानिवृत्त होने के बाद वे स्वतंत्र लेखन करती रहीं। कुछ वर्ष पूर्व उनका निधन हो गया।
आप पाठकों के स्नेह और प्रतिक्रिया का इंतजार है।
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कवयित्री सविता सिंह

स्त्री का संबंध प्रकृति से वैसा ही है जैसे रात का हवा से। वह उसे अपने बहुत निकट पाती है – यदि कोई सचमुच सन्निकट है तो वह प्रकृति ही है। इसे वह अपने बाहर भीतर स्पंदित होते हुए ऐसा पाती है जैसे इसी से जीवन व्यापार चलता रहा हो, और कायदे से देखें तो, वह इसी में बची रही है। पूंजीवादी पितृसत्ता ने अनेक कोशिशें की कि स्त्री का संबंध प्रकृति के साथ विछिन्न ही नहीं, छिन्न भिन्न हो जाए, और स्त्री के श्रम का शोषण वैसे ही होता रहे जैसे प्रकृति की संपदा का। अपने अकेलेपन में वे एक दूसरी की शक्ति ना बन सकें, इसका भी यत्न अनेक विमर्शों के जरिए किया गया है – प्रकृति और संस्कृति की नई धारणाओं के आधार पर यह आखिर संभव कर ही दिया गया। परंतु आज स्त्रीवादी चिंतन इस रहस्य सी बना दी गई अपने शोषण की गुत्थी को सुलझा चुकी है। अपनी बौद्धिक सजगता से वह इस गांठ के पीछे के दरवाजे को खोल प्रकृति में ऐसे जा रही है जैसे खुद में। ऐसा हम सब मानती हैं अब कि प्रकृति और स्त्री का मिलन एक नई सभ्यता को जन्म देगा जो मुक्त जीवन की सत्यता पर आधारित होगा। यहां जीवन के मसले युद्ध से नहीं, नये शोषण और दमन के वैचारिक औजारों से नहीं, अपितु एक दूसरे के प्रति सरोकार की भावना और नैसर्गिक सहानुभूति, जिसे अंग्रेजी में ‘केयर’ भी कहते हैं, के जरिए सुलझाया जाएगा। यहां जीवन की वासना अपने सम्पूर्ण अर्थ में विस्तार पाएगी जो जीवन को जन्म देने के अलावा उसका पालन पोषण भी करती है।
हिंदी साहित्य में स्त्री शक्ति का मूल स्वर भी प्रकृति प्रेम ही लगता रहा है मुझे। वहीं जाकर जैसे वह ठहरती है, यानी स्त्री कविता। हालांकि, इस स्वर को भी मद्धिम करने की कोशिश होती रही है। लेकिन प्रकृति पुकारती है मानो कहती हो, “आ मिल मुझसे हवाओं जैसी।” महादेवी से लेकर आज की युवा कवयित्रियों तक में अपने को खोजने की जो ललक दिखती है, वह प्रकृति के चौखट पर बार बार इसलिए जाती है और वहीं सुकून पाती है।
महादेवी वर्मा का जन्मदिन, उन्हें याद करने का इससे बेहतर दिन और कौन हो सकता है जिन्होंने प्रकृति में अपनी विराटता को खोजा याकि रोपा। उसके गले लगीं और अपने प्रियतम की प्रतीक्षा में वहां दीप जलाये। वह प्रियतम ज्ञात था, अज्ञात नहीं, बस बहुत दिनों से मिलना नहीं हुआ इसलिए स्मृति में वह प्रतीक्षा की तरह ही मालूम होता रहा. वह कोई और नहीं — प्रकृति ही थी जिसने अपनी धूप, छांह, हवा और अपने बसंती रूप से स्त्री के जीवन को सहनीय बनाए रखा। हिंदी साहित्य में स्त्री और प्रकृति का संबंध सबसे उदात्त कविता में ही संभव हुआ है, इसलिए आज से हम वैसी यात्रा पर निकलेंगे आप सबों के साथ जिसमें हमारा जीवन भी बदलता जाएगा। हम बहुत ही सुन्दर कविताएं पढ सकेंगे और सुंदर को फिर से जी सकेंगे, याकि पा सकेंगे जो हमारा ही था सदा से, यानी प्रकृति और सौंदर्य हमारी ही विरासत हैं। सुंदरता का जो रूप हमारे समक्ष उजागर होने वाला है उसी के लिए यह सारा उपक्रम है — स्त्री ही सृष्टि है एक तरह से, हम यह भी देखेंगे और महसूस करेंगे; हवा ही रात की सखी है और उसकी शीतलता, अपने वेग में क्लांत, उसका स्वभाव। इस स्वभाव से वह आखिर कब तक विमुख रहेगी। वह फिर से एक वेग बनेगी सब कुछ बदलती हुई।
स्त्री और प्रकृति की यह श्रृंखला हिंदी कविता में इकोपोएट्री को चिन्हित और संकलित करती पहली ही कोशिश होगी जो स्त्री दर्पण के दर्पण में बिंबित होगी।
स्त्री और प्रकृति श्रृंखला की हमारी पांचवी कवि हैं स्नेहमयी चौधरी। इन तक आते-आते स्त्री कविता को अपनी चौहद्दियों का आभास हो गया था। भारतीय राज्य अपनी दिशा तय कर चुका था। भारत की आधुनिक पितृसत्ता स्त्रियों के जीवन का सांचा गढ़ चुकी थी। जीवन से प्रकृति छिटक अलग हो गई थी। पितृसत्ता की जरूरतों के तर्क से चालित स्त्री अपने अनुभवों में प्रकृति से तीव्र अलगाव महसूस करने लगी थी। तभी तो मूसलाधार बरसात के बावजूद वह सूखा-सूखा ही पाती है अपने मन प्रांतर को। प्रेम भी उसी अनुपात में प्रतीक्षा का सुख नहीं जोड़ पाता। “एक दिन था जब रचनाएं/ झरने की तरह फूटती थीं/ अब पड़ा है सूखा-न पानी, न स्रोत, न अंकुर”. फिर भी स्त्री तो स्त्री है। वह कैसे भूल सकती है प्रकृति से अपना नेह! वह अपने को कुरेदती है, “बसंत की बहार देखने चलो” कहती है। कैक्टस भी अपने भीतर जल सहेज कर रखता है और उस पर भी आखिर फूल तो खिलते ही हैं। स्त्री को उसी फूल का इंतज़ार रहता है।
ऐसी सच्ची कविताएं आप भी पढ़ें जिसमें एक स्त्री घुप्प अंधेरे में उखडूं बैठी कैक्टस के खिलने की उम्मीद में जी रही है। स्नेहमयी चौधरी को आज हम कुछ यूं पढ़ें।
स्नेहमयी चौधरी की कविताएं –
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1. साँचा
एक साँचे में फिट कर लिया उसने अपने को ….
एक साँचा डिगा भर कि वह चिल्लायी
भूचाल आ गया
फिर साँचे में अपने को कस निश्चिन्त हो गयी
2.
वह कुरेदती है अपने को
बसन्त की बहार देखने चलो
लेकिन औंधे मुँह पड़े रहती है
नहीं जाती,
वह पत्तों का झड़ना देखने में
लगी रहती है
जो नश्वरता का बोध देते हैं
उचित क्या है नहीं जानती
3. सूखी
मूसलाधार बारिश पर वह सूखी बैठी है
एक बूँद भी नहीं पड़ी उस पर
4. मछलियाँ
समुन्द्र में भी मछलियाँ तैरती हैं
छोटे तालाब में भी….
पहले का विस्तार उनको छूट देता है
दूसरे का उनको सीमा में बाँधता है
लेकिन वे तैरे बिना नहीं रह सकती
5. सूखा
एक दिन वह था जब रचनाएँ
झरने की तरह फूटती थीं
अब पड़ा है सूखा- न पानी, न स्त्रोत, न अंकुर
का टुकड़ा
मुझे अन्दर झाँकने को मजबूर करता है
जहाँ घुप्प अँधेरा है
6. कोहरा
मैंने भी नशा किया था एक दिन।
घोड़े लगाम छोड़कर उड़े थे,
जा पहुँचे परीलोक… सचमुच!
नशा उतरते ही दिखा
खिड़की पर ठिठका कोहरा
जिसने सारी रात गिर कर छत को भिगोया,
अब बरामदे में भरता चला आ रहा है।
भय से दरवाज़े बंद कर
हाथ-पैर सिकोड़
सीलन-भरे कमरे में उकड़ूँ बैठी हूँ।
7.
धूप एक गौरैया
मैंने कहा धूप से –
धूप- ज़रा ठहरो,
मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी,
यहाँ यह ठिठुरन, यह अंधियारा
मुझे तनिक नहीं भाता है
लेकिन धूप-धूप थी,
भला क्यों रुकती !
मुझे मटमैली साँझ दे चली गई
मैंने देखा : मेरे ऊपर से
पंख फड़फड़ा गौरइया एक क्षितिज़ के ओर उडी
जाने कहाँ खो गई
8. औरतें
सारी औरतों ने
अपने-अपने घरों के दरवाजे
तोड़ दिए हैं
पता नहीं
वे सबकी सब गलियों में भटक रही हैं
या
पक्की-चौड़ी सड़कों पर दौड़ रही हैं
या
चौराहों के चक्कर काट-काट कर
जहाँ से चली थीं
वहीं पहुँच रही हैं तितलियाँ
जब मैं कुर्सी, मेज़, आइरन, टोस्टर
फ्रिज
टी.वी. आदि चीजों
और वैसे व्यक्तियों के बीच रहती हूँ
तो जड़ हो जाती हूँ
जब मैं पेड़ों, पौधों, पत्तियों, फूलों, पक्षियों,
नदियों, जंगलों, खेतों, खलिहानों
खुले आसमान, पहाड़, दरिया
जैसे चीजों और लोगों के बीच होती हूँ
तो जी उठती हूँ
मेरे पास जड़ होते जाने के अधिक अवसर हैं
जीने के कम
9. शुरुआत
आओ, अब चल दें, बहुत देर हो गई है!
यहाँ पहाड़ी पर की हवा और सर्द हो गई है,
सन्नाटे में पहाड़ी जानवरों की आवाज़ें
और तेज़ हो रही हैं,
वह नहीं आएगा—जिसकी शाम से प्रतीक्षा थी
बहुत रात हो रही है, जल्दी करो, आओ, चलें!
अब यहाँ नहीं बैठा जाता,
अभी बहुत सफ़र तय करना है!
आगे रस्ता कितना कँकरीला, पथरीला और
वीराना है! पीछे अँधेरा लदा खड़ा है!
यह रास्ता कैसे पूरा होगा?
शरीर थकान से चूर हो रहा है,
अभी तो इस पगडंडी की सीमा पर पहुँचना है,
फिर वहाँ से नए मोड़ पर मुड़ना है,
साँस फूलने लगी है! आओ, चलो—
बहुत देर हो गई है, चीज़ों के पीछे दौड़ते।
आँखों में लगे शीशे से उस पार की
आकृतियाँ कितनी धुँधली दिखाई दे रही हैं!
शीशा हटाने से रंगों में डूबने की जगह
सारे रंग एक में मिलने लगते हैं…
तब मैं कुछ भी नहीं देख पाती!
क्या अब भी मैं एक शुरुआत कर सकती हूँ?
10. कैक्टस
कैक्टस हर मौसम में
एकरस ही रहता है
कैसे कोई ऋतु उसे
छूती थी
कभी-कभी फूल
निकलता है उसमें भी
तो लगता है जीवित वह भी
मुझे उसके काँटे चुभते हैं
उसका खिलना भर
दूर से देखती हूँ
तब लगता है
वह भी जीवित है।
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