हिंदी के प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह को भला कौन नहीं जानता? लेकिन उनकी पत्नी के बारे में कितने लोग जानते होंगे। क्या सार्वजनिक जीवन में किसी ने नामवर जी को अपनी पत्नी के साथ कभी देखा है ! शायद नहीं। दिल्ली के साहित्य समाज में दबी जुबान से यह चर्चा जरूर होती रही कि नामवर जी की पत्नी तो गांव पर रहती रहीं और उन्होंने अपनी पत्नी पर ध्यान नहीं दिया क्योंकि वह एक सामंती परिवार से आते थे जहां पत्नियों को समान दर्जा नहीं दिया जाता रहा। इस बात में कितना दम है कितनी सच्चाई है, युवा आलोचक अंकित नरवाल की इस टिप्पणी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
पिछले साल अंकित नरवाल की नामवर सिंह की जीवनी बड़े विवादों में रही। नामवर जी की पत्नी के प्रसंग में एक सम्पादित अंश हम दे रहे हैं।नामवर जी की पत्नी के जन्म पारिवारिक स्थिति उनकी रुचियों आदि के बारे में जानकारी नहीं मिलती।दरअसल हिंदी के जीवनीकार भी लेखकों पर लिखते हुए उनकी पत्नियों के बारे में तथ्य नहीं जुटाते। वे इस बात पर ध्यान ही नहीं देते पर अंकित ने उनकी पत्नी के बारे में एक खाका तो जरूर पेश किया है।
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“क्या नामवर जी का अपनी पत्नी के प्रति व्यवहार रूखा था?”
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उत्तर प्रदेश से लगा हुआ बिहार का बॉर्डर है, दुर्गावती नदी के किनारे बसा हुआ गाँव मचखिया, जहाँ के राजपूत परिवार की बेटी शांति सिंह से नामवर सिंह का सन् 1944 में विवाह हुआ। (उस समय नामवर जी की उम्र 18 वर्ष थी। उनकी पत्नी की उम्र की जानकारी नहीं मिलती पर पति से छोटी होने के कारण अनुमानतः उनकी उम्र 15 या सोलह साल रही होगी।) शांति सिंह देखने में अत्यंत सुंदर, सुशील एवं घर के सारे कामकाज करने में निपुण थीं लेकिन वे पढ़ी-लिखी नहीं थीं। नामवर सिंह के लिए विवाह के समय सबसे बड़ी समस्या यही थी। हालाँकि, इसमें शांति सिंह का भी कोई दोष नहीं था। उस जमाने में लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई किसी भी मध्यवर्गीय परिवार के लिए अनुपयोगी ही होती थी। सो शांति सिंह कभी स्कूल नहीं गई थीं। उनका परिवार राजपूतों का था, तो सबका ध्यान खेती-बाड़ी या फिर पशुपालन पर ही अधिक रहता। घर में लड़कियों को बुनाई-कढ़ाई के काम बचपन से ही सिखा दिए जाते, जिससे ससुराल में जाकर उन्हें करना होता था। शांति भी घर के सारे काम करने में बड़ी प्रवीण थीं।
हालाँकि, नामवर सिंह का विवाह उनके मना करने के बाद भी परिवार द्वारा पारिवारिक जिम्मेदारियों की तरह किया गया था।
दरअसल हुआ यह था कि उन दिनों उनके पिताजी को हार्निया की बीमारी ने धर दबोचा था। दुर्भाग्य से उनका स्थानांतरण भी अपने गाँव से दूर हो गया था। उन्हें लगने लगा था कि अब वे नहीं बचेंगे। उनकी मुराद थी कि बेटे की शादी देखें। अक्सर उन्हें यही चिंता सताती थी कि बेटे की शादी जाने कैसे होगी? इसलिए यथाशीघ्र ही उन्होंने घर में सभी से सलाह करके नामवर सिंह की शादी तय कर दी। हालाँकि, नामवर सिंह ने इसका घोर विरोध किया, किंतु किसी ने भी उनकी एक न सुनी। वे घर से भाग कर बनारस आ गए। फिर उनको ढूँढ़ा गया और पकड़ कर लाया गया। उनकी इच्छा के विरुद्ध उनका विवाह हुआ। यूँ उनकी पत्नी शांति सिंह देखने में सुंदर, सुशील, घर-गृहस्थी के सभी काम सुरुचि से करने वाली भद्र महिला थीं, किंतु नामवर सिंह को उनके पढ़े-लिखे न होने का दर्द सालता था। इन दिनों नामवर ने मैट्रिक की परीक्षा भी दे रखी थी, उन्हें इसमें सफलता मिली और वे इंटर की पढ़ाई के लिए वापस बनारस चले गए। वहाँ उन्होंने ‘उदय प्रताप कॉलेज’ में प्रवेश लिया।
अपने विवाह की यह कहानी नामवर सिंह कुछ यूँ कहते हैं-
‘मैं हाई स्कूल में था। कक्षा नौ में पढ़ रहा था।… घर में तय हुआ कि मेरी शादी कर देनी चाहिए। मैं पढ़ना चाहता था और चूँकि मुझको शहर की हवा भी लग चुकी थी, मैंने कहा, ‘मैं शादी नहीं करूँगा।’… मैं घर से भाग आया। लेकिन पकड़कर लाया गया। हाईस्कूल का इम्तिहान खत्म हुआ था मेरी शादी कर दी गई।… मैं रो रहा था। बहुत दिनों तक इस शादी को मैंने स्वीकार नहीं किया…गौने के बाद मेरी पत्नी आईं।’
विवाह के बाद नामवर सिंह का पत्नी के प्रति व्यवहार रूखा ही रहा। वे बनारस से घर भी बहुत कम आने लगे। परिवार में सभी को चिंता रहती। खैर जब विवाह के चार साल बाद सन् 48 में नामवर के घर में बेटे ने जन्म लिया और सभी परिवार जनों ने खुशियाँ मनाईं। परिवार में उनके संत स्वभाव को लेकर उठने वाली चिंताएँ भी कुछ शांत हुईं। दादाजी ने बड़े चाव से अपने पोते का नाम ‘विजय’ रखा। विजय के जन्म से सबसे खुश उनके दादाजी हुए, क्योंकि उन्हें लगने लगा था कि कहीं नामवर की जबरदस्ती शादी कराके उन्होंने कोई गलती तो नहीं कर दी है? नामवर सिंह का वैवाहिक जीवन खिंचा-खिंचा ही रहता।
नामवर सिंह के छोटे भाई काशीनाथ सिंह ने उनके और उनकी पत्नी के बीच के संबंधों को कुछ इस तरह याद किया है –
“तीन सास, तीन जेठानियाँ और पाँच-छह छोटे-बड़े देवर और आँगन और कोठरियों में लड़ते, झगड़ते, खेलते, रोते बच्चे-बच्चियाँ। इन्हीं के बीच भौजी अपने काम से काम रखतीं। सबसे छोटी होने के कारण सुनना और सबको देखना भी था। पिताजी, माँ और चाचाओं के पास जितना प्यार था, सब विजय के लिए। मुझे नहीं याद कि भैया ने कभी भौजी को दिन के उजाले में देखा हो। भौजी ने भी उन्हें देखा होगा तो घूँघट से ही। साल में एक-दो बार ही सही, बनारस से घर आते वे। इतने बेहया भी नहीं थे गाँव की नजरों में कि औरत आ गई तो जब-तब दौड़ा करें। भौंजी दिन भर पूरा नहीं, तो आधा घूँघट में ही रहतीं हमेशा। यहाँ तक कि औरतों के साथ नित्यकर्म के लिए रात और भिनुसार बाहर निकलतीं तो भी घूँघट में ही। एक रिवाज था गाँव का, घराने का भी। जिसे रात पत्नी के साथ सोना होता, वह सबसे अंत में खाने आता, उसे थाली उसकी औरत ही परोसती।”
अपने विवाह के प्रारंभिक दिनों में बनारस से नामवर सिंह अपने गाँव में साल भर में एक-दो बार ही आते थे। सभी से मिलते-जुलते। गाँव के हर घर में कुशल क्षेम लेने जाते और वापस बनारस लौट जाते। पत्नी से भी बातें होती होंगी, तो केवल रात में थोड़ी-बहुत। घर में उनके ऐसे व्यवहार से सभी अचंभित रहते।
कई वर्षों बाद सन् 1953 में बनारस में अस्थाई नौकरी मिलने के बाद नामवर सिंह कुछ समय तक तो त्रिलोचन जी के पास रहे, फिर सरस्वती प्रेस में जगत शंखधर जी के साथ रहने आ गए। इस बीच वे विश्वविद्यालय में कक्षाएँ लेते और मकान ढूँढ़ने निकल जाते। दो महीने लगातार मकान ढूँढ़ते रहने के बाद उन्हें रमानाथ पांडेय का मकान नं. बी/2/32 किराये पर लिया। अभी तक नामवर सिंह की पत्नी माता-पिता के साथ गाँव में ही थीं। वे सास-ससुर की खूब सेवा करतीं, घर के काम आगे बढ़कर करती रहतीं। उन्होंने कभी इस बात की शिकायत नहीं की कि अब उन्हें अपने पति के साथ बनारस रहने के लिए भेज दिया जाए। वे अपने पति की इच्छा का सम्मान करती थीं।
नामवर सिंह का यह मकान विश्वविद्यालय परिसर से बाहर भदौनी मौहल्ले के लोलार्क कुंड में था। यहाँ जब खाना बनाने आदि की अनियमितता बढ़ने लगी, तो गाँव से माँ व भाई काशीनाथ सिंह को भी रहने के लिए बुलाया गया। काशीनाथ तब तक इंटर-कॉलेज में पढ़ने लगे थे, इसलिए उनके कॉलेज व विश्वविद्यालय की नजदीकी को देखते हुए भदौनी मुहल्ले का यही घर उचित जान पड़ा।
बनारस में मकान लेने के बाद उनकी पत्नी शांति सिंह की भी इच्छा थी कि वे अपने पति के साथ जाकर रहें। उन्हें बनारस में रहते हुए जब डेढ साल हो गया, तो घर से मँगाए गए सामान के साथ वे आईं और नामवर का गृहस्थ जीवन शुरू हुआ।
काशीनाथ इस समय हुई घटना को कुछ यूँ बताते हैं –
‘भौजी आई। भैया की दिनचर्या में कोई फर्क नहीं आया। वे थोड़े असहज और गंभीर जरूर हो गए। घर का खुला, उन्मुक्त और हँसी-ठट्ठावाला माहौल थोड़ा बौझिल हो गया। वह समझ गए यह माँ और पिताजी की योजना है। कई दिनों से माँ अपनी हुक्की के साथ उनके कमरे में चटाई पर बैठ रही थी कि उनके बिना गाँव पर सब चौपट हो रहा है। खेत-खलियान का हिसाब-किताब देखे बिना काम नहीं चल सकता और बहुएँ ड्योढ़ी के बाहर नहीं जा सकतीं। पिताजी को मास्टरी से फुर्सत नहीं। लगता है कि काफी सोचने, समझने और विचार करने के बाद उन्होंने अपने मन को समझाया कि ‘हे मन। जो है, उसे स्वीकार करो। अपने अनुकूल बनाने के लिए जो कुछ कर सकते हैं करो। यदि नियति में यही है तो यही सही। और यह दो चार साल की बात नहीं, पूरी जिन्दगी की बात है। माँ कै दिन रहेगी तुम्हारे साथ।’
घर में पत्नी के आ जाने के बाद नामवर अक्सर घर से बाहर ही रहते। वैसे भी उनका अधिकतर समय साहित्यिक आयोजनों में ही बीतता। घर में होते तो अपनी पत्नी से भी पढ़ने-लिखने की बातचीत करते। कभी-कभी मनुहार भी।
एक दिन अवसर देखकर उन्होंने अपनी पत्नी से कहा, ‘देखो, रसोई और झाडू बुहारू तो कोई भी कर सकता है लेकिन वह काफी नहीं है। बी.ए., एम. ए. होना जरूरी नहीं लेकिन जितनी पढ़ाई-लिखाई की है, वह बहुत कम है। मैं कल से किताबें ला रहा हूँ, उन्हें पढ़ा करो और बताया करो कि क्या समझा? कितना समझा? समझा भी कि नहीं समझा?’
ऐसा कहकर वे घर से बाहर चले जाते। मित्रों से मुलाकातें कर जब वापस घर लौटते, तो लंका गेट पर स्थित दुकानों से कुछ पत्रिकाएँ, बालपोथियाँ, पंचतंत्र, महाभारत की कहानियाँ और सचित्र कहानियों की किताबें लाते। वे उन्हें पत्नी को देकर इन्हें पढ़ने के लिए कहते। किंतु, पत्नी उन्हें एक बार खोलकर भी न देखतीं। उनके लिए जैसे वे सौत हों। नामवर जब उन किताबों के बारे में दोबारा पूछते तो वे तर्क देतीं- ‘गाँव में बिना इनके काम नहीं चल रहा है सबका? मुहल्ले में किस औरत ने पढ़ा है? नौकरी करनी है कि पढ़ो? झोंटा खोल कर बेशरम बेहया की तरह जो घूमती रहती हैं, वे अच्छी लगती हैं क्या?’
नामवर सिंह मन मसोस कर रह जाते। किंतु, वे हार मानने वाले कहाँ थे। उन्होंने पत्नी को पढ़ाने के लिए अपनी माँ को भी मध्यस्थ बनाया। उन्होंने माँ से कहा, ‘देख माँ, बहुत-सी औरतें हैं जो लिखना-पढ़ना नहीं जानती हैं। मान लो, मैं घर पर न रहूँ, काशी भी न रहे, कोई न रहे तो? कई तरह के लोग आते हैं। कुछ को कहना पड़ता है कि नहीं हैं, अमुक जगह गए हैं, इतनी देर या इतने दिन में आएँगे। कुछ हो सकते हैं, जिन्हें बिठाना पड़े, चाय के लिए पूछना पड़े, जब तक न आएँ, बातें भी करनी पड़ सकती हैं। कहो उनसे, और कुछ नहीं तो कम से कम यही सीखें।’
माँ भी बेटे की चिंताएँ समझतीं। वे बहु तक सारी बातें पहुँचा तो देतीं और कुछ पढ़ने की मुनहार करतीं, लेकिन वे भी उनकी पत्नी का ही पक्ष लेतीं और शिकायत अलग से करतीं। वे अक्सर कहतीं, ‘उठना-बैठना, बोलना-बतियाना कौन नहीं जानता? यहाँ कोई गूँगी बहरी, लूली लँगड़ी तो है नहीं। किससे किस माने में कम है वे। ये सब बहाने हैं।’
नामवर सिंह अपनी माँ और पत्नी की बातों को सुनकर झुँझलाकर रह जाते। ऐसे में वे एकांतवासी होने लगते और उनको अंतिम सहारा किताबों में ही मिलता।
वे किताबें में सिमटते जाते। माँ उनके कमरे तक जाकर देखतीं कि किताबें पढ़ रहे हैं और लौट आती। वे कुछ पूछने पर सिसकने लगतीं।
नामवर भी जब उनको चिंतित देखते तो पूछ बैठते, ‘क्या बात है माँ।
उत्तर मिलता, ‘चिंता है, और क्या?’
फिर इस तरह माँ-बेटे के संवाद का सिलसिला चल पड़ता।
नामवर यूँ तो समझते ही थे, फिर भी गंभीर हो पूछते, ‘किस बात की चिंता है?’
‘और किसकी होगी? देवता की। (नामवर अपनी पत्नी को अक्सर इसी नाम से पुकारते थे) कि उनका क्या होगा?’
नामवर धैर्य से उत्तर देते, ‘ऐसा है माँ कि एक बेटा है। वह पढ़-लिख कर बड़ा होगा, नौकरी करेगा, शादी होगी, बहु आएगी। पतोह का सुख लूटें। वह बहुत है अपनी माँ की देखभाल के लिए। उनके सारे दुख दूर हो जाएँगे।…एक बात बता दें। मैं उन्हें पति का सुख दूँ, चाहे न दूँ; दुख नहीं होने दूँगा। निश्चिंत रहो।’
इसी तरह की मान-मनुहार चलती रहती और नामवर सिंह पढ़ाई में व्यस्त रहते।
दूसरी ओर, परिवार में भी कुछ जिम्मेदारियाँ बढ़ने लगी थीं। बेटा विजय भी क्वींस कॉलेज में पढ़ाई करने लगा था। उसकी फीस की भी चिंता रहती थी। उनकी पत्नी बीच-बीच में गाँव से शहर आतीं, चार-छह महीनें रहतीं, फिर चली जातीं। इन दिनों नामवर की कुर्ते-धोते फट-फट आतीं, लेकिन वे उन्हें ही पहनते रहते। सोचते भईया काशी पर बोझ पड़ेगा। उन्होंने किसी से उधारी करना भी उचित न समझा। उनका संस्कार बन गया था कि जितनी चादर है, उतने ही पैर पसारो।
नामवर सिंह के वैवाहिक जीवन में 1968 का वर्ष एक पुत्री को लेकर आया। उन्हें अपने दाम्पत्य जीवन में लगभग 20 वर्षों बाद संतान की प्राप्ति हो रही थी। वह भी एक प्यारी बेटी के रूप में। उन्होंने प्यार से बेटी का नाम गीता रखा, किंतु काशीनाथ ने नामकरण समीक्षा कर दिया। बाद में वह समीक्षा के रूप में ही जानी गईं। हालाँकि, घर में उन्हें सभी गीता के ही नाम से पुकारते रहे। आगे चलकर वह हिन्दी की अध्यापिका बनीं। आजकल वे दिल्ली के एक महाविद्यालय में हिन्दी पढ़ाती हैं।
नामवर सिंह 1974 में जे.एन.यू. में प्रोफेसर एवं अध्यक्ष बनकर आए। यहाँ उन्होंने सर्वोदय एन्कलेव में डी 280 नंबर मकान किराए पर लिया। इस मकान में वे सात-आठ महीने रहे, फिर उन्हें जे.एन.यू. कैंपस में ही मकान मिल गया- मकान नं.- 109। जे. एन. यू. में यही मकान नामवर की साहित्यिक शरणस्थली बना। यहीं उनकी पत्नी शांति सिंह रहने के लिए आईं। हालाँकि पहले रामदुलारे ही उनके खाने-पीने की सारी व्यवस्था कर रहा था। फिर नौकरी स्थाई हो जाने के बाद पत्नी भी स्थाई तौर पर पास ही रहने के लिए आ गईं।
1978 में नामवर को एक और खुशी मिली। उनके बेटे विजय को पुत्र रत्न प्राप्त हुआ। उनको बेटा बनारस में ही हुआ था। बेटे की नौकरी भटिंडा में थी, सो उन्होंने माँ से निवेदन किया कि वे उनकी पत्नी व पुत्र के साथ भटिंडा चलें। उनकी माँ इससे पहले कभी बाहर नहीं रही थीं। वह झिझकती-झिझकतीं उनके साथ भटिंडा चली गईं। फिर नामवर दिल्ली में अकेले रह गए। शायद यह जीवन अकेले ही रहता आया था। चिर-विस्थापित। ऐकांतवासी।
हालाँकि, भटिंडा से कुछ समय बाद ही उनकी पत्नी उनके साथ ही रहने के लिए वापस आ गईं। इधर जे.एन.यू. कैंपस में वे उनके साथ ही रहतीं।
उधर बेटी समीक्षा की प्रारंभिक पढ़ाई काशीनाथ सिंह जी के सानिध्य में बनारस में ही हुई। किंतु आगे की पढ़ाई के लिए वे भी दिल्ली आईं। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। बेटी के आ जाने पर नामवर सिंह का घर वास्तविक रूप से बसा। अब पति-पत्नी के बीच मध्यस्थ के रूप में बेटी मौजूद थी। नामवर सिंह को जो भी कहना होता बेटी से कहते। पत्नी के लिए जो भी निर्देश होता, उसे समीक्षा के सहारे ही देते। फिर भी दोनों के बीच अगाध स्नेह बना रहता। बेटी के आने पर माँ को भी बातचीत के लिए एक सखी मिल गई थी। दोनों माँ-बेटी लगातार बातचीत करती रहतीं, किंतु इस बात का ध्यान रखतीं कि नामवर की पढ़ाई में कोई बाधा उत्पन्न न हो। इस प्रकार गृहस्थी की गाड़ी सहज-सहज आगे बढ़ रही थी।
1992 में जे.एन.यू. से विदाई लेकर नामवर अपनी पत्नी और बेटी के साथ स्थाई तौर पर मकान, 32, शिवालिक अपार्टमेंट, अलकनंदा, कालकाजी, नई दिल्ली-19 में आ गए। अब यही उनका स्थाई ठिकाना हो गया। यहाँ शांति सिंह स्थाई तौर पर उनके साथ ही रहती थीं। अब बेटी भी विवाह के योग्य हो आई थीं, तो उनका विवाह सम्पन्न किया गया, फिर पीछे रह गए यही दोनों पति-पत्नी। नामवर सिंह का अधिकतर समय व्याख्यान देने में गुजरता और वे लगातार यात्राओं पर रहते, दूसरी ओर पत्नी घर की सारी व्यवस्था संभाले रखतीं। नामवर सिंह को उन्होंने घर की ओर सो बेफिक्र कर दिया था। इसमें कोई दोराय नहीं कि यदि उन्हें घर की व्यवस्था भी संभालनी पड़ती तो वे इतना अधिक पढ़-लिख न पाते।
दोनों पति-पत्नी का जीवन सामान्य ढंग से चल रहा था कि एक हादसा घट गया। दिनांक 5 जून 2003 को दिन में अचानक डायरिका के कारण उनकी पत्नी गिर गईं। उन्होंने पत्नी की ऐसी स्थिति देखकर अपने बेटे विजय को फोन किया। विजय घर से दूर ऑफिस में काम कर रहा था। घर से ऑफिस की ज्यादा दूरी के कारण विजय द्वारा अपनी पत्नी निर्मला को फोन करके घर भेजा गया। उन्होंने घर जाकर देखा कि सासु माँ की तबीयत अधिक खराब है। ऐसे में उन्होंने तुरंत ऐम्बुलेंस को बुलाया और सफदरजंग अस्पताल लेकर गईं। साथ में नामवर सिंह व उनका पोता अंशुमान सिंह भी गए। अस्पताल पहुँचने पर पता चला कि उन्होंने पहुँचने में काफी देर कर दी है; अब वे इस संसार में नहीं रही हैं। थोड़े समय बाद विजय को भी सूचना दे दी गई कि आपकी माँ अब संसार से विदा ले गई हैं। पूरी रात नामवर उनके सिराहने बैठे रहे। उनकी आँखों में आसूँ भरे रहे। पूरी जिन्दगी जिसको समझाते-समझाते न थके थे, अब वह उनसे विदा ले रही थी। अगले दिन पास पड़ने वाले नेहरू प्लेस के शमशान घाट में उनकी अंतिम क्रिया संपन्न हुई। कुछ दिनों बाद नामवर, विजय और निर्मला अस्थियों के साथ बनारस गए और वहाँ उनकी अस्थियाँ गंगा में बहा दी गईं। लोगों ने नामवर सिंह को ढाँढ़स बंधाया। फिर जीवन सहज-सहज पटरी पर आने लगा। बेटा और बहू अब साथ थे।
नामवर सिंह अपने पत्नी से अगाध प्रेम करते थे, किंतु किसी के सामने जाहिर नहीं होने देते थे। शायद उनकी परवरिश या फिर अध्यापकीय जीवन ने किसी तरह के प्रेम-प्रदर्शन की जगह ही नहीं छोड़ी थी।