लेखकों की पत्नियां शृंखला में अब तक आपने 41 लेखकों की पत्नियों के बारे में पढ़ा। अब आप पढ़िए अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्नी के बारे में। आपको उनके अखबार प्रताप के ऐतिहासिक योगदान के बारे में पता होगा। यह भी मालूम होगा कि भगत सिंह भी प्रताप में काम करते थे। महात्मागांधी जब भारत आये तो लखनऊ कांग्रेस 1916 में उनकी मुलाकात विद्यार्थी जी से हुई थी और बाद में गांधी जी उनसे प्रताप के दफ्तर में भी मिले थे लेकिन उनकी पत्नी के बारे में विवरण अधिक नहीं मिलता। उनका एक भी फोटो नहीं मिलता। प्रसिद्ध कवि अनुवादक और गणेश शंकर विद्यार्थी रचनावली के संपादक सुरेश सलिल ने यह छोटा सा लेख विद्यार्थी जी की पत्नी के बारे में भेजा है। बहुत कम लोगों ने विद्यार्थी जी की पत्नी का नाम सुनहोगा। तो पढ़िए सलिल जी का आलेख–
“गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्नी चंद्रप्रकाश देवी”
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– सुरेश सलिल
हिंदी पत्रकारिता में राष्ट्रीय स्वाधीनता की धारा प्रवाहित करने वाले, ‘प्रताप’ के संस्थापक-संपादक अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी (1890-1931) की पत्नी चंद्रप्रकाश देवी (1893-1938) का मायका इलाहाबाद की सोराँव तहसील के अंतर्गत हरवंशपुर में था। उनके पितामह मुंशी विश्वेश्वर कानूनगो अपने इलाके के संपन्न और शानो-शौकत वाले रईस थे।
चंद्रप्रकाश देवी और गणेश जी परस्पर 4 जून 1909 को दाम्पत्य-सूत्र बंधन में बंधे। उस समय गणेशजी 19 वर्ष के थे और चंद्रप्रकाश देवी 15 वर्ष की। विवाहोपरांत ससुराल के नये वातावरण के अनुरूप स्वयं को ढालने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं हुई। वे गणेश जी की चार बेटियों (कृष्ण, विमला, सरला, उर्मिला) और दो बेटों (हरिशंकर, ओंकार शंकर) की माँ बनीं। वे विद्यार्थी जी की शहादत के सात साल जीवित रहीं। उनका निधन सितम्बर 1938 में हुआ। विद्यार्थी जी के कनिष्ठ पुत्र प्रो. ओंकार शंकर विद्यार्थी ने कभी अपने पिता और माँ के बारे में लिखा था, ‘विद्यार्थी जी तेजस्विता के कोष थे और उनकी धर्मपत्नी सहनशीलता की प्रतिमा थीं। दोनों में एक ऐसी आदर्श युक्ति थी कि इस परिवार ने कठोर से कठोर कष्ट सहे और दुनिया को उसकी आहट भी न हो सकी।…’’
यह गणेश जी के व्यक्तित्व एवं वैचारिक दृढ़ता का ही प्रभाव था कि वे अपनी पत्नी को, जो ऐसे सामंती और रूढ़िवादी परिवार से आई थीं, जहाँ विवाह के अवसर पर तवायफ का नाच प्रतिष्ठाजनक समझा जाता था, अपने विचारों एवं मान्यताओं के रंग में रंग सके। रायबरेली मानहानि केस में 6-7 महीने की सजा काट कर 1922 के मई महीने में विद्यार्थी जी जेल से बाहर आये तो उनका स्वास्थ्य पूरी तरह चौपट हो चुका था। साल भर का समय भी न बीतने पाया कि फतेहपुर में आयोजित कांग्रेस की जिला कान्फ्रेंस में दिये गये भाषण को लेकर उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला और फिर एक साल की सजा सुना दी गई। विद्यार्थी जी के स्वास्थ्य के मद्देनजर कई सुहृदजनों ने सुझाव दिया कि परिस्थितियों को देखते हुए यदि वे इस मौके पर माफी मांग लें और जेल जाने से बच जाएं। यह कूटनीतिक जीत ही मानी जाएगी। विद्यार्थी जी ने हंसते हुए कहा, ‘ऐसी कूटनीति को दूर से ही सलाम।’ इस प्रसंग का जिक्र उन्होंने घर में भी किया। पिता आदि ने भी इसी सुझाव का अनुमोदन किया। पत्नी चंद्रप्रकाश जी उस वक्त को चुप रहीं, किंतु विद्यार्थी जी जब अपने निश्चय पर दृढ़ रहते हुए जेल चले गए, तो एक पत्र में प्रकाशजी ने उन्हें लिखा, ‘‘मैं कर्तव्य करते हुए तुम्हारी मृत्यु भी पसंद करुंगी और इस निश्चय के लिए तुम्हें
बधाई
देती हूं।’’
यह थी गणेशशंकर विद्यार्थी की पत्नी की वैचारिक उच्चता जो उन्हें अपने प्रति के सान्निध्य में मिली और परिपक्व हुई थी।