Monday, December 16, 2024
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स्त्री और प्रकृति : समकालीन हिंदी साहित्य में स्त्री कविता”

स्त्री दर्पण मंच पर ‘प्रकृति संबंधी स्त्री कविता शृंखला’ की शुरुआत महादेवी वर्मा की जयंती के अवसर पर हुईं जिस का संयोजन प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह कर रही हैं। इस शृंखला में स्त्री कवि की प्रकृति संबंधी कविताएं शामिल की गई हैं।
पिछले दिनों आपने इसी शृंखला में कवयित्री ज्योत्सना मिलन की महत्वपूर्ण कविताओं को पढ़ा।
आज आपके समक्ष हिंदी की वरिष्ठ कवयित्री कथाकार, चित्रकार और अनुवादक तेजी ग्रोवर की कविताएं हैं जिन्हें भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार और रज़ा अवार्ड समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। उनके कई कविता संग्रह चर्चित रहे हैं और हिंदी कविता को उन्होंने समृद्ध किया है। अंग्रेजी की शिक्षक रह चुकी तेजी करींब चार दशकों से रचना कर्म में लगी हैं। कोरोनो काल में उन्होंने गरीब जरूरतमंद और मेहनत कश लोगों की काफी सहायता की है। तो आइए उनकी कविताओं को पढ़ें।
आप पाठकों के स्नेह और प्रतिक्रिया का इंतजार है।
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कवयित्री सविता सिंह
स्त्री का संबंध प्रकृति से वैसा ही है जैसे रात का हवा से। वह उसे अपने बहुत निकट पाती है – यदि कोई सचमुच सन्निकट है तो वह प्रकृति ही है। इसे वह अपने बाहर भीतर स्पंदित होते हुए ऐसा पाती है जैसे इसी से जीवन व्यापार चलता रहा हो, और कायदे से देखें तो, वह इसी में बची रही है। पूंजीवादी पितृसत्ता ने अनेक कोशिशें की कि स्त्री का संबंध प्रकृति के साथ विछिन्न ही नहीं, छिन्न भिन्न हो जाए, और स्त्री के श्रम का शोषण वैसे ही होता रहे जैसे प्रकृति की संपदा का। अपने अकेलेपन में वे एक दूसरी की शक्ति ना बन सकें, इसका भी यत्न अनेक विमर्शों के जरिए किया गया है – प्रकृति और संस्कृति की नई धारणाओं के आधार पर यह आखिर संभव कर ही दिया गया। परंतु आज स्त्रीवादी चिंतन इस रहस्य सी बना दी गई अपने शोषण की गुत्थी को सुलझा चुकी है। अपनी बौद्धिक सजगता से वह इस गांठ के पीछे के दरवाजे को खोल प्रकृति में ऐसे जा रही है जैसे खुद में। ऐसा हम सब मानती हैं अब कि प्रकृति और स्त्री का मिलन एक नई सभ्यता को जन्म देगा जो मुक्त जीवन की सत्यता पर आधारित होगा। यहां जीवन के मसले युद्ध से नहीं, नये शोषण और दमन के वैचारिक औजारों से नहीं, अपितु एक दूसरे के प्रति सरोकार की भावना और नैसर्गिक सहानुभूति, जिसे अंग्रेजी में ‘केयर’ भी कहते हैं, के जरिए सुलझाया जाएगा। यहां जीवन की वासना अपने सम्पूर्ण अर्थ में विस्तार पाएगी जो जीवन को जन्म देने के अलावा उसका पालन पोषण भी करती है।
हिंदी साहित्य में स्त्री शक्ति का मूल स्वर भी प्रकृति प्रेम ही लगता रहा है मुझे। वहीं जाकर जैसे वह ठहरती है, यानी स्त्री कविता। हालांकि, इस स्वर को भी मद्धिम करने की कोशिश होती रही है। लेकिन प्रकृति पुकारती है मानो कहती हो, “आ मिल मुझसे हवाओं जैसी।” महादेवी से लेकर आज की युवा कवयित्रियों तक में अपने को खोजने की जो ललक दिखती है, वह प्रकृति के चौखट पर बार बार इसलिए जाती है और वहीं सुकून पाती है।
महादेवी वर्मा का जन्मदिन, उन्हें याद करने का इससे बेहतर दिन और कौन हो सकता है जिन्होंने प्रकृति में अपनी विराटता को खोजा याकि रोपा। उसके गले लगीं और अपने प्रियतम की प्रतीक्षा में वहां दीप जलाये। वह प्रियतम ज्ञात था, अज्ञात नहीं, बस बहुत दिनों से मिलना नहीं हुआ इसलिए स्मृति में वह प्रतीक्षा की तरह ही मालूम होता रहा. वह कोई और नहीं — प्रकृति ही थी जिसने अपनी धूप, छांह, हवा और अपने बसंती रूप से स्त्री के जीवन को सहनीय बनाए रखा। हिंदी साहित्य में स्त्री और प्रकृति का संबंध सबसे उदात्त कविता में ही संभव हुआ है, इसलिए आज से हम वैसी यात्रा पर निकलेंगे आप सबों के साथ जिसमें हमारा जीवन भी बदलता जाएगा। हम बहुत ही सुन्दर कविताएं पढ सकेंगे और सुंदर को फिर से जी सकेंगे, याकि पा सकेंगे जो हमारा ही था सदा से, यानी प्रकृति और सौंदर्य हमारी ही विरासत हैं। सुंदरता का जो रूप हमारे समक्ष उजागर होने वाला है उसी के लिए यह सारा उपक्रम है — स्त्री ही सृष्टि है एक तरह से, हम यह भी देखेंगे और महसूस करेंगे; हवा ही रात की सखी है और उसकी शीतलता, अपने वेग में क्लांत, उसका स्वभाव। इस स्वभाव से वह आखिर कब तक विमुख रहेगी। वह फिर से एक वेग बनेगी सब कुछ बदलती हुई।
स्त्री और प्रकृति की यह श्रृंखला हिंदी कविता में इकोपोएट्री को चिन्हित और संकलित करती पहली ही कोशिश होगी जो स्त्री दर्पण के दर्पण में बिंबित होगी।
स्त्री और प्रकृति श्रृंखला की हमारी आठवीं कवि तेजी ग्रोवर हैं जिनके यहां प्रकृति सृष्टि के बराबर है, न की उसका कोई एक रूप या खंड। इसी में प्रेम और वियोग भी रचा बसा है। बांस के पत्ते वन के फर्श पर सुनहरे गिर रहे थे जिससे कवि को इस यथार्थ का पता चल रहा था, ” जैसी गहराई थी/ वैसी ही सतह भी थी”। यही तरीका है इस कायनात को समझने का। और जिसने यह समझ लिया उसके लिए जीवन के रहस्य कम ही बचते हैं, जानने के लिए। फिर तो पीली घास की नोक तक में उसे लावण्य और शब्द, दोनो मिलते हैं। अपना रूप और अर्थ यहीं, श्रृष्टि के इस प्रकृति रूप में ही मौजूद है। ब्रह्मांड से झरते तारों के कण जब पृथ्वी पर आकर बिखरते है, ऐसा एहसास होता है कवि को, जैसे “मेरे वन में तेरी मृत्यु भी मेरी ही मृत्यु है”। यह सृष्टि और प्रकृति का मनुष्य जीवन से एकाकार की स्थिति है जिसमे आत्म प्रतीति का भाव आत्मसात हो गया सा लगता है। ऐसी कवि क्यों न इतनी भिन्न हो कि उसकी बातें भी वैसी ही लगें! वह कहती हैं,
“आत्मीयता से भरे नक्षत्र पर किससे कहूं कि ऐसा है- कौन मेरी बातों का विश्वास करेगा?” यहां कोई एलिएनेशन नहीं, बल्कि एक आत्म स्वीकार है कि कुछ भी अलग नहीं हमसे; सब कुछ एक आत्मीयता में हमारा ही है, सारी पृथ्वी, बच्चे, लोग, खेत, वन, वृक्ष, जीव, जनावर हम में ही है। इन्हे जाना भी तभी जा सकता जब आत्मीयता क्या है इसे हम जानें। सहज प्रेम!
ऐसी ही बातों को कविता में लाने वाली, महत्वपूर्ण कवि, तेजी ग्रोवर को आज आप भी पढ़ें।
तेजी ग्रोवर का परिचय
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तेजी ग्रोवर, जन्म 1955, पठानकोट, पंजाब। कवि, कथाकार, चित्रकार, अनुवादक। छह कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह, एक उपन्यास। आधुनिक नॉर्वीजी, स्वीडी, फ़्रांसीसी, लात्वी साहित्य से तेजी के पन्द्रह पुस्तकाकार अनुवाद प्रकाशित हैं। प्राथमिक शिक्षा और बाल साहित्य के क्षेत्र में भी उनका महत्वपूर्ण हस्तक्षेप और योगदान रहा है। तेजी की कृतियाँ देश-विदेश की तेरह भाषाओँ में अनूदित हैं; स्वीडी, नॉर्वीजी, अंग्रेजी और पोलिश में पुस्तकाकार अनुवाद प्रकाशित। 2020 में उनकी सभी कहानियों और उपन्यास (नीला) का एक ही जिल्द में अंग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशित हुआ है। भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार और रज़ा अवार्ड से सम्मानित तेजी 1995-97 के दौरान वरिष्ठ कलाकारों हेतु राष्ट्रीय सांस्कृतिक फ़ेलो चयनित होने के साथ-साथ प्रेमचंद सृजनपीठ, उज्जैन, की अध्यक्ष भी रहीं। 2016-17 के दौरान नान्त, फ्रांस में स्थित इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडी में फ़ेलो रहीं।
2019 में उन्हें वाणी फ़ाउंडेशन का विशिष्ट अनुवादक सम्मान, और स्वीडन के शाही दम्पति द्वारा रॉयल आर्डर ऑफ़ पोलर स्टार (Knight/ Member First Class) की उपाधि प्रदान की गयी।
तेजी ग्रोवर की कविताएं
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1. उड़ चुकी है
( कुमार शहानी की फ़िल्म ‘ख़याल गाथा” के लिए)
उड़ चुकी है
गिरे हुए तारे की धूल
पृथ्वी की ओर
करुणा के क्षण वह निकला होगा सुबह के आसमान से
गेहूँ घास पर
ईश्वर सा तारल्य उतर रहा था
‘देहतारा’
‘भोरतारा’
ईंधन चुनती हुई लड़कियों ने कहा
‘मेरे वन में तेरी मृत्यु मेरी ही मृत्यु है’
2. यह पीला उम्र में बड़ा है
यह पीला उम्र में बड़ा है, मुझसे पहले शान्त नहीं होगा.
यह पीला अक्स है पत्तियों की नीली शिराओं में. यह पीला
तुम्हारे भ्रम का समय है, पीले मोरों के आहार का. वह
पीली दिखती है खिड़की में काली ज़मीन पर पीली घास
की तरह चलती हुई. तितलियाँ नहीं जानतीं वे इतनी हैं
और पीली हैं सुबह की धूप में.
फिर वे पीले में जाने लगे हो हरे में थे, कुछ-कुछ अब
भी हरे में और अभी भी पीले में जाने लगे थे. जैसे यह
सिर्फ़ हवा का होना हो जबकि सुबह की धूप में रात का
चन्द्रमा छिलके की तरह उजला हो आकाश में. मनुष्य
का रोना सुनते थक गये थे, सरकण्डे आवाज़ करने लगे
थे झील की किनार पर.
उनके वस्त्रों का रंग देखकर भी रंग का नाम याद नहीं
आता था.
3. बात यह नहीं है
बात यह नहीं है कि कहीं भी मन नहीं लगता, कहीं भी जड़
महसूस नहीं होती, कहीं भी अकेलापन साथ नहीं छोड़ता.
बात ठीक इससे उलट है. हर जगह मन लगता है. हर
जगह जड़ महसूस होती है. यह जगह सान्निध्य है, स्नेह है,
साथ है. आत्मीयता से भरे हुए नक्षत्र पर किससे कहूँ कि
ऐसा है- कौन मेरी बात का विश्वास करेगा ?
4. शिक्षिकाएँ
कभी-कभी वे नहीं भी ढूंढ पातीं घर शुरू करने की जगह,
फिर भी एक तिनका चोंच में दबाये ही वे ढूँढना शुरू
करती हैं.
*
पर्दा हिलता है तो फ़र्श पर तिनके फैल जाते हैं.
मेरे घर की बेघरी में मेरे लिए क्या संकेत हैं ?
*
वे मेरी छत पे पड़े झाड़ू से धीरे-धीरे अपना घर तोड़कर
लाती हैं. मेरे ही सामने मेरे घर के अर्थ का
अभ्यास करती हैं.
5. पृथ्वी
मेरे कई घरों में से वह एक थी, मेरे कई सूर्यों में से एक
उसका पास था, इस माह उसे सोलह कविताओं में मेरे
पास आना था
मैंने कई दिन आभाव में जिये थे, कई बाहुल्य में
वे उन फूलों को दबाकर तेल में बदलते थे, जो फूल सुबह
से शाम तक सूर्य को ताकते थे. इस तरह मेरे कई प्रेम
छूट गये थे, कई इतने कठिन कि मैं झुककर कीड़ों से
पूछती थी
मैं सच कहूँ तो मोह इतना था कि पीली घास की नोंक
तक में शब्द का लावण्य था
अन्त भी एक शब्द ही था अन्त में
6. बूढ़े प्रेम की कविताएँ
( चित्रकार अम्बादास को समर्पित)
वहाँ खखरा के झाड़ भी थे, और हम उन्हें पलाश कहते
थे
कौए वन में से निकलती हुई बिजली की तारों पर किसी
घटना का शोर मचाये बैठे थे
कहीं कुछ हुआ है, तुमने कहा. मैं अपने वन को देखने
लगी, तुम अपने वन को
दूर-दूर तक हमारी दृष्टि कुछ काले, पीले, सफ़ेद धब्बों
और ध्वनियों से छूकर वापिस आती रही
कहीं कुछ भी ऐसा नहीं था जिसे हम बूझ सकते, जैसे वन
में हमारा मन ही हमें दिखायी देने लगा था-
क्या हम प्रेम करते हैं
क्या हम करुणा से भरे हैं
क्या पक्षी हमें सांत्वना देते हैं
कौए की उड़ान में लकीर थी जिसे हम मन में खींच
लेते थे
वहाँ पहले ही से कई लकीरें थीं. एक उलूक की, एक हंस की,
एक सोनपंखी की
हम नाम लेते थे, और वे कौंध आती थीं स्मृति पर. जैसे
किसी अथाह गहराई से आने में उन्हें क्षण भर की ही
देर थी
आते ही वे धीमे-धीमे फिर से मिटने लगती थीं
फिर हम नाम लेते थे, आँखों के पर्दे पर, नाम लेते थे टीले
की गीली रेट में बैठ, नाम लेते थे
और इस तरह, उन लकीरों का वास हमारे मन में होता
था
क्या यह सिर्फ़ हमें लगता ही था कि हम अपनी बची हुई
पृथ्वी पर अपने बचे हुए सौन्दर्य को संजोकर रखने की
कोशिश कर रहे थे ?
क्या तिड़क नहीं चुका था हमारा काँच, और अक्सों में
लम्बी सर्पीली दरारें नहीं उभर आयी थीं ?
क्या ऐसा नहीं था कि हमारे मस्तिष्क के स्लेटी और लाल
फूल सूख चुके थे और हमारे बच्चे उन्हें अक्सर पानी देना
भूल जाते थे ?
क्या यह भी हमारा भ्रम था कि हमारे हिस्से के वन में
वही खूब हरे टिड्डे अब भी शान से धूप के चकत्तों में
बैठे थे ?
क्या अब भी एक-दूसरे से खड़खड़ा नहीं उठते थे खखरा
और पीपल ले झाड़?
वे अचानक बड़े स्नेह से हमें गले से लगाकर सो जाते हैं,
स्वप्न में
उनके बाल पहले से ज़रा खुरदुरे हो गये हैं, त्वचा ज़रा
तिड़क गयी हैं, एड़ियाँ दरारों से भर गयी हैं
उनके हृदय से फिर वही ध्वनि हमारे शरीर में धड़कने
लगती है, सिर्फ़ एकाध धडक बीच-बीच में टूट जाती हैं,
जहाँ हमें खौफ आने लगता है
इस रात भी फिर वही एक-दूसरे को अपनी मृत्यु से बचाते
हुए लोग जिन्हें उनके खुदा ने लॉरल के दरख़्तों में बदल
दिया था
7. वे लोग
अपने वाहन पर
एक पशु के चीत्कार को बांध रहे थे
चहों ओर तब भी पतरिंगे और दूधराज उड़ रहे थे
कोई उलूक टीले से किसी आड़ी रेखा सा घाटी में उतर
रहा था
बाँस के पत्ते वन के फ़र्श पर सुनहरी गिर रहे थे..
धान अपने उगने की पूरी लोच से निराभास हवा में बह
रही थी
मनुष्य बच्चे अपने ऐश्वर्यशाली गरीबी में छुट्टी मना रहे थे
नदी का उथला अवतार भरी दोपहर में किसी तलवार सा
ऊँघ रहा था
वे उस आर्तनाद को बाँध रहे थे
और पृथ्वी के उत्तर से आयी हुई एक अतिथि आत्मा
छत से देख रही थी
और रो रही थी
पशुपति,
तुमने भी
देखा तो होगा न!
8. सिद्धार्थ के चित्रों से – 2
वे अपनी ही गहराई से रूठ गये थे और नीले रंगों में सने
हुए, सतह पर निकल आये थे
उन्हें नहीं मालूम थे सतह के सुख और दुख, शत्रु और मित्र,
प्रेम और घृणा, भूरा और श्वेत, स्वप्न और दुस्स्वप्न,
पारिजात के फूल, धन-धान्य, अनाज, पानी, पक्षी और
पशु. वे चाहते तो तकिये की गुलकारी तक में कपास के
मर्म को देख सकते थे. श्यामा के पंखों में देह और आत्मा
का एक ही दृश्य दिखायी देता था
जैसी गहराई थी, कुछ-कुछ वैसी ही सतह भी थी
9. सिद्धार्थ के चित्रों से 3
वे नहीं जानते थे उनके अक्षर हमारे जीने की इच्छा में
झरते हैं
हम नहीं जानते थे अगर यह सुख था तो अन्ततः दुख
भी यही था
वे हमें भरमाते थे दुख के उच्चार से, वे अपने प्रियजनों
की मृत्यु से भरमाते थे हमें, वे प्रेम के टूट जाने के बाद
के प्रेम से भरमा देते थे हमें
फिर सुबह के आठ का तांबई पीपल झरने लगता था, पूरा
दिन पत्ते गिरते थे सूर्य के अलग-अलग रंगों की हवा में.
न मैत्री थी, न मृत्यु, न ही प्रेम था वहाँ, न घृणा, न रोने
की आवाज़ ही आती थी दृश्य में
बस ज़मीन की कशिश थी और पत्ते गिरते थे
10. अन्त की कुछ और कविताएँ 1
कुछ भी कहने से अब हर कहने में मनुष्य ही जन्म लेता
है और कुछ भी नहीं. इस तरह अब यहाँ बहुत देर तक
रुकना सम्भव नहीं है.
हर बार तालाब की ओर चलते हुए पत्थर तुमसे टकराकर
गिर जाते हैं. तुम्हें नहीं मालूम उनकी प्यास को अपने
बच्चों के दुख में कैसे पढ़ना है. कुछ आईने तुम्हारे कमरे
में शुरू ही से नहीं हैं.
तुम उन चिड़ियों को नहीं देख सकते जो तुम्हारी गढ़ी हुई
छायाओं के बीचोंबीच अपना रास्ता चीरती हुई उड़ने की
कोशिश करती हैं.
तुमसे कितनी बार कहा जा चुका है कि हर गीत में एक
ही तरह के उदासी भरते चले जाने का अर्थ है कि तुम
सुर में नहीं रह पाओगे.
तुमसे कितनी बार कहा जा चुका है कि चींटियों की टूटी
बाम्बियों के रुदन में तुम्हारे होने न होने के रुदन से कहीं
अधिक ईश्वर बसे हुए हैं.
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