मित्रो आपने बंग महिला की कहानी दुलाईवाली पढी होगी लेकिन इस कथाकार के बारे में पहले अधिक जानकारी नही मिलती थी।बंग महिला यानी राजेन्द्र बाला घोष प्रेमचन्द से दो साल छोटी थी और 1904 से इनका लेखन शुरू होता है। रामचन्द्र शुक्ल ने इनके पहले कहनी संग्रह की भूमिका लिखी थी लेकिन वह मिलती नही है। भवदेव पण्डेय ने उन पर पहली किताब लिखी थी। अब बंग महिला समग्र भी आ चुका। आज पढ़िए उनके बारे के नवजागरण की अधेयता अस्मिता जी का लेख ।उन्होंने बंग समग्र का सम्पादन किया है।
……………………….
बंग महिला: नवजागरण और स्त्री-प्रश्न
अस्मिता तिवारी
1.
बंगमहिला (1882-1949) हिन्दी नवजागरण की पहली महत्वपूर्ण लेखिका हैं। हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्र में स्त्रियों को रूढ़ तथा जड़ परम्पराओं को शिकंजे में कसने वाली शास्त्रीय व्यवस्था को नकारती हुई बंगमहिला ने स्त्री शिक्षा और जागरण का नया माहौल बनाया। उनके लेखन में स्त्रियों के लिए स्वेच्छया पति का चयन, तलाक का अधिकार और साथ ही ‘पत्यन्तर’ करने के अधिकार की मांग जैसे ज्वलन्त प्रश्न स्त्री संदर्भित क्रांतिकारी महत्व के द्योतक हैं। इसलिए बंगमहिला हिन्दी पट्टी की विचारधारा सम्पन्न पहली महत्वपूर्ण लेखिका हैं। 19वीं सदी के नवजागरण पर विचार करते हुए डाॅ. वीरभारत तलवार ने लिखा है कि ‘‘19वीं सदी में हिन्दी की एक भी महत्वपूर्ण लेखिका सामने नहीं आई। यह तथ्य पश्चिमोत्तर प्रान्त के नवजागरण पर अपने आप एक टिप्पणी है। पश्चिमोत्तर प्रान्त में हिन्दी की पहली लेखिका पूरी 19वीं सदी बीत जाने के बाद सामने आई और उसका रचनाकाल 1904 से शुरू हुआ। गौरतलब है कि हिन्दी की यह पहली लेखिका हिन्दुस्तानी नहीं बंगाली थी। ‘बंगमहिला’ जिनका असली नाम राजेन्द्रबाला घोष था’’(वीरभारत तलवार, रस्साकशी, सारांश प्रकाशन, दिल्ली, 2002, पृ. 242)। यह सही है कि बंगमहिला का संबंध बंगाल से था लेकिन मिर्जापुर में रहते हुए उनके सामाजिक-सांस्कृतिक संस्कार हिन्दी प्रदेश में ही तय हुए। इसलिए हिन्दी क्षेत्र का प्रभाव उनके पारिवारिक जीवन पर है और साहित्यिक लेखन पर भी। अतः 1904 से लेखन यात्रा की शुरुआत तथा बंगाल के परिवेश से होने के बाद भी उनका लेखन 19वीं सदी के हिन्दी नवजागरण का अभिन्न अंग है। नवजागरण के विचार प्रवाह में बंगमहिला का महत्व अन्य वजहों से भी है। एक तो हिन्दी नवजागरण की सबसे पहली उल्लेखनीय लेखिका होने के नाते, दूसरे हिन्दी प्रदेश के मठाधीशों के लांछन और अपमान को सहते हुए भी स्त्री स्वतंत्रता तथा बौद्धिक नवाचार में लगे होने के कारण। तीसरी वजह यह है कि हिन्दी लेखन में आने के बाद बंगमहिला का जिन लेखकों से निकट का सम्बन्ध था- उनमें रामचन्द्र शुक्ल, काशीप्रसाद जायसवाल, चैधरी बद्रीनारायण ‘प्रेमघन’ और केदारनाथ पाठक प्रमुख हैं। वे सभी 19वीं सदी के हिन्दी नवजागरण की परम्परा से गहरे प्रभावित थे और उसी की उपज थे। बंगमहिला के सबसे नजदीक रहे केदारनाथ पाठक ने हिन्दी आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया था।
बंगमहिला के पूर्वज चन्दननगर पूर्वी बंगाल के मूल निवासी थे। तब चंदननगर फ्रांस का उपनिवेश था। बंगमहिला के पितामह श्री राम राम घोष और उनके दोनों बड़े भाई ईस्ट इंडिया कम्पनी में नौकरी करते थे। परिवार पर फ्रेंच संस्कृति का प्रभाव था। हालांकि इन लोगों की मातृभाषा बांग्ला थी लेकिन तीनों भाई फ्रेंच और अंग्रेजी में भी दक्ष थे। सन् 1715 में लार्ड कार्नवालिस ने बनारस के इलाके में ‘इस्तमरारी बन्दोबस्ती’ की प्रथा लागू की और बंगमहिला के पितामह श्री राम राम घोष को परिवार सहित मिर्जापुर भेज दिया गया। मिर्जापुर में रहते हुए राम रामघोष ने ब्रिटिश संबंधों का फायदा उठाकर शहर के निकटस्थ पड़रा-हनुमान, करिया डीह, पचोखरा, भरपुरा और लोकपुरा में बहुत सी जमीन अपने परिवार के नाम लिखा ली। श्री राम रामघोष मिर्जापुर प्रवास के शुरुआत में बरियाघाट मुहल्ले में पं0 केदारनाथ पाठक के भाड़ेदार थे और वहीं रहते हुए नौकरी के साथ-साथ जमींदारी के दायित्व का निर्वाह भी कर रहे थे। राम रामघोष के दोनों भाई निःसंतान दिवंगत हुए लेकिन उन्हें एक पुत्र हुआ जिसका नाम रखा- श्री राम प्रसन्न घोष। बंगमहिला राम प्रसन्न घोष की पहली संतान थी। नागरी प्रचारिणी पत्रिका के बंगमहिला विशेषांक में ‘बंग महिला: एक परिचय’ शीर्षक टिप्पणी में सुधाकर पाण्डेय ने लिखा है कि ‘राजेन्द्र बाला घोष का जन्म वाराणसी के कोदई चैकी मुहल्ले के मकान नं. डी. 49ध्142 में हुआ था। जिस समय इनका जन्म हुआ, भारतेन्दु जी हिन्दी को नई चाल में ढ़ाल चुके थे।’ बंगमहिला का जन्म बनारस में नहीं बल्कि मिर्जापुर में ही हुआ था लेकिन सुधाकर पाण्डेय के हवाले को ही सही मानकर वीरभारत तलवार ने भी मान लिया है कि ‘‘बंग महिला का जन्म 1882 में बनारस के कोदई चैकी मोहल्ले में हुआ था और मृत्यु 1949 में। उनके पिता राम प्रसन्न घोष विद्वान आदमी थे। मिर्जापुर के रईस और जोर्डन कम्पनी में बड़े अफसर थे’’ (रस्साकशी, पृ. 243)।’’ यहाँ ध्यान देने योग्य है कि बनारस में कोदई चैकी वाला घर, बंगमहिला के पिता ने सन् 1930 में खरीदा इसलिए उस मकान में जन्म की बात एकदम गलत है। बंगमहिला और उनके समय के महत्वपूर्ण विवादों पर प्रामाणिक ढंग से विचार करने वाले डाॅ0 भवदेय पाण्डेय ने बंगमहिला: नारी मुक्ति का संघर्ष नामक पुस्तक में बंगमहिला की प्रामाणिक जीवनी प्रस्तुत की है। उनका मानना है कि ‘‘बंगमहिला का जन्म 1882 में हुआ था। मिर्जापुर नगर के बरिया घाट स्थित वह मकान जिसमें नीरदवासिनी घोष ने बंगमहिला को जन्म दिया था, वह पंडित केदारनाथ पाठक का था’’(बंगमहिला नारी मुक्ति का संघर्ष, पृ. 8)। घोष परिवार में ‘रा’ वर्ण से नामकरण की प्राचीन परम्परा थी। इस परंपरा का पालन करते हुए बंगमहिला का नाम राजेन्द्र बाला घोष रखा गया। भवदेय पाण्डेय ने यह भी लिखा है कि ‘रा लक्ष्मी राः’ समृद्धिस्यात् जैसे मातृका वचनों में उनके परिवार की अटूट निष्ठा थी। राजेन्द्र बाला घोष के जन्म के बाद राम प्रसन्न घोष को चार पुत्र पैदा हुए, जिनके नाम रामेन्द्र कृष्ण घोष, राम यादव घोष, राम गोपाल घोष और राम केशव घोष थे। राजेन्द्रबाला घोष इस परिवार में अकेली कन्या थीं। संयोग ही था कि इनके पैदा होने के बाद नीरदवासिनी की कोख से चार पुत्र जन्मे। इसलिए घोष परिवार में राजेन्द्र बाला को बहुत लाड़-प्यार मिलने लगा। परिवार की अकेली पुत्री होने के कारण और माता के अतिरिक्त स्नेह का लेखिका के रूप में बंगमहिला ने यथास्थान उल्लेख भी किया हैः ‘‘जिस गृह में दयावती करूणामयी जननी देवी नहीं, जिस घर में स्नेहमयी सहोदर भगिनी नहीं है, जिस घर में मृदुहासिनी, आनन्ददायिनी कन्या नहीं, सरस्वती स्वरूपा भार्या नहीं है, वह गृह होने पर भी अरण्य समान ही है।’’
बंगमहिला के पिता बाबू राम प्रसन्न घोष मिर्जापुर जनपद के अत्यंत सम्मानित नागरिक थे।…. वे नगर की कई साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं के प्रमुख कर्ता-धर्ता थे। इसके बाद भी राम प्रसन्न घोष जैसे पढ़े-लिखे व्यक्ति नारी शिक्षा के प्रश्न पर रूढ़ियों और अंधविश्वासों के बीच दुविधाग्रस्त थे। हिन्दी प्रदेश में नारी शिक्षा के प्रति असमंजस और उपेक्षा के दंश को बंगमहिला ने बहुत नजदीक से देखा था। अपनी जीवनी के संदर्भ में उन्होंने खुद लिखा है कि ‘‘एक तो हिंदी मेरी मातृभाषा नहीं दूसरे मेरी शिक्षा भी घर की है, मुझे जो कुछ मिली वह मेरी पूजनीय जननी देवी और परम पूज्य पिता द्वारा ही है’’(बंगमहिला रचना समग्र; यश पब्लिकेशन, दिल्ली, 2016, पृ. 121)। जबकि उनके चारों भाई उस जमाने के बी0ए0 पास और ऊँची नौकरियों में थे। इस संदर्भ में ध्यान में रखकर वीरभारत तलवार ने 19वीं सदी के नवजागरण में स्त्री शिक्षा पर विचार करते हुए लिखा है कि सीमन्तनी उपदेश और स्त्री-पुरुष तुलना के मुकाबले बंगमहिला की रचनाओं से स्पष्ट है कि बुनियादी तौर पर वे स्त्री संबंधी परम्परागत दृष्टिकोण की समर्थक थीं, उन्होंने स्त्रियों की पारम्परिक छवि और भूमिका का समाधान करते हुए लिखा है कि नारी दया की मूर्ति होती हैं और उसे उचित है कि लज्जा और विनम्रता को सदा अपना आभूषण समझे…. इन विचारों से साफ है कि बंगाल, महाराष्ट्र या पंजाब में जो नई स्त्री चेतना उभर रही थी, बंगमहिला में वह नहीं मिलती। स्त्री की पहचान और उसकी भूमिका के बारे में उनका दृष्टिकोण परम्परावादी था’’(रस्साकशी, पृ. 244)। सवाल यह है कि क्या बंगमहिला की तुलना ताराबाई शिंदे या एक अज्ञात हिन्दू महिला से करना सही है? या फिर समूचे हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्र की स्थिति का आंकलन किए बिना उनके विचार चिंतन को पारम्परिक मान लेना सही है? जबकि बंगमहिला ने पुरुष वर्ग की ओछी धारणाओं को ललकारते हुए अशिक्षा और जड़ता से आक्रांत नारियों को जगाने की लंबी कोशिश की। उन्होंने बड़े विश्वास के साथ लिखा कि शिक्षित हो जाने से लज्जाहीन हो जाने का कोई कारण नहीं है। बंगाली समाज की तीखी प्रतिक्रिया के बाद भी उन्होंने कहा कि ‘‘बंगाली में यह अंधविश्वास फैला है कि शिक्षा लेने से लड़कियाँ विधवा हो जाती है। उनकी शिक्षा के कारण ही पतियों की आयु क्षीण होती है, जैसी बातें निरा पिछड़ापन है’’(बंगमहिला: स्त्रियों की शिक्षा, आनन्दकादम्बिनी, मार्च 1906, पृ. 15)। यहाँ ‘बंगाल में यह अंधविश्वास फैला है’- के माध्यम से बंगाल की स्त्री विषयक मान्यताओं का अनुमान किया जा सकता है। यह सही है कि स्त्री शिक्षा के सवाल पर हिन्दी प्रदेश के बुद्धिजीवी दुविधाग्रस्त थे साथ ही यह भी सच है कि बंगाल जैसे शिक्षित प्रान्त के पढ़े-लिखे संभ्रान्त लोग भी स्त्री शिक्षा के प्रश्न पर पिछड़े थे। अन्यथा रामप्रसन्न घोष जैसे शिक्षित परिवार में बंगमहिला आधुनिक शिक्षा से वंचित न रहतीं। यह अकारण नहीं है कि स्त्री शिक्षा की उदासीनता के लिए बंगमहिला ने ब्रिटिश सरकार को जिम्मेदार ठहराया और उसकी आलोचना की। बंगमहिला बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में पति-पत्नी के संबंधों में शिक्षा की भूमिका पर विधिवत् विचार करने वाली हिन्दी प्रदेश की पहली लेखिका हैं। उन्होंने पुरुष समाज को चुनौती देते हुए लिखा कि ‘‘एक बी0ए0 पास की पत्नी का निरक्षर होना सचमुच क्षोभ, दुख और लज्जा की बात है। पर इस दोष के कुछ हिस्सेदार बी0ए0 पास पति महाशय भी हैं, अथवा यों कहिए कि यह पति-पत्नी दोनों का दुर्भाग्य है। पति महाशय उच्च शिक्षित होने पर भी यदि अपनी सचिव सखी शिष्या सहधर्मिणी की ज्ञानोन्नति न कर सके तो देशोन्नति की उनसे क्या आशा की जाय?’’ महादेव गोविन्द रानाडे ने पश्चिमोत्तर ¬प्रांत में आधुनिक शिक्षा का प्रसार न हो पाने के कारण वहाँ की पिछड़ी परिस्थितियों को माना था। 19वीं सदी का हिन्दी भाषी बौद्धिक वर्ग भी शिक्षा के प्रश्न पर नए ढंग से सोचना शुरू कर दिया था। बालकृष्ण भट्ट ने लिखा था कि ‘‘आजकल स्त्रियों पर बड़ा अत्याचार हो रहा है और उनकी गिरी दशा और भद्दी अकिल तरस के लायक है’’(बालकृष्ण भट्ट रचनावली, सं. समीर कुमार पाठक, भाग-2, अनामिका पब्लिशर्स, दिल्ली, 2015, पृ. 5)। यह ध्यान रखने योग्य है कि जिस हिन्दी क्षेत्र को समाजसुधार के प्रश्न पर पिछड़ा कहा जाता है; उसी हिन्दी क्षेत्र के बालकृष्ण भट्ट जैसे साहित्यकार स्त्री-शिक्षा और बाल-विवाह जैसे प्रश्नों पर विचार कर रहे थे बल्कि नई गठित कांग्रेस से इन प्रश्नों पर विचार करने का आग्रह भी कर रहे थे: ‘‘कांग्रेस के अधिष्ठाता लोेग मुल्क का इंतजाम अपने हाथ में करने के लिए तो बात कर रहे हैं, इस बुराई को दूर करने क लिए कोई नियम अपनी सभा में नहीं पास करते। बिना जिसके दूर हुए हम सोशली, मोरली, पोलीटिकली कभी अच्छे हो ही नहीं सकते।’’ 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक बालकृष्ण भट्ट जैसे हिन्दी क्षेत्र के बौद्धिक यह सोच रहे थे कि जिस दिन हमारी सीधी सादी स्त्री समाज में शिक्षा का असर पैदा हो गया, जैसा बंगाल में हो चला है उस दिन फिर से मंदिर और देवस्थान हिन्दुस्तान को एक पुरानी बात मात्र रह जाएगी। दरअसल हिन्दी क्षेत्र के नवजागरण में स्त्री प्रश्नों पर जो भी चर्चा-परिचर्चा हुई उसे पुरुष सुधारकों ने की, इसलिए स्त्री पक्षधरता का पूरा संदर्भ नहीं आ सका क्योंकि नवजागरण के चिंतकों ने स्त्री समस्या का बाहरी पक्ष देखा जबकि बंगमहिला ने स्त्री पीड़ा का भीतरी पक्ष उद्घाटित किया है। उनके यहाँ समस्या के प्रति भोक्ता का भाव है, इसलिए उनके विवेचन में भी स्त्री तेवर है, मुक्ति की छटपटाहट है और पुरुष वर्चस्व का विरोध भी।
2.
राजेन्द्र बाला घोष की साहित्य संदर्भों में सम्बद्धता और लेखकीय अस्मिता के विकास में मिर्जापुर में रहने वाले हिन्दी के चार महत्वपूर्ण लेखकों, चैधरी बद्रीनारायण प्रेमघन, केदार नाथ पाठक, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तथा काशीप्रसाद जायसवाल का महत्वपूर्ण योगदान रहा है; अन्यथा सदा परदे में रहने वाली कुलीन कायस्थ जाति की बंगमहिला बांग्ला भाषा में ‘प्रवासिनी’ नाम से कुछ कविताएँ और गद्य लेख लिखते हुए उपेक्षित ही बनी रहती। बंगमहिला के जीवन में केदारनाथ पाठक प्रेरणा और प्रभाव के साथ-साथ सृजनात्मक संयोग की तरह थे। भवदेय पाण्डेय के अनुसार, ‘‘यह संयोग इसलिए बना कि बंगमहिला के पिता बाबू राम प्रसन्न घोष, पं0 केदारनाथ पाठक के मकान में भाड़ेदार होकर रहने लगे। आने के बाद ही वे बालक पाठक के साथ घुलमिल गए। जब बंगमहिला छः-सात वर्ष की हुई तब घोष बाबू, केदारनाथ पाठक और अपनी पुत्री को साथ बैठाकर पढ़ाने लगे…. इनके घर के पास ही ‘मेयो लाइब्रेरी’ थी। फलतः बंगमहिला को हिन्दी बांग्ला साहित्य की विभिन्न सूचनाएँ मिलने लगीं। पढ़ने के लिए माता-पिता का प्रोत्साहन ऊपर से मिलता था। पं0 केदारनाथ पाठक का साथ तो ईश्वर प्रदत्त वरदान ही था। इसलिए कुल मिलाकर उनका मन साहित्य संदर्भों से जुड़ने लगा और उनमें धीरे-धीरे लेखकीय अस्मिता जड़ पकड़ने लगी’’(बंगमहिला नारी मुक्ति का संघर्ष, पृ. 17)। यहाँ पर यह जानना आवश्यक होगा कि सबसे पहले चैधरी बद्रीनारायण ‘प्रेमघन’ ने ही अपनी साहित्यिक पत्रिका आनन्द कादम्बनी में बंगमहिला को प्रकाशित करना आरम्भ किया। यदि प्रेमघन ने उन्हें प्रकाशन-संरक्षण न दिया होता तो शायद बंगमहिला अल्पज्ञात ही बनी रह जाती। प्रेमघन का प्रकाशन-संरक्षण इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि ‘प्रेमघन’, आनन्द कादम्बिनी में स्वयं की रचनाओं के मुकाबले दूसरे लेखकों को बिल्कुल प्रकाशित नहीं करते थे। बावजूद इसके आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और बंगमहिला जैसे लेखकों की एक-दो रचनाओं का ‘आनन्दकादम्बिनी’ में प्रकाशन उनके महत्व का प्रमाण है।
बंगमहिला, श्रीमती राजेन्द्रबाला घोष का लेखकीय नाम था। उनकी सभी कहानियाँ इसी उपनाम से प्रकाशित हैं जबकि गद्य लेख और अनुवाद कार्य भिन्न-भिन्न नामों से भी प्रकाशित हुए हैं। प्रकाशन की दृष्टि से राजेन्द्रबाला घोष की रचनाएं अपने समये की महत्वपूर्ण पत्रिकाएं आनन्दकादम्बिनी, भारतेन्दु, सरस्वती, समालोचक, बाल-प्रभाकर, लक्ष्मी स्वदेश-बांधव और स्त्री जो 19वीं शताब्दी की ख्यातिलब्ध पत्रिकाएँ थीं- में प्रकाशित हुई।
3.
बंगमहिला के लेखन की शुरूआत 1904 से हुई। सन् 1904 से 1917 तक के साहित्यिक परिदृश्य पर उनकी सशक्त उपस्थिति अलग से रेखांकित करने योग्य है। हिन्दी में संभवतः अपने पहले लेख ‘हिन्दी के ग्रंथकार’ जो समालोचक पत्रिका में फरवरी 1904 में प्रकाशित हुआ, से बंगमहिला ने हिन्दी समाज में तहलका मचा दिया था क्योंकि ‘‘बंगमहिला ने इस लेख में मूल लेखक की इजाजत के बगैर बांग्ला से हिन्दी में अनुवाद करके अपने नाम से छपाने या इससे मिलती-जुलती साहित्यिक चोरी की दूसरी घटनाओं को सामने रखकर साहित्यिक नैतिकता के सवाल को उठाया था। इस सिलसिले में बंगमहिला ने अपने समय में धुरंधर लेखकों बाबू श्यामसुन्दर दास, महावीर प्रसाद द्विवेदी और किशोरी लाल गोस्वामी तक को नहीं बख़्शा है।’’ हिन्दी के ग्रन्थकार शीर्षक विचारोत्तेजक लेख के मुख्य प्रेरणास्रोत पं0 केदारनाथ पाठक बंगमहिला को लेखन की दुनिया में लाने के लिए भी प्रयासरत थे। यह विषय प्रारम्भिक सक्रियता के लिए उपयुक्त जानकार केदारनाथ पाठक ने बंगमहिला को प्रोत्साहित किया और अंततः फरवरी 904 के समालोचक में हिन्दी के ग्रंथकार का प्रकाशन हुआ। हिन्दी लेखकों द्वारा बिना नाम लिए बांग्ला के अनुवाद को मौलिक बनाकर प्रस्तुत करने जैसे साहित्य कौशल को बंगमहिला ने आधुनिक हिन्दी लेखकों का ऐसा रोग माना जिसकी कोई दवा नहीं है।’ उन्होंने व्यंग्य करते हुए लिखा कि ‘‘कवि छाया लेते हैं, कुकवि शब्दों को और चाण्डाल पदों को उड़ाते हैं। जो सारे प्रबंध को ही उड़ा लें, उस साहस को प्रणाम है’’(समालोचक, फरवरी 1904, पृ. 13)। इस लेख में बंगमहिला ने हिन्दी के धुरंधर लेखकों-प्रकाशकों पर नाम लेकर खुला आरोप लगाया था। लेकिन लेख के प्रारम्भ में बहुत संयत ढंग से यह स्वीकार करते हुए कि हिन्दी के सब आधुनिक लेखक हीन चरित्र के मनुष्य नहीं हैं। हिन्दी लेखकों के बीच अपने समर्थन की संभावना को कायम रखते हुए ‘बंगमहिला’ ने इसे लाइलाज बीमारी कहा था और सचमुच यह रोग इतना गहरा है कि आज भी जब तब इसके अवशेष हिन्दी लेखन में बहुत सफाई से दिख जाते हैं। बीसवीं सदी के प्रारम्भिक दौर में हिन्दी के बहुत सारे लेखक पूरा का पूरा प्रबंध उड़ाने की कला में निष्णात थे, यह बात चंद्रधर शर्मा गुलेरी भी जानते थे इसलिए ‘भविष्य में उपालम्भ सुनने का काम न किया करें’- सिर्फ इस चेतावनी के साथ उन्होंने मूल प्रश्न पर लीपापोती की। जबकि बंगमहिला ने राधाकृष्णदास, श्यामसंुदर दास, महावीर प्रसाद द्विवेदी के द्वारा अनुवादित सामग्री पर सटीक टिप्पणियाँ की। यह लेख बंगमहिला के स्वतंत्र और साहसी व्यंिक्तव का प्रमाण है। उन्होंने हिन्दी के स्वनामधन्य लेखकों की तथाकथित मौलिकता की बेहयाई की खिल्ली उड़ाई थी, साथ ही उस दौर के कुछ कथाकारों की भाषाई लचरता और अश्लील चित्रण शैली को भी प्रश्नांकित किया था। इस लेख में ‘सरस्वती’ सम्पादक द्विवेदी जी के लिए ‘महाशय बंगभाषाभिज्ञ’, श्यामसुंदर दास के लिए ‘भाषातत्वेत्ताज्ञ’ तथा ‘पुरातत्त्ववेत्ता’ सहित किशोरीलाल गोस्वामी और देवकीनन्दन खत्री के औपन्यासिक गठन को लचर मानते हुए पर्याप्त व्यंग्योक्तियाँ थीं। ‘सरस्वती’ में प्रकाशित कई लेखों पर नकल का आरोप लगाना सिर्फ उन लेखकों पर आरोप लगाना न था बल्कि ‘सरस्वती’ संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को खुली चुनौती देना था। यह चुनौती बंगमहिला के रचनात्मक भविष्य के लिए परेशानी का कारण भी बनी लेकिन जिस साफगोई और निर्ममता से बंगमहिला ने सवाल उठाया, वह अत्यंत महत्वपूर्ण था।
4.
बंगमहिला ने अपने समय के साहित्य परिदृश्य के ख्यात लेखकों पर आक्रामक रूख अपनाया था। इसलिए हिन्दी लेखन के भीतर से तल्ख प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी। लेख में जिन लोगों पर तीखे आरोप थे, उन्होंने रचनात्मक खुलेपन से आक्षेप को स्वीकार करने के स्थान पर आरोप जड़ दिया कि बंगमहिला ने बांग्ला भाषा की रचना प्रवृत्ति को ऊँचा उठाने और उसकी तुलना में हिन्दी भाषा की लेखकीय क्षमता को हीन सिद्ध करने की कोशिश किया है। इस प्रकार हिन्दी क्षेत्र के बहुत सारे लेखकों ने बंगमहिला के व्यक्तिगत जीवन पर चोट की। ‘वैश्योपकारक’ के संपादक श्री शिवचंद्र भरतिया की अपेक्षाकृत संयत प्रतिक्रिया को देखना दिलचस्प होगाः ‘‘वास्तव में बहुत लोग प्रवासिनी जी को स्त्री वेशधारी पुरुष समझेंगे पर वे स्त्री ही हैं।…. नागरी भवन के गत उत्सव में जिस रमणी की कविता पर मोहित हो मीरजापुर के किसी बाबू ने ‘रामायण’ और ‘समालोचक’ के स्वत्वाधिकारी महाशय ने एक ‘सांगानेरी साड़ी’ समर्पण की थी कदाचित ये वही है। सच पूछिए तो ‘प्रवासिनी’ जी ने बंग सहयोगी ‘प्रवासी’ के लेख का चर्वित चर्चा किया है या तो कहिए कि उसी के सूत्रों का एक पक्षपातपूर्ण भाष्य रचा है’’(उद्धृत: बंगमहिला- नारी मुक्ति का संघर्ष;पृ. 22-23)। यह अलग से विचार करने योग्य है कि ‘हिन्दी के ग्रंथकार’ शीर्षक लेख ने लेखकों के बीच फांक सृजित कर दिया था। विरोध के साथ-साथ पक्ष-समर्थन की प्रतिक्रियाएं भी आने लगी थी। इसलिए ‘वैश्योपकारक’ के संपादक को अगले ही अंक में पहली प्रतिक्रिया के भोड़ेपन पर आश्चर्य और अफसोस व्यक्त करना पड़ा। बंगमहिला ने जिस तेवर के साथ लेखन यात्रा शुरू की थी, सन् 1904 से 1917 तक उस तेवर को कायम रखने में सफल रहीं। राजेन्द्र यादव ने सही लिखा है कि ‘‘उन्हें (बंगमहिला को) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का आशीर्वाद प्राप्त था और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ‘सरस्वती’ में उनकी रचनाएं ‘असहमतियों’ के बावजूद प्रकाशित करते थे, विधवा महिला को अनेक अन्य लांछनों के साथ यह भी बार-बार सुनना पड़ा कि ‘कोई पुरुष’ ही ‘बंगमहिला’ नाम से लिख रहा है। क्या इसके पीछे भी कोई पुरुष कुंठा ही है कि आज भी उनकी ‘दुलाईवाली’ कहानी के अलावा अन्य रचनाओं की चर्चा कम होती है… इस साहसी महिला ने जिन नारी प्रश्नों को उठाया, उनसे आज भी भारतीय नारी आक्रांत है’’(हंस, जून 1996, पृ.49)।
बंगमहिला का सम्पूर्ण लेखन विवाह के पश्चात् का है। सन् 1893 में ग्यारह वर्ष की आयु में छपरा (बिहार) निवासी श्री पूर्णचन्द्र डे के साथ उनकी शादी हुई। उनके लेखन में बाल विवाह के प्रति तीखा आक्रोश व्यक्त हुआ है। अपने युग की सामाजिक क्रूरता और जड़तावादी परंपरा के सामने झुकते हुए उन्होंने विवाह का बंधन स्वीकार किया था। बंगमहिला ने मायूस शब्दों में लिखा था कि- ‘हिन्दू ललनाओं को तो बाल्यावस्था में ही अपने माता-पिता से अलग होना पड़ता है।’ बंगमहिला वैवाहिक दायित्व और पतिव्रत धर्म के बारे में नये ढंग से बात करने की कोशिश करती हैं। उनका मानना है कि: ‘‘भारत की ललनाएं जो पति के साथ सभ्य स्त्रियों की भांति व्यवहार नहीं कर सकतीं उसके भी कई कारण हैं। सभ्य देश की स्त्रियाँ विद्या में, बुद्धि में, उम्र में, स्वाधीनता में, खाने में, पहनने में, घूमने-फिरने में यहाँ तक कि प्रत्यंतर ग्रहण करने में भी पति की बराबरी कर सकती हैं….. अशिक्षित हिन्दू नारी, पति भक्ति, पति प्राप्ति को अंतःसलिला फल्गुनदीवत् हृदय में धारणा कर आजीवन पतिव्रत धर्मपालन करेगी और कहेगी ‘तुम लाख अनीति करो तो करो, हमें नेह के नातो बिबाहनों हैं’’(कुसुम संग्रह, पृ. 202)। यहाँ बंगमहिला द्वारा पश्चिमी नारियों के संदर्भ में प्रेम विवाह, पति परिवर्तन और विवाह विच्छेद जैसे प्रश्नों की सकारात्मक प्रस्तुति साहसिक कदम है। हिन्दी नवजागरण में स्त्री प्रश्नों की चुप्पी तथा स्त्री शिक्षा के उत्साह में कमी के बावजूद भी यदि बंगमहिला के यहाँ नारी जागरण के सवाल है तो यह बंगमहिला के प्रगतिशील दृष्टिकोण का परिचायक है। उन्होंने अपने लेखन में नारी अधिकारों की आवाज को स्वर दिया और परंपरागत दृष्टिकोण की भत्र्सना की। उन्होंने लिखा, ‘‘उच्च शिक्षा के लिए कम से कम घर से विद्यालय तक जाने और अध्यापकों से पाठ लेने या उनके पास परीक्षा देने की स्वाधीनता की बड़ी जरूरत है। मेरी समझ में हिन्दू परिवार की कुलवधूओं को ये दोनों अधिकार मिलना बहुत कठिन है’’(कुसुम संग्रह, पृ. 203)। ‘शिक्षा’ और ‘स्वाधीनता’ का अधिकार पाना नारियों के लिए कठिन है। यह बंगमहिला ने अपने व्यक्तिगत जीवन से भी जान लिया था। फलस्वरूप उन्होंने बगावत कर लेखकीय झण्डा संभाला और नारी अधिकार के लिए संघर्ष करने पर उतारू हो गयी। पग पग पर विषमतावादी सामाजिक दबाव का अहसास होने पर भी वे संघर्षपथ पर बढ़ती रही। दुविधा और संघर्ष के साथ बंगमहिला ने अपनी लेखनयात्रा प्रारम्भ की और ‘दुलाईवाली’ (सरस्वती, 1907), ‘कुंभ में छोटी बहू’ (सरस्वती, 1906), ‘मुरला’ (सरस्वती, 1908) जैसी कहानियों के साथ ‘हिन्दी के ग्रंथकार’ (समालोचक, फरवरी, 1904), ‘अंडमान द्वीप के निवासी’ (सरस्वती, 1904), ‘टोड़ा जाति के लोग’ (सरस्वती, 1904) और ‘जोधाबाई’ (सरस्वती, 1905) जैसे लेखों से साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था।
5.
अपने लेखन में प्रारंभिक दौर से ही बंगमहिला ‘पतिसेवा’ (सितम्बर, 1905), ‘गृहचर्या’ (1906), ‘स्त्रियों की शिक्षा’ (1906) तथा ‘हमारे देश की स्त्रियों की दशा’ (1908) जैसी स्त्री संदर्भित टिप्पणियों के कारण नारी प्रवक्ता के रुप में भी ख्यात हो रही थीं। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में एक लेखिका के रूप में बंगमहिला की हैसियत देखने योग्य हैः ‘‘उस समय के समकालीन रचनाकारों में बंगमहिला का महत्व काफी बढ़ चुका था… तब तक बंगमहिला की कहानियाँ और लेख नये वैचारिक आंदोलन और भाषा तथा शिल्प की दृष्टि से युग की मांग के रूप में स्वीकृत हो चुके थे’’(बंगमहिला नारी मुक्ति का संघर्ष, पृ. 26)। साहित्य में उनकी सामयिक प्रतिष्ठा का आकलन इस तथ्य से भी किया जा सकता है कि सन् 1906 में नागरी प्रचारिणी सभा काशी से प्रकाशित ‘वनिता विनोद’ में बाबू श्यामसुन्दर दास ने ठाकुर गदाधर सिंह, पं0 श्याम बिहारी मिश्र, बाबू वेणी प्रसाद, पं0 शुकदेव बिहारी मिश्र, पं0 कालीशंकर व्यास जैसे मानद लेखकों के साथ बंगमहिला को भी शामिल किया था। सन् 1905-06 में मिर्जापुर का साहित्य मण्डल बिखरने लगा था: ‘‘पं0 शुक्ल बंगमहिला से भली-भाँति परिचित थे क्योंकि जब वे मीरजापुर में रहते थे तब प्रतिदिन रमईपट्टी से तिवराने टोला आया करते थे। बंगमहिला का घर उनके रास्ते वाली सड़क सुंदरघाट पर था। शुक्ल जी, बंगमहिला से दो वर्ष छोटे थे और उन्हें दीदी के रुप में मानते थे। इसलिए कभी-कभी वे बंगमहिला के घर भी चले जाते थे और उनसे देर तक साहित्यिक चर्चाएं किया करते थे…. उनके साथ बैठने में शुक्ल जी को भी काफी खुशी होती थी।’’
‘वनिता विनोद’ में बंगमहिला की रचना का संकलन हिन्दी साहित्य परिदृश्य में उनकी पहली बड़ी स्वीकार्यता थी। ‘हिंन्दी के ग्रंथकार’ के बाद सरस्वती में प्रकाशित अण्डमान दीप के निवासी शीर्षक लेख भी चर्चित प्रशंसित हो चुके थे तब तक बंगमहिला भी अपने भाई राजेन्द्र कृष्ण घोष की पढ़ाई के बहाने पिता द्वारा खरीदे गये नये घर कोदई चैकी, वाराणसी में ही रहने लगी थीं और काशी की साहित्य मण्डली से परिचित हो रही थीं। सन् 1901 में पिता श्री राम प्रसन्न घोष की अकस्मात मृत्यु ने बंगमहिला के जीवन को झकझोर कर रख दिया। उन्हें लाचार होकर मीरजापुर लौटना पड़ा। रामप्रसन्न घोष की मृत्यु के बाद नीरदवासिनी घोष भयाकान्त रहने लगीं, पुत्र के अकाल मृत्यु से बंगमहिला का भी संतुलन बिगड़ने लगा। इस हादसे के बाद पारिवारिक शुभचिंतक केदारनाथ पाठक थोड़े समय के लिए बनारस से मिर्जापुर आ गए और मानसिक सांत्वना देकर साहित्य पथ पर चलने की प्रेरणा दी। घर-गृहस्थी के मोर्चे पर इनके साथ इनके पति और माता थी और साहित्यिक मोर्चे के अटूट सहयोगी पं0 केदानाथ पाठक थे। पिता की मृत्यु के बाद पूर्णचन्द्र डे और नवजात शिशु के साथ रहते हुए भी बंगमहिला अव्यवस्थित होकर टूटती जा रही थी। केदारनाथ पाठक इस प्रतिभासम्पन्न कलम को बचाना चाहते थे। तभी नागरी प्रचारिणी सभा, काशी से भारतेन्दु स्मारक ग्रंथ मालिका की योजना बनी और इस योजना के लिए केदारनाथ पाठक ने बंगमहिला की रचनाओं के संकलन का चयन कर लिया। इस योजना को क्रियान्वित करने में पाठक जी का दो उद्देश्य था- पहला तो यह कि अपने संकलन को देखकर बंगमहिला की रचनाशीलता टूटने से बच जाएगी और दूसरा यह कि विभिन्न पत्रिकाओं में बिखरी उनकी रचनाएं एक जगह संकलित हो जाएंगी।’ इस संकलन योजना का प्रस्ताव केदारनाथ पाठक ने जब आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के सामने रखा तो शुक्ल जी को न सिर्फ खुशी हुई बल्कि उन्होंने यह कार्य सहर्ष स्वीकार कर लिया। और इस प्रकार नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा स्वीकृत मालिका के प्रथम पुष्प के रूप में बंगमहिला की रचनाओं का प्रकाशन निश्चित हुआ। पुस्तक के नामकरण पर बहुत माथा-पच्ची हुई। ‘नारी शिक्षा और बंगमहिला’ तथा ‘बंगमहिला के लेख’ जैसे कई अन्य शीर्षकों के बीच आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कुसुम संग्रह नाम प्रस्तावित किया और अंततः कुसुम संग्रह के नाम पर प्रकाश डालते हुए लिखा कि- इस संग्रह के लेख और आख्यायिकाएँ ‘कुसुम’ की तरह कोमल तथा गंध पूर्ण हैं। इनमें जवन की बड़ी मार्मिक और भावव्यंजक रचनाएँ संग्रहीत की जा रही हैं। इनका आघ्राण मन को रससिक्त कर देने वाला तथा नारी समाज का पथ-प्रदर्शन करने वाला है। इसलिए इस संग्रह का नाम ‘कुसुम संग्रह’ ही रखना ठीक है।’’ ‘कुसुम संग्रह’ का प्रकाशन भारतेन्दु स्मारक ग्रंथ मालिका के रूप में हुआ था। इसलिए पुस्तक के संपादक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस संग्रह के बहाने भारतेन्दु हरिश्चन्द के स्मारक आंदोलन को मूर्त कर दिया। ‘कुसुम संग्रह’ की भूमिका में आचार्य शुक्ल ने लिखा- ‘‘आज से पचास वर्ष पहिले हमारी स्थिति बड़ी बेढब हो रही थी। हमारा साहित्य जहाँ का तहाँ टूटा था, इसीबीच में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने उसे उठाकर सशक्त किया और हमारे साथ उसे फिर लगा दिया। जिन-जिन मार्गों पर हमारे विचार जा रहे थे उनकी ओर हमारे साहित्य को बड़ी सफाई के साथ उन्होंने मोड़ दिया। अतः जिस वृक्ष को भारतेन्दु लगा गए उसके पत्र पुष्प से बढ़कर उनका और क्या स्मारक हो सकता है’’(कुसुम संग्रह, पृ. 1)। अर्थात् शुक्ल जी के अनुसार बंगमहिला का लेखन भारतेन्दु के रचनात्मक आंदोलन का ही एक पड़ाव है। इसलिए बंगमहिला की रचनाएं भारतेन्दु स्मारक ग्रंथ मालिका के अंतर्गत अत्यंत प्रासंगिक हैं। कुसुम संग्रह का प्रकाशन बंग महिला के जीवन की दूसरी बड़ी उपलब्धि थी। ‘कुसुम संग्रह’ का प्रकाशन बंगमहिला के लेखकीय महत्व का सूचक भर नहीं है, बल्कि 19वीं शताब्दी के नवजागरण की रचनात्मक समृद्धि का भी सूचक है- जहाँ स्त्री प्रश्नों पर तमाम पिछड़ेपन के बाद भी एक स्त्री की साहित्यिक कृति का इंडियन प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित होना अपने आप में मह