‘ढलती सांझ का सूरज’ उम्मीद, साहस, श्रम, लगन, मकसद, स्वप्न और बड़े सवालों का उपन्यास
किसानों और मजदूरों के खून से सनी सदी
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रविभूषण
अरुंधति राय ने शिकागो में 2019 में हसन अल्ताफ को दिए अपने एक इंटरव्यू में उपन्यास के लिए प्रोडक्ट कहे जाने को भयंकर, डरावना शब्द कहा है – व्हाट ए हॉरिबल वर्ड फॉर ए नावेल – प्रोडक्ट ( पेरिस रिव्यू, 249)। हिंदी में उपन्यास को प्रोडक्ट और डॉक्यूमेंट मानने वाले कई हैं, पर कई ऐसे उपन्यास हैं जो इन दोनों से अलग होकर विशिष्ट और महत्वपूर्ण हैं। उपन्यास के गंभीर-गहन एवं समग्र-संश्लिष्ट पाठ से ही उसका महत्व उजागर होता है। गोदान के कई प्रसंग आज भी आलोचकों से व्यापक विवेचन की मांग करते हैं।
संजीव ने फांस लिखकर किसान को हिंदी उपन्यास के केंद्र में ला खड़ा किया था और अब मधु कांकरिया ने अपने नवीनतम उपन्यास ढलती सांझ का सूरज के जरिए किसान के चेहरे में सभ्यता के चेहरे को देखने की एक सार्थक कोशिश की है। इस उपन्यास का प्रकाशन एक बड़ी परिघटना इसलिए है कि इसने तीन विमर्शों से अलग समय, सभ्यता और संस्कृति विमर्श को हमारे समक्ष पहली बार कृषक जीवन और कृषि सभ्यता के साथ उपस्थित कर दिया है। हिंदी समीक्षा में जैसा चलन है इसकी पूरी संभावना है कि इस उपन्यास को किसानों की आत्महत्या को लेकर लिखे जाने वाले एक और उपन्यास के रूप में देखा जाए क्योंकि महाराष्ट्र के मराठवाड़ा संभाग के 8 जिलों में से एक जालना जिले के परातुल, बाबुलतारा, बलखड़े गांवों में जिन किसानों ने आत्महत्या की, उसके बारे में यहां काफी कुछ कहा गया है। जालना जिला के कुछ गांव में आत्महत्या कर चुके किसानों के परिवार के लिए कुछ करने का जज्बा लेकर वहां जाने वाले तीन लड़कों के ग्रुप में उपन्यासकार का पुत्र आदित्य कांकरिया भी शामिल थे। बार-बार के अपने आग्रह के कारण लेखिका मराठवाड़ा के उन घरों में गई जहां किसानों ने आत्महत्या की थी। हिंदी कथा आलोचकों को इधर ध्यान देना चाहिए कि मीडिया के लिए मुख्य धारा के लिए जो मुद्दा नहीं है, उसे कई हिंदी कथाकारों ने अपना मुद्दा बना डाला है। स्वाभाविक है कि इससे उपन्यास का विषय और ढांचा बदलेगा, औपन्यासिक संरचना एवं प्रविधि भी बदलेगी।
ढलती सांझ का सूरज दुबके बैठे सत्य को बाहर लाने के लिए लिखा गया है- पी साईनाथ से प्रेरित जो मराठवाड़ा में घूम घूम कर आत्महत्या कर चुके किसानों के घर जा-जाकर उनकी सच्चाई और उसके लिए जिम्मेदार सरकारी नीतियों पर सवाल उठा रहे थे, मधु कांकरिया इस उपन्यास के कुछ पात्रों- दिलीप उद्भव की पत्नी शोभा, बबन गिरी की पत्नी फूलाबाई और अरुण गिरी के यहां भी गई है। संभवतः वे हिंदी की अकेली सक्रियतावादी (एक्टिविस्ट) कथाकार हैं। क्या हमें एक कथाकार और एक एक्टिविस्ट कथाकार के बीच के अंतर को नहीं देखना चाहिए? घटना विशेष को ऊपरी और सतही स्तर पर देखने से उस घटना चक्र को नहीं देखा जा सकता जिसे आज देखने की कहीं अधिक जरूरत है। किसानों की आत्महत्या का सिलसिला क्यों चला? कब से चला? आवश्यक नहीं है कि हम इसके लिए अक्टूबर 2010 में प्रसिद्ध राज सिंह का एस एस आर एन इलेक्ट्रॉनिक जनरल में प्रकाशित हिस्ट्री ऑफ फार्मर सुसाइड इन इंडिया या पी सी बोध की 2020 में रुटलेज से प्रकाशित फार्मर सुसाइड इन इंडिया : ए पॉलिसी मैगलिमेंसी या पी साईनाथ को विस्तार से पढ़ें। मधु कांकरिया के सामने 90 के दशक का भारत है जहां से चीजें बदलने लगी थीं। 90 के दशक के बाद से खुला बाजार क्या आया बाजार का चरित्र ही बिगड़ गया। गांव का ढांचा ही चरमरा गया। इसी दशक ने किसान को इज्जत से जिल्लत की दुनिया में पहुंचा दिया। ग्रामीण संस्कृति चौपट हो गई। भारतीय ग्रामीण संस्कृति इसके पहले से बदल रही थी पर नव उदारवादी अर्थव्यवस्था ने, नरसिंह राव-मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों ने जो धक्का दिया, उससे लगभग सब कुछ गिर पड़ा, ढ़ह गया। उपन्यासकार को अर्थशास्त्र और राजनीति की अच्छी समझ है। वे कृषि संकट एवं कृषक संकट को व्यापक रूप-अर्थों में देखती हैं। संकट आज सिर्फ किसान पर नहीं है, वरन पूरी सभ्यता पर है। यह मरती हुई सभ्यता का आपातकाल है। आज किसान गिर रहा है, कल पूरा देश गिरेगा। मधु कांकरिया गहरी सामाजिक सांस्कृतिक कन्सर्न की कथाकार हैं। उनकी चिंता में किसान के साथ-साथ वह पूरी सभ्यता है जो नष्ट हो रही है। यह सभ्यता कृषि सभ्यता है। उपन्यासकार का यथार्थ बोध और जीवन बोध उनके मूल्य बोध से जुड़ा है जो निश्चित रूप से भारतीय मूल्य बोध है । जो भारतीय मूल्य को हिंदू मूल्य में रिड्यूस करते हैं, वे शायद यही नहीं समझ सकेंगे कि उपन्यास में महान यूनानी दार्शनिक और गणितज्ञ पाइथागोरस (ईसा पूर्व 570-495) का लगभग 2500 वर्ष पहले सत्य की खोज में भारत आने, महान रूसी लेखक टॉलस्टॉय की विश्व प्रसिद्ध कहानी दो गज जमीन, प्रसिद्ध आयरिश कवि लेखक ऑस्कर वाइल्ड (1854-1900) की 1888 में प्रकाशित बच्चों के लिए लिखी गई कहानी हैप्पी प्रिंस और 1952 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित जर्मन धर्म विज्ञानी, ब्रह्म विज्ञान, मानववादी, दार्शनिक, चिकित्सक डॉक्टर अल्बर्ट श्वित्ज़र (1875 -1965) का उल्लेख क्यों है ? थोड़े में इन सब पर विचार करना जरूरी है। आई के एस (इंडियन नॉलेज सिस्टम) के अध्यक्ष प्रोफेसर जाएसन ने न्यूमीडियन लैटिन लेखक, रोमन दार्शनिक, विद्वान अपुलियस (124-170) के दावे के आधार पर सिकंदर के भारत आगमन के सौ-दो सौ वर्ष पहले पाइथागोरस के भारत आने की बात कही है। जिस प्रमेय के कारण पाइथागोरस विश्व विख्यात हैं, कहा जाता है कि उसकी नींव ईसा पूर्व पांचवी शताब्दी के आरंभ या चौथी शताब्दी के अंत में सूर्य सिद्धांत (भारतीय गणित-ज्योतिष या खगोल विज्ञान की 14 अध्यायों की पुस्तक) और भारत के प्राचीन गणितज्ञ आपस्तम्ब के शुल्ब सूत्र जैसी पुस्तकों नहीं रखी थी। शुल्बसूत्र स्रोत कर्मों से संबंधित सूत्र ग्रंथ है – भारतीय ज्यामिति का प्राचीनतम ग्रंथ जिसका रचना समय ईसा पूर्व सैकड़ों वर्ष पहले माना जाता है। अल्बर्ट वर्क और कईयों का यह मानना है कि पाइथागोरस भारत आ कर रहे थे और यहां उन्होंने भारतीय दर्शन और विज्ञान का अध्ययन किया था। मैनली पामर की ऑडियोबुक है द लाइफ एंड फिलॉसफी ऑफ पाइथागोरस। पाइथागोरस पर यह सब लिखने की जरूरत इसलिए थी कि हम आज भी जिन भारतीय मूल्यों की बात करते हैं, उन्हें संघ और भाजपाइयों द्वारा विकृत कर दिए जाने के कारण सदैव के लिए त्याग नहीं सकते। ढलती सांझ का सूरज में भारतीय और पश्चिमी जीवन मूल्यों की जो बात की गई है, उन पर विस्तार से यहां विचार नहीं किया जा सकता। उपन्यासकार ने क्यों यूं ही टालस्टाय की कहानी दो गज जमीन, ऑस्कर वाइल्ड की कहानी हैप्पी प्रिंस और डॉक्टर श्वेत्ज़र की चर्चा की है या इसके पीछे आज के भोगवादी जीवन मूल्य का उसके द्वारा किया गया निषेध है? अल्बर्ट श्वेतजर को नोबेल पुरस्कार रेवरेंस फॉर लाइफ के लिए मिला था। उन्होंने सिविलाइजेशन एंड एथिक्स में लिखा था कि जीवन का सम्मान आचार विचार के अलावा और कुछ नहीं है। उपन्यासकार का सवाल है कि क्या सभ्यता छीन-छीन कर आगे बढ़ती है?इन दिनों हिंदी में जिस स्त्री, दलित, आदिवासी विमर्श की धूम मची है, क्या इन सब का संकट कमोबेश सभ्यता और संस्कृति के संकट से जुड़ा नहीं है? टालस्टाय की कहानी दो गज जमीन का पखोम अपने लालच के कारण मर जाता है। यह कहानी दो बहनों की ना हो कर दो विचारों की है। इस उपन्यास में उपन्यासकार का चिंतन पक्ष प्रमुख है। यह चिंतन सभ्यता, संस्कृति, कृषि, उद्योग, भोग विलास, भारतीय और पश्चिमी जीवन मूल्य आदि से संबंधित है। वहां प्रेम और हारमोंस के उबाल में अंतर है। उपन्यास का प्रमुख पात्र अविनाश स्विट्जरलैंड के जिस बाजल शहर में रहता था, उस बाजल शहर को स्मार्ट सिटी की मिसाल कहा जाता है। अविनाश उसे छोड़कर 20 वर्ष बाद भारत अपनी मां से मिलने आता है। उसके लिए बाजल नहीं, अपना देश प्रमुख है और क्या विडंबना है कि हमारे प्रधानमंत्री भारत में स्मार्ट सिटी बनाने में लगे हैं।
ढलती सांझ का सूरज का अविनाश 1989 में वैभव-लालसा में भारत से स्विट्जरलैंड जाता है और 20 वर्ष बाद नवंबर 2010 में अपनी मां से मिलने भारत लौटता है। उसके पास सब कुछ है। पत्नी नैंसी है और एक बिटिया है। सुख समृद्धि सब है। पर वह अशांत है। यह आंतरिक अशांति है। सफलता से वह संतुष्ट नहीं है। लेखिका के लिए जीवन में सार्थकता महत्वपूर्ण है ना की सफलता। उसके अनुसार सफलता धोखे के सिवा और कुछ नहीं है और अमीरी के एवज में जो मिलता है, हमेशा के लिए ठहरता नहीं वह अंगुली में।
1989 के बाद जिस उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण का आगमन हुआ, वह भारत के लिए कितना लाभदायक था, विशेष तौर से किसानों के लिए या नुकसानदेह, इसे आज हम देख रहे हैं 1989 से 2010 के अक्टूबर तक अविनाश स्विट्जरलैंड में रहता है। उसका वापस लौटना और इस अवधि में और उसके बाद लाखों भारतीय युवकों-युवतियों का अमेरिका और यूरोपीय देशों की नागरिकता ग्रहण कर वहां बस जाना एक बड़ी घटना है। मां को खोजने के क्रम में अविनाश चांदीवली से लेकर उन गांवों में जाता है जहां उनकी मां रही थी। मां कहीं नहीं मिलती। क्या उपन्यास में मां की खोज भारत की यहां जिसे सब भारत माता कहते हैं, उसकी खोज नहीं है ? कहां है भारत ? वह बोधगया में है या कन्याकुमारी में? क्या वह उन गांव में है जहां किसान आत्महत्या कर रहे हैं? ग्रामवासिनी भारत का आंचल आजादी के बाद ही मैला हो चुका था। क्या वह तार-तार नहीं हो गया है? क्या आज वह वस्त्रविहीन है? अविनाश की मां दिवंगत हो चुकी है। ढलती सांझ का सूरज अविनाश और उसकी मां या जालना जिले के कुछ गांव में जिन किसानों ने आत्महत्या की उनकी निजी पारिवारिक कथा भर नहीं है। यह देशेर कथा भी है। बार-बार अविनाश के बुलाने पर भी मां स्विट्जरलैंड नहीं गई। बोली – यहां जिंदगी को मेरी जरूरत है। अविनाश नाम दादा का रखा हुआ है। दादा अपनी तरह के थे। कहते थे – पैर पटक-पटक कर मत चलो, धरती को कष्ट होगा। दादा को धरती की चिंता थी। आज धरती को, पृथ्वी को मां कहने वाले कम हैं। उनका दोहन हो रहा है। धरती बांझ हो रही है। बाप दादों को छोड़कर एकल परिवार में रहा जा रहा है। अविनाश अर्थ में जीवन को नहीं, जीवन में अर्थ को ढूंढता है। पत्नी नेंसी और बेटी स्नेहा से, सीमित और एकल परिवार से निकलकर एक बृहत्तर परिवार ने जीता है। वह अपने को बदल कर उन गांव को बदलता है जहां किसानों ने आत्महत्या की। आज का भारत जिस दिशा में जा रहा है, जिस रूप में बदला जा रहा है, उपन्यास उसके विरुद्ध है। भारत लेखिका की दृष्टि में ठीक ही अल्प और अति का मारा देश है जहां जिंदगी और गंदगी साथ साथ चलती है। उनके अनुसार जिंदगी वही जिसमें जिंदगी ज्यादा हो, सजावट कम। धूप और हवा ज्यादा हो, पर्दे कम।
मधु कांकरिया के पास एक साथ अनुभूतियां, संवेदनाएं, कल्पनाएं, विचार और जीवन दृष्टि है। वह सब कुछ है जिसके बिना कोई उपन्यास व कृति सफल, सार्थक, विशिष्ट एवं उल्लेखनीय नहीं हो सकती। दो खंडों व 28 अध्याय में विभाजित इस उपन्यास में उपन्यासकार की आज के समय और जीवन को लेकर कई चिंताएं, बेचैनियां और सवाल हैं। वे केवल किसानों के मरने की नहीं हम सबके भीतर के किसान के भी मरने की बात करती हैं। पहली बार किसी उपन्यास में हम सबके भीतर के किसान को देखा-समझा है। किसान खेत में बीज डालता है, उत्पादन करता है। अन्न के बीज के साथ ही विचार बीज और मूल्य बीज भी हैं जो नष्ट हो रहे हैं। अविनाश आरंभ में आत्मालाप में है, स्वप्न रहित है। वहां केवल स्मृतियां हैं। बाद में वह बदलता है। किसान की मौत को लेखिका ने बड़े फलक पर, व्यापार संदर्भ में देखा है। प्राइवेट बैंक, सरकारी बैंक, महाजन सब के चंगुल में फंसा है किसान। कीटनाशक दवा खाकर, सल्फास खाकर, गले में फंदा लगाकर आत्महत्या कर रहा है। शोभा के पति दिलीप उद्रराव, आनंद कामडे, महिला किसान सुधामणि, अरुण गिरी, काशी विश्वेश्वर राव सब ने हत्या की। कर्ज न चुकाने के कारण सब के मकान पर नोटिस चिपका दी गई। इज्जत मिटी। किसानों की आत्महत्या के लिए जिम्मेदार बाजार की व्यवस्था, तंत्र और सरकारी नीतियां हैं। बाजार आबाद, किसान बर्बाद। शेतकरी व्यापार महाजनों, कंपनियों और बैंकों के खुले जबड़े में फंसा हुआ है । अविनाश को गोविंद जी किसानों के बारे में बताते हैं। उपन्यास में कपास, सोयाबीन, रबी और खरीफ की फसल, सिंचाई की कमी, जल संग्रह, खाद, मिट्टी की ऊपरी परत, कीटनाशक दवाएं, बैल, खेत, ट्रैक्टर, खेत का रकबा, कैश क्रॉप, कपास, मिलों की दादागिरी, रासायनिक खेती, देसी बीज, सरकारी पैकेज, कॉरपोरेट उन्मुख सरकार सत्ता व्यवस्था आदि सब के बारे में मधु जैसा बताती हैं, उन सब पर कथा आलोचकों का ध्यान जाना चाहिए। मारिया की कथा के अलावा कुछ और कथाएं भी हैं। कानून, लोकतंत्र राजनीति के साथ कला जगत, रंग जगत, सिने जगत के कई प्रमुख पात्रों का उल्लेख अकारण नहीं है। जिस सरकार ने काशी विश्वेश्वर राव को प्रोग्रेसिव फार्मर ऑफ द ईयर का पुरस्कार दिया, उस किसान ने भी आत्महत्या की। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार भारत में महाराष्ट्र में सर्वाधिक किसानों ने आत्महत्या की। 2021 में मराठवाड़ा में 711 किसानों ने आत्महत्या की थी जिसमें जालना के 75 किसान थे। पर किसान की मौत एक संख्या है, मीडिया के लिए एक दृश्य है। लेखिका ने ठीक ही इस सदी के इतिहास को किसानों और मजदूरों के खून से सना कहा है। देश का हाल यह है कि कानून मूकदर्शक है, न्याय भ्रम है और सच्चाई कोमा में है। पचास से अधिक ही उपन्यास में ऐसे वाक्य हैं जो लगभग सूक्तियों की तरह हैं। अविनाश अंतर्द्वंद्व से गुजरता है। उपन्यास में उद्यम पर बल है। अविनाश अपने को और गांव को बदलने की प्रक्रिया में है। किसान और पंचायत उसके साथ हैं, जिससे सड़क बनती है, तालाब की खुदाई होती है, नहर का निर्माण होता है किसान क्लब खुलता है, फॉर्मर्स बेसिक ट्रेनिंग सेंटर खुलता है, उमंग क्लब खुलता है, महिलाओं के लिए उड़न संस्था बनती है। प्रशांत को किसान उच्च प्रशिक्षण केंद्र खोलने की इच्छा है। उपन्यास से सरकारी संस्थान गायब हैं।
ढलती सांझ का सूरज के इकहरे पाठ के खतरे हैं। इसकी अधिक संभावना है कि भारतीयता और उसके प्रति लेखिका के आग्रह और किसान विकास से जुड़ी कई संस्थानों के निर्माण में आदर्शवाद ढूंढा जाए। ढूंढा जाना चाहिए पर कई वर्षों बाद हिंदी में बड़े सवालों को लेकर भी इस उपन्यास की रचना हुई है – समाज को न मरने से बचाने के लिए सवाल करना जरूरी है। लेखिका से सवाल किए जाने चाहिए पर वे बड़े सवाल हैं। एक सवाल में कई सवाल उपन्यास में गुंथे हुए हैं।
ढलती सांझ का सूरज उम्मीद, साहस, श्रम, लगन, मकसद, स्वप्न और बड़े सवालों का उपन्यास है जो ढलती सांझ के सूरज को बचाने के लिए लिखा गया है। रवि, बद्री, भीमा, तरुण, रामेश्वर आदि जो उम्र से पहले ही ढ़ल रहे हैं ‘ढलती सांझ के सूरज’ हैं। अगर यह नहीं बचे तो हमारी सारी प्रगति और आधुनिकता की उड़ानें, यह संचार क्रांति, उच्च प्रौद्योगिकी, ये फ्लाईओवर, ये भव्य माल, हाईवे, बड़े-बड़े बांध, गगनचुंबी अट्टालिकाएं सब व्यर्थ है। और इस उपन्यास के अद्भुत भाषा! उसके लिए कम से कम इतना ही लिखा जाना चाहिए, जो यहां संभव नहीं है।
( लेखक वरिष्ठ आलोचक एवं सामाजिक, राजनीतिक चिंतक हैं,