Tuesday, May 14, 2024
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क्या आप भानुमति जी की त्यागमयी कथा से परिचित हैं?

स्त्री दर्पण ने पिछले दिनों हिंदी के महान साहित्यकारों की पत्नियों पर एक शृंखला चलाई थी।दरअसल हमारे समाज में स्त्रियों के योगदान को पूरी तरह रेखांकित नहीं किया जाता है ।इसलिए उनके त्याग तपस्या की कहांनी को बार-बार बताए जाने की जरूरत है ।महान शास्त्रीय गायक कुमार गंधर्व की जन्मशती के मौके पर उनकी पहली पत्नी भानुमति के बारे में हम आप सबको बताने जा रहे हैं। आपको जानकर प्रसन्नता होगी कि हिंदी के प्रसिद्ध लेखक एवं कवि ध्रुव शुक्ल ने पद्मविभूषण से सम्मानित कुमार गंधर्व की एक बहुत ही महत्वपूर्ण जीवनी लिखी है जिसे रजा फाउंडेशन में प्रकाशित किया है। कल इस जीवनी पर संगीत विशेषज्ञ राजीव वोहरा और उदयन बाजपेई ने ध्रुव शुक्ल के साथ बड़ी मानीखेज़ बातचीत की । आज हम उस पुस्तक के कुछ अंश यहां पेश कर रहे हैं जिससे आपको कुमार गंधर्व की पहली पत्नी भानुमति मार्मिक प्रसंग के बारे में कुछ नई जानकारी मिल जाएगी और इस अनोखे व्यक्तित्व के बारे में आपको जानकर बड़ा अच्छा लगेगा । कुमार जी बी आर देवधर के शिष्य थे और भानुमति कुमार जी से संगीत सीखती थी।1946 में दोनों का प्रेम विवाह हुआ।कुमार जी को तपेदिक हुआ जो उन दिनों ला इलाज बीमारी थी।डॉक्टरों ने कह दिया था कि अब कुमार जी नहीं गा सकेंगे लेकिन भानुमति ने उनकी ऐसी सेवा की कि कुमार जी गाने लगे और 1951में उनका कार्यक्रम हुआ। लेकिन भानुमति अपने दूसरे पुत्र को जन्म देते समय परलोक सिधार गईं।
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जब कुमार गन्धर्व ३० जनवरी १९४८ को देवास में बस जाने के लिए आए तब वे अकेले नहीं थे। भानुमति कौंस उनकी पत्नी के रूप में साथ आयी थीं। उनके साथ कृष्णन नम्बियार भी आए जो कण्णा कहलाते थे। भानुमति कराची के कौंस परिवार की थीं और कण्णा उस परिवार के निकट थे। माँ के अभाव में कृष्णा ने ही भानुमति को पाल-पोस कर बड़ा किया। भानुमति कुमार जी की उमर की थीं। शायद कुछ महीने बड़ी थी। उनका जन्म कराची में हुआ।
कौंस परिवार कराची में व्यापार करता था। भानुमति के पिता को संगीत से गहरा लगाव था। उनके बड़े भाई दत्तोपन्त तबला बजाते थे। भानुमति भी गायिका बनना चाहती थीं। माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण वे संगीत की तालीम के लिए सत्रह बरस की उमर में पूना आ गई। पूना में संगीत सीखते हुए भावगीत गायक गजाननराव वाटवे ने सलाह दी कि उन्हें संगीत की अच्छी तालीम के लिए देवधर गुरु जी के पास बम्बई जाना चाहिए। वे १९४३ में बम्बई आ गयीं। उन्होंने अपनी स्कूल शिक्षा पूरी करने के लिए सेण्ट जेवियर कॉलेज और संगीत सीखने के लिए गुरु देवधर जी के स्कूल ऑफ़ इण्डियन म्यूज़िक में एडमिशन लिया।
भानुमति का कुलीन रूप सबको आकर्षित करता था। वे कॉलेज में पढ़ाई के साथ बेडमिण्टन भी खेलतीं और कुमार गन्धर्व से गाना भी सीखने लगीं। स्वर का लगाव आहिस्ता-आहिस्ता कुमार के प्रति लगाव में भी बदलने लगा। उन्हें सिखाते समय कुमार गन्धर्व का मन खूब लगता था। कुमार ने उन्हें मशहूर संगीतकार अंजनीबाई मालपेकर का सान्निध्य भी ग्रहण करवाया। कुमार जी से ब्याह के पहले भानुमति के गाये भावगीतों का रिकॉर्ड भी बन चुका था।
१९४७ ईसवी में कुमार गन्धर्व के फेफड़ों में तपेदिक ने अपना घर बना लिया था। जिस दिन वे देवास में अपना घर खोज रहे थे उसी
दिन उन्हें महात्मा गाँधी की हत्या की खबर मिली। तपेदिक का इलाज दुर्लभ था और कुमार गन्धर्व के हितैषी भी मन ही मन यह मान बैठे कि कुमार अब शायद गा न पाएँगे। पर कुमार जी का
मन शान्त था। वे देवास में जीने की जगह खोज रहे थे।उन्हें एक मामूली सा लाल बँगला किराये पर मिल ही गया।
छोटी-सी टेकरी पर बना था जहाँ नीम के वृक्ष पर एक टेलर बर्ड
अपना घोंसला बुन रही थी। कुमार जी के अनन्य मित्र राहुल बारपुते इस बंगले को का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि इसकी नीरवता को अहाते में खड़े नीम के वृक्ष पर आने वाली चिड़ियाँ अपनी चहचहाहट से भंग करती रहती थीं। मुम्बई-आगरा रोड के किनारे पर बने इस घर के दूसरी तरफ़ देवास शहर फैला हुआ था। राहुल बारपुते की पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतिष्ठा थी। वे अक्सर कुमार जी से मि आया करते थे।
प्रखर समाजवादी नेता लाडली मोहन निगम १९५०-५२ को में किसी दीर्घ संघर्ष के दौरान देवास में अटके हुए थे। कुमार को याद करते हुए उन्होंने एक वाकये का ज़िक्र किया है। वे एक बार आगरा-बॉम्बे रोड के निर्जन पहाड़ी इलाक़े से गुजर रहे थे। उन्हें मन को प्रफुल्लित करने वाले स्वर सुनायी दिये और वे बरबस उन स्वरो की ओर खिंचे चले गये। वे पहाड़ी पर बनी उस बँगलेनुमा झोंपड़ीके क़रीब पहुँच गये जहाँ से ये स्वर किसी निर्झर की तरह बह रहे थे। वे सुनसान बरामदे के पास ठिठक कर उस आवाज़ में कुछ देर भीगते रहे।
सहसा संगीत रुका और भीतर से खाँसने की आवाज़ आयी। एक छाया बाहर आयी और उसने परिचय पूछा। उन्होंने अपना परिचय देकर वहाँ कुछ देर बैठने की इजाजत माँगी पर उन्हें आदरपूर्वक भीतर आने का आमन्त्रण मिला। भीतर जाकर देखा कि एक जीर्ण-काया दीवार के सहारे लेटी हुई है और उसके पाँवों के पास अद्वितीय सुन्दर स्त्री तानपूरा लिये गा रही है। पाँच-सात मिनट बीतने पर रुग्ण काया के चेहरे पर कुछ झुंझलाहट प्रकट हुई और उठते हुए क्षीण आवाज में कहा कि ऐसे नहीं, ऐसे गाओ।
अभी स्वर फूट ही रहा था कि एक मिनट बाद ही कुमार जी को जोर की खाँसी आने लगी और ढेर सारा बलगम भी। गाती हुई स्त्री ने तानपूरा रख कर अपनी अंजूरी में सारा बलगम ले लिया। उसे फेंक कर अपने हाथ साफ़ किये, सिरहाने को ठीक किया और मुझसे जाने का आग्रह किया। मुझे दरवाजे तक छोड़ने भी आयी। मैंने अनुमति चाही कि अगर फिर आना चाहूँ तो क्या आ सकता हूँ। मुझे अनुमति मिल गयी।
लाडली मोहन निगम की कुमार गन्धर्व और भानुमति से यह पहली मुलाक़ात थी। वे अक्सर लाल बँगला जाने लगे। कुछ दिनों बाद उज्जैन और आसपास के विद्वान्, प्रोफ़ेसर, लेखक भी कुमार जी के करीब आने लगे। उस समय प्रोफ़ेसर श्याम परमार भी कुमार जी के घर आते थे। वे उन दिनों मालवा के लोकगीतों पर शोध कर रहे थे। कुमार गन्धर्व उनसे मालवा के लोकगीतों पर बहुत सुलझी हुई और परिष्कृत बातचीत किया करते थे।
एक दिन लाडली मोहन ने कुमार जी से पूछा कि आपके बीमार हो जाने से संगीत को बड़ा नुक़सान हुआ होगा। तब कुमार गन्धर्व ने उनसे कहा कि अगर मैं लगातार गाता ही रहता और बीमार न पड़ता तो शायद मैं भौतिक दुनिया में ही विचरण करता रहता और संगीत के विषय में मुझे सोचने का मौक़ा ही न मिलता। पाँच-सात वर्ष की इस बीमारी ने मुझे सोचने और संगीत को समझने की क्षमता दी है। मेरी निश्चित राय है कि भारतीय संगीत का उद्गम लोकसंगीत है। उन्होंने कहा कि- मैं नाथजोगी परम्परा और मालवा सहित देश के अन्य अंचलों के लोकसंगीत का अध्ययन कर रहा हूँ। मेरा विश्वास
है कि एक दिन संगीत को उसकी सही परिभाषा देने के लिए सक्षम होऊँगा। कुमार जी बोले कि इतना सब कुछ पा लेने के बाद भी तुम मेरी बीमारी से दुःखी हो। मैंने इस बीमारी में जो पाया है, अगर मैं लगातार गाता ही रहता तो भी उतनी दौलत नहीं पाता जितनी कि आज मैंने पायी है।
एक दिन इत्तफाक से जब कुमार जी और निगम जी ही लाल बंगले में थे तब कुमार जी कहने लगे-तुमने देखा है कि भानु ने मेरी कितनी सेवा की है। उसने मेरे बलगम को अपने हाथों में लिया है। जब कुमार मैंने उससे कहा कि मैं बचूँगा नहीं, मेरी बीमारी असाध्य है तब यह मुस्कुराते हुए बोली कि कुमार तुम अपनी फ़िक्र करो, तुम स्वस्थ हो जाओ, बस। जहाँ तक मेरा सवाल है, मुझे तो यह रोग होगा ही नहीं क्योंकि मैं तुम्हारे साथ रहते-रहते इम्यून हो गयी हूँ। उस दिन कुमार जी भावुक हो उठे और उन्होंने किताबों की तहों के बीच में लिफ़ाफ़े में रखी तस्वीर निकाल कर दिखायी जो उनके साथ भानुमति के साथ शादी की थी। जिसमें कुमार गन्धर्व एक नरकंकाल की तरह लग रहे थे। जैसे हड्डियों के ढाँचे पर किसी ने शेरवानी पहना दी हो और उसके क़रीब अद्वितीय सुन्दर कन्या खड़ी हो।
बम्बई में कुमार गन्धर्व का भानुमति से विवाह अत्यन्त सादगीपूर्ण हुआ। उनके मित्र पण्ढरीनाथ कोल्हापुरे याद करते हैं कि-ब्याह में शामिल होने के लिए अपने सभी पच्चीस दोस्तों के लिए कुमार जी ने सिल्क के कुरते सिलवाये थे। उनकी शादी में देवधर गुरु जी के अलावा रामकृष्ण बोन्द्रे तो शामिल हुए ही, इस अवसर पर विलायत हुसैन ख़ाँ और गंगूबाई हंगल का गायन भी हुआ। बी. जी. जोग ने वायलिन बजाया। विलायत हुसैन खाँ साहब ने शादी पर होने तीन बन्दिशें सुनायीं। कुमार गन्धर्व ने राग कौशी गाया। ‘सुधर का पायो’– ख़याल का यह मुखड़ा गाकर अपनी शादी की तस्वीर में रंग भरा।
लाडली मोहन निगम उस तस्वीर को देखकर हतप्रभ से रह गये और सोचने लगे कि जिसके लिए डॉक्टरों ने साल-दो साल की माह दी हो, कोई लड़की उससे शादी कैसे कबूल कर सकती है। एक दिन जब उन्होंने भानुमति से ही पूछा तो वे बोली कि लाडली, संगीत की दुनिया को यह व्यक्ति बहुत कुछ देगा। अगर ये बच जाए तो मेरे लिए इससे बड़ी चीज़ और क्या हो सकती है।
कुमार जी की काल से लड़ने की शक्ति, उनकी जिजीविषा और भानुमति की आकांक्षा ने मिल कर उस संगीत को बचा लिया जिसे हम आधी सदी तक सुनते रहे। कभी लाडली मोहन निगम से कुमार गन्धर्व ने कहा था कि मैं इस अद्वितीय स्त्री को कर्ज में छोड़ कर नहीं मरना चाहता। जिसने अपना सर्वस्व मुझे दिया है जब तक उसके भविष्य और साये का इन्तज़ाम न कर लूँ तब तक तो मुझे जिन्दा रहना ही होगा।
भानुमति ने कुमार जी की ख़ातिर एक छोटे-से कस्बे देवास में रहना कबूल किया। यहाँ की आबोहवा तपेदिक के मरीजों के अनुकूल थी। उन्होंने एक बालिका स्कूल में अध्यापिका की नौकरी कर ली। वे हेड मास्टरनी बन गयीं। आमदनी सीमित थी। जब लाल बँगले की टेकरी के आसपास भीड़-भाड़ बढ़ने लगी तब कुमार परिवार ने देवास शहर से कुछ दूर जंगल के सुनसान के बीच नया घर खोजा। किराया भी कम था और आबोहवा भी अनुकूल थी।
कुमार गन्धर्व और उनके परिवार की हालत को निकट से जान कर राहुल बारपुते आँखों देखा हाल सुनाते हुए कहते हैं कि-मास्टरी की नौकरी मिल जाने से भानुमति रोज़ स्कूल चली जातीं। तपेदिक के कारण कुमार जी चुपचाप रुग्ण शैया पर लेटे रहते। इस चुप्पी के बीच कण्णा जी घर का काम-काज सँभाले रहते। डॉक्टरों ने हिदायत दी थी कि कम-से-कम पाँच साल तक कुमार गन्धर्व को गाना वर्जित रहेगा। इस बीमारी की हालत में जो लोग कुमार जी की मदद करते
हुए मन से टूटने लगते तो कुमार जी ही उनको ढाढ़स बँधाया करते। वे अपनी पत्नी से कहते कि – भानु, तुम चिन्ता मत करो, जब तक मैं गाना नहीं करूँगा, मैं नहीं मरूँगा। उन दिनों तपेदिक का पूरा इलाज खोजा नहीं जा सका था। कुमार गन्धर्व अपने बँगले में अक्सर झुलने लगते अवसाद के परदों को तुरन्त हटा दिया करते।
अवसाद के परदों को धीरज से हटाते हटाते दुःख के दिन बीत गये और कुमार गन्धर्व फिर गाने लगे। जैसे उनका दूसरा जन्म हुआ हो। उन्हीं दिनों भारत स्वतन्त्र होकर अपने दूसरे जन्म को सँवार रहा था। देवास के पड़ोस में इतिहास प्रसिद्ध नगरी माण्डवगढ़ है जहाँ कभी रूपमति और बाजबहादुर के प्रेम में डूबे स्वर गूँजते थे। देश के पहले प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू वहाँ आए तो स्वस्थ होने के बाद कुमार गन्धर्व की पहली सार्वजनिक संगीतसभा प्रधानमन्त्री की उपस्थिति में माण्डू में ही हुई।
१९५२ ईसवी में अनेक मित्रों के सहयोग से उज्जैन के महाराज बाड़ा हाई स्कूल में कुमार गन्धर्व की एक और गायन सभा आयोजित हुई। जो आत्मीय जन उनकी राज़ी ख़ुशी को लेकर कई वर्षों से चिन्ता में डूबे रहे उनका मन खिल उठा। वे एक नये कुमार गन्धर्व को अपने बीच देख पा रहे थे। वे जो सुन रहे थे वह बिल्कुल नया लग रहा था। वे उस अभिनव गायन को आत्मसात करने के लिए बेचैन थे। जबकि कुमार गन्धर्व अपने संगीत में ख़ुद अपने आप से लोहा ले रहे थे।
यूँ शोध और संगीत के संवर्धन के लिए १९५९ ईसवी में देवास में हो कुमार गन्धर्व अकादमी भी स्थापित हुई। अकादमी का कोई बोर्ड भी नहीं लगाया गया। वह रजिस्टर्ड भी नहीं हुई। बस उसकी कल्पना मन में थी। ख़त-ओ-किताबत के लिए लेटरहेड छपवा लिया था।
कुमार गन्धर्व देवास में अपना भानुकुल बसाना चाहते थे। यहाँ विंध्याचल पर्वत श्रेणी के एक ऊँचे शिखर पर भगवती चामुण्डा का
प्राचीन मन्दिर है। पैसेज टू इण्डिया’ पुस्तक के प्रसिद्ध लेखक ई. एम. फास्टर बीसवीं सदी के दूसरे दशक में देवास के महाराज तुकोजीराव तृतीय के निजी सचिव रहे। उन्होंने इस पर्वत शिखर को ‘द हिल ऑफ़ ‘देवी’ कहा और इसी नाम से एक पुस्तक भी लिखी। इसी मन्दिर की तलहटी में कुमार गन्धर्व ने अपने सबसे न्यारे घर की कल्पना की। कुछ जमीन ख़रीदी और घर बनाने की तैयारी होने लगी जिसका नाम भानुकुल रखा जाना था। अभी तो किराये के घर में ही भानुकुल का स्वप्न भानुमति के गर्भ में पल रहा था।
१९५६ ईसवी में कुमार गन्धर्व के घर मुकुल शिवपुत्र का जन्म हुआ। कुमार जी ने यह नाम शब्दकोश से खोज कर रखा। नाम में ‘म’ ज़रूर् होना चाहिए यह आग्रह भी था। मुकुल नाम तय हुआ। मुकुल माने कली, देह, आत्मा। वे अपनी पहली सन्तान को उस ‘प्रसन्न मध्यम’ से जोड़ रहे थे जो ख़ुद उनकी पहचान बन रहा था।
उस समय भानुमति की बड़ी बहन त्रिवेणी काँस देवास के क़रीब शाजापुर में चिकित्सक थीं। कुमार परिवार से उनका नाता किसी आने वाले समय की आहट जैसा था। जब मुकुल क़रीब चार बरस के हो गये तब १९६१ में उनके छोटे भाई का जन्म हुआ। कुदरत की गति ही कुछ ऐसी है कि वह सन्तति को जन्म देते समय माँओं के जीवन की कठिन परीक्षा लेती है। उनकी प्रसवपीड़ा मृत्यु का सामना करने जैसी होती है। भानुमति ने मृत्यु का सामना करते हुए पुत्र यशोवर्धन को जन्म दिया। भानुकुल में दूसरी किलकारी गूँजी पर उसे भानुमति नहीं सुन सकीं।
अकेले पड़ गये कुमार गन्धर्व ने उनकी अस्थियाँ उज्जैन में शिप्रा नदी में विसर्जित करते हुए मित्रों से कहा- देखो, अब आम का मौसम शुरू होने वाला है। भानु को आम बहुत पसन्द थे। पर अब वह हम लोगों के बीच नहीं है। “
बाद में कुमार जी ने वसुंधरा कोमकली से विवाह कर लिया जो कुमार जी और भानुमति जी की शिष्या थीं।
वसुंधरा जी ने भानुमति के व्यक्तिव को कुमार जी से अधिक त्यागमयी और प्रेरक बताया है।उनके लिए उनके मन मे गहरा सम्मान रहा।
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