Tuesday, November 19, 2024
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“स्त्री और प्रकृति : समकालीन हिंदी साहित्य में स्त्री कविता”

‘प्रकृति संबंधी स्त्री कविता शृंखला’ की शुरुआत स्त्री दर्पण मंच पर महादेवी वर्मा की जयंती के अवसर पर हुईं जिसका संयोजन प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह कर रही हैं। इस शृंखला में स्त्री कवि की प्रकृति संबंधी कविताएं शामिल की जा रही हैं।
पिछले दिनों आपने इसी शृंखला में हिंदी की चर्चित आधुनिक हिंदी कवयित्री गगन गिल की कविताओं को पढ़ा।
आज आपके समक्ष प्रसिद्ध कवि एवं सांस्कृतिक कार्यकर्ता कात्यायनी की कविताएं हैं तो आइए उनकी कविताओं को पढ़ें।
आप पाठकों के स्नेह और प्रतिक्रिया का इंतजार है।
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कवयित्री सविता सिंह
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स्त्री का संबंध प्रकृति से वैसा ही है जैसे रात का हवा से। वह उसे अपने बहुत निकट पाती है – यदि कोई सचमुच सन्निकट है तो वह प्रकृति ही है। इसे वह अपने बाहर भीतर स्पंदित होते हुए ऐसा पाती है जैसे इसी से जीवन व्यापार चलता रहा हो, और कायदे से देखें तो, वह इसी में बची रही है। पूंजीवादी पितृसत्ता ने अनेक कोशिशें की कि स्त्री का संबंध प्रकृति के साथ विछिन्न ही नहीं, छिन्न भिन्न हो जाए, और स्त्री के श्रम का शोषण वैसे ही होता रहे जैसे प्रकृति की संपदा का। अपने अकेलेपन में वे एक दूसरी की शक्ति ना बन सकें, इसका भी यत्न अनेक विमर्शों के जरिए किया गया है – प्रकृति और संस्कृति की नई धारणाओं के आधार पर यह आखिर संभव कर ही दिया गया। परंतु आज स्त्रीवादी चिंतन इस रहस्य सी बना दी गई अपने शोषण की गुत्थी को सुलझा चुकी है। अपनी बौद्धिक सजगता से वह इस गांठ के पीछे के दरवाजे को खोल प्रकृति में ऐसे जा रही है जैसे खुद में। ऐसा हम सब मानती हैं अब कि प्रकृति और स्त्री का मिलन एक नई सभ्यता को जन्म देगा जो मुक्त जीवन की सत्यता पर आधारित होगा। यहां जीवन के मसले युद्ध से नहीं, नये शोषण और दमन के वैचारिक औजारों से नहीं, अपितु एक दूसरे के प्रति सरोकार की भावना और नैसर्गिक सहानुभूति, जिसे अंग्रेजी में ‘केयर’ भी कहते हैं, के जरिए सुलझाया जाएगा। यहां जीवन की वासना अपने सम्पूर्ण अर्थ में विस्तार पाएगी जो जीवन को जन्म देने के अलावा उसका पालन पोषण भी करती है।
हिंदी साहित्य में स्त्री शक्ति का मूल स्वर भी प्रकृति प्रेम ही लगता रहा है मुझे। वहीं जाकर जैसे वह ठहरती है, यानी स्त्री कविता। हालांकि, इस स्वर को भी मद्धिम करने की कोशिश होती रही है। लेकिन प्रकृति पुकारती है मानो कहती हो, “आ मिल मुझसे हवाओं जैसी।” महादेवी से लेकर आज की युवा कवयित्रियों तक में अपने को खोजने की जो ललक दिखती है, वह प्रकृति के चौखट पर बार बार इसलिए जाती है और वहीं सुकून पाती है।
महादेवी वर्मा का जन्मदिन, उन्हें याद करने का इससे बेहतर दिन और कौन हो सकता है जिन्होंने प्रकृति में अपनी विराटता को खोजा याकि रोपा। उसके गले लगीं और अपने प्रियतम की प्रतीक्षा में वहां दीप जलाये। वह प्रियतम ज्ञात था, अज्ञात नहीं, बस बहुत दिनों से मिलना नहीं हुआ इसलिए स्मृति में वह प्रतीक्षा की तरह ही मालूम होता रहा. वह कोई और नहीं — प्रकृति ही थी जिसने अपनी धूप, छांह, हवा और अपने बसंती रूप से स्त्री के जीवन को सहनीय बनाए रखा। हिंदी साहित्य में स्त्री और प्रकृति का संबंध सबसे उदात्त कविता में ही संभव हुआ है, इसलिए आज से हम वैसी यात्रा पर निकलेंगे आप सबों के साथ जिसमें हमारा जीवन भी बदलता जाएगा। हम बहुत ही सुन्दर कविताएं पढ सकेंगे और सुंदर को फिर से जी सकेंगे, याकि पा सकेंगे जो हमारा ही था सदा से, यानी प्रकृति और सौंदर्य हमारी ही विरासत हैं। सुंदरता का जो रूप हमारे समक्ष उजागर होने वाला है उसी के लिए यह सारा उपक्रम है — स्त्री ही सृष्टि है एक तरह से, हम यह भी देखेंगे और महसूस करेंगे; हवा ही रात की सखी है और उसकी शीतलता, अपने वेग में क्लांत, उसका स्वभाव। इस स्वभाव से वह आखिर कब तक विमुख रहेगी। वह फिर से एक वेग बनेगी सब कुछ बदलती हुई।
स्त्री और प्रकृति की यह श्रृंखला हिंदी कविता में इकोपोएट्री को चिन्हित और संकलित करती पहली ही कोशिश होगी जो स्त्री दर्पण के दर्पण में बिंबित होगी।
स्त्री और प्रकृति श्रृंखला की हमारी दसवीं कवि कात्यायनी हैं। अक्सर लोग इनके विरोधी स्वर की कविताओं पर ध्यान देते हैं जबकि वही दृष्टि स्वर जब प्रकृति की छटा और उसके रूप की तरफ मुड़ती हैं तो प्रकृति का ब्रह्मांडीय आकार प्रस्तुत होता है। आसमान और समुद्र उसके दो अधर प्रतीत होते हैं जिनके मध्य पहाड़ और पहाड़ियां दांतों की तरह जड़ित दिखती हैं। जीवन एक बिंब सा उस नवजात शिशु की तरह उभरता है जो क्षण भर के लिए ही मासूम होता है: सूर्य के प्रकाश में / नहाया हुआ पवित्र-निष्पाप-निर्वासन…जो आग के एक गोले की तरह नाचता हुआ दूर चला जाता है”! इनके यहां प्रकृति को लेकर कोई रोमान नहीं अपितु उसके रुखड़े रूप का बखान अधिक मिलता है। जीवन ही इतना रूखा है कि कोमलता के लिए जगह बन नहीं पाती। प्रकृति में उसके दोनो ही रूपों को पाया जा सकता है। यदि पेड़ हरे पत्तों से ढाका हुआ वसंत के वसन धारण करता है तो वह एक ठूंठ की तरह, ऊंट के कूबड़ जैसा गठ्ठल, भी खड़ा रहता, काफी समय तक, “जैसे कोई जीवन/ सूखा-निर्मम थेंथर”। सुंदर तितली अपनी उड़ान में हमें उकसाती है बर्बरता के विरुद्ध। यदि तितली नाजुक सी प्रकृति की सुंदरता और कोमलता को दर्शाती है आसपास तो तूफानी पितरेल भी हैं और गर्वीले गरुड़ भी। प्रकृति को उसकी द्वन्द्वात्मकता में समझती, कवि प्रचलित धारणाओं के प्रति एक मोहभंग रचती है। प्रकृति की सत्यता को उसके असली रूप में उजागर करने में ये कविताएं कितनी सहायक है! कवि कोई स्वर्णिम भ्रम नहीं गढ़ती या पालती है। पोखर में खिलखिलाती हुई खिली लिली को अपने गंदे जल का आभास जरूरी है, आख़िर आगे चलकर उसे इससे संघर्ष ही तो करना है।
प्रगतिशील विचारधारा में प्रकृति अपने इन्हीं रूपों में पहचानी गई है- जीवन को संघर्ष के लिए प्रेरित और तैयार करती हुई।
आज आप कात्यायनी की इन महत्वपूर्ण कविताओं को पढ़े, “कुहरे की दीवार खड़ी है / उसके पीछे जीवन कुड-कुड / किरणों को साहस दो थोड़ा / कोहरे की दीवार हटाओ।”
कात्यायिनी की कविताएं
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1 . आँधी में नाचे है तितली
धूल भरी आँधी में उड़ती
एक रंगीन तितली –
शायद कोई भुला दी गयी धुन।
एक नाजुक है, सुन्दर है
और हमें उकसा रही है
बर्बरता के विरुद्ध।
यह तितली है
तो होंगे तूफ़ानी पितरेल भी
और गर्वीले गरूड़ भी
यहीं कहीं हमारे आसपास ही।
2. सागर तट पर जीवन जैसे….
आसमान है और
सतह सागर की जैसे
खुले हुए ऊपर-नीचे के होंठ,
पर्वत जैसे
कुछ उज्जवल, कुछ हरियाले,
धूमिल-सँवलाये दाँत।
तट पर जीवन ऐसा जैसे
लपलप करती
और कतरनी जैसी चलती
चपल-चतुर सी जीभ,
शब्दों में रचती ध्वनियों को।
3. झील किनारे
चाँद की रोशनी में
झील की सतह पर उछलती है
रूपहली मछली
– शापित जलकन्या शायद कोई।
खुशी क्षणजीवी हो इतनी भी,
तो काफ़ी कुछ दे जाती है।
यादों में कहीं रह जाती है।
4. जल-लिली
खिलखिला कैसी उठी! खिली।
पोखर में यह सफ़ेद निष्कलंक जल-लिली!
देखो ना, कैसी यह सुन्दर है!
भोली है कैसी यह!
कैसे धीरे-धीरे लहराकर
नाच रही है यह पोखर तल पर।
वीराने में जीवन भरती है
नीरव सूनेपन में गाती है
अभी यह अजानी है, सर्वथा अछूती है
पोखर के गन्दे-मन्दे जल से।
बच्ची है।
सच्ची बातें ही केवल मन में धारे है।
ख़ुश रह ले थोड़े दिन और।
जीवन की यह दुष्करता
ज्यों-ज्यों यह जानेगी
चेहरे पर बढ़ती ही जायेंगी
चिन्ता की छायाएँ।
जीना सीखेगी तो
जानेगी सब कुछ ही।
धीरे-धीरे लड़ना सीखेगी!
5. पण्डूक युगल से
आ!
आ, अपना घोंसला बना।
आने ही वाली है कठिन सदियाँ
जल्दी से घोंसला बना।
आले पर, पंखे पर या मोखे में
जहाँ कहीं जी चाहे, जा,
देख-भाल कर ले
तिनके चुन ले।
मेहनत से, कौशल से,
हाथ बँटा आपस में
ख़ूब जतन करके फिर घोंसला बना।
सर्दी में शीत से बचाना नवजातों को।
चारा भी मुश्किल से मिल पायेगा।
बहुत कठिन दिन होंगे,
जा जल्दी, तिनके ला, घोंसला बना।
ये कुहरिल बीहड़ दिन सर्दी के जायेंगे
जब बसन्त आयेगा।
तो नन्हे पंखों को खोले नन्हे शिशुगण
उड़ना सीखेंगे धीरे-धीरे।
एक दिन वे फिर उड़ जायेंगे
उड़ जाओगे फिर तुम दोनों भी
सूना यह आला रह जायेगा, यादें रह जायेंगी!
6. कुहरे की दीवार खड़ी है!
कुहरे की दीवार खड़ी है!
इसके पीछे जीवन कुड़कुड़
किये जा रहा मुर्गी जैसा।
तगड़ी सी इक बाँग लगाओ,
जाड़ा दूर भगाओ,
जगत जगाओ।
साँसों से ही गर्मी फूँको,
किरणों को साहस दो थोड़ा,
कुहरे की दीवार हटाओ।
7. चाँदनी पूरनमासी की
छैल चिकनिया नाच रही है।
डार कटीली आँखें पापिन
भिगो रही है जीवन-जल से
भेद-भाव से ऊपर उठकर
घूम-घूम कर गाँव-डगर सब
प्यार-पंजीरी बाँट रही है।
8. बिन पातों के पेड़ खड़ा है
बिन पातों के पेड़ खड़ा है।
अरे बेशरम,
कपड़े लादे ऊब गया तो
यूँ उतारकर खड़ा रहेगा
सरेआम तू नंगा-बुच्चा?
आने को दर्ज़ी बसन्त है
हरा-हरा कुर्त्ता सिल करके,
उसपर टाँके लाल बटन
और झालर नीले
और गुलाबी फुँदने वाली
टोपी मनहर
सुन लो आहट,
गुन-गुन करते,
मस्त-मगन कुछ अपनी धुन में
चले आ रहे हैं बौड़म जी!
9. अग्नि धर्म है शुचिता का, सुन्दरता का
सूर्य के प्रकाश में
नहाया हुआ पवित्र-निष्पाप-निर्वसन
एक नवजात शिशु की तरह
– जीवन का यह बिम्ब
उभरता है सहसा
आँखों के सामने
और फिर नाचता हुआ
आग के एक गोले की तरह
दूर चला जाता है।
10. ठूँठ खड़ा है
असम्पृक्त, एकाकी, अड़िय़ल
तना खड़ा है ठूँठ।
किसी ऊँट के कूबड़ जैसा
गट्ठल-भोंथर।
जैसे कोई जीवन
सूखा-निर्मम-थेंथर।
धरती में धँस गयी
कटारी जैसे कोई,
लेकिन ऊपर
अड़ी हुई है मूँठ।
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