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Tuesday, July 23, 2024
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“स्त्री और प्रकृति : समकालीन हिंदी साहित्य में स्त्री कविता”

स्त्री दर्पण मंच पर महादेवी वर्मा की जयंती के अवसर पर एक शृंखला की शुरुआत की गई। इस ‘प्रकृति संबंधी स्त्री कविता शृंखला’ का संयोजन प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह कर रही हैं। इस शृंखला में स्त्री कवि की प्रकृति संबंधी कविताएं शामिल की जा रही हैं।
पिछले दिनों आपने इसी शृंखला के तहत कवयित्री आलोचक, अनुवादक रति सक्सेना जी की कविताओं को पढ़ा।
आज आपके समक्ष हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण नाम कवयित्री और नाटककार सुमन केशरी की कविताएं हैं तो आइए उनकी कविताओं को पढ़ें।
आप पाठकों के स्नेह और प्रतिक्रिया का इंतजार है।
कवयित्री सविता सिंह
…………………

स्त्री का संबंध प्रकृति से वैसा ही है जैसे रात का हवा से। वह उसे अपने बहुत निकट पाती है – यदि कोई सचमुच सन्निकट है तो वह प्रकृति ही है। इसे वह अपने बाहर भीतर स्पंदित होते हुए ऐसा पाती है जैसे इसी से जीवन व्यापार चलता रहा हो, और कायदे से देखें तो, वह इसी में बची रही है। पूंजीवादी पितृसत्ता ने अनेक कोशिशें की कि स्त्री का संबंध प्रकृति के साथ विछिन्न ही नहीं, छिन्न भिन्न हो जाए, और स्त्री के श्रम का शोषण वैसे ही होता रहे जैसे प्रकृति की संपदा का। अपने अकेलेपन में वे एक दूसरी की शक्ति ना बन सकें, इसका भी यत्न अनेक विमर्शों के जरिए किया गया है – प्रकृति और संस्कृति की नई धारणाओं के आधार पर यह आखिर संभव कर ही दिया गया। परंतु आज स्त्रीवादी चिंतन इस रहस्य सी बना दी गई अपने शोषण की गुत्थी को सुलझा चुकी है। अपनी बौद्धिक सजगता से वह इस गांठ के पीछे के दरवाजे को खोल प्रकृति में ऐसे जा रही है जैसे खुद में। ऐसा हम सब मानती हैं अब कि प्रकृति और स्त्री का मिलन एक नई सभ्यता को जन्म देगा जो मुक्त जीवन की सत्यता पर आधारित होगा। यहां जीवन के मसले युद्ध से नहीं, नये शोषण और दमन के वैचारिक औजारों से नहीं, अपितु एक दूसरे के प्रति सरोकार की भावना और नैसर्गिक सहानुभूति, जिसे अंग्रेजी में ‘केयर’ भी कहते हैं, के जरिए सुलझाया जाएगा। यहां जीवन की वासना अपने सम्पूर्ण अर्थ में विस्तार पाएगी जो जीवन को जन्म देने के अलावा उसका पालन पोषण भी करती है।
हिंदी साहित्य में स्त्री शक्ति का मूल स्वर भी प्रकृति प्रेम ही लगता रहा है मुझे। वहीं जाकर जैसे वह ठहरती है, यानी स्त्री कविता। हालांकि, इस स्वर को भी मद्धिम करने की कोशिश होती रही है। लेकिन प्रकृति पुकारती है मानो कहती हो, “आ मिल मुझसे हवाओं जैसी।” महादेवी से लेकर आज की युवा कवयित्रियों तक में अपने को खोजने की जो ललक दिखती है, वह प्रकृति के चौखट पर बार बार इसलिए जाती है और वहीं सुकून पाती है।
महादेवी वर्मा का जन्मदिन, उन्हें याद करने का इससे बेहतर दिन और कौन हो सकता है जिन्होंने प्रकृति में अपनी विराटता को खोजा याकि रोपा। उसके गले लगीं और अपने प्रियतम की प्रतीक्षा में वहां दीप जलाये। वह प्रियतम ज्ञात था, अज्ञात नहीं, बस बहुत दिनों से मिलना नहीं हुआ इसलिए स्मृति में वह प्रतीक्षा की तरह ही मालूम होता रहा. वह कोई और नहीं — प्रकृति ही थी जिसने अपनी धूप, छांह, हवा और अपने बसंती रूप से स्त्री के जीवन को सहनीय बनाए रखा। हिंदी साहित्य में स्त्री और प्रकृति का संबंध सबसे उदात्त कविता में ही संभव हुआ है, इसलिए आज से हम वैसी यात्रा पर निकलेंगे आप सबों के साथ जिसमें हमारा जीवन भी बदलता जाएगा। हम बहुत ही सुन्दर कविताएं पढ सकेंगे और सुंदर को फिर से जी सकेंगे, याकि पा सकेंगे जो हमारा ही था सदा से, यानी प्रकृति और सौंदर्य हमारी ही विरासत हैं। सुंदरता का जो रूप हमारे समक्ष उजागर होने वाला है उसी के लिए यह सारा उपक्रम है — स्त्री ही सृष्टि है एक तरह से, हम यह भी देखेंगे और महसूस करेंगे; हवा ही रात की सखी है और उसकी शीतलता, अपने वेग में क्लांत, उसका स्वभाव। इस स्वभाव से वह आखिर कब तक विमुख रहेगी। वह फिर से एक वेग बनेगी सब कुछ बदलती हुई।
स्त्री और प्रकृति की यह श्रृंखला हिंदी कविता में इकोपोएट्री को चिन्हित और संकलित करती पहली ही कोशिश होगी जो स्त्री दर्पण के दर्पण में बिंबित होगी।
सुमन केशरी स्त्री और प्रकृति श्रृंखला की पंद्रहवीं कवि हैं। जल से एकाकार होने वाली एक ऐसी कवि जो मोर का रोना रात भर सुनती है, कोयल का कूकना जिन्हे उसकी चीख सुनने के लिए तैयार करता है। प्रकृति छीझ सी रही है। हमें उसकी चीख सुननी चाहिए। वह जो एक हरी भरी धरती थी अब याद में गड़मड हो रही है। ऐसा लगता है कवि को कि यह देखा हुआ यथार्थ था मगर अब यादों में भी सुरक्षित नहीं। एक विलुप्त होता सुंदर संसार है जिसे बचाने की कोशिश कवि कर रही है। उसके हिसाब सब यदि थोड़ी सी भी जमीन बच जाए तो जीवन बचा रह सकता है। वह पृथ्वी को उसके ऋत के साथ बचाना चाहती है। वह आशंकित है कि क्या “कल सुबह सूरज उगेगा तो दिखेगा भी”. वह जल के पास तभी जाती है:
उद्भासित था
मेरे भीतर का संसार
उस हरित जल में
मैने छुआ अपने हाथों से उस बीज को जिसमे मेरे होने का सम्पूर्ण रहस्य सुरक्षित था।
संपूर्ण जीवन के प्रति चिंतित सुमन केशरी की इन महत्वपूर्ण कविताओं को आप भी पढ़ें।
मैं बचा लेना चाहती हूं
जमीन का एक टुकड़ा
खालिस मिट्टी और
नीचे दबे धरोहर।
अगर बच जायेगी यह पृथ्वी तो कोयल भी बच जायेगी, मोर भी रोएगा नहीं सारी रात और घास मखमल की तरह बिछी रहेगी इस धरा पर। मनुष्य प्रकृति से प्रेम करना फिर सीखेगा।
सुमन केशरी का परिचय :
————–
15 जुलाई, मुजफ्फरपुर, बिहार में जन्मीं सुमन केशरी ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से सूरदास पर शोध किया है तथा यूनीवर्सिटी ऑफ़ वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया, पर्थ से एमबी ए। सुमन केशरी लंबे समय तक भारत सरकार में प्रशासन संबंधी कार्य करती रही हैं। लेखन एवं अध्यापन में गहरी रूचि के कारण सन् 2013 में ही उन्होंने भारत सरकार से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर आई टी एम ग्वालियर में मैनेजमेंट का अध्यापन किया। उनके चार काव्य संग्रह प्रकाशित हैं—याज्ञवल्क्य से बहस (2008); मोनालिसा की आँखें (2013); पिरामिडों की तहों में (2018) तथा निमित्त नहीं (2022) । एक संकलन शब्द और सपने (2015) ई-बुक के रूप में प्रकाशित है। ”मोनालिसा की आँखें” संग्रह का अनुवाद मराठी एवं राजस्थानी भाषाओं में हुआ है। उनकी अनेक कविताओं का अनुवाद अंग्रेजी, फ़्रेंच, स्पैनिश, बांगला, नेपाली एवं मराठी भाषाओं में हुआ है। जीवन और लेखन दोनों में प्रयोगधर्मी सुमन केशरी ने अभी हाल ही में नाट्य-लेखन में भी अपनी लेखनी आजमाई है। लघु नाटक: कोरोना काल में शादी (2020) शब्दांकन वेब-पत्रिका में छपा है। नाटक: गांधारी (2022)। सुमन केशरी ने प्रेप से आठवीं कक्षा तक के विद्यार्थियों के लिए “सरगम” और “स्वरा” नाम से पाठ्य पुस्तकें भी तैयार की हैं। संपादित रचनाएँ- (1) जे. एन यू में नामवर सिंह (2009), तथा (2) आर्मेनियाई जनसंहार: ऑटोमन साम्राज्य का कलंक (सुश्री माने मकर्तच्यान के साथ) । “आर्मेनियाई जनसंहार: ऑटोमन साम्राज्य का कलंक” पर सुमन केशरी को आर्मेनिया गणराज्य के शिक्षा, विश्रान, संस्कृति एवं खेल मंत्रालय ने अपना सर्वोच्च सम्मान गोल्ड मैडल से नवाजा है। इन दिनों वे कथानटी सुमन केशरी के नाम से सोशल मीडिया पर कहानियाँ भी सुनाती हैं। उनका यूट्यूब चैनल है- Kahoon Ek Prasang https://www.youtube.com/channel/UCbEPiP1Eshf7X3LUZRpltVg
सुमन केशरी की कविताएँ:
—————-
मैं बचा लेना चाहती हूँ
(कुछ कविताएँ पृथ्वी और ऋत की)
(1)
कूक! नहीं…….
कूक! नहीं…….
इतनी सुबह
कोयल की यह कूक कैसी
आम के पत्तों-बौरों में छिपी
मदमाती, लुभाती
गूँजती कूक नहीं
एक विकल चीख
जोहती
पुकारती
जाने किसे ?
आकाश निरभ्र
कोई स्वर नहीं
न पक्षियों की चहचहाहट
न किसी बच्चे के रोने की आवाज
उस बियाबान में
एकाकी खड़े पेड़ के पत्तों-बौरों में
छिपी एक कोयल शायद
और उसकी चीख
कूक नहीं…
कूक नहीं…
(2)
चिड़िया
चिड़िया के पास
जाने कितनी बातें थी
रात भर की
जिन्हें सुबह होते ही उसे
कह देनी थीं
अपनी बातें कह चुकने के बाद
वह उड़ी
जा पँहुची
छत के उस कोने पर
जहाँ रोज सवेरे
दाने रख देती थी उसकी एक सहेली
बिना यह जाने कि
पिछले दिनों से एक बिलाव
बेखौफ़ अगोरता है ठौर
ट्रांसमीटर टावर पर बैठ
रात भर रोता है मोर….
(3)
सपना ही हुआ न …
कुछ याद नहीं पड़ता
वे स्वप्न में देखे दृश्य थे या सचमुच में
यहाँ से वहाँ तक फैला संसार तो नहीं था यहाँ
न थी बंद हवा की बेचैनी
न सूरज को ही धकिआया था किसी ने आकाश के पार
मिट्टी की सांस भी गुम न थी
क्षितिज भी दिखता था सरेआम
आह!
कुछ याद नहीं पड़ता
वे स्वप्न में देखे दृश्य थे या सचमुच में
यहाँ थी बादलों से बतियाती
एक के पास एक
बैठीं ..अधलेटीं.. उचकती..बिछलतीं पहाड़ियाँ
दूर दूर तक कुकुरमुत्तों-सी दिखतीं भेड़ बकरियाँ
सड़क को छूते आम, नीम, बरगद के पेड़
अचानक ही सामने से उड़ता दिखता नीलकंठ
सुन पड़ती औचक ही
कहीं दूर डाली में छिपी कोयल की कूक
यहाँ इतनी दूर दूर तक बनीं इमारतें तो न थीं!
कुछ याद नहीं पड़ रहा
पर इतना जरूर है कि
पहाड़ियाँ..जंगल..बादल..चिड़िया साफ दिखे थे
वे सपनो से धुंधले- उलझे-गुलझे न थे
धूप छाँव की आँख मिचौली में
वे दिखे हल्के या गहरे हरे
कलछौंही लिए हरा रंग बसा रह गया था
आँखों में दिनों तक
जैसे किसी ने पत्तियों पर
बादल रगड़ रख दिया हो…
यहीं..
अरे यहीं किसी मोड़ पर
टोकनी भर आम खरीदे थे
पास के कुएँ से पानी खींच
डुबो कर रखा था मैंने…खुद मैंने
पर नहीं
लगता है स्वप्न जी रही हूँ मैं
मोड़ तो है पर कुआँ नहीं
तो स्वप्न ही हुआ न
न पेड़ आम के हैं
न नीलकंठ हवा में
तो स्वप्न ही हुआ न
न पहाड़ियाँ..न बादल..न भेड़.. न बकरी
कूक भी कहीं नहीं
तो स्वप्न ही हुआ न
फिर भी क्यों लगता है
यहाँ से गुजरी हूँ मैं
नींद में नहीं जागृति में
निहारती दृश्य-परिदृश्य
गाती खिलखिलाती मैं…
(4)
सूरज कल सुबह
यह कतई तय नहीं कि
कल सुबह जब सूरज उगेगा तो दिखेगा भी
ढूंढता फिरेगा एक खिड़की
जिससे वह झांक सके
नीचे धरती को
पर्वत के शिखर को सहलाते हुए
पेड़ की फुनगी को छू सके
पता नहीं बेचारा
खिड़की तक पहुँच कर उसे खोल भी पाएगा या नहीं
कल सुबह
(5)
घास
वो घास जो पैरों तले
मखमल -सी बिछ जाती है
बरछी-सी पत्तियों को
नम्रता में भिगो
लिटा देती है
धरती की चादर पर
मौका मिलने पर
तन खड़ी होती है
ऊपर और ऊपर उठने को
आकाश छूने को
व्याकुल
बरछी सी तन जाती है
(6)
जल तत्त्व के प्रति
वह जल ही था
जिसमें तिर कर जाना था मुझे
स्मृतियों की उन आदिम गुफ़ाओं में
जहाँ पड़ी थी
रहस्यमयी मणियों के बीच सुरक्षित
मेरे होने की स्मृति
ज्योंही मैंने हरे जल में कदम रखा
भीतर खींच ले गई एक किरण बाँध मुझे
अपने अदृश्य-पाश में
जीवन की असीम संभावनाओं के बीच
पा ही लिया
मैंने
सदियों से विस्मृत
अपनी इयत्ता को
अब मैं और जल
एकाकार थे…
(7)
उस हरित जल में
उद्भासित था
मेरे भीतर का संसार
उस हरित जल में
मैंने छुआ अपने हाथों से उस बीज को
जिसमें मेरे होने का
संपूर्ण रहस्य
सुरक्षित था
मैं थी
मैं हूँ
मैं रहूंगी
ध्वनि में
रूप में
विस्तार में…
(😎
पृथ्वी-सी घूमती मैं
उस हरित जल में
यूँ खुद को
अपने मूल तत्त्व में देखना
ब्रह्माण्ड को चीर
सागर में सीधी समाती जाती
रश्मि-रेखा की छोर में होने जैसा था
माँ के गर्भ में
घूमती पृथ्वी-सी
मैं
और जीवन विस्तार…
(9)
बचाना
मैं
बचा लेना चाहती हूँ
जमीन का एक टुकड़ा
जिस पर कदम रखते ही
सुनी जा सकें
स्मृतियों- विस्मृतियों से परे
आत्मा की आदिम आवाज
जहां शेष रह गए हों
क्षिति जल पावक गगन समीर
अपने मूल रूप में
(10)
मैं बचा लेना चाहती हूँ
मैं बचा लेना चाहती हूँ
जमीन का एक टुकड़ा
खालिस मिट्टी और
नीचे दबे धरोहरों के साथ
उसमें शायद बची रह जाएगी
बारिश की बूंदों की नमी
धूप की गरमाहट
कुछ चांदनी
उसमें शायद बची रह जाएगी
चिंटियों की बांबी
चिड़िया की चोंच से गिरा कोई दाना
बाँस का एक झुड़मुट
जिससे बाँसुरी की आवाज गूंजती होगी…
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