तिरिया चरित्तर, भरत नाट्यम, कसाईबाड़ा जैसी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ लिखने वाले शिवमूर्ति रेणु की परम्परा के लेखक रहे हैं। उन्होंने जीवन में बहुत संघर्ष किया। उनकी पत्नी के जीवन में भी संघर्ष बहुत ज्यादा रहे पर किताबों ने उनके व्यक्तित्त्व को बदला। उन्होंने एक तरफ घर, खेती-बाडी को कुशलता से सम्भाला वहीं अनेक यात्राओं से अपने अनुभव को समृद्ध किया। आज स्त्री दर्पण में पढ़िए उनकी दिलचस्प कहानी. …
स्त्री दर्पण ने लेखक-पत्नी पर जो शृंखला शुरू की है, उस शृंखला ने हमें ऐसे अपरिचित चेहरों से मिलवाया, जिन्होंने अंधेरे में रहकर लेखकों के लिए उजाले रचने का काम किया। स्त्रियाँ अक्सर उजाले रचती हैं और पुरुषों को सौंप देती हैं जिससे वे रचते रहे हैं- पूरा इतिहास जिसमें अब स्त्रियों की दस्तक हो रही है। इतिहास के भीतर की इन खदबदाहटों को सुनने की कोशिश अब की जा रही है। इसी क्रम में आज सरिता जी का परिचय पाने की कोशिश करते हैं।
“परिवार के गुजारे के लिए सरिता शिवमूर्ति ने बनाई बीड़ी”
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– प्रो. हर्षबाला शर्मा
कसाईबाड़ा जैसी महत्त्वपूर्ण रचना के रचनाकार शिवमूर्ति जी की एक कहानी है- सिरी उपमा जोग जिसकी मुख्य पात्र हैं- लालू की अम्मा। आइए, उनसे मिलें-
‘खेती-बारी का सारा काम अपने जिम्मे लेकर उन्हें परीक्षा की तैयारी के लिए मुक्त कर दिया था। रबी की सिंचाई के दिनों में सारे दिन बच्ची को पेड़ के नीचे लिटाकर कुएं पर पुर हांका करती थी। बाज़ार से हरी सब्ज़ी ख़रीदना सम्भव नहीं था, लेकिन छप्पर पर चढ़ी हुई नेनुआ की लताओं को वह अगहन-पूस तक बाल्टी भर-भर कर सींचती रहती थी, जिससे उन्हें हरी सब्ज़ी मिलती रहे। रोज सबेरे ताज़ी रोटी बनाकर उन्हें खिला देती और ख़ुद बासी खाकर लड़की को लेकर खेत पर चली जाती थी। एक बकरी लाई थी वह अपने मायके से, जिससे उन्हें सबेरे थोड़ा दूध या चाय मिल सके। रात को सोते समय पूछती, “अभी कितनी किताब और पढ़ना बाक़ी है, साहबीवाली नौकरी पाने के लिए।”
वे उसके प्रश्न पर मुस्करा देते, “कुछ कहा नहीं जा सकता। सारी किताबें पढ़ लेने के बाद भी ज़रूरी नहीं कि साहब बन ही जाएं।”
‘‘ऐसा मत सोचा करिए,” वह कहती, “मेहनत करेंगे तो भगवान उसका फल जरूर देंगे।”
यह उसी के त्याग, तपस्या और आस्था का परिणाम था कि एक ही बार में उनका सेलेक्शन हो गया था। परिणाम निकला तो वे ख़ुद आश्चर्यचकित थे। घर आकर एकांत में पत्नी को गले से लगा लिया था। वाणी अवरूद्ध हो गई थी। उसको पता लगा तो वह बड़ी देर तक निस्पंद रोती रही, बेआवाज़। सिर्फ़ आंसू झरते रहे थे। पूछने पर बताया, ख़ुशी के आंसू हैं ये। गांव की औरतें ताना मारती थीं कि ख़ुद ढोएगी गोबर और भतार को बनाएगी कप्तान, लेकिन अब कोई कुछ नहीं कहेगा, मेरी पत बच गई’।”
सरिता जी पर लेख लिखने की योजना के दौरान जब शिवमूर्ति जी से बात हुई तो लगा कि अपनी ही कहानी के इस पात्र से वे मिलवा रहे हैं—सरिता जी, जिन्होंने घर-खेत, फसल काटना, बोना सब संभाल लिया और कहा -किताब पढ़ने से अच्छी नौकरी मिलती है तो आप पढ़िए, मैं खेती बाड़ी सब संभाल लूँगी। सरिता जी अवधी मिली खड़ी बोली में बात करती हैं। शिवमूर्ति जी कहते हैं- ‘आपको समझने मे शायद दिक्कत होगी’ पर मुझे तो उनकी मिठास भरी बोली में सब समझ आ गया।
सरिता जी का जीवन संघर्षों से घिरा रहा- पढ़ नहीं सकीं पर पढ़ने की ताकत को किस कदर मानती है, ये उनसे बात करने भर से जाना जा सकता है। किताबों ने उन्हें आकर्षित किया, शायद इसीलिए जब बहुत बाद में अवसर मिला, तो ट्यूशन पढकर हिंदी पढना सीखा और अनेक रचनाएं पढ़ी। 8 बरस की उम्र में पिता को खोया और 9 बरस की उम्र में माँ चल बसीं। पाँच बरस की उम्र में शादी हुई। बाल विवाह की बात पूछने पर कहती हैं- गौना बाद में हुआ। पहले होता ही था ऐसे!
तीन बहनों और एक भाई के परिवार को बाबा ने किसी तरह संभाला। खाने-पीने की जुगत न होने पर भी बाबा किसी तरह बच्चों को संभालते रहे। सरिता जी ने कर्मठता अपने बाबा से पाई, या कहीं और से, ये तो नहीं पता पर गजब जीवट भरी महिला है। हर काम के लिए आज भी चौकस और तैयार। खेती के बारे में पूछने पर कहती हैं- ‘अभी तो लौटे हैं गाँव से। खुरपी चलाई, घास निकाली।’
मायके में खाने-पीने भर के जुगाड़ के बीच लड़कियों के लिए पढ़ाई की सुध किसे आती और कैसे? किताबों से लगाव ऐसा और विद्यालय जा पाने की ललक ऐसी कि गाँव में जब बच्चे स्कूल से लौटते तो दवात उनके हाथ से लेकर सरिता जी अपने कपड़ों मे लगा लेती जिससे स्कूल जाने का अहसास मिल सके! शायद ये स्कूल और किताबों की ताकत का ही अहसास था कि गाय-गोरू सब अपने हिस्से रखकर भी उन्होंने शिवमूर्ति जी के अफसर बनने का सपना देखा!
एक लड़की, जिसने मायके में केवल संघर्ष देखा, ससुराल में भी इसकी कमी नहीं थी। बीड़ी बनाने से लेकर खेती- बाड़ी, घर की पूरी जिम्मेदारी के बीच पति को सारी जिम्मेदारी से मुक्त कर पढ़ने के लिए प्रेरित करना सरल तो नहीं रहा होगा! अंधविश्वासों से घिरे गाँव में भाई की मृत्यु सियार के काटने से नहीं, बल्कि इलाज न मिलने से हुई। डॉक्टर के पास ले जाने के बजाय गाँव के लोगों ने झाड़-फूंक को वरीयता दी। अंधविश्वासों के कारण परिवार को अपना बालक खोना पड़ा। एक छोटी सी बच्ची के मन पर इस घटना का कितना भयावह असर रहा होगा इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है।
गौना कराके ससुराल आने पर पति अभी पढ़ ही रहे थे । इसी बीच तीन बेटियाँ हो गई। समाज में लड़कों के जन्म के साथ ही परिवार को पूरा मानने की जो भयावह होड़ मची है, आज भी लोग उससे बरी नहीं हुए है। सरिता जी से पूछने पर कहती हैं कि परिवार का कोई दबाव नहीं था बल्कि ससुर जी कहते थे ‘आंधी आईं हैं तो पानी भी आएगा’ इस वाक्य के भीतर की पितृसत्तात्मक बुनावट को पढ़ा जाना चाहिए। भले ही परिवार का यह दबाव न हो पर कहीं न कहीं यह हमारी मानसिक कन्डीशनिंग को दिखाता हैं जहाँ लड़कों के इंतजार में परिवार में लड़कियों का जन्म होता चला जाता है। सरिता जी बताती हैं कि उनकी बेटियाँ जरूर इस बात से कभी उदास हो जाती थीं कि उनका कोई भाई नहीं है पर उन्हें ये समझा पाने में सरिता जी कामयाब हो जाती थीं कि हर बेटी की तरह अगली का भी परिवार में उतना ही भाग है। तीन बेटियों के जन्म के साथ-साथ उनके मन में ये इच्छा मजबूत होती चली गई कि वे अपनी बच्चियों को संभाल सकती हैं पर शिवमूर्ति जी को पढ़ना होगा। उनके लिए ये हैरान कर देने वाली बात थी कि सिर्फ किताबें पढ़कर जीवन मे अफ़सरी भी पाई जा सकती है। तीन बच्चों और पूरे परिवार की जिम्मेदारी के बीच उन्होंने शिवमूर्ति जी को किस तरह घर-परिवार की चिंता से मुक्त करते हुए सब कुछ खुद करना शुरू कर दिया, ये किसी को भले ही हैरत मे डाल दे, पर इससे उन स्त्रियों को पहचाना जा सकता है जो युगों-युगों से खुद को परे धकेलकर पुरुषों को आगे बढ़ाने में ही अपनी जिंदगी की सार्थकता को मानती आई है। सिरी उपमा जोग की ‘लालू की अम्मा’ को रचते समय कहीं सरिता जी की आहट शिवमूर्ति जी के भीतर जरूर रही होगी।
शिवमूर्ति जी अफसर बने, पर उससे पहले बीड़ी बनाने और बेचने का काम भी इस परिवार ने किया। सरिता जी खुद बीड़ी बनाती थीं जिसे बेचने के लिए शिवमूर्ति जी जाया करते थे। किसी काम से परहेज नहीं, किसी काम से इनकार नहीं। बच्चों और परिवार के लिए लगातार संघर्ष को ही उन्होंने अपने जीवन के आधार के रूप में स्वीकार किया।
उनके दृढ़ व्यक्तित्व को दर्शाने वाली अनेक घटनाएं हैं जिसमें से एक का जिक्र जरूरी है। मऊ मे रहने के दौरान उनका परिचय किन्ही श्रीमती मिश्रा से हुआ जिन्हें वे ‘मिसराइन’ कहकर बुलाती रहीं। उन्होंने इन्हें मार्कन्डेय पुराण सुनने की सलाह दी जिससे बेटा हो जाएगा! बेटा पाने का यह जतन कितने दबावों को दिखाता है, इसे कहने की जरूरत नहीं। सरिता जी तैयार हो गईं पर फिर एक नई समस्या खड़ी थी। मिसराइन ने बताया कि जाति क्रम में नीचे होने के कारण ब्राह्मण उन्हें मार्कन्डेय पुराण नहीं सुना सकते। ऐसे में मिसराइन खुद सुनकर संकल्प करके उन्हें इसका पुण्य दे देंगी। सरिता जी ने इनकार करते हुए कहा कि जो पुराण मैं सुन नहीं सकती, उसका पुण्य भी मुझे नहीं चाहिए! कितना बड़ा विद्रोह रहा होगा ये उस समय की व्यवस्था के प्रति, जहां एक स्त्री एक तरफ पुत्र पाने की इच्छा से भी गुजर रही थी वहीं इंसानों के बीच भेद करने वाली व्यवस्था के आगे सिर झुकाना भी उन्हें मंजूर नहीं था। किसी पूजा-पाठ, मान-मनौती में भरोसा नहीं क्योंकि यह बात उनके मन के भीतर जम गई थी कि इन व्यवस्थाओं में हर आदमी के लिए समान जगह नहीं है।
समय बीतते न बीतते किताबों के लिए लगाव बढ़ना शुरू हुआ। घर पर ट्यूशन लगाई गई। हिन्दी साहित्य की दुनिया उनके सामने खुल गई। पढ़त का सुख मिलते ही उन्होंने विश्व भर की किताबों का आनंद लिया। बड़े चाव से वे अपनी पढ़ी हुई पहली किताब ‘बिना पैसे दुनिया का पैदल सफर’ का जिक्र करती है। दो युवक अणु अस्त्रों के विरोध और विश्व शांति का संदेश देने के उद्देश्य से पैदल यात्रा पर निकले जिसमें विनोबा भावे जी की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। मैक्सिम गोर्की से लेकर प्रेमचंद, जेक लंडन, राही मासूम रज़ा, फणीश्वरनाथ रेणु के मैला आँचल को पढकर देश और दुनिया को समझने की एक नई दृष्टि मिली जिसका असर यह हुआ कि दुनिया को समझने की इच्छा बढ़ती गई। शिवमूर्ति जी बताते हैं कि सरिता जी बेटे के पास कोलम्बो अकेले घूम आई हैं, चीन और जापान भी गईं है। वहाँ का अनुभव पूछने पर कहती हैं ‘यात्री बनकर तो बस बाहर ही बाहर दिखाई देता है, ज्यादा समझने के लिए तो रुक कर ही समझा जा सकता है। हर जगह को देखने और देखकर महसूस करने की इच्छा उनके भीतर मौजूद है। पर उनसे बात करते हुए जिम्मेदारी निभा देने का सुकून साफ़ महसूस होता है। मैं पूछती हूँ कि शिवमूर्ति जी की कौन सी रचना कम पसंद आई तो कहती हैं ‘ये ऐसा लिखते ही नहीं, जो पसंद न आए। सब अपनी अपनी जगह बहुत अच्छी हैं।‘ और सबसे ज्यादा कौन सी पसंद आई तो उनका उत्तर है- ‘सिरी उपमा जोग’ मैं पूछती हूँ कि लालू की अम्मा का चरित्र आपसे लिया गया है? तो हँस देती हैं। तभी उनके दामाद का फोन आ जाता है। फिर बात करने का वादा करके विदा लेती हूँ। कई सवाल हैं मन में! क्या सबकुछ समर्पित करके कोई इतना खुश रह सकता है- शायद आज भी बहुत सी स्त्रियों के सन्दर्भ में उत्तर ‘हाँ’ में ही होगा। मंच पत्रिका में छपे उनके साक्षात्कार से बहुत सी बातें पता चलीं, इस लेख में बहुत सी सामग्री का आधार वही है। शिवमूर्ति जी उत्साह से उनकी न्यूजीलेंड में पैराग्लाइडिंग और समुद्र के ऊपर रस्सी से लटककर करतब करने की तस्वीर साझी करते हैं। अमेरिका, चीन, जापान से घूमकर आई सरिता जी जब गाँव का जिक्र करती हैं तो अपने खेत-खलिहान में काम को बहुत उत्साह से बताती हैं। उनका उत्साह मुझे छू लेता है। ऐसी अनाम स्त्रियों को जानने की इच्छा बढ़ जाती है जो इन लेखकों के पीछे ताकत बनकर खड़ी हैं। अक्सर वे अनाम और अन-पहचानी ही रह जाती हैं। अब समय है जब उनके बारे में बात हो रही है और होनी चाहिए। सरिता जी की पहचान उसी क्रम का एक हिस्सा है।
– (सहायक संपादक: स्त्री दर्पण)
इन्द्रप्रस्थ कॉलेज
दिल्ली विवि.