Thursday, November 21, 2024
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“स्त्री और प्रकृति : समकालीन हिंदी साहित्य में स्त्री कविता”

स्त्री दर्पण मंच पर महादेवी वर्मा की जयंती के अवसर पर एक शृंखला की शुरुआत की गई। इस ‘प्रकृति संबंधी स्त्री कविता शृंखला’ का संयोजन प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह कर रही हैं। इस शृंखला में स्त्री कवि की प्रकृति संबंधी कविताएं शामिल की जा रही हैं।
पिछले दिनों आपने इसी शृंखला के तहत हिंदी साहित्य में मशहूर नाम रमणिका गुप्ता जी की कविताओं को पढ़ा।
आज आपके समक्ष महत्वपूर्ण कवयित्री रश्मि रेखा की कविताएं हैं तो आइए उनकी कविताओं को पढ़ें।
आप पाठकों के स्नेह और प्रतिक्रिया का इंतजार है।

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कवयित्री सविता सिंह
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“स्त्री और प्रकृति : समकालीन हिंदी साहित्य में स्त्री कविता”
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स्त्री का संबंध प्रकृति से वैसा ही है जैसे रात का हवा से। वह उसे अपने बहुत निकट पाती है – यदि कोई सचमुच सन्निकट है तो वह प्रकृति ही है। इसे वह अपने बाहर भीतर स्पंदित होते हुए ऐसा पाती है जैसे इसी से जीवन व्यापार चलता रहा हो, और कायदे से देखें तो, वह इसी में बची रही है। पूंजीवादी पितृसत्ता ने अनेक कोशिशें की कि स्त्री का संबंध प्रकृति के साथ विछिन्न ही नहीं, छिन्न भिन्न हो जाए, और स्त्री के श्रम का शोषण वैसे ही होता रहे जैसे प्रकृति की संपदा का। अपने अकेलेपन में वे एक दूसरी की शक्ति ना बन सकें, इसका भी यत्न अनेक विमर्शों के जरिए किया गया है – प्रकृति और संस्कृति की नई धारणाओं के आधार पर यह आखिर संभव कर ही दिया गया। परंतु आज स्त्रीवादी चिंतन इस रहस्य सी बना दी गई अपने शोषण की गुत्थी को सुलझा चुकी है। अपनी बौद्धिक सजगता से वह इस गांठ के पीछे के दरवाजे को खोल प्रकृति में ऐसे जा रही है जैसे खुद में। ऐसा हम सब मानती हैं अब कि प्रकृति और स्त्री का मिलन एक नई सभ्यता को जन्म देगा जो मुक्त जीवन की सत्यता पर आधारित होगा। यहां जीवन के मसले युद्ध से नहीं, नये शोषण और दमन के वैचारिक औजारों से नहीं, अपितु एक दूसरे के प्रति सरोकार की भावना और नैसर्गिक सहानुभूति, जिसे अंग्रेजी में ‘केयर’ भी कहते हैं, के जरिए सुलझाया जाएगा। यहां जीवन की वासना अपने सम्पूर्ण अर्थ में विस्तार पाएगी जो जीवन को जन्म देने के अलावा उसका पालन पोषण भी करती है।

हिंदी साहित्य में स्त्री शक्ति का मूल स्वर भी प्रकृति प्रेम ही लगता रहा है मुझे। वहीं जाकर जैसे वह ठहरती है, यानी स्त्री कविता। हालांकि, इस स्वर को भी मद्धिम करने की कोशिश होती रही है। लेकिन प्रकृति पुकारती है मानो कहती हो, “आ मिल मुझसे हवाओं जैसी।” महादेवी से लेकर आज की युवा कवयित्रियों तक में अपने को खोजने की जो ललक दिखती है, वह प्रकृति के चौखट पर बार बार इसलिए जाती है और वहीं सुकून पाती है।

महादेवी वर्मा का जन्मदिन, उन्हें याद करने का इससे बेहतर दिन और कौन हो सकता है जिन्होंने प्रकृति में अपनी विराटता को खोजा याकि रोपा। उसके गले लगीं और अपने प्रियतम की प्रतीक्षा में वहां दीप जलाये। वह प्रियतम ज्ञात था, अज्ञात नहीं, बस बहुत दिनों से मिलना नहीं हुआ इसलिए स्मृति में वह प्रतीक्षा की तरह ही मालूम होता रहा. वह कोई और नहीं — प्रकृति ही थी जिसने अपनी धूप, छांह, हवा और अपने बसंती रूप से स्त्री के जीवन को सहनीय बनाए रखा। हिंदी साहित्य में स्त्री और प्रकृति का संबंध सबसे उदात्त कविता में ही संभव हुआ है, इसलिए आज से हम वैसी यात्रा पर निकलेंगे आप सबों के साथ जिसमें हमारा जीवन भी बदलता जाएगा। हम बहुत ही सुन्दर कविताएं पढ सकेंगे और सुंदर को फिर से जी सकेंगे, याकि पा सकेंगे जो हमारा ही था सदा से, यानी प्रकृति और सौंदर्य हमारी ही विरासत हैं। सुंदरता का जो रूप हमारे समक्ष उजागर होने वाला है उसी के लिए यह सारा उपक्रम है — स्त्री ही सृष्टि है एक तरह से, हम यह भी देखेंगे और महसूस करेंगे; हवा ही रात की सखी है और उसकी शीतलता, अपने वेग में क्लांत, उसका स्वभाव। इस स्वभाव से वह आखिर कब तक विमुख रहेगी। वह फिर से एक वेग बनेगी सब कुछ बदलती हुई।

स्त्री और प्रकृति की यह श्रृंखला हिंदी कविता में इकोपोएट्री को चिन्हित और संकलित करती पहली ही कोशिश होगी जो स्त्री दर्पण के दर्पण में बिंबित होगी।

प्रकृति और स्त्री श्रृंखला की हमारी बीसवीं कवि रश्मि रेखा हैं जिनकी कविताएं हमेशा से सोचती हुई कविताएं रहीं हैं। प्रकृति के साथ इनकी कविताओं का संबंध रोमान का भी है और विचारों का भी। इस श्रृंखला की उनकी पहली कविता एक सहज प्रकृति लोक रचती है जिसमे चांद को सिर्फ देखने का उपक्रम नहीं बल्कि उसकी तरह होकर उसे देखने का कौतूहल भीतर भरा हुआ है। यही तो जिज्ञासा अब रही नहीं-लोग अपने को प्रकृति पर आरोपित करते रहते हैं जैसे इसका कोई रहस्य बचा ना हो। पानी के कैनवास को कौन देख सकता है-साधारण आंखें तो नहीं ही। इसमें दिखने वाले तारे, तारिकाएं और उनकी छवियां हमें अपनी उदासियों की कैसी झिलमिल चादर दिखा देती हैं, इन कविताओं को पढ़ते हुए ही महसूस होता है।मन में बैठी यह बात कि लड़कियां उन हरी डालो सी होती हैं जिन्हे एक समय बाद छांट कर अपना ही परिवार कही और रोप आता है। ऐसे में हरे पेड़ भी लड़कियों की तरह सिहरते हैं।
घर के भीतर कैद स्त्रियां खिड़कियों से बाहर की दुनिया ऐसे देखती हैं मानो वे इसका हिस्सा नहीं। फिर भी चांदनी रात इन संग होती है, प्रकृति में बिखरे उसके रंग उसके साथ होते हैं। इससे भी उनका मन बहलता नहीं। वह जानती हैं उन्हे उत्सर्ग और समर्पण ही करना है, या होना है। वह बनी ही है याकि बनाई गई हैं हवन को सौंपी जाती जैसे सामग्री। बाढ़ में उमड़े हरहराते पानी को वह महसूस करती है। कितना कुछ इसी तरह बह जाता है, कितने आशियाने उजड़ जाते हैं। हिफाजत कौन करे इस जीवन की? इस्तेमाल करो और फेंको, यही आज के दौर के वस्तुकरण की पूंजीवादी नीति है। प्रकृति और स्त्री दोनो को लेकर यही मनोदशा है समाज के नए देवताओं की, यही दर्शन है! कवि पूछती है: मैं। कहां हूं/ क्या नींद मैं नींद में हूं/ या तैर रही हूं/ जैसे तैरती है समुद्र में व्हेल।

समाज और देश, राजनीति और अर्थव्यवस्था सब को जांचती हैं रश्मि रेखा, जानने के लिए किस तरह मर रही व्हेल मछली; कैसे ईख जमीन से सख्ती और मिठास दोनों ही सोखता है और अपनी तरह खड़ा रहता है, बिलकुल सीधा। किसी दिन वह सोंटा भी बन जाता है और किसी की पीठ पर बरसता भी है। प्रकृति के पास आखिरी इलाज भी शायद यही है।
ऐसी गहन और महत्वपूर्ण कविताओं को आप भी पढ़ें और सोचें की चांद की तरफ कैसे हुआ जाए उसे सही कोण से देखने के लिए, कैसे प्रकृति की तरफ हुआ जाए उसके तिलिस्म को समझने के लिए: चांद को देखा था चांद बनकर/ नींद के आकाश में आंखों की उजास की तरह।

रश्मि रेखा का परिचय
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जन्म – 24 सितम्बर 1959 मुजफ़्फ़रपुर, बिहार, भारत। निधन -15 नवम्बर 2019।
शिक्षा: एम ए (हिन्दी) प्रथम श्रेणी, पीएचडी। महाविद्यालय में डेढ़ दशक से अध्यापन।
कृतियां- सीढ़ियों का दुख (कविता-संग्रह)। आलोचना, हंस, समकालीन भारतीय साहित्य, नया ज्ञानोदय, वागर्थ, इंडिया टुडे, पहल, सहारा समय, हिनदुस्तान आदि देश भर की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में लगातार कविताओं, आलेखों, टिप्पणियों, और इंटरव्यूह का प्रकाशन। पंजाबी बांग्ला, और अंग्रेजी में कविताओं के अनुवाद पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। बाबा नागार्जुन पर बनी एकमात्र फिल्म ‘साक्षी है धरती, साक्षी है आकाश’ का पटकथा लेखन एवं पार्श्वध्वानि। दूरदर्शन एवं आकाशवाणी से उनकी रचनाओं का प्रसारण व कार्यक्रम में भागीदारी। संपादन: शूक्रतारा, भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित तीसरा सप्तक के कवि, मदन वात्सायन की कविताओं का संकलन, शोधपरक भूमिका के साथ। समकालीन कविता की चर्चित पत्रिका संभवा के तीन अंकों का संपादन।

रश्मि रेखा की प्रकृति की कविताएं
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1*
चाँद की तरह

चाँद को देखा था एक रात चाँद बनकर
नींद के आकाश में आँखों की उजास की तरह

चाँद उगा था पश्चिम के आकाश में
डूबते हुए सूरज की तरह

शताब्दी के सबसे खूबसूरत चाँद को
देखा एक रात सचमुच एक चाँद की तरह
चाँद की आईने में

खबरों के नक्शे में दिखा नहीं उसका कोई देश
लेकिन मेरे सपनों में था उसका एक घर
धरती से आसमान को रौशन करते चाँद को
एक रात देखा मैंने
खुद चाँद बनकर

2*
पानी का कैनवास

शिकायत पर लगातार मिट्टी डालते
पैमानों में ही गड़बड़ी लगी
पाने की कोशिश में ज़्यादा खोया ही है
ज़िन्दगी के पहलू को बदल रही थी
पुराने किले की काली दीवार पर बैठी
सफ़ेद चिड़ियों की कतार
इन्हें ही सौंपे थे कभी अपने ख्वाब
स्मृतियों में कशिश की हल्की खरोंच
उकेर रही थीं साइबेरिया के परिंदों की भाषा
पटरियों पर भागती जा रही थी लोकल ट्रेन
छूटते जा रहे थे एक-एक कर पड़ाव
आज चाँदनी बहुत उजली है
वर्षों से मैं चाँद को नहीं देख पाई
तब कितना बड़ा होता था आकाश
और असंख्य पत्तियों से हमारे साथ
कैसे भागता फिरता था चाँद
मेरे लौटने के इंतजार में
हवा में अपना एक अलग रंग घोलती
कहाँ से आ गई बेगम अख्तर की आवाज़
‘ कोयलिया मत कर पुकार
करेज़वा में लागे कटार’
बेतरतीब रंगों की बहने लगी थी नदी
बारिश की बूँदों-सी टपकती
बीते वक्त की कतरनें
बना रही थी गीली आकृतियाँ
पानी के कैनवास पर
नींद आराम से सो रही थी शोर के बीच
और मैं जाग रही थी सन्नाटे में भी चुपचाप
अपने ही घर के चौखट पर
अपना नाम पुकारती देर रात गये

3*
चिड़िया की उड़ान

एक दिन अलसुबाह
भूरे ऊन के गोले _सी नन्ही चिड़िया ने
अपनी आंखें खोली
बहुत प्यार ऊष्मा से
अपनी आसपास की दुनिया को निहारा
उस सुदूर उड़ान के लिए
अपने पंखों को तौला
तिनका लिया
और एक लंबे मुश्किल सफर के लिए निकल पड़ी

पर शाम होने के बाद ही
दुर्बल पंखों को फड़फड़ाती
अपने उसी घोंसले में सिमट आई
शायद इस दुख के साथ
की हमारी किस्मत इतनी ही नपी तुली है क्यों।

4*
पेड़ों की हरियाली

हरे-भरे पेड़ों-सी होती हैं लड़कियाँ
अपनी घनी शीतल छाँह में
धूप और बारिश से बचाती
पत्तों के पंखे डुलाती
रंग-बिरंगे फूलों से सजी
बिखेरती हैं खुशबू हवाओं में

संगीत का शायद ही कोई साज़ हो
जो निर्मित न हो उनकी काया से
उन्हीं के स्वर से जन्म लेती हैं
सारी मूर्त और अमूर्त कलाएँ
जिसमें आकार लेता है सकल निराकार

पेड़ों की डालियाँ ये
हर बार छाँट दी जाती हैं
घर की दहलीज़ पर
चाहे जहाँ भी रोप दो

5*
खिड़की के पार

चौखट की तरह जड़ दी गई खिड़की के पार
देखती है वह अनंत दृश्य
सड़क से गुजरते हुए
सड़क पर बनते हुए
जिसमें हमेशा शामिल है वह
एक आभाव की तरह
दृश्य के अदृश्य हो जाने के बाद भी

खिड़की की सरहदों के पार
आती-जाती सवारियों, लाउडस्पीकरों और ज़िंदगियों
के ज़िन्दा शोरगुल के बीच
वह बाँटना चाहती है
दवा की शीशी पकड़े धीरे-धीरे लौटती
उस बहुत उदास औरत का दुख
या जीविका की तलाश में खाली टोकरी का
असह्य बोझ ढोते उस आदमी का दर्द

खिड़की के सींखचों के अंदर
अकेले चाँद के साथ सितारों से भरी रात
या सूरज के उजास भरे दिन में भी
वह अक्सर नहीं रोक पाती है
आँखों की दहलीज़ पार करते आँसूओं को
जब लोगों के मन की इच्छाभाषाएँ जान
उन्हें पूरा न कर पाने की परवशता में
उसकी आत्मा तक खरोंच डाली जाती है

तब इन सलाखों से देखती वह
आकाश के फैलाव में उड़ान भरते डैने
खुली सड़क पर चलते हुए पाँव
हवा के आँधी में तब्दील होने के अनेक रंग
फिर अपने भीतर खुलती उस खिड़की में
खोजती है अपने उन पंखों को
जो पिता ने आते समय दिये ही नहीं
माँ ने चुपचाप रख लिए थे अपने पास
बक्से में रखे अपने कटे पंखों के ऊपर

पनप जाती हैं थोड़े-से प्यार की नमी से
चाहे जैसे हो मिट्टी, चाहे जैसी हो हवा
जड़ों से उखाड़कर भी
वे बना ली जाती हैं अक्सर घरों में
मेज़, कुर्सी, खाट
हवन की हवि
कई बार ऐसे हालात भी
इन्हें सुलगा नहीं पाते
वे अँगुली नहीं उठतीं
जुबान नहीं चलातीं

पेड़ों की हरियाली-सी होती हैं लड़कियाँ
दुनिया के सारे नीड़
बनते हैं उन्हीं की टहनियों पर

6*
कब तक

पतझर के पत्तों से
कब तक मनाए वसंत
अखबारों के अक्षर
चींटियों की तरह रेंगते हैं
आँकड़ों के इंद्रधनुषी सैलाब
तेज़ी से उमड़-उमड़कर आते हैं
पर टूटे छप्परों की सीलन और
डेट एक्सपायर्ड होती जा रही
दवाओं के बीच भी
दवा के भाव में
बीमार बच्चे की छटपटाहट फैलती चली जाती है

ज़िन्दगी के हर मोर्चे पर हारते हुए
तीखा एहसास होता है
हमला बराबर पीछे की ओर से ही होता रहा
और तब
मन की टूटन में आँखों का विद्रोह लिये
अक्सर अपने को

इन कुतुबमीनारी आँकड़ों में तलाशा है
हो मेरे लिए कतई नहीं है

यादें नारे और जुलूस की राजनीति के बीच
शब्दों के अर्थ
तस्वीरों के रंग से सूखने लगते हैं
और मुझे नहीं मालूम
इस तिरंगे आकाश के नीचे
दुरंगी होती देश की अधिकांश राजनीति के बीच
मुझे कब तक झेलनी है
उनके अपराधों की बनती
लंबी फेहरिस्त

7*
तिलिस्म और सपने

पश्चिम में लहूलुहान हो डूबते
सूर्य की अस्त होती लालिमा में
उगती दीखती है उनकी आकाश-गंगा
अपने असंख्य-प्रतिबिम्बों से विस्मित करती हुई

पाताल लोकवासी इन देवदूतों के तिलिस्म
सम्मोहित कर रहे हैं हमें
भविष्य की सुन्दरतम आहट बनकर
और विस्मृत कर रहे हैं पहचान
तिलिस्म और सपनों की अलग-अलग बुनियाद की

पृथ्वी के किसी कोने में उगे सब्जबाग को
हमारी आँखों में उगने की कोशिश में
वे हमारे सपने खरीदना चाह रहे हैं
जतन से पाले हुए हमारे सपने
जिन्हें बीज बनाकर रोपेंगे वे
हमारी अनंत इच्छाओ के उर्वर खेत में
ताकि काट सकें अपनी फसल

किवाड़ खोलकर
दस्तक देते समय के बदले अंदाज में
जब उत्कीर्ण हो उठेगा यह पसंद सीबुनियादी अंतर
और साफ –साफ़ दिखने लगेगा
चिड़ियों द्वारा सारा खेत चुग लिया जाना
तब क्या सपने भी नहीं होंगे हमारे पास

वे सपने ही तो हैं
जिनकी अनंत संभावनाओं से
भयभीत रहते हैं देवदूत

 

8*
ईख

अपनी ज़मीन पर एकदम सीधा तना ईख
कहाँ होता है इतना सीधा
कोई चाहे तो भाँज ले लाठी की तरह
वक्त-बेवक्त की जा सकती है अच्छी पिटाई
पर सारी मिठाइयों में पायेंगे आ इसी की मिठास

कई-कई मजबूत गाँठो और सख्त खोलों में
कहाँ से आती है इतने गजब की मिठास
क्या सख्त और कड़े छिलकों में ही होती है
इसे बचा रखने की ताकत
शायद एहतियात के तौर पर ही बरती होगी
कुदरत ने इतनी हिफ़ाज़त

पर कहाँ से हो पाती है हिफ़ाज़त
सबसे पहले खबर लगती है चींटियों को
फिर हवा में फैलने लगती है खुशबू
जड़ से उखड़कर भी बचा लेती है अपने को

पर होते ही आहत
रिसने-पसरने लगती है इसकी मिठास

खेतों, खलिहानों, सड़कों, गालियों को पार करती
चढ़ जाती है ऊंची अट्टालिकाओं तक
गुड़ की भेली से शाही मिठाइयों में बदलती
सीढ़ी दर सीढ़ी

कई-कई मजबूत गाँठो और कड़े छिलकों से बनी
अपनी ज़मीन पर एकदम सीधा तना ईख
कैसे खींचता होगा धरती से
इतनी सख्ती इतनी मिठास एक साथ

9*
बाढ़

इस बीच बहुत पानी बह चुका था
जिन्दगी और मौत की कशमकश में
उनके पास बची नहीं थी मनु की नाव
जिससे की जाती एक नयी शुरुआत

समुन्द्र की तरह दिखने की ललक में
तिरोहित हो गई थी नदी की दुनिया
कटाव में टूटकर लगातार
धारा में समाते जा रहे थे किनारे
सैलाब में डूबी जा रही थीं आकृतियाँ
बहे जा रहे थे उनके छोटे-छोटे सुख
उजड़ रहा था आशियाना
बचाने के नाकाम हो रहे थे सारे नुस्खे

वायु मार्ग में मची थी हलचल
आकाश में देवता कर रहे थे कूच
प्रलय के बाद क्या अभी भी बचा था जीवन

10*
यूज एण्ड थ्रो

क्या मैं नींद में चल रही हूँ
या तैर रही हूँ, जैसे तैरती है समुन्द्र में व्हेल
जैसे पत्थरों पर पानी का झरना, मैं क्यों बहना चाहती हूँ
मैं क्यों देखना चाहती हूँ
थिर पानी में अपना चेहरा
यह कैसा शोर है, तूफान की तरह उठता
इसमें भीतर से आती कोई आवाज़ क्यों नहीं है

यह बुलंदियों पर चढ़ते जाने का शोर
कामयाबी और चमक-दमक का शोर
इसमें क्यों शामिल नहीं हैं हमारे जज़्बात

नदियों, पंछियों और हवाओं का शोर
क्यों सुनाई नहीं पड़ता
क्यों हर तरफ़ दहशतअंग्रेज खबरों का शोर है

हमें अलग कर दिया गया है फालतू समझ
या हम चुक गये हैं बेतरह
पंक्ति पूरी होने है पहले ही जैसे
चुक जाती है कलम की स्याही
फिर उसे देखना फेंकना ही पड़ता है
लिखो फेंको के दौड़ते भागते समय में

याद आता है वह गुज़रा ज़माना
जब कलम के साथ-साथ
हम कलमदान को भी
बड़ी हिफ़ाज़त से रखते थे
धोखे से उसका टूट जाना
कर जाता था बेहद उदास
यूज एण्ड थ्रो के इन नये समय में
मैं कहाँ हूँ
क्या मैं नींद में
चल रही हूँ
या तैर रही हूँ
जैसे तैरती है समुन्द्र में व्हेल

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