Wednesday, December 25, 2024
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•कृष्णा सोबती का पहला और अंतिम उपन्यास : चन्ना•

हिंदी में संवाद शैली में आलोचना लिखने की एक नई शैली सामने आई है जोबहुत प्रभावशाली और पाठकोपयोगी साबित हो रही है।मुम्बई के प्रसिद्ध कवि अनूप सेठी और उनकी विदुषी पत्नी ने यह शैली विकसित की है।
सापेक्ष के विनोद कुमार शुक्ल विशेषांक के लिए उन दोनों (अनूप सेठी और सुमनिका सेठी) ने उनके उपन्यासों पर परस्पर संवाद किया था। दोनों लेखकों ने सोबती जी के प्रथम उपन्यास चन्ना पर यह आपसी संवाद किया है।
प्रस्तुत है यह संवाद
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अनूप: क्या दस पंद्रह पंक्तियों में ‘चन्ना’ उपन्यास की कहानी कही जा सकती है- ताकि जिसने यह उपन्यास न पढ़ा हो उसे कहानी का कुछ अंदाज़ हो सके?
सुमनिका: दस पंद्रह पंक्तियों में चन्ना की कहानी शायद ही कह पाऊँ। क्योंकि पढ़ने के बाद मुझे लगा कि यह तो कोई महागाथा है। चन्ना की कहानी उसमें है- लेकिन उस कहानी से लिपटा पूरा एक देश है, काल है, वातावरण है, कितने ही पात्र हैं, और हैं उनकी अन्तरकथाएँ । एक-एक दृश्य की बारीकियों में रम कर लिखा गया यह उपन्यास कृष्णा जी का पहला उपन्यास है- शायद सन 1950 में लिखा गया, पर पहले उपन्यास का नौसिखियापन तो कहीं नहीं। वही गहरी, बहती, छलछलाती हुई भाषा का तेवर है। चन्ना केंद्र ज़रूर है, पर उससे जुड़े जितने भी पात्र हैं- जैसे हर पात्र खुद में एक संसार है। उन सबके आत्मतत्व में लेखिका गहरे प्रवेश कर जाती है, भीतर तक- मन की सारी जटिलताओं में, एक-एक भंगिमा के वर्णन के जरिये- मार्मिक डिटेल्स से रचा गया यह उपन्यास इसीलिए लगभग 400 पृष्ठों में समय हुआ है।
अनूप: फिर भी कुछ तो कथा का सार होगा..
सुमनिका: अच्छा कोशिश करती हूँ… तो यह कथा विभाजन के बाद लिखी गई, लेकिन जीवन उसमें विभाजन से पहले का समाया हुआ है। अविभाजित पंजाब के एक बड़े ज़मींदार शाह जी के घर, उनकी बड़ी हवेली में उनकी नातिन का जन्म होता है। नाती की जगह एक नातिन का जन्म। शाहजी का अपना कोई पुत्र नहीं, बस एक लाडली बेटी शीला ही है। तब शाहजी इसे विधि का विधान मान लेते हैं, सिर आंखों पर लेते हैं। शाह जी किसी राजा से कम नहीं, उनकी ज़मीनों पर काम करने वाले किसान, उनके आसामी उनकी रियाया से कम नहीं…
तो यही बच्ची चन्ना है- लेकिन दस दिन बाद शाहजी की बेटी यानी चन्ना की मां गुज़र जाती है, और घर भर, घर ही क्यों, पूरा गांव मातम में डूब जाता है। और तब कथा पीछे की तरफ मुड़ती है-
शाह जी और शाहनी की फूलों सी सुकुमार ‘शीलो’ की कथा, उसके ब्याह की कथा, और विवाह के बाद कारुण्य से भीगी हुई उसकी वैवाहिक विडम्बना की कथा।
अनूप: कैसी विडंबना?
सुमनिका: शीला के श्वसुर लाला दीवानचंद स्यालकोट के बड़े व्यापारी हैं, उनका इकलौता बेटा धर्मपाल व्यापार के विस्तार के लिए बम्बई जाता है। इस बीच उनके पिता गुज़र जाते हैं। और धर्मपाल बम्बई से लौटते हैं, दूसरा विवाह करके, श्यामा नाम की आधुनिका के साथ।
पति अपनी नई पत्नी के आकर्षण और प्रेम में डूबे ऊपरी मंजिल पर रहते हैं। शीला अपने मायके की खास ‘चाची’ महरी के संग नीचे। कृष्णा जी ने इस विडंबनात्मक स्थिति का जैसा वर्णन किया है- उसे तो बेजोड़ ही कहना चाहिए। इतनी मौन और ठहरी हुई पीड़ा- इतनी बोझिल खामोशी- फिर भी जीवन को चुपचाप न जाने किस आंतरिक गरिमा से जीना…
और फिर एक मोड़ आता है, दूसरी पत्नी की अनुपस्थिति में, धर्मपाल के मन में- वे पश्चाताप, करुणा, प्रेम और आवेग की छलछलाहट में शीला की ओर मुड़ते हैं और यों भूमिका बनती है, चन्ना के जन्म की। लेकिन फिर शीला पति के नज़रिए में कुछ ऐसा पहचान लेती है कि उसका मन बुझ जाता है… यह तमाम वर्णन अविस्मरणीय हैं, शीला ही नहीं श्यामा के मन का अवगाहन भी।
अनूप: लेकिन फिर चन्ना की कथा?
सुमनिका: हाँ, उसका जन्म होता है, अपने ननिहाल में, गांव में, और अपनी तमाम सम्पति के वारिस को तरसते शाहजी जी गांव भर में मिठाई की चंगेरें बंटवाते हैं… कि ‘लड़कों सी लड़की आई है…’
अनूप: तो चन्ना गांव में रहती है, एक खेतिहर समाज की परम्पराओं और संस्कारों के बीच?
सुमनिका: गाँव में वह पलती है, गाँव उसके भीतर समय हुआ है, उसका अविभाज्य हिस्सा। लेकिन केवल गांव ही नहीं, अपनी मां को खोजती वह स्यालकोट पिता के साथ भी रहती है, जो गांव नहीं, एक शहर है। चन्ना के जीवन में यह आवाजाही लगी रहती है, गांव से शहर, शहर से फिर गांव… इनके बीच में बहती रहती है चनाब की धारा।
जैसे वह धारा दोनों के बीच है… दोनों को थामे हुए और गतिमान। लेकिन आपने सही कहा… चन्ना जिन तंतुओं से बुनी हुई है उनमें गाँव की सादगी और खुलापन ही ज़्यादा है। विदेश से आये हुए युवक उसे हैरत से देखते हैं। एक तो पूछता भी है कि क्या आप गांधी से प्रभावित हैं? क्योंकि चन्ना का गांव से जैविक लगाव उनके तसव्वुर में ही नहीं।
तो अम्बरवाल, स्यालकोट, श्रीनगर, फिर कॉलेज की पढ़ाई के लिए लाहौर और फिर शिमला… चनाब, झेलम और रावी में जल बहता रहता है, उनके पानियों में सुबह, शाम और सितारों भरी रातें झलकती रहती हैं… और चन्ना का अलग सा व्यक्तित्व अपनी परिस्थितियों और संस्कारों से निर्मित होता रहता है।
अनूप: अलग सा किन अर्थों में?
सुमनिका: अलग सा इस तरह कि चन्ना साधारण लड़कियों सी लड़की नहीं है। कहना चाहिए कि जिस तरह की परवरिश आमतौर पर पुत्रियों या लड़कियों की होती है, वैसी चन्ना की नहीं हुई है। चन्ना नाना-नानी की बड़ी सी हवेली में उनकी आंखों का सितारा है- सौ सौ लाड़ों में पली। फिर मां तो है नहीं, शाहनी यानी उसकी नानी उस रोती हुई नवजात बच्ची को सईदा बीबी की गोद मे देती है, और वही ममता की मूरत बन कर उसे पालती है, शायद वैसे ही जैसे शीला के लिए चाची महरी का अस्तित्व है।
अनूप: चाची महरी?
सुमनिका: सईदा बीबी, चाची महरी… कहने को तो शाह जी के घर की परिचारिकाएँ हैं, पर इस घर में उनका दर्जा साधारण है नहीं। कारण, उन्होंने भी इस घर के लिए खुद को भुला ही दिया है। अद्भुत हैं ये दोनों ही पात्र।
आपने चाची महरी के बारे में पूछा… तो वह शीला के साथ ससुराल आती है, उसके हर पल की गवाह, माथे की एक एक शिकन पहचानने वाली… अपनी नीतिनिपुणता से, सांसारिक समझ से, वाकपटुता से उस ससुराल के घर में अपनी ‘बच्ची’ की छवि को, खुद उसको, हरसंभव बचाने की कोशिशों में जुटी… क्या ही तेज़ नज़र- पर अपनी ‘शीलो’, अपनी ‘बच्ची’ के लिए अथाह प्रेम से लबालब भरी।
अनूप: हाँ तो बात चन्ना के स्वभाव या व्यक्तित्व की हो रही थी…
सुमनिका: हाँ, तो नाना-नानी के लाड़-प्यार में पली चन्ना पर कोई बंदिश, कोई रोक-टोक नहीं । वह हवा के झोंकों की तरह अपनी मर्ज़ी से इधर-उधर डोला करती है। अपने घोड़े पर सवार हो वह नाना की तरह ही ज़मीनों पर घूमती है। मदरसे में लड़कों के साथ पढ़ती, उनसे खेलती, लड़ती, झगड़ती, दोस्तियाँ करती। और यह सब नाना-नानी, सईदा बीबी और चाची महरी की ठंडी छाँह तले होता है।
साथ खेलने वाले लड़के भी समझ नहीं पाते कि कब चन्ना अचानक किस की तरफ हो जाती है-पाला बदल लेती है। शायद किसी एक की तरफ नहीं, जब जो गलत लगे- उससे दूर चली जाती है-फिर लौट आती है।
सईदा बीबी उसे डांटती है, समझाती भी है… पर चन्ना का दुख, उसकी व्यथा, उसका क्रोध, उसका विद्रोह, कुछ अलग तरह से व्यक्त होता है, जिसे सईदा ही देख पाती है। बाल मनोविज्ञान की दृष्टि से भी ये वर्णन अनूठे हैं। उसका खिलौनों के लिए मचलना, उसकी चंचलता, उसकी इच्छाएँ, और विद्रोह के रूप श्यामा की नज़र में उसके ‘बिगड़े’ होने के सबूत हैं। लेकिन बात फिर वहीं आ जाती है कि वह शुरु से ही किन्हीं भिन्न सांचों में ढल रही है। मार खा कर रोती नहीं, शायद रोना उसे पसन्द नहीं। बेसाख्ता आँसू उमड़ भी आएँ तो कारण स्वीकार करना नहीं चाहती। स्कूल में लड़कों से उसके बराबरी के सम्बन्ध हैं, लड़कियों से तो दोस्ती ही हो नहीं पाती, लड़कों से हाथा-पाई भी आम बात है।
अनूप: पर यह तो बचपन की बात हुई… युवा होने पर?
सुमनिका: यही खुला, निर्भीक और निःसंकोच व्यवहार युवा होने पर भी दिखाई पड़ता है। अक्सर जो पुरुष उसके प्रति आकर्षित होते हैं, पूरी तरह उसे या तो समझ नहीं पाते या उन्हे कुछ तो अजब सा लगता है। उन्हें लगता है कि वह उन्हें ढील दे रही है, पर फिर वह उन्हें रोक देती है।
अनूप: तो क्या भावुकता के क्षण नहीं आते?
सुमनिका: आते हैं, पर जैसे वह खोज रही होती है थाह लेने की कोशिश। कुछ है जो रेखांकनीय है। पिता धर्मपाल की मृत्यु के बाद श्यामा के भाई जगदीश जिस तरह घर की चीज़ों के बारे में फैसले करने लगते हैं, फिर वह गाड़ियों का बेचना हो या मुनीम जी को नौकरी से निकालना, उस समय युवा चन्ना का अधिकार पूर्ण हस्तक्षेप अद्भुत है। नाना के घर में भी ऐसी परिस्थितियों से संघर्ष करती है।
अनूप: तो क्या यह अधिकार भावना है- पिता की एकमात्र सन्तान होने का अहसास?
सुमनिका: अधिकार भी हो सकता है, पर केवल उतना सा नहीं है। मुझे लगता है कि चन्ना में परिस्थिति और चीजों के आकलन की बड़ी संयत दृष्टि है, जो दूसरे के मन्तव्य को परखती है। इंट्यूशन भी है, बारीक ऑब्ज़र्वेशन भी, और सबसे बढ़कर करुणा भी… जिससे वे फैसले लेती है, या कहिए कि हस्तक्षेप करती है।
अनूप: इसका कोई प्रमाण यानी उदाहरण?
सुमनिका: नाना जब अपनी असहायता और एकाकीपन में अपने टुच्चे रिश्तेदारों को बुला लाते हैं तब जमींदारी के उलझे मामलों में चन्ना जिस तरह नाना के हितों की रक्षा करना चाहती है- वह उसके जमींदारी रक्त से भी जुड़ा है, अपने वातावरण, अपनी ज़मीनों, अपने लोगों, अपने पशुओं से गहरे लगाव और तादात्म्य के कारण भी है। कहीं कोई गहरा स्रोत है, गम्भीरता है- जो उसे शक्ति देती है। यह न केवल तर्क की ताकत है, न केवल भावुकता।
अनूप: तब तो चन्ना के इस चरित्र के बरक्स उसकी मां शीला का व्यक्तित्व बहुत अलग लगता है- क्या नहीं?
सुमनिका: हाँ, लगता ही है। उपन्यास के पात्र भी इस अंतर को गाहे बगाहे सोचा करते हैं। मां के अभाव का भाव पूरे उपन्यास में छाया हुआ है- या कहें कि इस अभाव की छाया चन्ना पर तो पड़ती ही है, नाना-नानी पर है, पति धर्मपाल पर है, पत्नी श्यामा पर भी है और चाची महरी तो अपनी ‘बच्ची’ को कभी भुला ही नहीं सकती।
लेकिन शीला के व्यक्तित्व की रेखाएँ भी सीधी-सादी नहीं- खासी जटिल हैं। शाहजी और शाहनी की इकलौती कोमलांगी बेटी शीला… शायद उसका नाम भी अर्थवान है… शील और सौंदर्य की प्रतिमा… पंजाब के उच्च वर्ग की संस्कारशील पुत्रियों का मानो आदर्श रूप- मितभाषिणी- मृदुभाषिणी लेकिन सबसे महत्व की बात यह है कि वह आत्मतत्व से रहित नहीं। शायद ही कभी किसी ने उसकी ऊंची आवाज सुनी हो- यहां तक कि जब पति दूसरा विवाह करके उससे दामन छुड़ा लेते हैं, तब भी इस अपमान का सामना एक उदासीनता से करती है। लोग हैरान हैं कि इतनी बड़ी घटना पर कुछ कहा सुना नहीं- अपने जायज़ अधिकार के लिए झगड़ा नहीं किया- वापिस लौट जाना चाहा, पर शाहनी ने कुछ सोच कर रोक दिया। इस उदासीन और एकाकी भाव की तह में उसका आहत स्वाभिमान है, या शायद अपने ही संग जी सकने की कोई भीतरी ताकत..
अजब लगता है उसका मनस तत्व- कि वह एक बार भी नई बहू की निंदा में शामिल नहीं होती, उसके प्रति द्वेष नहीं रखती… जो भी शिकायत है शायद पति से है। शायद सोचती है कि वह पति के हृदय में उस तरह जगह नहीं बना पाई, लेकिन दूसरी ओर आत्मदया से ग्रस्त भी नहीं लगती। कुछ है धीर- गम्भीर, बड़प्पन या कोई उदात्त भाव।
अनूप: तो चन्ना में यह नहीं?
सुमनिका: ऐसा तो नहीं। मां के स्वच्छ, रौशन मानस की छाया चन्ना में भी अवतरित हुई है। बहुत बार जब चंचल बच्ची चन्ना की आंखों में एक खामोशी उभर आती है, नज़र में कुछ ऐसा भाव जिसे पिता पहचानते हैं, देखते हैं, कि उन आंखों में से शीला झांक रही है। चन्ना अपनी मां को उनके लिखे पत्रों में देख पाती है, पढ़ पाती है। वह कमल से कहती है, “कभी कभी सोचती हूँ, बड़ी मां अच्छी, बहुत प्यारी होंगी। इसलिए नहीं कहती हूँ कि वह मेरी अपनी मां थीं। उनके पत्रों को पढ़ कर लगता है कि उनका अध्ययन कितना गहरा था और पकड़ कितनी तेज़ थी। केवल जो नहीं था उनके पास, वह अपने अधिकार की मांग नहीं थी। चुपचाप मूक भाव से अपने को पन्नो में लिख जाने का ज्ञान मां में था तो पिता को एक उलाहना देने की समझ न होगी, यह कैसे कहा जाए। पर अधिकार की डोर कट जाने पर उसने प्यार और दुलार की दुहाई न दी।
अनूप: क्या शेष स्त्री चरित्रों की रेखाएँ और रंग भी इतने भास्वर रह पाए हैं, जितने चन्ना और उसकी मां के?
सुमनिका: बहुत से स्त्री चरित्र हैं- चन्ना की सौतेली मां श्यामा, शाहनी, चाची महरी, सईदा बीबी, मिस पाल, लाला जी की दूसरी पत्नी यानी मौसी… सभी को लेखिका ने जैसे अपनी दृष्टि के गहरे फोकस में उतार लिया है- सबके साथ लेखकीय न्याय किया है- सबके दिलों में, दुखों और अहसासों के पानी में कृष्णा जी उतर गई हैं- एक एक चरित्र अपने जीवन के इतिहास, परिस्थितियों और आंतरिकता के प्रकाश वृत्त में खड़ा दिखता है। सभी अविस्मरणीय हैं- खासकर चाची महरी और सईदा बीबी के ज़मीनी चरित्र तो अपनी ममता में बेजोड़ हैं।
अनूप: और पुरुष चरित्र?
सुमनिका: हाँ कई पीढ़ियों के पात्र हैं, कई वर्गों के, शहरी- ग्रामीण। रोबीले नाना शाहजी, चन्ना के पिता धर्मपाल, चन्ना के दादा लाला दीवानचंद (जिन्हें चन्ना ने देखा नहीं) फिर नाना की ज़मीनों के किसान, उनके मित्र, धर्मपाल के मित्र, और फिर उन मित्रों के युवा पुत्र-सुरेश, बलवंत, कमल और भी कई युवा छात्र…
कृष्णा जी की मर्मभेदी कलम स्त्री पुरुष में भेद नहीं करती- लेकिन जो प्रतिबिम्बित होता है, फलित होता है- उसमें पुरुष की फिसलन फलित होती है, मन की अस्थिरता भी। धर्मपाल बम्बई जाकर शीला को भूल जाते हैं, स्वयं उनके पिता दीवानचंद की एक दूसरी पत्नी भी अवतरित होती हैं। सईदा बीबी का पति आले खाँ उसे छोड़ कर चला गया है। और चन्ना बच्चों के मुख से गाये टप्पों में इस दुख को सुनती है… “ओ बागों की ओट में खड़ी मेरी मां, तू मुझे देख कर न रो। लड़कियों के दुख ही ऐसे हैं।”
अनूप: तो देश-काल का प्रतिनिधित्व कितना हो पाया है?
सुमनिका: पहले देश की बात करूँ, हालांकि काल उससे लिपटा ही होता है। ‘चन्ना’ की कथा में अविभाजित पंजाब के गांवों की शक्ल उभर आती है- गांव की ज़मीनें, कुएँ, मीठी हवा में झूमती फसलें, उनपर काम करते जाट किसान और उन ज़मीनों के मालिक शाह और ज़मींदार।
मिट्टी से पुते घर, घरों में सरसों के तेल के दियों की मद्धिम रोशनी, मदरसा, मसीत, ठाकुरद्वारे और गुरुद्वारे। पूरे उपन्यास में पंजाब के गांवों के नक्श दर्ज हैं, अपनी खास बोली-बानी के साथ, वेशभूषा के साथ। साथ साथ तमाम शहर भी उभरते हैं। शाह जी के गांव का नाम शायद अम्बरवाल है, लेकिन दूर दूर तक उनकी ज़मीनें पसरी हैं, ज़मीनों में कुएं हैं। और इन ज़मीनों पर हिन्दू मुसलमान असामियाँ एक पारस्परिक जीवन जीती हैं।
शीला के ससुर स्यालकोट के बड़े व्यापारी हैं, स्याल कोट जैसा शहर, दीवानचंद का वैभवशाली घर, गाड़ियाँ, नौकर चाकर, चन्ना का स्कूल। फिर उपन्यास के नक्शे पर उभरता है लाहौर, जहां होस्टल में रहकर चन्ना कॉलेज की पढ़ाई करती है। छुट्टियों में श्रीनगर और गुलमर्ग का वास। इसी तरह शिमला भी अपने पूरे नयन- नक्श सहित नमूदार होता है- रात के वक्त बर्फीले सफेद पहाड़ी रास्तों पर घोड़ा दौड़ाती चन्ना का अक्स नहीं भूलता।
अनूप: क्या विभाजन पूर्व पंजाब की राजनीतिक हलचल की आहट भी सुन पड़ती है?
सुमनिका: हाँ, मैं बात करने ही वाली थी, पर आपके स्थान के प्रश्न में एक बात जोड़ना भूल गई हूं- वह है इस वर्णित भूमि में नदियों का अस्तित्व। यह कुछ खास है- शीला और चन्ना के गांव और स्यालकोट के बीच चनाब बहती है, और उसमें अल्लाहरक्खे की बेड़ी (नाव) है। इस नदी से शीला का जैसे कोई रूहानी रिश्ता है- नन्ही चन्ना का भी ।
इस पानी मे तैरती बेड़ी- रात में तैरते चाँद का बिम्ब- जैसे चन्ना का ही प्रतिरूप हो। नदी में कभी जाता है, लहरें और चक्कर (भंवर) पड़ने लगते हैं, लेकिन चन्ना है कि नदी से ही जाएगी।
फिर लाहौर जाती है तो वहाँ रावी है। चन्ना लाहौर के सुंदर बाजारों में नहीं दिखती- दिखती है तो तांगे की सवारी करती हुई रावी के तट पर। फिर काश्मीर में जेहलम है- वहां जेहलम के जल से भीगी भूमि से सईदा बीबी की आत्मा जुड़ी है। रात के वक्त पानी को देख, मोटर गाड़ी से उतर कर चन्ना पानी में उतर जाती है, कपड़ों समेत…
अनूप: तो फिर पूछना चाहूंगा की विभाजनपूर्व राजनीतिक सुगबुगाहट के कुछ संकेत हैं क्या?
सुमनिका: हैं… गांव में शाह जी सरकार के एक काले बिल या कानून की चर्चा करते हैं- जहां ज़मींदारों के हक छीन लिए गए हैं और ज़मीनों के लगान के पीढ़ियों के लम्बे-चौड़े हिसाब पर हमेशा के लिए लीक फिर गई है। शाह जी भीतर से टूट जाते हैं- उन्होंने अपनी असामियों की ब्याह-शादी-गमी में सरपरस्ती की है। वे कहते हैं ‘इतना उल्टा कानून रब्ब का भी नहीं- इसमें अंग्रेज़ की चाल है, जो अंदर ही अंदर जमीदारों को कमज़ोर और जाटों को बढ़ावा देना चाहता है।’
जाटों की जगह वह कुछ और (शायद मुसलमान) कहते कहते रुक जाते हैं। दूसरी ओर अंग्रेजों ने ‘छापों’ (अखबारों) में धर्म में भेद करना शुरू कर दिया है। चरखा जो सदियों से गांवों में घर-घर चलता रहा है, आज गांधी से जोड़ कर हिंदुओं का करार दिया जा रहा है। लाहौर से छपने वाला छापा कुछ नई नई बातें छापता है… वह मोटे मोटे तारों का सूत, वही जुलाहे का बुना खद्दर। फिर खद्दर किसका है? चन्ना सोचती है कि उसके चौधरी चाचा, आँशा बीबी, राबयां, और सब से बढ़ कर जिसे उसने मां की तरह जाना- सईदा बीबी। इन सब के बारे में अखबारों की क्या राय है?
चन्ना समझ नहीं पाती कि यह भाषण देना क्यों जरूरी है कि तुम सब एक हो- क्योंकि खंड खंड तो कुछ है ही नहीं- तो इन बिखरी बातों का मतलब? उसे हिन्दू- मुस्लिम एकता के भाषण कृत्रिम लगते हैं, उसने तो सदा इन्हें एक साथ ही देखा है- शहर में यह हवा चलने लगी है।
अनूप: अच्छा, एक और बात… क्या चन्ना के व्यक्तित्व में कृष्णा सोबती के परवर्ती स्त्री चरित्रों के बीज हैं- जैसे मित्रो मरजानी, डार से बिछुड़ी वगैरह के?
सुमनिका: ठीक कहा। चन्ना कृष्णा सोबती की प्रथम बेहद आज़ाद ख्याल, बेहद ओरिजनल स्त्री है- जो न केवल पुरुष की तरह तार्किक है न स्त्री की तरह कोरी भावुक। वह नारी है, पर नारी से कुछ अधिक- बड़ी बारीकी से व्यक्तित्व के इन तारों को लेखिका ने खोला है । व्यक्तिगत लगाव या द्वेष उसके लिए सत्य के आकलन के बीच नहीं आने पाते। नाना को वह नाना की तरह प्यार करती है तो जमींदार के रूप में भी देख पाती है- श्यामा को अपनी न जान कर भी वह कभी हल्केपन से उसके बारे में नहीं सोचती- उसे लगता है कि उसने पिता की दुर्बलता को अपने हाथ से थाम रखा था- और उसकी अपनी माँ पिता को लेकर अधिकार के मोह में सावधान न रह पाई होगी। यही उसकी विशिष्ट नज़र है। जिस तरह वह बड़े गुरुतर सत्यों को देखती है, पहचानने की कोशिश करती है, उसमें सबसे अधिक प्रतिबिंब तो खुद कृष्णा सोबती का ही झलकता है। उन्होंने कहा भी है कि अगर यह उपन्यास छप जाता तो ज़िंदगीनामा न लिखा जाता।
अनूप: अब एक अन्तिम बात…
चन्ना भाषा के इलाकाई प्रयोग के मुद्दे की वजह से छापने से रोक दिया गया था। सत्तर साल बाद मूल रूप में ही छपा। क्या यह पंजाबी आंचलिकता का उपन्यास है? क्या इसे और फणीश्वरनाथ रेणु के ‘मैला आँचल’ को आमने सामने रखा जाना चाहिए?
सुमनिका : यह बात वाकई विचारणीय है कि किसी बड़े लेखक की कोई कृति, वह भी पहली कृति, सत्तर साल तक बक्स में बंद रहे, केवल इस वजह से कि लेखक और प्रकाशक में इसकी भाषा को लेकर मतभेद था। और जब छपे तो जीवन का अंतिम चरण हो।
जिस खास समाज की महाकाव्यात्मक झलक इस उपन्यास में है, वह केवल भाषा ही नहीं, उस समाज के रक्त में बसी तमाम रवायतों, शब्दों की ध्वनियों, वाक्यों की गढ़न, वेशभूषा, बोली-बानी, वातावरण के बिना कैसे आकार पा सकता था? यही तो इसकी ताकत है… कि उपन्यास हवा में नहीं लिखा गया -अपनी ज़मीन, अपनी संस्कृति, वहां का लोक मन और नागर संस्कृति, सभी कुछ उसमें है-
सलवार कमीज, दुपट्टों से सर ढके स्त्रियाँ, किसान जाटों के तहमद, पुरुषों के साफे और शमले (तुर्रे), हाथ के बने मोटे गाढ़े कपड़ों के साथ साथ रेशमी वस्त्र भी हैं बारीक सलमे जड़े, शीला के पाँवों की तिल्लेदार जूतियाँ हैं। आपस में मिलने पर स्त्रियों का ‘रामसत’ कहना और पुरुषों का ‘पैरीपौना’। और बड़ों की छोटों को सुंदर आशीषें।
उत्सवों में ‘सिरवारना’ सगुण डालना, नज़र उतारना, और यहां तक कि मृत्यु और मृत्यु के बाद के हृदयविदारक दृश्य और वर्णनों में नाइन द्वारा संचालित ‘बैणों’ का भी वर्णन है।
पीढ़ी पर बैठ नानी और चाची महरी का रंगीला चरखा चलाते, सूत कातते हाथ चन्ना बचपन से देखती है। दूध दहीं की मिट्टी की ‘चाटियाँ’ (मिट्टी की हंडिया) देखती आई है- उन्हें धो-धो कर दही बिलोती, मक्खन निकालती स्त्रियां हैं, मक्की की रोटियां हैं जो चाची महरी फैजू के हाथ कनालियों (लकड़ी की परातनुमा ट्रे) में बांध कर चन्ना के लिए लाहौर होस्टेल तक पहुंच देती है। न जाने कितने शब्द हैं- पैड़ियाँ, औंसिया डालना, चंगेर, धीयानी, शाहनी, लाढा… तांगे वालों की व्यंग्य भरी बोलियां और गुहारें हैं, हुक्कों की गुड़ गुड़ है। जिन पाठकों में पंजाब का भाषा संस्कार है- वे समझ जाएंगे कि कुछ खास वाक्य कहाँ से उपजे हैं।
अनूप: तो इसकी भाषा को आंचलिक कहा जाए?
सुमनिका: इसकी भाषा में अंचल तो झांकता ही है, लेकिन सम्पूर्ण भाषा ही आंचलिक है, या उतनी आंचलिक है जितनी मैला आँचल की भाषा… ऐसा शायद नही कहा जा सकता। कृष्णा सोबती ने इसकी भाषा को लेकर सन 1950 में जो स्टैंड लिया था- वह सही था। उन्होंने अपनी भूमिका में फणीश्वर नाथ रेणु के प्रति कृतज्ञता भी जताई है कि उन्होंने देश के खेतिहर संवाद को मैला आँचल में प्रस्तुत किया।
अनूप: मेरी एक और जिज्ञासा है जो कृष्णा सोबती जी के इस कथन से पैदा हुई है कि चन्ना न छपने की वजह से जिंदगीनामा लिखा गया। इन दोनों उपन्यासों को भी आमने-सामने रख कर पढ़ना दिलचस्प होगा।
सुमनिका: हां, यह जरूरी भी है। यह काम अलग से करना ही ठीक रहेगा।

साभार :सापेक्ष

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