हिंदी साहित्य में अनेक ऐसी लेखिकाएं हुई जिनको आज लोग नहीं जानते।पिछले दिनों अपने आशा सहाय के बारे में जाना कि उन्होंने 1948 में लेस्बियन सम्बन्धों परपहला उपन्यास लिखा।आज आपको पद्मा जी के बारे में बताया जा रहा जिनका पहला कहांनी संग्रग 1956 में मील के पत्थर आया था।वह रेणु जी की समकालीन थी।
उनकी कथाकार पुत्री
डॉ. गीता पुष्प शॉ बता रहीं है अपनी माँ के बारे में।आज उनकी माँ कीसौंवी जयंती है।
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सौ वर्ष पहले 7 मार्च 1923 को एक शिक्षित सुसंस्कृत बंगाली परिवार में जन्मी पद्मा बनर्जी को तब कहाँ पता था कि वे भविष्य में हिंदी की लेखिका बन जाएंगी. मैं बात कर रही हूं अपनी माँ लेखिका पद्मा पटरथ की. पाँच वर्ष की उम्र में ही माता-पिता की छाया से वंचित होने के बाद उनकी नानी ने उन्हें पढ़ाया लिखाया और फिर वे एक स्कूल में शिक्षिका बन गयीं. साहित्यकारों की नगरी जबलपुर की मिट्टी में कुछ बात है कि वे हिंदी में कहानियां लिखने लगीं जो उस समय के अखबारों में छपती थीं. इनकी प्रतिभा की कायल सुभद्रा कुमारी चौहान, उन्हें अपनी बेटी की तरह मानने लगीं. सुभद्रा जी ने ही हमारी माँ का विवाह हमारे केरलीय (मलयाली) पिता माधवन अडिओडि पटरथ से कराया और माँ पद्मा बनर्जी से पद्मा पटरथ बन गयीं.
उस समय जबलपुर में अच्छा साहित्यिक माहौल था. सुभद्रा जी हमारी मुँह-बोली नानी थीं. हरिशंकर परसाई हमारे पड़ोसी मामा. तब के साहित्यकार रामेश्वर गुरु, भवानी प्रसाद तिवारी, नर्मदा प्रसाद खरे, रामेश्वर शुक्ल अंचल, कैलाश नारद सब हमारी माँ के बंधु-बांधव राखी-बंद भाई थे. फिर पिताजी का ट्रांसफर महाराष्ट्र के छोटे शहरों में हो जाने के कारण माँ का लेखन बंद हो गया और समय हम भाई-बहनों के पालने में गुज़रने लगा. पर वे साहसी थीं. घर-गृहस्थी संभालते हुए उन्होंने बी. एड., हिंदी में एम.ए. और साहित्य रत्न की उपाधियाँ हासिल कीं.
महाराष्ट्र से इटारसी पहुँच कर उन्हें फिर साहित्यिक माहौल मिला और फिर लेखन में सक्रिय हो गयीं. साहित्यिक गोष्ठियों में भाग लेने लगीं. यहाँ वे कांग्रेस की अध्यक्षा भी रहीं. भारत सेवक समाज से जुड़कर समाज सेविका बन गयीं.
वे अत्यंत खुश मिजाज़ महिला थीं. सभी वर्ग के लोगों से घुल-मिलकर बातें करतीं फिर उनके संवादों और अनुभवों से अपनी कहानियों के पात्र गढ़तीं. माँ की कहानियाँ समकालीन पत्र-पत्रिकाओं, अखबारों के साहित्यिक पृष्ठों पर छपा करती थीं. दीपावली विशेषांकों में विशेष रुप से आकाशवाणी पर भी वे कहानियां और वार्ताएँ पढ़ती थीं. उनका एक कहानी संग्रह ‘मील के पत्थर’ 1956 में प्रकाशित हुआ था. जबलपुर में हिंदी दिवस पर उन्हें महिला समिति द्वारा ‘उषा देवी मित्रा’ सम्मान (मरणोपरांत) प्रदान किया गया जो किसी अहिंदी-भाषी महिला को हिंदी साहित्य-लेखन के लिए दिया जाता है.
इटारसी से फिर वे जबलपुर आयीं. दुर्भाग्यवश 42 वर्ष की आयु में ही वे कैंसर-ग्रस्त हो गयीं और लगातार 10 वर्षों तक इस बीमारी से जूझते हुए 17 जनवरी 1978 को उनका निधन हो गया. वे समाज और जाति-पांति की घिसी-पिटी परम्पराओं को तोड़ने वाली महिला थीं. उनकी इच्छा थी कि उनका श्राद्ध आडंबर-रहित किया जाए. अतः उनके श्राद्ध पर ब्राह्मण भोजन न कराकर अनाथालय से बच्चों को घर लाकर भोजन कराया. मृत्यु के बाद भी उन्होंने समाज के सामने प्रेरक उदाहरण प्रस्तुत किया.
पद्मा पटरथ का 1956 में छपा कहानी संकलन ‘मील के पत्थर’ अब उपलब्ध नहीं है. अतः अपनी माँ की स्मृतियों को जीवित रखने के लिए, तथा उनके लेखन को जीवित रखने के लिए, हमने उसे पुनः प्रकाशित करवाया है. 22 फरवरी 2023 को पद्मा पटरथ के कथा संग्रह ‘मील के पत्थर’ का विमोचन भोपाल के टैगोर यूनिवर्सिटी के रवीन्द्र भवन सभागार में हुआ. विमोचन करने वाले थे साहित्यकार संतोष चौबे, वाइस चांसलर, रवीन्द्र नाथ टैगोर विश्वविद्यालय, मुकेश वर्मा, संपादक ‘वनमाली’, संचालक अरुणेश शुक्ल तथा कथाकार शिवमूर्ति, ममता कालिया, अल्पना मिश्र और पद्मा पटरथ के सुपुत्र अशोक पटरथ.