भारतीय स्त्रीवाद की नायिका पण्डिता रमाबाई टैगोर और गांधी जी से काफी बड़ी थी।1857 के विद्रोह के अगले वर्ष पैदा हुईथी और 1922में उनका निधन हो गया था।उनकी सौंवीं पुण्यथिति पिछले वर्ष बीत गयीं।हम अपने पुरुष नायकों को कितना याद करते हैं पर नायिकाओं को भूल जाते हैं।
सावित्री बाई फुले पण्डिता रमा बाई और रुकमा बाई भारतीय स्त्री वाद की तीन बड़ी नायिकाएं हैं ।
हिंदी की प्रसिद्ध कवि एवम आलोचक सुजाता ने उन पर पिछले दिनों एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी ।कल उस पुस्तक पर चर्चा हुई जिसमें सुधीर चन्द्र और अनामिका तथा लेखिका सुजाता ने भाग लिया।
समारोह का संचालन शोभा अक्षर ने किया।इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (एनेक्सी) में राजकमल प्रकाशन समूह की ओर से सोमवार को नारीवादी लेखक-आलोचक सुजाता की किताब ‘विकल विद्रोहिणी : पंडिता रमाबाई’ के सन्दर्भ में ‘भारतीय नवजागरण का स्त्री-पक्ष’ विषय पर बातचीत शुरू करने से पहले रंगकर्मी दिलीप गुप्ता ने किताब से अंश पाठ किया।
शोभा अक्षर ने श्रोताओं को गोष्ठी के विषय से परिचित करवाते हुए कहा कि सुजाता द्वारा लिखी गई पंडिता रमाबाई की जीवनी स्त्रीद्वेष से पीड़ित पितृसत्तात्मक समाज पर एक कड़ा प्रहार है।
सुजाता ने अपने वक्तव्य में कहा, “पंडिता रमाबाई की जीवनी लिखने का फैसला मैंने इसलिए लिया, क्योंकि मैं उस वक्त को जीना चाहती थी, जो उन्होंने जिया। उनका जीवन अति नाटकीय, तूफानों और उथल-पुथल से भरा हुआ था। 19वीं सदी, जो कि एक पुरुष प्रधान सदी थी, वह उसमें अपने पांव जमा पाने में सफल रहीं। जिस तरह का वह समाज था, उस समय उनके चरित्र पर कई लाँछन लगे होंगे। उनके इसी निर्भीक व्यक्तिव ने मुझे प्रभावित किया।”
उन्होंने कहा, “भारत में सबसे पहले पंडिता रमाबाई ने ही नारीवाद की अवधारणा को उद्घाटित किया। उन्होंने अपनी किताब ‘द हाई कास्ट हिन्दू वुमन’ (The High-Cast Hindu Woman) में लिखा कि किस तरह हिन्दू धर्म में एक औरत को औरत बनाए जाने की ट्रेनिंग दी जाती है। रमाबाई ने देश-विदेश में अकेले यात्राएँ करते हुए अपने भाषणों के जरिए धन एकत्रित किया और भारत लौटने पर हिन्दू विधवा लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला। यह कोई आसान काम नहीं था। ऐसा कर पाना आज भी किसी के लिए बहुत मुश्किल है।”
आगे सुजाता ने कहा कि जब भी समाज सुधारकों की फेहरिस्त बनती है तो उसमें पंडिता रमाबाई का नाम शामिल नहीं किया जाता है। क्या केवल इसलिए कि वह एक स्त्री थी?
आज के समय में कई राजनीतिक दल और संगठन उनका नाम लेकर फायदा लेना चाहते हैं, लेकिन अगर वो एक बार रमाबाई के बारे में विस्तार से पढ़ेंगे तो उनके नाम से दूरी बना लेंगे।
इस मौके पर अनामिका ने कहा कि पंडिता रमाबाई हमारे समाज को समझाने निक
रमाबाई का जन्म 23 अप्रैल 1858 को संस्कृत विद्वान अनंत शास्त्री डोंगरे के घर हुआ। शास्त्री की दूसरी पत्नी लक्ष्मीबाई डोंगरे थीं और उन्होंने अपनी दूसरी पत्नी और बेटी रमाबाई को संस्कृत ग्रंथों की शिक्षा दी, भले ही संस्कृत और औपचारिक शिक्षा के सीखने की महिलाएं और निचली जातियों के लोगों के लिए मना किया था।
उनके माता पिता की 1877 में अकाल मृत्यु हो गई, रमाबाई और उसके भाई को अपने पिता के काम को जारी रखने का फैसला किया। भाई बहन पूरे भारत में यात्रा की। प्राध्यापक के रूप में रमाबाई की प्रसिद्धि कलकत्ता पहुँची जहां पंडितों ने उन्हें भाषण देने के लिए आमंत्रित किया। 1878 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में इन्हें संस्कृत के क्षेत्र में इनके ज्ञान और कार्य को देखते हुयेसरस्वती की सर्वोच्च उपाधि से सम्मानित किया।
1880 में भाई की मौत के बाद रमाबाई ने बंगाली वकील, बिपिन बिहारी दास से शादी कर ली। इनके पति एक बंगाली कायस्थ थे, और इसलिए शादी अंतर्जातीय, और अंतर-क्षेत्रीय थी। दोनों की एक पुत्री हुई जिसका नाम मनोरमा रखा। पति और पत्नी ने बाल विधवाओं के लिए एक स्कूल शुरू करने की योजना बनाई थी, 1882 में इनके पति की मृत्यु हो गई।
रमाबाई ने अपने समय की सामाजिक रूप से परित्यक्त और घरेलू हिंसा और शोषण’ की शिकार स्त्रियों के लिए संस्थान की स्थापना की थी। शारदा सदन[2], दरअसल सीखने-सिखाने के लिए समर्पित एक घर था। सन् 1897 में मध्य प्रांतों के अकाल पीड़ित क्षेत्रों से जब रमाबाई सैकड़ों बच्चों, विशेष रूप से लड़कियों को लेकर आईं तो शहर का मध्यम वर्ग इन ग्रामीण बच्चों को देखकर भयभीत हो उठा। उन्होंने मजबूरन सभी अकाल पीड़ित बच्चों को पूना से लगभग
50 मील की दूरी पर स्थित केडगांव में स्थानांतरित कर दिया, जहां उन्होंने 100 एकड़ ज़मीन का एक टुकड़ा इस उम्मीद से खरीदा था कि वहां फलदार पौधे लगाए जाएंगे और उनसे होने वाली आय से सदन का खर्च चलाने में सुविधा होगी.
1900 के दशक की शुरुआत में प्रकाशित एक किताब में दर्ज एक छोटे से विवरण से हमें पता चलता है कि रमाबाई ने किस तरह अकाल पीड़ित बच्चियों के बड़े समूह को एक अजनबी जगह पर अपने घर जैसा महसूस कराने की तरकीब निकाली थी। सदन की सभी पुरानी छोटी लड़कियों और युवा बाल विधवाओं से अनुरोध किया गया कि वे नई बच्चियों में से किसी एक को गोद लें, ताकि वे इस महासंकट स्थिति और लावारिस छोड़ दिए जाने के बावजूद प्यार और अपनापन महसूस कर सकें।
पंडिता रमाबाई ने अपने जीवन काल में दो बड़े विकराल अकाल और एक भयानक प्लेग का सामना किया था। अकाल और प्लेग के बीच अपने पूरे परिवार को खो देने वाली रमाबाई, दूसरों की मदद के लिए अंग्रेज़ी हुकूमत तक से भिड़ गईं थीं। उन्होंने अनाथ बच्चों, लड़कियों, विधवाओं, अकेली छोड़ दी गई स्त्रियों को न केवल इन महामारियों से बचाया बल्कि उन्हें अपने आश्रम में आश्रय देकर, पढ़ाया-लिखाया, कमाने के गुर सिखाए।कोविड 19 महामारी के दौरान जब तमाम वॉलिन्टियर्स बीमार व्यक्तियों के लिए रात और दिन दवाइयां, ऑक्सीज़न और दूसरी ज़रूरी चीज़ों का इंतज़ाम करने में लगे हुए थे, उस दौरान पंडिता रमाबाई का काम ज़्यादा सही तरीके से समझ आता है।