लेखकों की पत्नियों की श्रृंखला में अब तक आपने बीस से अधिक नामी गिरामी लेखकों की पत्नियों के जीवन संघर्ष की कथा पढ़ी।आज आप पढ़िये हिंदी के दिवंगत कवि एवम आलोचक परमानंद श्रीवास्तव की पत्नी के बारे में।उनकी बड़ी बेटी अपराजिता बता रहीं हैं अपनी मां के संघर्ष की कहानी।जो लोग परमानंद जी से मिलें होंगे ,उन्हें सफेद पैजामे कुर्ते में वे आज भी याद होंगे । उनके कंधे पर एक झोला हमेशा लटका रहता था और वे बड़े धीमेऔर आत्मीय स्वर में युवा कवियों से संवाद करते नजर आते थे।वे उन आलोचकों में थे जो समकालीन साहित्य में अधिक रमे रहते थे।वे नई से नई किताब पर लिखने में तत्पर रहते थे। तो आज पढ़ते हैं ज्ञानवती जी की कहानी,उनकी बेटी की जुबानी जो खुदसाहित्य की एक अच्छी अध्येता रह चुकी हैं और उन्होंने मुक्तिबोध के वैचारिक परिप्रेक्ष्य पर महत्वपूर्ण शोध कार्य किया है।
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क्या आप ज्ञानवती श्रीवास्तव को जानते हैं ?
हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि आलोचक परमानंद श्रीवास्तव का जन्म 10 फरवरी 1935 में बाँसगाँव जिला गोरखपुर में हुआ था .अपने प्रारंभिक दिनों के बारे में तो वे अपने संस्मरणों में लिख ही चुके हैं .आज हम उनकी धर्मपत्नी ज्ञानवती श्रीवास्तव के बारे में बात कर रहे हैं .
ज्ञानवती श्रीवास्तव का जन्म 1941 में पटना में हुआ .पिता श्री मूलचन्द लाल साइंस कालेज में हेडक्लर्क थे और एक बड़े संयुक्त परिवार के निर्वहन का दायित्व उन पर था जिसे उन्होंने बखूबी निभाया भी .धर्मपरायण माँ श्रीमती चन्द्रज्योति देवी ने अपने सभी बच्चों को यथासंभव शिक्षित और संस्कारित करने में महती भूमिका अदा की .अपनी तीसरी संतान की मेधा से प्रभावित होकर उन्होंने इनका नाम ज्ञान रखा .बड़े भाई एल.पी. श्रीवास्तव कामर्स कालेज पटना में प्राणिविज्ञान में प्रोफेसर थे. उन दिनों या कहें कि अभी बाद के दिनों तक भी पढ़ने लिखने का वातावरण हर घर में रहता था .इसलिए चाहे लाइब्रेरी से ही , किताबें हर घर में पहुँचती थीं . ज्ञानवती जी का भी परिचय प्रेमचन्द ,चतुरसेन शास्त्री ,विमल मित्र ,शरतचंद्र ,बंकिमचंद्र ,जयशंकर प्रसाद की पुस्तकों से हो चुका था जिनमें कामायनी विशेष प्रिय थी .
आज़ाद भारत के नवनिर्माण का सपना उन दिनों हर व्यक्ति के मन में था .गंगा किनारे रानीघाट मुहल्ले में पिता श्री मूलचन्द लाल जी को क्वार्टर मिला था.मुहल्ले के कुछ सुशिक्षित लोगों ने मिलकर लड़कियों की शिक्षा के लिए संस्कृत विद्यालय की स्थापना की .ज्ञानवती जी की आरंभिक शिक्षा दीक्षा वहीं से हुई .बाद में उन्होंने बिहार संस्कृत समिति (जो दरभंगा विश्वविद्यालय से सम्बद्ध थी)से शास्त्री और आचार्य की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की
1962 में परमानन्द श्रीवास्तव से विवाह हुआ . माँ बताती हैं — एक बड़े संयुक्त परिवार से निकल कर जब वे गोरखपुर आईं तो घर में सिर्फ़ किताबें थीं .उनके सामान में भी किताबों से भरा एक बक्सा था जिसमें अमरकोश से लेकर कुमार संभव,अभिज्ञान शाकुन्तल ,साहित्यदर्पण ,ध्वन्यालोक ,काव्यप्रकाश ,रसगंगाधर जैसी अमूल्य निधि थी जो अभी तक उनके साथ है और आज भी वे केवल उनका रखरखाव नहीं करतीं बल्कि उसी में डूबती उतराती रहती हैं .
उन दिनों हमारा घर शहर के बीचोबीच था जहाँ हमेशा लेखक मित्रों का आना जाना लगा रहता .यह मैं सन् 62 – 65 की बात बता रही हूँ .आचार्य विद्यानिवास मिश्र ,कवि केदारनाथ सिंह , रामविनायक सिंह, हरिहर सिंह ,कवि देवेन्द्र कुमार , रामसेवक श्रीवास्तव ये सब लोग रोज़ उठने बैठने वालों में थे .केदार जी उन दिनों पडरौना में ही थे और थोड़े दिन सेंटएण्ड्रयूज़ कालेज गोरखपुर में पढ़ाया भी .बाद में सूरजकुण्ड वाले घर में भी दूधनाथ सिंह,काशीनाथ सिंह,डा.दिनेश्वर प्रसाद,नामवर सिंह,हजारीप्रसाद द्विवेदी ,भगवान सिंह,विजयदान देथा ,मुद्राराक्षस ,कांतिचन्द्र सोनरेक्सा ,मंगलेश डबराल , लीलाधर जगूड़ी जैसे बड़े लेखकों के आतिथ्य का सौभाग्य हमें मिला.मुझे याद है कि हजारीप्रसाद द्विवेदी आखिरी बार 76- 77 में गोरखपुर आए तो हमारे घर आए थे .पापा ने जब बताया कि पंडित जी ये संस्कृत में आचार्य हैं तो बड़ी जो़र से हँसे कि तभी मैं कहूँ परमानन्द की कीर्ति दिगदिगंत में कैसे फैल रही है .
सन् अस्सी के बाद पापा का देशभ्रमण बढ़ता ही गया .10 साल साहित्य अकादमी के सदस्य रहे और फिर लंबे समय तक नामवर जी के साथ आलोचना पत्रिका का संपादन किया .देश भर के विश्वविद्यालयों में व्याख्यान के लिए बुलाया ही जाता .माँ यहाँ हम तीन बहनों को लेकर अकेले ही सारी जिम्मेदारियां वहन करती रहीं .कई बार ऐसा भी हुआ कि एक जगह से आकर तुरंत दूसरी यात्रा पर निकलना है.माँ सब कुछ पहले से व्यवस्थित रखतीं .घर में कभी ताला नहीं बंद होता क्योंकि रोज़ डाक में देश भर से ढेरों पत्र पत्रिकाएँ किताबें आतीं .इसी के बीच हमारी संगीत नृत्य की कक्षाएँ जारी रहतीं .शायद अब बहुत कम लोगों को याद होगा कि समानान्तर बाल रंगमंच गोरखपुर ने अपनी 20 वर्षों की शानदार यात्रा पूरी की जिसे शुरू से ही नेमिचन्द्र जैन ,रेखा जैन ,देवेन्द्र राज अंकुर , मुद्राराक्षस ,लालबहादुर वर्मा जैसे लोगों का भरपूर प्यार और सहयोग मिला .पचास साठ बच्चे हमारे ही आँगन में रोज़ रिहर्सल के लिए इकट्ठा होते .शहर भर से अभिभावक उन्हें लेने छोड़ने आते .यह सब माँ के सहयोग के बिना असंभव था .पर इन सब के बीच माँ की अपनी नाते रिश्तेदारी , मुहल्लेदारी कहीं छूटती गई .फिर पापा की लंबी बीमारी .कई सारे आपरेशन . .
अंतिम दिनों में माँ उनकी पीर बावर्ची खर भिश्ती सब भूमिका अदा कर रही थीं .कूल्हे की हड्डी टूट जाने के कारण लंबे समय तक पिता बिस्तर पर रहे .मानसिक स्वास्थ्य भी साथ नहीं दे रहा था .अपनी इस स्थिति को वे स्वीकार नहीं कर पा रहे थे .ऐसे में माँ की जिम्मेदारी और भी बढ़ गई थी .एक तरफ उनकी देखभाल का दायित्व , दूसरी ओर लोगों को बताना पड़ता कि अब वे किसी समारोह में ले जाने की स्थिति में नहीं हैं.स्मृतियाँ साथ नहीं दे रही थीं .नाम गड़बड़ा जाते थे .विचार गड्डमड्ड .हमारे लिए यह स्थिति बहुत ही त्रासद थी क्योंकि बाद में वे उपहास का पात्र बनते.माँ को कई मोर्चे पर इन परिस्थितियों से जूझना पड़ता .इसीलिए बाद में वे खुद ही फोन रिसीव करके वस्तुस्थिति समझाने का प्रयास करती थीं .
पिता की बेचैनी सँभाल के बाहर थी.इतना सक्रिय जीवन जीने के बाद यह खालीपन .अब तक क्या किया /जीवन क्या जिया वाली मन:स्थिति से उबारने का हमसब असफल प्रयास करते .माँ हमेशा पुस्तकों से कुछ पढ़ कर सुनातीं या लिखने को कागज कलम देतीं. 5 नवंबर 13 को कलम दावात की पूजा के दिन ही उन्होंने आखिरी साँस ली .
आज माँ खुद उम्र के अस्सीवें पड़ाव पर हैं .आज भी उनका समय किताबों की सारसँभाल पठन पाठन में ही बीतता है.इसीलिए अभी वे किताबें कहीं देना भी नहीं चाहतीं .साहित्यिक के साथ ही बहुत सारी आध्यात्मिक पुस्तकें ,टीकाएं उनके खजाने में हैं जिनसे वे निरंतर समृद्ध होती हैं .कबीर और मीरा विशेष प्रिय हैं .
अभी हालिया पढ़े उपन्यासों में उषाकिरण ख़ान की भामती और मनीषा कुलश्रेष्ठ की मल्लिका उल्लेखनीय हैं.
मां ने अपनी बेटियों को भी आगे बढ़ाया और पढ़ लिखना सीखकर एक मुकाम पर पहुंचाया।
मैंने मुक्तिबोध के साहित्य का वैचारिक परिप्रेक्ष्य विषय पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की वरिष्ठ शोधवृत्ति के अन्तर्गत कार्य किया .बाद में एक अन्य योजना के अन्तर्गत गुरुवर डा. कृश्नचंद्र लाल के निर्देशन में साहित्य आन्दोलनों और साहित्य विवादों का इतिहास विषय पर काम किया जो लोकभारती से प्रकाशित है. मेरी दूसरी बहन अन्विता ने प्रेमचन्द की कथाकृतियों की दृश्य माध्यमों में प्रस्तुति विषय पर शोधकार्य किया और बाल रंगमंच के लिए लंबे समय तक काम किया .सबसे छोटी बहन श्रुति ने एमिली डिकिन्सन पर शोधकार्य किया .संप्रति वह कानपुर में डी.ए.वी.डिग्री कालेज में अंग्रेजी़ विभाग में सीनियर असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।
इस तरह हम सबके जीवन में मां की कोमल और शीतल छाया हमेशा बनी रही।
– अपराजिता
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