जन्म 23 मार्च , 1957
जन्म स्थान : कोलकाता
शिक्षा :एम .ए (अर्थशास्त्र,कोलकाता यूनिवर्सिटी) . डिप्लोमा (कंप्यूटर साइंस)
उपन्यास
- खुले गगन के लाल सितारे (राजकमल प्रकाशन,२०००)
- सलाम आखरी (राजकमल प्रकाशन,२००२)
- पत्ता खोर (राजकमल प्रकाशन,2005)
- सेज पर संस्कृत (राजकमल प्रकाशन,2008)
- सूखते चिनार (ज्ञानपीठ प्रकाशन,2012)
- हम यहाँ थे (2018,किताबघर प्रकाशन )
- ढलती सांझ का सूरज (राजकमल प्रकाशन ,2022)
कहानी संग्रह
- बीतते हुए (राजकमल प्रकाशन,2004)
- और अंत में ईशु (किताबघर प्रकाशन,2008)
- चिड़िया ऐसे मरती है (वाणी प्रकाशन,2011)
- दस प्रतिनिधि कहानियां( किताबघर प्रकाशन,2013)
- युद्ध और बुद्ध (ज्ञानपीठ प्रकाशन,2012)
- स्त्री मन की कहानियां (साहित्य भण्डार ,इलाहाबाद,2015 )
- जल जलकुम्भी (वाणी प्रकाशन ,2020 )
- नंदीग्राम के चूहे (बोधि प्रकाशन ,2021 )
- मधु कांकरिया की यादगार कहानियां ,2020 (इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड )
सामाजिक विमर्श
- अपनी धरती अपने लोग – सामयिक प्रकाशन – 2013
- बादलों में बारूद ,यात्रा संस्मरण – किताबघर प्रकाशन -2014
सम्मान
- के. के. बिरला फाउंडेशन का 31 वां बिहारी पुरस्कार ,2021 के लिए
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- कथा क्रम पुरस्कार 2008
- विजय वर्मा कथा सम्मान – 2012
- शिवकुमार मिश्र कथा स्मृति सम्मान – 2015
- रत्नीदेवी गोयनका वाग्देवी सम्मान – 2018
- प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान – 2018
- कर्तृत्व समग्र सम्मान ,भारतीय भाषा परिषद् ,2020
- शरत चंद्र साहित्य सम्मान ,श्री रासबिहारी मिशन ,2020
- मीरा स्मृति सम्मान 2019
- हेमचंद्राचार्य साहित्य सम्मान -2009
- समाज गौरव सम्मान -2009 (अखिल भारतीय मारवारी युवा मंच द्वारा)
अन्य साहित्यिक उपलब्धियां
सेज पर संस्कृत का मराठी में अनुवाद (अनुवादिका ::वसुधा सहस्रबुद्धे
सूखते चिनार का तेलगु में अनुवाद ,अनुवादिका :डॉ सी .बसंती
मराठी में अनूदित कहानी संग्रह : शोध ,अनुवादिका : उज्ज्वला केलकर
लेखिका पर लिखी गयी पुस्तकें :
१. मधु कांकरिया का रचना संसार :शैलजा प्रकाशन ,कानपुर .लेखक : उषा रानावत (09820004325)
२. मधु कांकरिया के कथा साहित्य में सामाजिक एवं सांस्कृतिक संवेदना :डा :शबाना हबीब
अमन प्रकाशन कानपुर (09839218516)
- कथाकार मधु कांकरिया :सुनीता कावले ,रोली प्रकाशन,कानपुर
- स्त्री विमर्श – मधु कांकरिया का कथा साहित्य, लेखिका रंजीता परब,विद्या प्रकाशन, कानपुर, 08765061816, 9415133173,
- मधु कांकरिया का कहानी साहित्य – एक अनुशीलन (डा. शबाना हबीब ) ,समकालीन प्रकाशन
Telefilm – रहना नहीं देश विराना है, प्रसार भारती,चंडीगढ़
सम्पर्क : 72 A बिधान सरणी ,फ्लैट 3c ,कोलकाता – 700006
Mobile:-09167735950.
E-mail: [email protected]
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मधु जी की कीताबें
‘नन्दीग्राम के चूहे’ कहानी की कुछ खूबियाँ
रविभूषण
चीन के पूर्व नेता देंग जियाओ पिंग (22.8.1904-19.2.1977) ने 1978 के प्लेनम में आर्थिक सुधारों और मुक्त अर्थनीति को अपना कर दूरगामी आर्थिक सुधारों से चीन का नेतृत्व किया। माओत्से-तुंग के निधन के बाद चीन को बाजारवादी अर्थव्यवस्था की ओर ले जाने का सारा श्रेय देंग जियाओ पिंग का है। वे 1978 से 1992 तक चीन के सर्व प्रमुख नेता थे। उनके कई मुहावरे विश्वप्रसिद्ध हैं, जिनमें एक बिल्ली-चूहे वाला है – ‘‘इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बिल्ली काली है या सफेद, जब तक वह चूहों को पकड़ती है।’’ देंग ने पहले कुछ लोगों को अमीर बनने देने की बात कही थी। आर्थिक विकास या वृद्धि के जिस सिद्धान्त-विचार की बात तीन-चार दशक पहले कही गयी थी, वह अब अपने व्यावहारिक रूप में सर्वत्र विद्यमान है। भारत में नवउदारवादी अर्थव्यवस्था का आरंभ 1991 से हुआ।
समय-परिवर्तन का प्रभाव सभी क्षेत्रों में पड़ना स्वाभाविक है। यथार्थ बदले और साहित्य उस यथार्थ से, जिसे समकालीन यथार्थ कहा जाता है, अलग-थलग रहे, यह संभव नहीं है । मधु कांकारिया की कहानी ‘नन्दीग्राम के चूहे’ कुछ समय से बार-बार याद आ रही हैं चीनी नेता देंग ने उत्पादक शक्तियों के मार्क्सवादी सिद्धान्त को ध्यान में रखकर बिल्ली-चूहे वाला वह प्रसिद्ध मुहावरा कहा था, जो उनका अपना न होकर चीनी प्रान्त सिचुआन का है। चीनी मार्क्सवाद बदले और भारतीय मार्क्सवाद उससे एकदम अछूता रहे, यह संभव नहीं था। नन्दीग्राम पश्चिम बंगाल के पूर्व मेदिनीपुर जिला का एक ग्रामीण क्षेत्र है, जो हल्दिया डेवलपमेंट अथॉरिटी के अंतर्गत अनतर्गत है। 2007 में नन्दीग्राम में हुई पुलिस फायरिंग में कई निर्दोष किसान मारे गये थे। 14 मार्च अब वहां कृषक दिवस के रूप में मनाया जाता है। ममता बनर्जी ने इसे ‘बंगाल के इतिहास का काला अध्याय कहा था। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था ने विकास की जो नीति विकसित की, उसे अपनाने में भारत में कम्युनस्ट पार्टी की सरकार भी पीछे नहीं रही। विकास के लिए किसानों की खेती की जमीन के अधिग्रहण का विरोध स्वभाविक था, जो हुआ और पुलिस फायरिंग में लोग मारे गए। ‘नन्दीग्राम के चूहे’ कहानी में ‘सर्वहारा फकीरी से चुनिंदा अमीरी में प्रत्यावर्तन’ की बात कही गयी है। कहानी में अभिजीत, रेनु और दीपंकर महाशय बुद्धदेव भट्टाचार्य की आलोचना करते हैं- ‘‘पहले हमारे बुद्धदेव को स्वप्न में सर्वहारा दिखते थे, अब तेज रफ्तार में भागती-दौड़ती बिल्ली दिखती है। समानता, सर्वहारा का चिंतन तो अब फिजूलखर्ची लगना ही है… बिल्ली के लिए रास्ता साफ करने में लगे हैं। अब इसी बिल्ली दौड़ में कुछेक हजार चूहे मर भी जाएं तो क्या हर्ज? यह तो जमाने से ही होता आया है। नन्दीग्राम के चूहे क्या कोई अनोखे चूहे हैं? देखना बिल्ली दौड़ेगी और लाख टके की ससती कार में दौड़ेगी,’’ मधु कांकरिया संवेदनशील और विचारधारा से लैस हिन्दी की एक सशक्त कथाकार हैं। अगर किसी एक कहानी के जरिये उनकी कथा भूमि, कथा दृष्टि, संवेदनादि पर विचार किया जाय तो ‘युद्ध और बुद्ध’ एवं नन्दीग्राम के चूहे पर विचार किया जाना चाहिए। उनके सात कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ‘नन्दीग्राम के चूहे’ कहानी लगभग दस वर्ष पहले ‘नया ज्ञानोदय’ में प्रकाशित हुई थी, जिसे रवीन्द्र कालिया ने ‘नया ज्ञानोदय का सर्वोत्तम’ माना था।
कोई भी कहानी ‘सर्वोत्तम’ कब-कैसे होती है? यथार्थ की पकड़ से? शिल्प-विधि से? विषय के समुचित ट्रीटमेंट से? पात्रों के चित्रण से या कहानीकार के कंसर्न से? भारत जैसे देश में किसी भी रचना और कहानी का मूल्यांकन मात्र कला-पक्ष या कलात्मक नजरिये से नहीं किया जा सकता, यह मानकर भी कहानी कहना और लिखना कला भी है। विषय का कलात्मक निर्वाह आवश्यक है, पर कहानी यथार्थ की पकड़ और समझ से ही प्रमुख बनती है। मधु कांकरिया की यह कहानी एक साथ कई प्रश्न खड़े करती है। कया भारतीय कम्युनिस्टों और कम्युनिस्ट दलों द्वारा विकास के पूंजीवादी मार्ग पर ही चलना आवश्यक है? मधु विश्व राजनीति की कलई कहानी में खोलती है – ‘‘दुनिया की कौन-सी सियासत का आंचल भींगा है चूहे के इन आँसुओं से।’’ चूहे कौन हैं? कौन हैं नन्दीग्राम के चूहे? ये चूहे सामान्य जन हैं, सामान्य किसान हैं, सर्वहारा हैं? शोषित हैं। कहानी में बिल्ली-चूहे की लड़ाई, जो सदियों से चली आ रही है, का एक अलग अर्थ भी है। ‘नन्दीग्राम के चूहे’ शीर्षक में एक विशेष भू-क्षेत्र के चूहे हैं, पर ये चूहे सर्वत्र हैं। यह कहानी क्षेत्र-विशेष और स्थान-विशेष की न रह कर नव उदारवादी अर्थव्यवस्था की विकास-नीतियों से प्रभावित सभी अविकसित एवं विकसनशील देशों की कहानी बन जाती है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के पहले वाम मोर्चे की सरकार थी, बुद्धदेव भट्टाचार्य ने विकास की वैसी नीतियों को ही प्रमुखता दी थी, जो अपने वास्तविक रूप में पूंजीपतियों-उद्योगपतियों के पक्ष में थीं। जिन्हें दो जून का खाना नहीं मिलता उनके लिए नैनो कार का क्या महत्व था! वह अजूबे के सिवा और कुछ नहीं था। कहानी में भूमि-अधिग्रहण का जिक्र है, पर यह कहानी केवल भूमि-अधिग्रहण के विरोध की नहीं है। बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार के समय ही नन्दीग्राम की घटना घटी थी। कहानी में चीन या देंग जियाओ पिंग का उल्लेख नहीं है, पर ‘‘जहाँ के प्रधानमंत्री ने मार्क्स और माओ दोनों की मिट्टी पलीद करते हुए अमीरी को शानदार चीज कहा था, उसका जिक्र है। कहानी में दो अलग-अलग पात्रों के बीच कई संवाद है। रेनु-अभिजीत संवाद आरंभ में है और कथावाचक-कैदी नंबर 411 (शिबू) का संवाद अंत में है। रेनु-अभिजीत संवाद जनता-संबंधी है। रेनु बोलती है- ‘‘इस बिल्ली की टांग तो हम तोड़ देंगे। बस जनता जरा-सा साथ दे दे।’’ बिल्ली अब बिलाड़ बन कर मौजूद है। जनता ने साथ क्यों नहीं दिया? अभिजीत के अनुसार जनता की ‘‘सारी ऊर्जा, सारा दमखम अपने अस्तित्व को बचाने में ही खप जाता है।’’ कहानी में पोरस-सिकन्दर युद्ध की कहानी के जिक्र के जरिये जनता की तटस्थता, उदासीनता और उसकी मनःस्थिति स्पष्ट की गयी है। उस समय युद्ध से किसान निरपेक्ष रहकर अपने खेत में हल चला रहे थे। कहानी में पोरस-सिकन्दर के स्थान पर पलासी की लड़ाई का जिक्र अधिक उपयुक्त होता। मधु कांकरिया का कंसर्न बड़ा है। वे सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक कंसर्न से जुड़ी हिन्दी की एक बड़ी कथाकार हैं, जिनका एक साथ ध्यान बौद्धिक मानस और जन मानस पर रहता है। वे जानती हैं कि ‘‘समय और फिजा में बहती हवा ही जन मानस तैयार करती है। आज फिजा में अय्याशी है, समर्थ और समृद्ध दिखने की हवस है।’’ यह अपने समय की ठोस, गहरी एवं सही पहचान है। कहानीकार का अपना एक स्टैंड है। स्टैंड लेने से भी कहानी कभी-कभी ही सही स्टैंडर्ड कहानी भी बन जाती है। कहानी में जिस ट्राम के नीचे संजय राव की मृत्यु हो जाती है, उसका अपना एक संकेत भी है। यहां ट्राम को विकास के रूप में भी देखा जा सकता है। कहानी की महिला पात्र रेनु दी में विरोध-प्रतिरोध है। रेनु दी ‘‘पश्चिमी बंगाल को किसी राजसी आधुनिकता की तरह चमकता-दमकता देखने की ख्वाहिश में जी-तोड़ जुटे मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की औद्योगिक नीतियों’ से अधिक ‘रॉबिनहुड सरीखे डाकुओं’ को कहीं अच्छा मानती हैं, जो ‘‘अमीरों की जमीन-जायदाद लूटकर गरीबों को बांट देते थे।’’ रेनु दी की ‘भीतरी आँच’ देखने वाली कथाकार के भीतर यह ‘भीतरी आँच’ कहीं अधिक है।
कहानी में अलीपुर सेंट्रल जेल का अच्छा-खासा वर्णन है। मधु कांकरिया हिन्दी की सक्रियतावादी (एक्टिविस्ट) कथाकार हैं। सृजनात्मक लेखन से अलग उनके जो सामाजिक कार्यक्रम हैं, वे कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। जेल का दरवाजा भर नहीं उसके सुपरिटेंडेंट मिस्टर मंडल का जो चित्र उन्होंने खींचा है, वह देखा गया प्रतीत होता है। उनकी दृष्टि चौकन्नी है। जेल के वार्ड, सेल, सिंगल सेल, डॉर्मिटरी, और कंउेक्ड सेल की गतिविधियों पर केवल नजर मिस्टर मंडल की ही नहीं, कथावाचक की भी है। कथावाचक को पहली बार अपने साथियों के साथ राजनीतिक कैदी के रूप में जेल जाने का अवसर प्राप्त हुआ है। जेल में अधीक्षक के कमरे में ब्लैक बोर्ड पर हर प्रकार के कैदियों की संख्या दर्ज रहती है। मिस्टर मंडल के कमरे के ब्लैक बोर्ड पर लिखा है – ‘‘सजायाफ्ता कैदी‘-5, लाइफर (उम्र कैदी) 50+6, सिम्पल इम्प्रीजमेंट 1056+60, रिगरस इम्प्रीजमेंट 78+21, यानी कुल 2,134 जिन्दगियां ‘अपने-अपने अपराध के अनुसार, अपने-अपने खेमे में’’ पाठक को लग सकता है कि ‘नन्दीग्राम के चूहे’ जेल में बंद कैदियों या अपराधियों पर लिखी गयी कहानी है। पर सच्चाई यह है कि असली अपराधी जेल के बाहर हैं। कहानीकार का ध्यान जेल में चारो ओर है। लगता है मधु कांकरिया ने उसे देखा, जाना और समझा-बूझा है। नक्सलवादियों के लिए जेल में जो व्यवस्था थी, वह भिन्न थी। ‘‘सेल के भीतर ही गड्ढा खोद दिया जाता था हगने के लिए।’’ कहानीकार की नजर तेज है। वह कैमरे की तरह अधीक्षक-कक्ष से लेकर टॉयलेट गये कैदी की निगरानी करते संतरी पर घूमती है। अवलोकन सूक्ष्म है। चेहरे की भाव-भंगिमा, अन्तर्जगत, मनःस्थिति से लेकर बाह्य यथार्थ और परिवेश तक। अपने अधिकारी जेल सचिव से बात करते हुए मिस्टर मंडल के चेहरे पर परेशानी की रेखाएं हैं। ”मिस्टर मंडल के चेहरे पर दूसरा चेहरा चिपक गया था’’, ‘ललाट पर सिलवटें’ पड़ गयी थीं और ‘पुतलियां स्थिर हो गयी’ थीं।
राजनीतिक कैदी और गैर राजनीतिक कैदियों में अंतर है। भूमि-अधिग्रहण के विरोध में जिस ‘कृषि जमीन रक्षा समिति’ का गठन हुआ था, उसके आन्दोलनकारियों में अभिजीत के साथ कथावाचक (नैरेटर) भी है, जो राजनीतिक कैदी के रूप में ढाई दिन अलीपुर सेंट्रल जेल में बंद रहता है। जेल-जीवन पर हिन्दी में लिखी गयी कहानियां कम नहीं हैं; पर ‘नन्दीग्राम के चूहे’ जेल पर भी सवाल उठती है। इस कहानी में नक्सली नेता काकू (आशीष चटर्जी) के जेल-जीवन का हल्का उल्लेख है, जिन्होंने ‘छह महीनों तक संतरियों के अलावा किसी इंसान की सूरत तक नहीं देखी थी।’’ कहानी में जिस अलीपुर सेंट्रल जेल का उल्लेख है, वह एक ऐतिहासिक जेल है, जहां ब्रिटिश-काल में राजनीतिक बंदियों को रखा जाता था। 1910 में यह जेल बना था। इस जेल में सुभाष चन्द्र बोस भी एक राजनीतिक कैदी के रूप में रहे थे। इसमें आज कैदियों की क्षमता 2000 है। ‘नन्दीग्राम के चूहे’ में कुल 2,134 कैदियों का जिक्र है। राजनीतिक कैदियों को कहानी में कोठरी की अनुपलब्धता के कारण डॉर्मिटरी में रखा गया। कथावाचक और अभिजीत राजनीतिक कैदी हैं, जिन्हें सामान्य कैदियों के साथ रखे जाने के बाद कथावाचक ने कहा – ‘‘हम सब की सामाजिक हैसियत एकाएक शेयर मार्केट की तरह नीचे लुढ़क गई’’। राजनीतिक कैदी हंसों की तरह है और गैर राजनीतिक कैदी कौओं की तरह। नैरेटर को प्रथम दृष्टि में जेल रमणीय लगा। वह सोचता है- ‘‘क्या सौन्दर्य और अपराध हम बिस्तर होते हैं, हो सकते हैं।” ‘‘कहानी में बचपन से संचित’ और ‘कल्पना में’ ‘हत्यारे का जो विम्ब’ मौजूद है, वह जेल में 25-26 वर्ष के कैदी, युवक को देखकर टूट जाता है। जेल में खिलखिलाती हंसी, जीवंत हंसी केवल महिलाओं की है, जो ‘हवा के साथ झूमती हुई’, नैरेटर के पास पहुंचती है। कहानी में कई छोटे-छोटे वाक्यों में बड़ी-बड़ी बातें कही गयी हैं- ‘‘हर कैदी ने धरती को बहुत कम घेरा था।’’ धरती को बहुत अधिक घेरने वाले जेल के बाहर हैं। जेल में एक कैदी फन्ना खां है, जो मिस्टर मंडल के अनुसार ‘‘अजीब कैरेक्टर है… आधी रात को उठ-उठ कर अपने आप ही बतियाने लगता है तो कभी फूट-फूट कर रोने लगता है? कहानी में नैरेटर और कैदी के बीच का संवाद प्रमुख है। कैदी को सजा एक की हत्या के कारण हुई है। वह अपना अपराध एक सूअर को मारना बताता है। फिर अपने को सुधारता है – नहीं …. मैं गलत बोल गया, सूअर तो धरती की गंदगी को सफाचट करता है। फिर सूअर तो देखने में सूअर लगता है, वह किसी को धोखा नहीं देता। मैंने जिसे मारा वह तो धरती पर गंदगी फैला रहा था पर देखने में वह सूअर नहीं, सुदर्शन लगता था। दरअसल मैंने एक नरभक्षी को मारा।’’
नरभक्षी? नरभक्षियों की संसार में कमी नहीं है। मधु कांकरिया की विशेषता मित कथन में है। वे शब्दों के सटीक प्रयोग से प्रभाव उत्पन्न करती हैं। राजनीति पर, आर्थिक नीतियों पर, विकास नीतियों पर उनका ध्यान है, पर जैसा हिन्दी कहानियों का एक रिवाज है, उस तरह वे इस पर अधिक विचार नहीं करती। कहीं भी विस्तार नहीं है। संकेत और व्यंजनाएं हैं। कम कहकर अधिक कहने की या फिर पात्रों के संवादों के जरिये उनके विचारों में अपने विचार मिलाने का उनका अपना एक तरीका है। कथावाचक के यह कहने पर कि नरभक्षी को उसने केवल परियों की कहानी में सुना, देखा और पढ़ा है, कैदी बताता है। ‘‘अब उनके खाने और दिखने का तौर-तरीका भी बदल गया है। अब वे दिखते हैं खूबसूरत, भ्रम देते हैं सुगंध फैलाने का, पर खाते हैं सह प्राणियों का सारा सत’’ कहानी में नरभक्षी को एक डलिया फूल के रूप में दिखाया गया है। सामान्य फूल से भिन्न है डलिया फूल, जो ‘‘पूरी तरह प्राकृतिक नहीं होते। इनमें मानव-बुद्धि भी लग जाती है। इस कारण ये प्राकृतिक फूलों से बहुत बड़े आकार के होते हैं। प्राकृतिक फूल लगभग छोटे-छोटे आकार के होते हैं।’’ लेखिका बड़े की तुलना में छोटे को महान की तुलना में गौण को महत्व देती हैं। सामान्य लोग ही जीवन को संवारते हैं, सुंदर बनाते हैं। कैदी कहता है ‘‘मैंने एक नरभक्षी नहीं, वरन् एक डलिया फूल को मिटाया था।’’ मधु कांकरिया के लिए ‘स्वाभाविक रूप से माटी से फूटा फूल’ का महत्व है, न कि डिजाइनर फूल का। मोटा फूल बिना खपच्ची के सहारे टिक नहीं सकता, बढ़ नहीं सकता। डलिया फूल की सुन्दरता का रहस्य यह है कि उसे सहारे की, खपच्चियों की जरूरत है। सुन्दरता के भीतर कुरूपता देखने की यह बड़ी दृष्टि है। ‘‘मनुष्य द्वारा निर्मित इस सुन्दरता की नींव में कितने आंसू, अपमान, कुरूपता और हिंसा भरी पड़ी है। क्या बताऊँ सर जी।’’ कहानी में रूपक का अच्छा इस्तेमाल है। कैदी ने डलिया फूल को मारा, जो किसी गमले में न होकर कॉटन मिल में था, जिसकी ‘‘तोंद हमारे खून और कलेजे के कतरों से फूली हुई थी। उस गमले की माटी में हमारे पसीने, खून और आँसू की खाद थी। उसकी खपच्चियां उसके अंगरक्षक थे, जो उसे सहारा देकर उसकी बड़ी सी गाड़ी से उसे उतारते। वह इतना गोल-मटोल था कि जमीन पर गिरी चीज तक को नहीं उठा सकता था।’’
‘नन्दीग्राम के चूहे’ कहानी में कॉटन मिल के मालिक की हत्या का तर्क है। ‘‘हमने उसे मारा कि सब को अपने हिस्से की धूप, हवा, पानी और खाद मिल सके… उस एक की आाबदी की नींव में जाने कितनों की बर्बादी छिपी हुई थी। हम हर दिन इंच-इंच भुखमरी की ओर बढ़ रहे थे। आम की गुठलियों को पीस-पीस कर उसका आटा बना कर खा रहे थे, हम गलते जा रहे थे और वह खा-खा कर इतना मुटाता जा रहा था कि अपना भार भी खुद संभाल नहीं सकता था।” यह कहानी न किसानों की है और न केवल मजदूरों की यह केवल नन्दीग्राम-कथा भी नहीं है। यह दुनिया के करोड़ों-करोड़ दुखी, विपन्न, वंचित, गरीबी की मार झेलने वालों की कहानी है। मिल मालिक लालची है। उसे ‘हाई ग्रोथ’ की बीमारी लग चुकी है। कॉटन मिल को हटा कर वह शापिंग माल बनाना चाहता है। रातो रात अरबपति बनने का स्वप्न। 1990-91 के बाद भारत में अरबपतियों की संख्या बढ़ी है, कोरोना काल में अम्बानी-अडानी और अन्य कई उद्योगपतियों को काफी मुनाफा मिला है। दूसरी ओर करोड़ों लोग बेरोजगार हो गये। अभिजीत ने इस लड़ाई को ‘बिल्ली चूहे’ की लड़ाई कहा है। कथावाचक कैदी के बारे में सोचता है – ‘‘इस चुप्पे समय में भी इसने बिल्ली की टांग तो तोड़ी। हम तो सिर्फ शालीन गिरफ्तारियां देकर रह गये।’’ शालीन गिरफ्तारियां देने वाले शालीन लोगों से यह व्यवस्था नहीं मिटेगी। डलिया फूलों को सींचने वाले मालियों को उखाड़ फेंकने के लिए कहानी में न कोई संगठन है न राजनीतिक दल!
‘नन्दीग्राम के चूहे’ एक अर्थ में राजनीतिक कहानी है। वह इस राजनीतिक अर्थ-व्यवस्था के विरूद्ध है। कहानीकार तटस्थ नहीं है। कहानी में किसी विचारधारा का समर्थन और विरोध नहीं है, पर नयी अर्थ व्यवस्था, भूमि अधिग्रहण, लोभ-लालच-सबकि भरपूर विरोध है, मुखर और आक्रामक रूप में नहीं। यह कहानी विस्तार से विवेचन की मांग करती है। आज पश्चिम बंगाल की विधानसभा में एक भी मार्क्सवादी विधायक नहीं है। भारत में बिल्लियां मोटी हो चुकी हैं। कहानी चूहों के पक्ष में और बिल्लियों के विरोध में है। विकास-संबंधी अवधारणा पर यहां प्रश्न है। विचार है, जो घटनाओं के साथ संवादों से निकलते हैं।
और मधु कांकरिया की भाषा! इस कहानी से कुछ बानगियां – ‘‘आंखे भींगे खेत सी नम’ हुई, चेहरे पर ‘उदासी के बादल’ लहराये, ‘नींद थोड़ी, रात ज्यादा है,’ ‘नींद तो आई, पर रात जितनी नहीं’, ‘हमारे लिए जेल सिर्फ एक प्लेटफार्म थी’, ‘मिस्टर मंडल के चेहरे पर हंसी किसी बूढ़ी चिड़िया-सी फरफराती है’, ‘जेल कविता हो गया’। कहानी के आरंभ में भवानी प्रसाद मिश्र की काव्य-पंक्तियां है, जिसका अर्थ है फूल को बिखरा देने वाली हवा न चले और समूचे जंगल को जला देने वाली आग न लगे कौन कहता है? मधु कांकरिया इन हवाओं के चलने और आग लगने के पक्ष में है। वे मन के बंद दरवाजों को कहानी के जरिये खोलती हैं, यह इक्षा करती हैं कि हमारे मन के बंद दरवाजे भी खुले। कथावाचक अपने से पूछता है- ‘दुनिया इतनी खराब क्यों है?’’ कहानीकार जैसे सबसे पूछ रही हों- दुनिया को रखराब बनाने वालों के लिए हमें क्या करना चाहिए? ‘नन्दीग्राम के चूहे’ दुनिया को खराब बनाने वालों के खिलाफ है। हम चाहें तो इसे ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ और ‘दुनिया की सबसे हसीन औरत’ से थोड़ा ही सही जोड़ भी सकते हैं। दुनिया की चिन्ता प्रेमचन्द को थी, संजीव को है और मधु कांकरिया को भी कि दुनिया से गंदगी, शोषण, गरीबी और आर्थिक असमानता कैसे मिटे? कैसे बने सुंदर दुनिया? क्या बिना संघर्ष, प्रतिरोध और सामूहिक लडाई के बिना यह संभव है ?