अब तक आपने करींब 35 हिंदी लेखकों की पत्नियों के बारे में पढ़ा। आज पढ़िए हिंदी के प्रसिद्ध लेखक विशंभर नाथ शर्मा कौशिक की पत्नी के बारे में। आप लोगों ने “ताई” कहानी जरूर पढ़ी होगी। उसने कहा था कहानी ने जिस तरह गुलेरी जी को अमर कर दिया उसी तरह कौशिक जी को उनकी “ताई” कहानी ने लेकिन हिंदी संसार आज कौशिक जी बारे में बहुत कम जानता है।कौशिक जी का तो मूल्यांकन ही नहीं हुआ। उनके परिवारवालों का दावा है कि कौशिक जी ने प्रेमचन्द से अधिक कहानियां लिखीं जो करींब 400 होंगी। कौशिक जी का एक उपन्यास माँ भी चर्चित हुआ था। वे बनारसी दास चतुर्वेदी, निराला, शिवपूजन सहाय और राहुल जी से उम्र में बड़े थे। पर प्रेमचन्द से छोटे थे। प्रेमचन्द सुदर्शन और कौशक जी की तिकड़ी हिंदी कहानी में प्रसिद्ध थी पर अध्येताओं का ध्यान उन पर नहीं गया। उनकी रचनवली भी आज तक नहीं छपी।
तो आईए उनकी पत्नी के बारे में पढ़िए। उनके प्रपौत्र नीलाम्बर कौशिक ने बहुत मेहनत से यह लेख लिखा है।दरअसल उस ज़माने के लेखकों के बारे में हिंदी साहित्य जगत को कम जानकारी। दुर्भाग्यवश उनके पास दादी का कोई फोटो नहीं है। जिस तरह निराला की पत्नी का कोई फोटो नहीं उपलब्ध उस तरह कौशिक जी की पत्नी का फोटो नहीं है।
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“पत्नी के कारण ही कौशिक जी उच्च कोटि के लेखक बने।”
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“पत्नी के कारण ही कौशिक जी उच्च कोटि के लेखक बने।”
पं. विश्वम्भर नाथ शर्मा कौशिक का जन्म 10 मई 1891 में हुआ था। उनकी मृत्यु 10 दिसम्बर 1945 में हुई थी। प्रेमचन्द के निधन के 9 साल बाद वे चल बसे थे।आजादी से पहले प्रेमचन्द जयशंकर प्रसाद रामचन्द्र शुक्ल के बाद कौशिक जी भी नहीं रहे। उन्होंने लगभग 400 कहानियाँ, 3 उपन्यास,
2 नाटक, 2 व्यंग तथा 100 के लगभग आलेख लिखे हैं।
हिन्दी साहित्य के पुरोधा पं. विश्वम्भर नाथ शर्मा कौशिक जब सोलह वर्ष के थे जब
उनका विवाह लाहौर के धानाढ्य तथा सुप्रसिद्ध परिवार में हुआ था। पण्डित जनार्दन जी लाहौर के जाने माने व्यक्ति थे। उनका पारिवारिक व्यवसाय ठेकेदारी तथा जंगल कटवाने का था। बाद में उस परिवार ने महसूस किया कि जंगल कटवाने का काम अप्राकृतिक तथा अमर्यादित था। चूंकि पं. जनार्दन जी इंजीनियर थे ।उन्होंने कैनाल इंजीनियरिंग का कार्य प्रारम्भ किया। कौशिक जी के पिता इन्द्रसेन शर्मा एक प्राख्यात वकील थे, अतः उनकी ख्याति पूरे देश में थी। वे कानपुर के रहने वाले थे, जिले तथा उच्च न्यायालय की अदालतों में वे वकालत
करते थे। जनार्दन जी किसी कार्यवश कानपुर आये और उनकी मुलाकात इन्द्रसेन शर्मा से हुई। बातों-बातों में जनार्दन जी ने अपनी पुत्री के विवाह हेतु बात चलाई। तब उन्हें पता चला कि इन्द्रसेन शर्मा का एक पुत्र था। उन्होंने इन्द्रसेन शर्मा की आकूत सम्पत्ति शहर तथा गाँव में देखकर विवाह का प्रस्ताव रखा और बात तय हो गई। जनार्दन जी की पुत्री का नाम विश्वम्भरी देवी था, यह एक अजब संयोग था। विश्वम्भरी देवी का प्रारम्भिक जीवन सामान्य रहा। धीरे-धीरे कौशिक जी ने अपना जीवन साहित्य की ओर मोड़ दिया। परिणामस्वरूप वे घर के कार्यों से दूर थे। विश्वम्भरी देवी ने कानपुर ही नही ग्रामीण सम्पत्ति की जिम्मेदारी स्वयं पर ले ली। जब कौशिक जी अट्ठारह वर्ष के थे, उन्हें पुत्री रत्न प्राप्त हुई। उनका नाम कुसुम रानी शर्मा था। विश्वम्भरी देवी उसके लालन पालन के साथ घर का सम्पूर्ण कार्य देखती थीं। कौशिक जी ने जब अपने जीवन का पच्चीसवाँ वर्ष पूर्ण किया,तब पिता इन्द्रसेन शर्मा का देहान्त हो गया। विश्वम्भरी देवी के ऊपर घर एवं बाहर का सम्पूर्ण दायित्व आ गया था। कौशिक जी अब एक स्थापित लेखक हो चुके थे। उनकी कहानियाँ “सरस्वती, “प्रताप,” विशाल भारत” “चाँद”, “माधुरी” के अतिरिक्त अनेक पत्रिकाओं में छपने लगी थी। ईमानदारी की बात है कि वे विश्वम्भरी देवी पर घर तथा सम्पत्ति की पूर्ण जिम्मेदारी छोड़ कर साहित्य सृजन में लगे हुये थे। इन्द्रसेन शर्मा उनकी कार्य निष्ठा को देख कर अपनी कुछ सम्पत्ति अपनी पुत्रवधू विश्वम्भरी देवी के नाम तथा कुछ अपनी पत्नी द्रौपदी के नाम कर गये थे।
कौशिक जी के यहाँ अक्सर साहित्यिक गोष्ठी होती थी, बाद में यह प्रतिदिन होने लगी थी। इन गोष्ठियों में साहित्यकारों के आवभगत की व्यवस्था पत्नी विश्वम्भरी देवी ही देखतीं थीं। किस व्यक्ति को लस्सी चाहिये, कौन ठण्डाई पियेगा इसका पूर्ण ध्यान वे रखती थीं। साथ ही किरायेदारों से किराया, गाँव से अर्जित आमदनी का हिसाब वे ही रखती थीं। उन्होंने घरेलू मामलों से कौशिक जी को पूर्णतया मुक्त कर दिया था। यहीं नहीं अपने बच्चों कुसुम रानी, राजकुमारी, ललिता तथा पीताम्बर नाथ की पढ़ाई का भी समुचित ध्यान रखतीं थीं। कौशिक जी कुछ क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आकर क्रान्ति की ओर अग्रसर हुये, तब विश्वम्भरी देवी ने समझाया कि शारीरिक रूप से उसमें झूझने के बजाय अपनी कलम से क्रान्तिकारी करो। कौशिक जी के समझ में बात आ गई। वे अपनी कहानियों के माध्यम से लेखों द्वारा क्रान्तिकारिता करने लगे। विश्म्भरी देवी द्वारा पूर्णतया मुक्त किये जाने के कारण ही वे उच्चकोटि के लेखक बन सके थे। वे अत्यन्त उदारवादी प्रवृत्ति के थे। यह बात हंस में छपा उनका संस्मरण “मेरा बाल्यकाल” से स्पष्ट हो जायेगा। उनकी पत्नी उन्हें सम्पत्ति को बांटने से रोका। कौशिक जी का देहान्त 1945 में 54 वर्ष की अल्प आयु में हो गया, तब उन पर अपनी सास द्रौपदी देवी, तीन पुत्रियों तथा एक पुत्र का पूर्ण भार आ गया जिसे उन्होंने सफलता से वहन किया। पुत्र के वयस्क होने पर उसको सम्पूर्ण कार्य योग्य बनाया। सारे बच्चों को उपयुक्त शिक्षा दिलाई। दो बच्चों ललिता और पीताम्बर का विवाह भी सुनिश्चित किया। सन् 1961 में अपने सम्पूर्ण दायित्व की पूर्ति करके विश्वम्भरी देवी ने अंतिम सांस ली।
– नीलाम्बर कौशिक