मित्रों, अब तक आपने हिंदी के 42 नामी-गिरामी लेखों की पत्नियों के बारे में पढ़ा। कल आपनेअमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्नी के बारे में पढ़ा होगा। आज आप पढ़िए हिंदी के प्रख्यात उपन्यासकार अमृतलाल नागर की पत्नी के बारे में जिन्हें नागर जी तीन चौथाई अमृतलाल नागर मानते थे। अमृतलाल नागर हिंदी उपन्यास की त्रयी की तीसरी कड़ी थे जबकि भगवती चरण वर्मा और यशपाल पहली और दूसरी कड़ी। उनकी पत्नी का मूल नाम सावित्री देवी था पर वह प्रतिभा के रूप में प्रसिद्ध थी।उन्हें पुकार से बिट्टो भी कहते थे। अमृतलाल नागर जी ने आजादी से पहले करीब 7 साल फिल्मों के लिए भी लेखन करते रहे।” मानस का हंस” “खंजन नयन “सुहाग के नूपुर” “अमृत और विष” जैसी प्रसिद्ध किताबों के रचयिता अमृत लाल नागर अपनी पत्नी को बचपन से जानते थे। उनकी विदुषी पुत्री अचला नागर का यह संस्मरण आजकल पत्रिका से साभार पेश कर रहे हैं। तो पढ़िए उनकी मां के बारे में यह सुंदर संस्मरण।
“तीन चौथाई अमृतलाल नागर”
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– अचला नागर
मेरे बाबूजी का जन्म आगरा के गोकुलपुरा मोहल्ला में अपने ननिहाल के घर में हुआ था… गोकुलपुरा में उन दिनों नागरों के लगभग 40-45 घर थे, सौ लोगों का एक दूसरे के यहां आना-जाना, व्यवहार निभाना भी खूब चलता था। महिलाएं भी सुबह की रसोई निपटाकर किसी प्रसंगवश अथवा यूं ही मिलने-जुलने के लिए रिश्तेदारों के यहां आती-जाती रहती थी। बाबूजी की ननिहाल से लगभग पचास गज दूर उसी गली में मेरी ननसाल भी थी जहां मेरी बा (मां) अपनी दादी और मां के साथ रहती थीं। जन्म का नाम सावित्री पुकारने का नाम बिट्टो और ससुराल का नाम प्रतिभा था। एक बार बा अपने परिवार के साथ बाबूजी के ननिहाल गई, उन दिनों बाबूजी भी अपने ननिहाल आए हुए थे। बा तीन वर्ष की थी और बाबूजी पांच के। महिलाएं अपने वार्तालाप में व्यस्त थीं। तभी आंगन में बच्चों के साथ खेलती नन्हीं सावित्री का हाथ दरवाजे पर ताजे पुते कोलतार पर पड़ गया और नन्ही हथेलियों में लबड़ गया। गोरी-चिट्ठी गुड़िया सी सावित्री रोने लगी… ये देख गुलाबी रंगत वाले गुल गोंधना से बालक अमृत ने आगे बढ़ के न केवल सावित्री को चुप कराना चाहा, उसके हाथ भी साफ करने लगे। ‘वहां उपस्थित सभी का ध्यान इस और गया और हंसते हुए कोई महिला कह उठी’ कितनी सुंदर जोड़ी है गुड़िया-गुड्डे की’। इसी घटना से शायद बा और बाबूजी के परिवारों में उनका रिश्ता जोड़ने का विचार आया और रिश्ता तय भी हो गया। लगभग दस साल बाद जब बाबूजी पंद्रह वर्ष के हो गए और बा तेरह की, तब बाबूजी का परिवार लखनऊ से बारात लेकर आगरा आया और धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ। मेरी नानी बताती थीं कि देखने वाले बा-बाबूजी की जोड़ी को देखकर कहते नहीं थकते थे कि ये तो साक्षात शिव-पार्वती की जोड़ी है।
विवाह के बाद अवसर मिलते ही बाबूजी ने बा से कहा ‘वो लेखक बनेंगे’ बाबूजी जो पांच वर्ष की आयु में अक्षर ज्ञान प्राप्त करने के बाद से ही पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने लगे थे, साथ ही बूढ़े चौकीदार से ग़दर के जमाने के किस्से सुन-सुनकर उनकी कल्पना के पंखों को उड़ान मिल रही थी। दूसरी तरफ एक पुरुष विहीन परिवार में दादी और मां के साथ बड़ी हुई बा, जिन्होंने घर में रहकर ही छठी कक्षा की पढ़ाई की उनके लिए ‘लेखक’ एक नया शब्द था और जब बाबूजी ने लेखक बनने की बात कही तो ये सोचकर वो गर्व से भर उठी’ ये लेखक बनेंगे और मैं इनकी धर्म पत्नी, लेखक बनने में मैं सदैव इनका साथ दूंगी? और लगभग पचपन वर्ष के विवाहित जीवन में मन ही मन लिए इस वचन को बा ने निभाया भी, बाबूजी के पानदान से लेकर खानदान तक की देखरेख बा ने ही की, थाली में क्या है, कहां से आया है इस सब की ख़बर केवल बा को ही रहती थी बाबूजी को तो बस लिखना ही आता था। जल्दी विवाह हुआ और गृहस्थी भी जल्दी आरंभ हुई। उन्नीस वर्ष की आयु में बाबुजी जब कॉलेज में इंटरमीडियेट कर रहे थे साथ ही साहित्य में भी आगे बढ़ रहे थे तभी उनके पिता का आकस्मिक निधन हो गया और एक भरे-पूरे परिवार को चलाने की जिम्मेदारी उन पर आन पड़ी। घोर आर्थिक संकट से जूझते हुए, मन मारकर उन्होंने एक कंपनी में डिस्पैचर की नौकरी भी की किंतु अठारहवें दिन ही छोड़ दी।
1939-1940 के समय में बाबूजी के कुछ परिचित युवा लेखक हिंदी फिल्मों से जुड़ चुके थे…. बाबूजी के मन में आया कि उन्हें भी एक बार मुंबई फिल्म उद्योग में हाथ-पैर मारने चाहिए और वो मुंबई चले गए। इधर हम तीन भाई-बहन को लेकर हमारी बा और बाबूजी की ‘प्रतिभा’ एक बार फिर अपनी मां के साथ रहने के लिए गोकुलपुरा आगरा आ गई। प्रतिभा के लिए पहले-पहले विरह का दाहक अनुभव- बच्चों में ‘उनका’ मुख देखने का प्रयास, किंतु हार-हार जाती है… फिर भी ‘उन्हें कुछ बनना है’ की ललक उसे चलाने लगती है… पत्रों से पता चलाता है उन्हें सिनेमा में काम मिल गया है… एक फिल्म बन गई… दूसरी बनेगी…. ये पर्दे पर भी दिखलाई देंगे…मन खुशी से फूला नही समाता। साथ ही तेईस वर्षीया युवती की अल्हड़ समझ के नाते काल्पनिक ‘सुंदर-सुंदर सौतों’ का अंदेशा मन को मथ-मथ भी जाता… अपनी टूटी-फूटी भाषा में वह लिखती है
प्राणधन, आगरा
प्रणाम। आप तो मेरे है, मैं भी आपकी चरणसेविका हूं, हमको कौन छुड़ा सकता है लेकिन वियोग नहीं सहा जाता। आप तो वहां स्टूडियों जाते हैं, मनोरंजन होता होगा, लेकिन मेरे लिए सिवाय घर का काम या पुस्तक पढ़ना-उसमें अब मेरा जी नहीं जमता। बच्चे बड़ा याद करते है। सच, पेट बड़ा बुरा है, यही सब करवाता है।
….दूसरा चित्र जो बनना शुरु होगा, वह मैं अवश्य देखने जाऊंगी।
आप ऐक्टिंग करेंगे क्या? क्या नाम रहेगा उसमें आपका? किसके साथ ऐक्टिंग करेंगे, फिर किससे शादी करेंगे, किससे प्रेम करेंगे? वह सब लिखिएगा। बड़ी सुंदर-सुंदर होंगी। फिर भी क्या मेरी याद आपको आ सकती है? नाथ, बुरा न मानना, मज़ाक में मैंने लिखा है। मुझे बंबई कब दिखाएंगे कि वहां सुंदर-सुंदर को देखकर मुझे भूल जाएंगे।
आपकी चरण सेविका
प्रतिभा
प्रिय बाल साथी,
जयहिंद! पत्र मिला। तुम अपने को इतना कमज़ोर मत समझो। यह भी एक परीक्षा का समय है। तुम ऐसे चमकोगे कि तुम्हारी चमक पर हर-एक को नाज़ होगा। इतना हारा अपने को क्यों समझते हो? तुम्हारी हिम्मत से तो मेरी हिम्मत बंधती है। हम दोनों एक-दूसरे की हिम्मत हैं।
…पत्र पढ़कर मैं सोचती रही कि वास्तव में पति-पत्नी का संबंध उतना घनिष्ठ नहीं, जितना एक सच्चे मित्र का। मैं उस दिन की कल्पना करती हूं, जब हम एक-दूसरे का हाथ बनकर काम करेंगे और हर काम में तुम्हें मेरे बिना, मुझे तुम्हारे बिना अटक हो…
इस वर्ष तुम बत्तीसवें वर्ष में प्रवेश करोगे, मेरी शुभकामनांए है कि यह वर्ष तुम्हारी आशाएं पूरी करेें।
तुम्हारी
प्रतिभा
सैराविला
5-5-52
प्रिय प्रतिभा,
तुम्हारे दो कार्ड मिले। देवी, एक सविनय प्रार्थना है, आप यदि कृपा कर पेंसिल से पत्र लिखना छोड़ दें तो केवल मुझ पर नहीं, वरन् शून्याजी धून्याजी छानकी छलाईजी तक पर आपका एहसान होगा। आपका राइटिंग यों भी भगवत कृपा से नुमाइश में रखने काबिल है, उस पर पेंसिल से लिखा हो तो फिर क्या कहना-सोने पे सुहागा।
और… क्या लिखूं? नेतागिरी का भाव बढ़ रहा है। आपके पूज्य अथवा अपूज्य पतिदेव, फारसी भाषा में देव के माने दैत्य होते है, जी चाहे तो वह भी समझ लीजिए, इस दो महीने में संसारी फूलाहार तो कई बार पहन चुके, केवल लक्ष्मी जी के हाथों स्वर्ग-कुसुमों की जयमाला ही अभी तक गले में नहीं पड़ी। सुना है बैकुंठ का माली इस समय फूल-चुन रहा है, फिर मालिन हार गूंथेगी, तब लक्ष्मीजी लिपस्टिक पाउडर लगाकर स्वर्ग से मेरे गले में जयमाला डालने उतरेंगी। यह खबर लगी है कि विष्णु भगवान को यह घबराहट है कि यदि लक्ष्मी अमृतलाल नागर ऐसे गबरु-छैला के पास पहुंच गई तो उन्हें सूने बैकुंठ में आहें भरकर फिल्मी गीत गाने पड़ेंगे। इसलिए वे लक्ष्मी जी को मेेरे पास आने से रोक रहे हैं, तरह-तरह से फुसला रहे हैं। हम तो देवी, यही सब सोच-विचार कर तुम्हारे पास आने का विचार कर रहे थे, पर मित्र लोग- महेश कौल, अनिल विश्वास, नरेंद्रजी आदि आग्रह करते हैं कि ‘‘अंखियां मिला के जिया भरमा के चले नहीं जाना-चले नहीं जाना।”
और कुंडली वही बात बतलाती है जो आपकीं किसी ज्योतिषी ने बतलाई थी- यानी छत्तीस पूरा करने के बाद ही लक्ष्मीजी मेरे लिए स्वर्ग से उतरेंगी। सो छत्तीसा बनने में अभी पूरे साढ़े सात महीने की कसर है। बाबूजी मुंबई के फिल्म उद्योग में बतौर सफल पटकथा लेखक यश और धन कमा रहे थे, किंतु पलभर के लिए भी ये बात वो मन से अलग न कर पाए कि उन्हें साहित्यकार ही बनना है… और सन् 1947 में वो मुंबई छोड़कर स्थाई रुप से लखनऊ रहने के लिए आ गए… बा अभी भी हम बच्चों के साथ आगरा में थी।
लखनऊ
2.12.1947
प्रिय प्रतिभा,
….तुम्हारे पत्रों से तुम्हारे सूनेपन का बड़ा ही मार्मिक अनुभव होता है… मैं स्वार्थी हूं, उस वातावरण में घुट गया था, सो लखनऊ चला आया।
यहां एक प्रकार की शांति अनुभव कर रहा हूं। तुम्हारी बेबसी और छटपटाहट को मेरे सिवा और कौन महसूस करेगा?
…भगवान ने चारों ओर से मेरे पर कतर डाले हैं। आमदनी नहीं कि तुम्हें ज़ोर से अपने पास खींच लेता, अपनी पूरी जिम्मेदारी आप उठाना।
…मैं तुम्हें कोई सुख नहीं दे सकता, दे सकता हूं तो बस, प्यार। …जाओ, तपे जाओ। लौ लगाओ कि तजन अच्छी हो। तुम्हारे इस …अपनी ओर से केवल एक विश्वास दिलाकर तुम्हें कुछ पल दे सकता हूं और वह विश्वास यह है कि तुम्हारा प्यार और मान, तुम्हारा-मेरा …..का स्थान- उसका संपूर्ण गौरव और आदर, तुम्हारे प्रति मेरी चिरस्नेही मेत्री इन तीनों भावों से सदा तुम मेरे हृदय में रहोगी।
…हमारी हलचल ऊपरी हलचल है। मैंने तुमसे कई बार कहा है कि पत्नी के रुप में तुम और पति के रुप में मैं- एक-दूसरे की कमजोरियों को ज्यादा सहन नहीं कर सकते- दोस्त (के रुप) कर सकते हैं। जब तक हम दोनों इतने इकट्ठे होकर न बैठेंगे कि हमारे दिल की छोटी-छोटी अच्छाइयां और कमजोरियां एक-दूसरे के सामने बेहिचक आ जाए। ठीक वैसे ही, जैसे हम दोनों को एक-दूसरे के शरीर से किसी प्रकार की भी शर्म और झिझक नहीं- ठीक वैसे ही हम दोनों के मनों के बीच से भी शर्म झिझक मिट जानी चाहिए… पति-पत्नी होकर हम जाने किस किस्म के खूंखार जानवर हो जाते है कि एक-दूसरे को नहीं सुहाते… जब हम दोस्त हो जाएंगे, अपने-अपने दिलों को एक-दूसरे के सामने उलट देंगे, जब इस तरह की ऊपरी हलचलें मिट जाएंगी। हम दिलों से निकट आएंगे, एक-दूसरे के दिल पहचानेंगे… और जब दिल की पहचान खूब हो जाएगी, तो सच्चा विश्वास जाग उठेगा… दोस्ती में न कोई छोटा होता है, न बड़ा। मैं तुमसे आग्रह करुंगा कि तुम मेरा नाम लिया करो…. पत्रों में संबोधन ‘प्रिय अमृत’ से शुरु किया करो… क्यों जी, मेरा नाम क्या इतना बुरा है कि आप उसे इस्तेमाल न कर अपने पत्रों में ‘श्री लिखकर… बिंदिया छोड़ दिया करती हैं। अरे, एक बार यह शुरु करके तो देखा, फिर दिल ख़त में किस तरह फूट-फूटकर बह निकलेगा, यह तुम्हें एक नया अनुभव होगा। अपने को हर तरह संभालना, बच्चों की निगरानी रखना। यह तुमने अच्छा नहीं किया कि बच्चों का दूध बंद कर दिया। अचला को ध्यान का केंद्र बनाओ, उसकी स्कूल बस मत छुड़वाना…
कुछ पता नहीं, बड़े अंधेरे में भटक रहा हूं। ईश्वर इतने शून्य में ले जाकर क्या दिखलाना चाहता है, इसी की प्रतीक्षा है। मेरी किस्मत अब इसी भूमि में खुलेगी, अब मेरी लंबी हलचलों का अंत निकट है, ऐसा आभास होने लगा है…
चिर स्नेह
अमृत
पुनश्चः तुम्हारे लिए एक नई सौत कल ख़रीद ली है, साढ़े आठ रुपये लगे। छोटी-सी फ़र्शी है और लंबी खूबसूरत सटक (निगाली) इससे मन बड़ा बहलता है।
अमृत
पत्र आते हैं…जाते हैं, शरीरों की दूरी जैसे मनों को पास लाने का बहाना बनती जाती है। परिवार में इस बीच एक और नन्हीं कली खिलती है- आरती। मन को कसन के लिए, जुझने के लिए, शक्ति बटोरने के लिए एक-दूसरे की प्रेरणा से दोनों लंबे-लंबे उपवास रखते हैं। अट्ठाइस रोज़ का एक सुदीर्घ उपवास ‘बंधु अमृत’ के आदरास्पद और प्रतिभा के राखीबंधा भाई पंतजी ही तुड़वाते हैं। गांधीजी की अवसान पर आठ दिवसीय कड़े व्रत समापन पर प्रतिभा को ‘उनका’
बधाई
तार मिलता है-दोनों एक-दूसरे के ऊर्जा-स्त्रोत बनते जाते हैं… कठिन जीवन के पहिए शनैः शनैः सहजता की ‘ग्रीज’ से जैसे जंग से मुक्त होकर गति पकड़ने लगते हैं…
नए-नए पड़ाव…और हर पड़ाव पर एक यादगार पत्थर गड़ता जाता है… ‘महाकाल’- ‘आदमी नहीं-नहीं’ -रेडियो की प्रोड्यूसरी- लेकिन निजी लेखन में जब वह बाधक बनने लगती है, तो प्रतिभा का आश्वासन-‘जैसे भी हो तैसे गृहस्थी की गाड़ी मैं ढकेल ही लूंगी, तुम्हें जिसमें संतोष मिले, वही करो’- पाकर उस पहली और आख़िरी साढ़े तीन साल नौकरी को आखिरी सलाम।
विवाह के बाद से अब तक ‘गौरवशाली बिट्टो’ गोकुलपुरा वाली मानसिकता को झटकार फेंकने का प्रयास निरंतर ही करती रही हैं… एक ओर प्रबुद्ध लेखक की आदर्श पत्नी बनने का चाव, तो दूसरी ओर बचपन से सुने-गाए ‘चिरी तोय चांवलिया भावै, घर में सुंदर नार बलम तोय परनारी भावै’ के रसिक पतियों की करतूतों से भयाक्रांत मन और यदि यह सब नहीं तो लंबे अर्थाभाव को झेलने की कसक, पति-पत्नी दोनों ही अपने हठ के चबूतरों से आसानी से नीचे उतरने वाले नहीं-ऐसे में हलचल, टकराव और विस्फोट तो होंगे ही। नन्हें-नन्हें बच्चे सहमे-सहमे मुंह छिपाए फिरते हैं। बाबूजी का बात-बात पर ‘घर छोड़ दूंगा’ उनको दहला डालता है, किंतु यही वाक्य समझ आने पर जब उन्हें -तकियाकलाम’ जैसा लगने लगता है, तो बा के मोटे-मोटे बहते आंसू कष्ट भी देते हैं। एक रोज़ जब सयानी हो आई अचला से यह सब झेला नही जाता, तो वह भी ‘रणक्षेत्र’ में यह कहती कूद पड़ती है, ‘बाबूजी, आपने ज़िंदगीभर बा को रुलाया है, अब हम अपनी मां के आंसू नहीं देख सकते।’ सुनकर बाबूजी दो पल को हक्के-बक्के रह जाते हैं कि यह बितकनी भी अब जुबान पा गई है… किंतु तुरंत ही वे अपने ‘फार्म’ में लौट आते हैं और दूने आवेश में बा से कहते हैं… ‘अच्छा, अब तुमने अपने हिमाबतियों को फौज़ भी इकट्ठी कर ली है-ठीक है, तुम सब रहो, अब यह घर मेरा नहीं-और (पिछली कई बार की तरह ही) लुंगी-कुर्ता पहने ही वे घर से बाहर हो जाते हैं। सफ़र और आगे बढ़ता है… ‘बूंद और समुद्र’ के प्रकाशित होते ही ‘‘अमृत श्री अमृतलाल नागर बन जाते है… उपन्यासकार नागर जी… और फिर एक के बाद एक उपलब्धियां-सम्मान-प्यार, लेकिन नागर जी यह क्या कहते है, -यह सारा प्रतिभा का तीन-चौथाई अमृतलाल नागर तो वही है।’’
प्रतिभा.. मेरी प्यारी बा नागरजी को रचना-प्रक्रिया के प्रसवकाल को अपने ऊपर झेलकर कैसे बताती हैं- ‘जब-जब तेरे बाबूजी कुछ नया लिखते हैं, तो मेरी जैसे आफत ही आ जाती है, …उलझे नहीं कि यह फेंक, वह फेंक। अब भी यही हाल है, यह नही सोचते कि ये बूढ़े हुए तो आखि़र मैं भी तो हुई’- कितना कुछ भी क्यों न हो, दोनों ही एक-दूसरे के बिना एक पल नहीं रह पाते। बा जरा आंखों से ओझल हुई नहीं कि बच्चों से पूछते फिरेंगे, ‘तारी बा क्या छै’ (तेरी मां कहां है)? फिर खुद ही डंक मारेंगे, ‘अमां पंडित, (बा के लिए प्यार-भरा संबोधन) यहां आकर बैठो, यार’ उस समय बासठ साल की मेरी बा के चेहरे पर लाज का सलोनापन उन्हें कुछ ऐसा कोमल भाव दे जाता है कि मैं मुग्ध हो जाती हूं। सुबह बाबूजी के पांव दबाने से लेकर उनके खाने-पीने, पहनने-ओडने आने-जाने वालों सभी की साज-संभार वे जिस तरह दौड़-दौड़कर करती है- सच, देखकर खुद के निकम्मेपन पर शर्म आने लगती है।
अभी पिछले वर्ष बाबूजी ‘खंजन नयन’ उपन्यास लेखन के सिलसिले में लंबे समय तक मथुरा में रहे चूंकि बा अब अकेली बाबूजी की मिल्कियत नहीं रह गई, परिवार के और भी बहुत से ‘अनाथ’ उन्हीं पर आश्रित हैं, अतः लंबे समय तक उनका लखनऊ से बाहर रहना नहीं हो पाता। उन दिनों मैंने बाबूजी के अकेले में बा को निरंतर ही साथ पाया। मधुमेह की वजह से बाबूजी को शक्कर खाने की मनाही हो गई है, किंतु बा के सामने हठ से पा मचलकर प्रायः कुछ न कुछ मीठा पा ही लेते हैं। मैंने भी कुछ ऐसा ही प्रबंध करना चाहा तो उन्होंने साफ मना कर दिया, ‘बेटा, चलते समय तेरी बा ने मना किया था, उससे वादा कर आया हूं, वह आ जाएगी, तब उसके सामने मिठाई जरुर खाऊंगा’ बा के साथ की संजोई एक-एक चीज़ देखते तो कहते, ‘अब तेरी बा के बिना चलना मुश्किल है। यही मानता हूं कि भगवान उसके जाने के घंटे-भर बाद मुझे भी उठा ले।’
बा भी मथुरा आने वाली थीं, बाबूजी एक-एक दिन गिन रहे थे, बोले, ‘‘सूर के जीवन में, उनकी रचनाओं में, वात्सल्य और श्रृंगार ही प्रधान है, इसी से चाहता हूं, तेरी बा आए और बस सामने ही बनी रहे। ‘मानस का हंस’ की रत्ना के विरह की ईमानदार छवि उतारने के लिए ही मैंने उन दिनों तेरी बा से झगड़ा किया और अल रहकर उपन्यास लिखा… अनुभव के बिना लेखन की सिद्धि नहीं मिलती बेटा।’’
…31 जनवरी, 1932 से आरंभ हुआ संग साथ का ये सफर 29 मई 1985 को पूरा हो गया। हमारी बा और बाबूजी की ‘प्रतिभा’ हम सबको छोड़ के चली गई और उस दिन से लगभग पांच वर्षों तक बाबूजी मात्र चौथाई होकर ही जीते रहे।