Sunday, November 24, 2024
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“स्त्री और प्रकृति : समकालीन हिंदी साहित्य में स्त्री कविता”

स्त्री दर्पण मंच पर ‘प्रकृति संबंधी स्त्री कविता शृंखला’ की शुरुआत महादेवी वर्मा की जयंती के अवसर पर हुईं जिस का संयोजन प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह कर रही हैं। इस शृंखला में स्त्री कवि की प्रकृति संबंधी कविताएं शामिल की गई हैं।
पिछले दिनों आपने इसी शृंखला में हिंदी की वरिष्ठ कवयित्री, कथाकार, चित्रकार और अनुवादक तेजी ग्रोवर की कविताओं को पढ़ा।
आज आपके समक्ष अपने समय की विशिष्ट आधुनिक व चर्चित हिंदी कवयित्री गगन गिल की कविताएं हैं तो आइए उनकी कविताओं को पढ़ें।
आप पाठकों के स्नेह और प्रतिक्रिया का इंतजार है।
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कवयित्री सविता सिंह
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स्त्री का संबंध प्रकृति से वैसा ही है जैसे रात का हवा से। वह उसे अपने बहुत निकट पाती है – यदि कोई सचमुच सन्निकट है तो वह प्रकृति ही है। इसे वह अपने बाहर भीतर स्पंदित होते हुए ऐसा पाती है जैसे इसी से जीवन व्यापार चलता रहा हो, और कायदे से देखें तो, वह इसी में बची रही है। पूंजीवादी पितृसत्ता ने अनेक कोशिशें की कि स्त्री का संबंध प्रकृति के साथ विछिन्न ही नहीं, छिन्न भिन्न हो जाए, और स्त्री के श्रम का शोषण वैसे ही होता रहे जैसे प्रकृति की संपदा का। अपने अकेलेपन में वे एक दूसरी की शक्ति ना बन सकें, इसका भी यत्न अनेक विमर्शों के जरिए किया गया है – प्रकृति और संस्कृति की नई धारणाओं के आधार पर यह आखिर संभव कर ही दिया गया। परंतु आज स्त्रीवादी चिंतन इस रहस्य सी बना दी गई अपने शोषण की गुत्थी को सुलझा चुकी है। अपनी बौद्धिक सजगता से वह इस गांठ के पीछे के दरवाजे को खोल प्रकृति में ऐसे जा रही है जैसे खुद में। ऐसा हम सब मानती हैं अब कि प्रकृति और स्त्री का मिलन एक नई सभ्यता को जन्म देगा जो मुक्त जीवन की सत्यता पर आधारित होगा। यहां जीवन के मसले युद्ध से नहीं, नये शोषण और दमन के वैचारिक औजारों से नहीं, अपितु एक दूसरे के प्रति सरोकार की भावना और नैसर्गिक सहानुभूति, जिसे अंग्रेजी में ‘केयर’ भी कहते हैं, के जरिए सुलझाया जाएगा। यहां जीवन की वासना अपने सम्पूर्ण अर्थ में विस्तार पाएगी जो जीवन को जन्म देने के अलावा उसका पालन पोषण भी करती है।
हिंदी साहित्य में स्त्री शक्ति का मूल स्वर भी प्रकृति प्रेम ही लगता रहा है मुझे। वहीं जाकर जैसे वह ठहरती है, यानी स्त्री कविता। हालांकि, इस स्वर को भी मद्धिम करने की कोशिश होती रही है। लेकिन प्रकृति पुकारती है मानो कहती हो, “आ मिल मुझसे हवाओं जैसी।” महादेवी से लेकर आज की युवा कवयित्रियों तक में अपने को खोजने की जो ललक दिखती है, वह प्रकृति के चौखट पर बार बार इसलिए जाती है और वहीं सुकून पाती है।
महादेवी वर्मा का जन्मदिन, उन्हें याद करने का इससे बेहतर दिन और कौन हो सकता है जिन्होंने प्रकृति में अपनी विराटता को खोजा याकि रोपा। उसके गले लगीं और अपने प्रियतम की प्रतीक्षा में वहां दीप जलाये। वह प्रियतम ज्ञात था, अज्ञात नहीं, बस बहुत दिनों से मिलना नहीं हुआ इसलिए स्मृति में वह प्रतीक्षा की तरह ही मालूम होता रहा. वह कोई और नहीं — प्रकृति ही थी जिसने अपनी धूप, छांह, हवा और अपने बसंती रूप से स्त्री के जीवन को सहनीय बनाए रखा। हिंदी साहित्य में स्त्री और प्रकृति का संबंध सबसे उदात्त कविता में ही संभव हुआ है, इसलिए आज से हम वैसी यात्रा पर निकलेंगे आप सबों के साथ जिसमें हमारा जीवन भी बदलता जाएगा। हम बहुत ही सुन्दर कविताएं पढ सकेंगे और सुंदर को फिर से जी सकेंगे, याकि पा सकेंगे जो हमारा ही था सदा से, यानी प्रकृति और सौंदर्य हमारी ही विरासत हैं। सुंदरता का जो रूप हमारे समक्ष उजागर होने वाला है उसी के लिए यह सारा उपक्रम है — स्त्री ही सृष्टि है एक तरह से, हम यह भी देखेंगे और महसूस करेंगे; हवा ही रात की सखी है और उसकी शीतलता, अपने वेग में क्लांत, उसका स्वभाव। इस स्वभाव से वह आखिर कब तक विमुख रहेगी। वह फिर से एक वेग बनेगी सब कुछ बदलती हुई।
स्त्री और प्रकृति की यह श्रृंखला हिंदी कविता में इकोपोएट्री को चिन्हित और संकलित करती पहली ही कोशिश होगी जो स्त्री दर्पण के दर्पण में बिंबित होगी।
स्त्री और प्रकृति श्रृंखला की हमारी नौंवी कवि गगन गिल हैं जिनकी इन कविताओं में प्रकृति अलग से कोई यथार्थ नहीं बल्कि एक ही सत्य के दोनो आत्मीय हिस्से हैं। नदी की तह में डूबी हुई एक प्यास सी दोनो ही इस नदी से अंतरंग है। यहां अपना सुख-दुख इसी विश्वास से साझा भी किया जा रहा है। कवि कह सकती है नदी से उस प्रेम के बारे में भी जिसे लेकर उसे भरोसा है कि यदि वह विसारती है उसे एक दिन के लिए भी तो मछलियां भूल जाएंगी जल के भीतर अपना रास्ता, घोंघे जल उठेंगे अपने खोल के भीतर। स्त्री प्रेम का ऐसा संबंध प्रकृति और पुरुष संग है यहां। परंतु वह कुछ और भी जानती है जिससे चौंक सकती हैं हवाएं : ये जो रंग मैं देखती हूं/फूल में लाल सफेद /पंखुड़ी में/घूमता …न यह लाल है न सफेद”, जैसे कि यह दिल जिससे खेलता है कोई उछलता हुआ हवा में, कभी उसके पैरों तो कभी हाथों में, वह ना दिल है नहीं गेंद। वह स्त्री का प्रेम है जिसके लिए इतनी अपहचान अब तक बनी हुई है हमारी सभ्यता में कि एक चींटी उदास हो जाती है घर लौटते हुए याकि एक उचाट घेर लेता है उसे। पिछले जन्म में वह एक स्त्री ही थी आख़िर!
लेकिन सत्य तो यह भी है कि इस कायनात में एक चींटी या फिर मधुमक्खी भी अकेली नहीं रह सकती। सूख जाता है अकेला एक पेड़ जैसे एक आदमी अकेला। अकेलेपन का दुख क्या कुछ नहीं सुखा देता: दुख सुखा देता है गाय का दूध। चंद्रमा पूछता है जब तब समुंदर से,” किसके लिए उगता हूं मैं, किसके लिए?” सही बात तो यह है कि हमें एक दूसरे का साथ चाहिए, प्रेम और सहानुभूति में पगा हुआ।
प्रकृति से बतियाती, सहज, जीवन के रहस्य समझती और समझाती, पढ़िए इस विलक्षण कवि को जो हमें अंततः बता जाती है धरती के भीतर चल रहे उस कुएं के बारे में जिसे खोजने में देरी करना उसे कभी नहीं पा सकने की भूल करने की तरह हैं। हम कितना कुछ इसी अज्ञान में खोते जाते हैं, मछली की तरह रेत पर तड़पते हुए मर जाते हैं। गगन गिल को पढ़िए आज आप सभी।
गगन गिल का परिचय :
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1959 में दिल्ली में जन्मी व अंग्रेज़ी साहित्य में दीक्षित गगन गिल की गणना पहली कतार की आधुनिक हिंदी कवयित्रियों में की जाती है। अपने आरम्भिक वर्षों में उन्होंने ग्यारह बरस तक टाइम्स ओफ इंडिया ग्रुप व संडे अब्ज़र्वर में साहित्यिक पत्रकारिता की।
वह 1990 में अमेरिका के सुप्रसिद्ध आयोवा इंटरनेशनल राइटिंग प्रोग्राम में भारत से आमन्त्रित लेखक थीं। सन1992-93 में वह हार्वर्ड युनिवर्सिटी, अमेरिका में पत्रकारिता की नीमेन फैलो रहीं। 2000 में जर्मनी के गोएटे इंस्टीट्यूट के निमंत्रण पर व सन 2005 में पोएट्री ट्रांसलेशन सेंटर, लन्दन के निमंत्रण पर उन्होंने पश्चिम के कई शहरों में कविता पाठ किया। लूसी रोज़ेन्स्टायन एवं जेन द्वारा किया अंग्रेज़ी अनुवाद ‘दिस वाटर’ पोइट्री ट्रांसलेशन सेंटर व आर्ट काउंसिल इंग्लैंड से व लोठार लुत्से द्वारा किया पुस्तकाकार जर्मन अनुवाद लोटस वरलाग, बर्लिन से प्रकाशित हैं।
उनकी नौ कृतियां हैं – पांच कविता-संग्रह : एक दिन लौटेगी लड़की (1989), अंधेरे में बुद्ध ( 1996), यह आकांक्षा समय नहीं (1998),थपक थपक दिल थपक थपक (2003), मैं जब तक आई बाहर (2018) एवं 4 गद्य पुस्तकें : दिल्ली मे उनींदे(2000), अवाक्(2008), देह की मुँडेर पर (2018),इत्यादि (2018)। अवाक् की गणना बीबीसी सर्वेक्षण के श्रेष्ठ हिंदी यात्रा वृतांतों में की गई है। उस पर दूरदर्शन आर्काइव्स ने एक फ़िल्म भी बनाई है।
गगन गिल ने विभिन्न भाषाओं के शीर्ष लेखकों की प्रतिनिधि रचनाओं के हिंदी-पंजाबी में अनुवाद किये हैं। इनकी 14 पुस्तकें साहित्य अकादमी, नेशनल बुक ट्रस्ट आदि संस्थानों से प्रकाशित हैं। अंग्रेज़ी में उनके द्वारा सम्पादित चित्रकार रामकुमार पर केंद्रित पुस्तक ‘ए लाइफ़ विद इन’ वढ़ेरा आर्ट गैलरी दिल्ली एवं ‘न्यू वीमेन राइटिंग इन हिंदी’ हार्पर कोलिंस इंडिया से प्रकाशित हैं।
गगन गिल को भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार(1984), संस्कृति सम्मान(1989), केदार सम्मान(2000), हिंदी अकादमी साहित्यकार सम्मान (2008), द्विजदेव सम्मान(2010), एवं अमर उजाला शब्द सम्मान (2018) से सम्मानित किया गया है।
गगन गिल की कविताएं –
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1. जल्दी ही
उसकी आँखें चमक रही हैं
कुछ ज़्यादा ही तेज
बुझ जाएगी वह
जल्दी ही जल्दी ही
उसके सपने में है झील
नीली, घाटी, सीली
डूबेगी वह उसमें ही
जल्दी ही जल्दी ही
उसके रोने में हैं कई
तितलियाँ उड़तीं काली
बंद होगी यह किताब
जल्दी ही जल्दी ही
उसके पंख चिर रहे हैं
अपने ही काँच से अब
जाम होगी उड़न-छतरी
जल्दी ही जल्दी ही
बालू है, नहीं है दरिया
बहा गए हैं जिसमें दोस्त
डूबेगी इसी में लेकिन
जल्दी ही जल्दी ही
फ़रार है अभी किसी
बचपन के दुःख से वह
पकड़ी जाएगी सपने में
जल्दी ही जल्दी ही
2 . चींटियाँ
चींटियाँ अपने घर का रास्ता भूल गयी थीं।
हमारी नींद और हमारी देह के बीच वे कतार बनाती चलतीं। उनकी स्मृति में बिखरा रहता उनका अदृश्य आटा, जो किसी दूसरे देश-काल ने बिखेरा था। उसे ढूँढती वे चलती जातीं पृथ्वी के एक सिरे से दूसरे की ओर। वे अपने दांत गड़ातीं हर जीवित और मृत वस्तु में। उनके चलने से पृथ्वी के दुःख इतने हलके होने लगते कि दिशाएँ घूमने लगतीं, भ्रमित हो। ध्रुव बदलने लगते अपनी जगह। चींटियों का दुःख मगर कोई न जानता था।
बहुत पहले शायद कभी वे स्त्रियाँ रही हों।
3 . हमारे शहर में पितर
चिड़ियाँ बेघर थीं हमारे शहर में।
हम डरे हुए लोग थे। हम चूहों से डरते आए थे। और छिपकलियों से। इन दिनों मच्छर हमारे आतंक का कारण थे। और उनके पेट में पलते अदृश्य जीवाणु। हम इतना डरे हुए थे कि अगले जन्म में भी मनुष्य रहना चाहते थे। इसके लिए हम कोई भी पाप कर सकते थे।
हमें देखते ही चिड़ियाँ अपने पंख फड़फड़ातीं। हम उनके घरों में ही नहीं, दुस्स्व्प्नों में भी रहते थे।
पितर मंडराते हमारे शहर-भर में। कव्वे, मच्छर और बिल्लियाँ बनकर।
4 . जब तुम नहीं थे
जब तुम नहीं थे
चिड़ियाँ छोड़ गयीं
अपने तिनके
मेरे पास
बिना घर बनाए
झुलसा लिए थे पत्तों ने
अपने चेहरे
इतनी सेवा के बाद
चींटियाँ हो गयीं
उचाट
अपने घरों को जातीं
सुबह जो उड़ती थीं
तितलियाँ
मिलने लगीं शाम को
कापियों में बंद
ग़ायब होने लगे
पवित्र ग्रंथों से
अक्षर
जमा होने लगे
सितारे
घर की छत पर
टूट कर
करने लगे चिंता
यक्ष गण पितर
भागती रही उम्र
धूप और सफ़ेदी के बीच
टूटने लगी थी
हृदय-रेखा
हथेली के बीचों-बीच
कहाँ चले गए थे तुम?
5 . सिर्फ़ एक दिन वह स्मृतिहीना
सिर्फ़ एक दिन
वह नहीं सोचेगी
तुम्हारे बारे में
और मछलियाँ भूल जाएँगी
जल के भीतर अपना रास्ता
टंगा रह जाएगा जलता सूर्य
निरुपाय सौरमंडल में
फँस जाएगी समय की नाल
गिर्द अपने ही कंठ के
सिर्फ़ एक दिन
वह स्मृतिहीना
रखेगी अपना दिया
सूर्य और चंद्र के बीच
और चिंतित हो जाएँगे
आकाश में सप्त-ऋषि
झरने लगेंगे अक्षर
टूट कर लिपियों से
भूल जाएँगे जीव अपने मुख
और दर्पण कहीं न होंगे
सिर्फ़ एक दिन
क्षण भर को उससे
ओझल होगे तुम
दैवी कुहेलिका में
और छा जाएगा अंधकार
ब्रह्मांड के अंत तक
घुमड़ने लगेंगे लावे
पृथ्वी के अंतर में
घोंघे जल उठेंगे
अपने खोल के भीतर
कई मीलों तक
सिर्फ़ एक दिन के
विस्-मरण में
नीली पड़ जाएगी यह देह
अपने ही काटे से
6 . तुम कहोगे, रात
तुम कहोगे, रात
और रात हो जाएगी
तुम कहोगे, दिन
और धुल जाएगा दिन
तुम कहोगे, रंग
और उड़ती चली आएँगी
तितलियाँ पृथ्वी-भर की
तुम सोचोगे, प्रेम
और दिगंत खोल देगा
एक इंद्र-धनुष गुप्त
तुम होगे संतप्त
और जल जाएगी
उसकी त्वचा
दूसरे शहर में
तुम कहोगे, रात
और झरती चली जाएगी स्मृति
तुम कहोगे, दिन
और रिक्त हो जाएगी पृथ्वी
तुम रहोगे चुप
और चटक जाएँगी
शिलाएँ चंद्रमा तक
तुम करोगे अदेखा
और वह जा फँसेगी
अदृश्या
हवा के कंठ में
तुम कहोगे, रात
और बनने लगेगा
आप-ही-आप
रेत में एक घर
तुम कहोगे दिन
और उघड़ जाएगी यह देह
जरा की कुतरी हुई
7 . थोड़ी-सी उम्मीद चाहिए
थोड़ी-सी उम्मीद चाहिए
जैसे मिट्टी में चमकती
किरण सूर्य की
जैसे पानी में स्वाद
भीगे पत्थर का
जैसे भीगी हुई रेत पर
मछली में तड़पन
थोड़ी-सी उम्मीद चाहिए
जैसे गूँगे के कंठ में
याद आया गीत
जैसे हल्की-सी साँस
सीने में अटकी
जैसे काँच से चिपटे
कीट में लालसा
जैसे नदी की तह में
डूबी हुई प्यास
थोड़ी-सी उम्मीद चाहिए
8 . धूप जी धूप जी
धूप जी धूप जी
छाँव यहाँ कहीं नहीं
धूप जी धूप जी
देखो हमारी चमड़ी
धूप जी धूप जी
घाव यहाँ हर कहीं
धूप जी धूप जी
छिपने को घर नहीं
धूप जी धूप जी
अंधी चमक आँख में
धूप जी धूप जी
काँटे चुभें नज़र में
धूप जी धूप जी
रस्ता अपना गुम गया
धूप जी धूप जी
चारों तरफ़ प्यास जी
धूप जी धूप जी
ठंडा अपना साँस जी
धूप जी धूप जी
सिर पे उड़ें गिद्ध जी
धूप जी धूप जी
कहाँ हमारी छप्परी
धूप जी धूप जी
चारों तरफ़ रेत जी
9 . ये जो जल
ये जो जल
मैं पीती हूँ
हवा जो खाती हूँ
धूप जो सेंकती हूँ
न ये जल है
न हवा
न धूप
ये जो रंग मैं देखती हूँ
फूल में
लाल पर सफ़ेद
पंखुड़ी में घूमता
कभी वृत्त
कभी रेखा में
न ये लाल है
न सफ़ेद
न फूल
न पंखुड़ी
न वृत्त
न रेखा
ये जो
खेलते हो तुम
इस दिल से
कभी उँगलियाँ डुबोए
मेरे रक्त में
कभी उछालते
इसकी गेंद
ऊपर हवा में
कभी ये दिल
तुम्हारे हाथों में
कभी पैरों में
कभी ये मिट्टी में टप्प
टकराए कभी
लोहे के जाल में
जा फँसे कभी
काँटे के झाड़ में
न ये दिल है
न गेंद
ये जो बैठी हूँ मैं
इस क्षण यहाँ
नन्ही-सी ओस
चुंधियाई हुई सूर्य से
न मैं ओस हूँ
न भाप
अभी
बिलकुल अभी
कोई ले जाएगा मुझे
तुम्हारे बादलों के पार
10 . सूख जाता है अकेला
सूख जाता है
अकेला वृक्ष
उड़ती नहीं भूल कर भी
चिड़िया अकेली
रह नहीं पाती अकेली
एक चींटी
मधुमक्खी एक
दुःख सुखा देता है
गाय का दूध
पूछता है चंद्रमा
दिन-रात समुंदर से—
किसके लिए उगता हूँ मैं
किसके लिए?
चलते रहते हैं चुपचाप
धरती के भीतर कुएँ
नदी की ओर
न बादल को चैन है
हवा के बिना
न अन्न को
घुन के बिना
सूख जाता है
आदमी अकेला
न वह जा पाता है
वृक्ष के पास
न कर पाता है पीछा
तितली का
पहुँचता है जब तक
कुएँ के क़रीब
बदल चुकता है वह
अपनी जगह
दया करो
प्रभु
उन पर
दया करो
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