अमरकांत की गिनती प्रेमचन्द के बाद महत्वपूर्ण कथाकारों में होती है। नई कहानी आंदोलन के प्रमुख कहानीकारों में से एक अमरकांत ने कुछ यादगार कहानियां लिखी हैं। वे साहित्य के सत्ता विमर्श और चकाचौंध से दूर रहने वाले लेखक रहे जिन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा।
लेखकों की पत्नियां शृंखला में इस बार पढ़िए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित अमरकांत की पत्नी के बारे में। उनके कनिष्ठ पुत्र अरविंद बिंदु ने बहुत शानदार संस्मरण अपनी माँ गिरिजा देवी पर लिखा है और उस दौर को अपने शब्दों में जीवंत किया है।
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– अरविंद बिंदु
खूबसूरती किसे नहीं आकर्षित करती है खास तौर जब कुदरत की मेहरबानी का अंश वहाँ झलकता हो। मैं उनकी खूबसूरती का बखान नहीं करने जा रहा, न तो उन खास लोगों का जिक्र करने जा रहा जिन्होंने उनको कभी पुरानी रूपमति अभिनेत्री लीला चिटनिस जैसे आकर्षण से नवाजा और उनका भी जिक्र नहीं करने जा रहा जिन्होंने उनकी छायाचित्र देखकर महारानी एलिजाबेथ की फोटो से हमशक्ल होने का एहसास करवाया था।
उक्त उन दोनों, अभिनेत्री एवं महारानी की अपनी कापीराइट है, जिस पर मुझे महसूस करने का कोई अधिकार, न कोई रूचि है। मैं तो इस वास्तविकता को विशेष तौर पर समझ सकता हूँ जो मेरे दिलो-दिमाग में गहरी पैठ बनाए हुए है, जिसे निहारने का एक कुदरती हक मुझे भी प्राप्त है, आज भी इसी अधिकार के चलते, उनके न होने के बावजूद मैं उन्हें अपने करीब महसूस करता हूँ और आस्था रखता हूँ।
मेरी माँ स्व. गिरिजा देवी। वैसे, अपनी पत्नी पर रचनाकार को लिखने का पूरा अधिकार है और शायद कर्तव्य भी। कभी-कभी ऐसा भी संयोग होता है कि विचार तो बनता है, मगर यथार्थ की जटिलताओं और समय का अभाव असमंजस की स्थिति में पहुँचा देता है। मुमकिन है कि पिता भी ऐसी स्थितियों में रहे हों। पिता हिन्दी कथा साहित्य के उन महत्वपूर्ण रचनाकारों में एक हैं जिनके नाम के बगैर साहित्य की चर्चा अधूरी है — ‘अमरकान्त’।
माँ ने अपने सामर्थ्य के बाहर जाकर पिता को पूर्णरूप से सहयोग दिया। माँ की तीन संतानों में, सबसे बड़े बेटे मेरे भ्राताश्री अरूण वर्धन रहे, जो नवभारत टाइम्स दिल्ली में विशेष संवाददाता के पद पर कार्यरत रहे, कोरोना काल में इस दुनिया को अलविदा कह गए। दूसरी संतान बेटी संध्या। सबसे छोटा बेटा मैं अरविन्द बिन्दु।
माँ, स्व. जंग बहादुर सिन्हा व माता रामदेई की पुत्री, जो आठ भाई-बहनों में छठी संतान रहीं। पिता उस जमाने के स्टेशन मास्टर थे। जब देश आजाद नहीं हुआ था, पिता के रेलवे विभाग में होने की वजह से माँ को तमाम जगहों पर रहने और विभिन्न संस्कृतियों को समझने का एक अच्छा अनुभव प्राप्त हुआ, उस वक्त रेलवे प्राइवेट था। परिवार खुले विचारों का कायल, जिसका असर माँ पर भी रहा, कई संस्कृति को बहुत करीब से देखा और अपनी अंतररात्मा से जोड़ते हुए, अपने किये गए व्यवहार में एक प्रगतिशील अधिकार भी दिया। जहाँ वे क्रिश्चयन के प्रति सहज भाव रखती, मुस्लिमों के साथ भी उनका व्यवहार बहुत आत्मीय बेजोड़ रहा।
उ.प्र. का पूर्वांचल जिला देवरिया, तहसील हाटा के एक मध्यवर्गीय कायस्थ परिवार में माँ का जन्म हुआ। देवरिया छोटी जगह थी इसलिए पूरा परिवार गोरखपुर आ गया। माँ का विवाह 1 मई 1942 को पूर्वांचल जिला बलिया, नगरा तहसील के एक प्रतिष्ठित वकील सीताराम वर्मा के ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम वर्मा (अमरकांत) के साथ सम्पन्न हुआ। माँ, पिता से दो वर्ष छोटी थीं। पिता की जन्म तिथि 1 जुलाई 1925 है। माँ का विवाह और विवाहोपरान्त का समय 1947 तक, आजादी के आंदोलन का साक्षी रहा। पच्चीस लोगों से अधिक बारात लाने पर प्रतिबंध था। स्वागत-बात के लिए लड़की पक्ष पर दबाव नहीं डाला जा सकता था, अंग्रेजों की हुकूमत थी, लिहाज़ा निमंत्रण पत्र पर राशन भी लाने की हिदायत दी गई।
पिता छह भाइयों, दो बहनों को छोड़, तीन बहनों में सबसे बड़े थे। संयुक्त परिवार, पिता के चाचा का भी परिवार साथ रहता, भरा-पूरा परिवार। पहली बड़ी बहू उतारने की खुशी ने परिवार रिश्ते-नातों, दोस्त-यारों में, उस वक्त को सुनहरे इंतजार के साथ यादगार में बदल दिया, दीदार के लिए सभी बेकरार थे। माँ ने बताया था- ‘कुछ लोगों ने, पिता के मित्रों ने स्टेशन गेट से लेकर घर तक, तिकोनी रंग बिरंगी झंडियाँ लगा दी थीं।’ स्टेशन से घर, दस कदम पर था। हम लोग बलिया जाते थे तो अक्सर कुली सारा सामान घर तक पहुँचा देते थे, लगभग सभी जानते थे। बग्गी नुमा इक्का, बलिया के एक अहमद अली का सबसे ऊँचा घोड़ा उस इक्के को चला रहा था। इस विशेष घोड़ा गाड़ी को झंडी-वंडी से सजाया गया, ढोल-ताशा अपने चरम पर।
घोड़ा-गाड़ी, दुल्हन के रूप में माँ को घर की दहलीज के सामने लेकर आ गई। परम्पराओं का एक खूबसूरत सिलसिला शुरू हुआ, एक के बाद एक महिलाओं की रस्म अदायगी शुरू हुई। इस बीच किसी काम के लिए एक महिला ने बड़ी बुआ को आवाज लगाई, दुल्हन घूँघट के बाहर आ गई। दरअसल माँ का जो नाम था, यही नाम बुआ का भी। माँ की सावधानी हट गई और घटना घट गई। दादी नजाकत से बाहर आ गई, तेवर को चढ़ा लिया। वे एक तीर से दो निशाने लगा रही थीं। वे नाम लेने वाली महिला को प्रकारांतर समझा रही थीं। मगर घायल तो बहू ही हो रही थी। प्रतिक्रिया की ऐसी छाप, जिसने तत्काल दादी की शालीनता को हवा में उड़ा दिया। माँ को घूँघट के दंश की चिन्ता सताने लगी, माँ खुले विचार की, लगा जिन्दगी पर्दगी में ही कटेगी। बहरहाल बाबा और पिता समझदार थे। स्थिति सामान्य होनी ही थी। फिलहाल दुल्हन को राहत मिली। माँ ने बड़ी बहू होने की जिम्मेदारी खुशी-खुशी अच्छी तरह से निभाई, जिस धैर्य और सहयोग का परिचय दिया उसका जिक्र आज तक सभी करते हैं। उनकी शराफत बेमिसाल थी, वे जिस तहजीब से पेश आतीं उसका असर लगभग सभी पर पड़ता। बहू आने पर एक विशेष रौनक भरा माहौल रहा।
सभी बातें समान्य रूप से चल रहीं थीं। उन दिनों पिता इन्टरमीडिएट फाइनल में यूइंग क्रिश्चयन कालेज इलाहाबाद में पढ़ाई कर रहे थे। अगस्त के महिने में भारत छोड़ो आन्दोलन शुरू हो गया। यह सन् 1942 के दिन थे। बम्बई के कांग्रेस अधिवेशन में भारत छोड़ो प्रस्ताव 3 अगस्त को पास हुआ। 9 अगस्त को सभी नेता गिरफ्तार कर लिए गए। पिता ने पढ़ाई छोड़ दी और आन्दोलन में कूद पड़े। माँ पर एक मानसिक दबाव पड़ा, इस भरे-पूरे परिवार में वे अपने को अकेला महसूस करने लगीं। परिवार के बड़े बुजुर्ग भी नहीं चाहते थे कि बड़का बाबू (पिता) आन्दोलन में जाएँ। अभी-अभी विवाह हुआ है, क्या स्थिति होगी? कौन जानता है। लड़की तो अकेले हो गई। माँ साहस और धैर्य के साथ इंतजार की घड़ियाँ गिनने लगी। इधर कुछ लोगों के व्यवहार में भी परिवर्तन दिखने लगा।
मेरी बड़ी बुआ किस कुँठा में थीं यह तो वही जानतीं, इस संदर्भ का जिक्र पिता ने अपनी मृत्यु के दो वर्ष पूर्व बताया, वो भी मेरी पत्नी के पूछने पर, दरअसल पहले जबान देकर ही शादी हुआ करती थी। जोड़ी का ताल मेल है भी कि नही, इसका ख्याल नहीं होता। बुआ लम्बी-चौड़ी खूबसूरत, पति ठीक विपरीत-कद में छोटे, आवाज जनानी, लेकिन व्यक्ति सीधे-साधे शरीफ। उम्रदार होने पर बुआ, इतने वर्षो बाद एकान्त में माफी माँग रही थीं – ‘मेंरा आपसे व्यवहार बुरा रहा, माफ कर दीजिए।’ माँ ने बहुत ही विनम्रतापूर्वक कहा – ‘ऐसा नही कहिए, आप बड़ी हैं, जीवन में अक्सर ऐसी बातें हो जाती हैं।’ मेरी पत्नी ने बुआ के अपराध बोध को सुन लिया, मगर समय इतना गुजर गया, दोनों ही उम्रदार हो गई थीं।
नई नवेली दुल्हन के क्या सपने रहे पति के आन्दोलन में जाने से धुँधले पड़ गये, यूँ कहा जाए ध्वस्त हो गये। अब इतने बड़े परिवार की जिम्मेदारी उन्हीं पर आ गयी। बड़ी बुआ का व्यवहार दुर्व्यवहार में तब्दील हो गया। उनकी बातों में दादी भी रूचि लेने लगी थीं। वैसे माँ के प्रति देवरों की भूमिका जरूर सम्मानजनक रही किन्तु बुआ दादी के बात-व्यवहार में कोई हस्तक्षेप करने का साहस नही था शायद इतनी समझ भी नही होगी। तीन छोटे थे, पिता के बाद के भाई तीन बड़े और समझदार भी, उनके सामने किसी की जल्दी हिम्मत नहीं पड़ती, इनमें से किसी की नजर पड़ जाती तो शालीनता से फटकार लगा देते। अन्य बुआएँ छोटी जरूर थीं, सीमाओं में दखल दे देतीं, माँ के पक्ष में खड़ी रहतीं।
पिता का आन्दोलन में चार वर्षो का समय नष्ट हुआ। वे 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन की पढ़ाई करने आ गए। स्नातक के बाद पिता आगरा के दैनिक ‘सैनिक’ के संपादकीय विभाग में आ गए। कुछ दिनों में माँ भी यहाँ आ गईं, यहाँ भी इनका जीवन संघर्षं भरा ही रहा। पिता की रात की ड्यूटी, कोई समय निर्धारित नहीं, पत्रकारिता और साहित्य सेवा की ललक पिता में पहले से ही मौजूद थी। माँ इस क्षेत्र से अनभिज्ञ थीं किन्तु पिता के इस सेवा भाव को देखकर इसके प्रति भविष्य के लिए आशान्वित ही रहीं। यहीं पर पिता का साहित्य में प्रवेश भी हुआ। पाँचवें वर्ष, माँ पिता को बलिया लेकर आ गईं, 25 वर्ष की उम्र में अमरकांत जी को हार्ट अटैक हो गया। नौकरी छोड़नी पड़ी। माँ का यहाँ नया संघर्ष शुरू हो जाता है।
बलिया में लोगों की कमी नही थी, मगर बलिया विकसित न होने की वजह से, इलाज संभव नहीं था। तब मामा लोगों के सहयोग से पिता को रेलवे हॉस्पिटल लाया गया। सही दिशा में इलाज चलने लगा, माँ की असीम सेवा की वजह से वह स्वस्थ हो गए। डाक्टरों ने सामान्य सी हिदायत दी और घर जाने की अनुमति दे दी, जाते-जाते माँ से यह भी कहा, इन्हें बकरी का दूध देना अति आवश्यक है। माँ की एक सहेली, जिसका नाम शायद शकिला शबनम ही था, उसके प्रयास से बकरी का दूध बहुत सहूलियत से और अधिक मात्रा में प्राप्त होना शुरू हो गया। शकिला ने माँ से कहा, ‘तूँ परेशाँ न हो गिरिजा तेरे शौहर की जिम्मेदारी मेरी भी है, अगर ऊँट की भी व्यवस्था करनी होती तो उसके भी दूध का इंतजाम हो जाता।’
एक माह पश्चात माता, पिता को बलिया आना पड़ा। यहाँ उनकी नौकरी न होने का तनाव झेलना पड़ा। माँ ने तनाव से दूर रहने की सलाह दी और समझाया समय आने पर सब ठीक हो जायेगा। इस बीच माँ की पहली संतान, सुन्दर कन्या ने जन्म लिया घर में खुशी का माहौल, बच्ची सभी के लिए प्यारी, कुसुम नाम था, मगर तीन वर्ष बाद दुनिया से रुखसत हो गई। उसके नहीं रहने से सभी को बहुत अघात लगा। माँ बहुत दिनों तक उसकी याद में खामोश सी रहने लगी फिर उन्होंने अपने को समझाया। माँ पिता की पीड़ा समझ रही थीं और यह भी कि डाक्टरों ने इन्हें आराम करने और तनाव से मुक्त रहने की सलाह दी है। लिहाजा माँ ने समझाया कि ‘कोई रचना लिखने की हिम्मत लाईए’, यह सलाह पिता के जेहन में उतर गई। वे रात में लालटेन लेकर नियमित दो घंटे बैठते और लिखने में जुट जाते। रचना तैयार हो गई और अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार के लिए चुन ली गईं जिसमें पुरस्कार राशि भी पाँच सौ रुपये प्राप्त हुए। पचास का दशक, यह रकम बहुत संतोषजनक हुआ करती थी। यह जो रचना तैयार हुई हिन्दी कथा साहित्य में डिप्टी कलेक्टरी के नाम प्रतिष्ठित हुई। पिता किसी भी अच्छी और प्रतिष्ठित जगह नौकरी कर सकते थे। इसकी कमी नहीं थी, लेकिन जब पत्रकारिता और साहित्य के जरिए जनमानस की सेवा का जुनून सवार हो तो इधर उधर अपने को केन्द्रित करना ही बेकार था। उनकी राजनीति में भी रूचि और पैठ थी। सभी विचारधारा के बड़े नेताओं से उनके अच्छे संपर्क और सम्बन्ध रहे मगर स्वाभिमान की प्रबलता में दृढ़ता रही, माँ की तरफ से कोई दबाव नहीं था।
पिता इलाहाबाद आए तो उनकी नौकरी दैनिक ‘अमृत पत्रिका’ के सम्पादकीय विभाग में लगी। विद्याभास्कर जी प्रधान संपादक रहे, पिता की डिप्टी कलेक्टरी कहानी से बेहद प्रभावित रहे।
माँ, बलिया से इलाहाबाद आ गईं। उनके दिमाग में, डाक्टरों द्वारा पिता को दी गई हिदायत अपना स्थान जमाए हुए थीं। वे हर पल यह ध्यान रखतीं कि कहीं कोई लापरवाही न हो जाए, अपनी जिम्मेदारी डाक्टर की हिदायत के मुताबिक निभाने लगीं। कुछ दिनों तक तो पिता ने भी संयम का पूरा ख्याल रखा, मगर समय के अंतराल में संयम को कुछ मुक्त कर दिया। राइटर आदमी सिगरेट पर ध्यान चला गया। कुछ समय पश्चात रात की ड्यूटी को भी स्वीकारने लगे, वे चपेट में आ गये। 29 वर्ष की उम्र में दूबारा हार्ट अटैक ने जबरदस्त झटका दे दिया। माँ ने यहाँ भी धैर्यपूर्वक और संयम से काम लिया। उन्होंने सबसे पहले डाक्टर से संपर्क किया। कुछ सामान्य होने पर, दो दिन बाद बलिया जाने की योजना बना ली। यह संयोग ही है कि जाने वाले दिन प्रात: मेरे चाचा, पिता के तीसरे न. वाले छोटे भाई आजमगढ़ से यहां आ गए। वे अपने बड़े भाई और भाभी का बहुत ही सम्मान करते थे, माँ से कहा आपने बड़े धैर्य और हिम्मत से काम लिया, अकेले परेशान हो रही थीं। अपने आफिस से गाड़ी मँगवाई और सभी को लेकर आजमगढ़ आ गए। वे वहाँ नलकूप विभाग में इंजीनियर थे। दो महीना पिता का इलाज चला, वे पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गए। माँ को यहाँ कोई परेशानी नही हुई, न कोई नकारात्मक फीलिंग। हमारी चाची भी निहायत शरीफ, समझदार महिला थीं माँ से कहा जीजी, आप यहीं रहें जब तक की भाई साहब नौकरी में न आ जाएँ। माँ, पिता को नौकरी की फिक्र अवश्य रही, किन्तु यह भी चिन्ता कि समय बर्बाद हो रहा है लिहाजा इस बीच कोई रचना भी आ जाए। अबकी डाक्टर की कडी़ हिदायत मिली, संयम पर जोर दिया गया।
एक दिन माँ ने पिता को समझाया – ‘चिन्ता को ताक पर रखना ठीक होगा, नौकरी जितनी जल्दी हाथ में आ जाए अच्छा होगा। इस बीच आराम से कुछ लिख सकते हैं तो लिख लीजिए।’ रचनाकार के दिमाग में पहले से ही एक खाका बना हुआ था, बलिया आने पर इसे अंजाम दिया – ‘दोपहर का भोजन’, इस कहानी ने हिन्दी कथा साहित्य में एक मुकाम हासिल किया। कहानी मशहूर हुई, कई विश्वविद्यालयों, बोर्डो के पाठ्यक्रमों में शामिल, टेलीफिल्म, नाट्यरूपांतरण इत्यादि। इसने साहित्य जगत में हलचल पैदा कर दी, दिमागी पटल पर छा गईl चारों तरफ से आए पत्रों का अम्बार लग गया अब पिता ‘अमरकान्त’ हो गए।
कुछ ही समय पश्चात मुंशी प्रेमचन्द के बड़े बेटे श्रीपत राय जी का पत्र आया, कहानी मैगजीन में काम करने का आफर था। समाजवादी कई नेता अमरकांत पर पूर्ण रूप से विश्वास करने लगे, एक मीटिंग में उनकी लोहिया से कुछ गुप्तगू भी हुई, लोहिया चाहते थे कि कोई बड़ी जिम्मेदारी पिता सम्भाल लें। कम्यूनिस्ट नेताओं ने अलग संपर्क साधा वहीं कांग्रेस के लोग भी, मगर पिता राजनीति के भ्रष्ट आचरण से दुखी रहे। माँ उनके इस मनोविज्ञान को अच्छी तरह समझ रही थीं। माँ ने तुरंत निर्णय लिया, ‘आपकी रूचि में जो है वही कीजिए, मोह भंग कीजिए, इलाहाबाद कहानी पत्रिका को स्वीकार कर लीजिए।’ माँ की सोच और साहस ने पिता पर बहुत ही सकारात्मक प्रभाव डाला।
इलाहाबाद की आबोहवा कमाल की रही। कुछ दिनों पश्चात माँ भी यहाँ आ गई। माँ को यहाँ का परिवेश तमाम जगह से कहीं अधिक मनोरम दिखा, शान्त शहर, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक गतिविधियों ने उन्हें अच्छा महसूस करवाया, उनकी अच्छी खासी दिलचस्पी देखने में आई। आए दिन प्रयाग संगीत समिति में तरह-तरह के नाटक, गीत, संगीत होते रहते, उन्हें पसंद रहा। माँ को घर पर साहित्यिक चहल-पहल अक्सर उत्साहवर्धन माहौल देता, तरोताजा बनी रहती। वह स्वागत बात में पीछे नहीं रहती, घर का प्रबंधन बहुत कुशलतापूर्वक से करतीं। व्यवहार कुशल और जरूरत से अधिक साफ-सफाई करना माँ के स्वभाव में था। माँ निंदा रस से दूर ही रहतीं, कोई दिलचस्पी नही थी। ससुराल में भी व्यक्तित्व एक पारदर्शी महिला की छवि में देखा जाता। यही वजह है जब वे स्पष्ट बात कहतीं, तो एक दो को छोड़ कोई जल्दी प्रतिक्रिया नहीं देता। कई ऐसे संदर्भ हैं अभी यहाँ सबका जिक्र करना सम्भव नही हैं।
पिता ने माँ के विषय में एक वाकया सुनाया था, जिसे मैंने कुछ दिन पूर्व उनकी डायरी से भी प्राप्त किया। एक दिन घर के सभी लोग बालेश्वर मंदिर जाने की तैयारी में थे। दादी, पाँच बुआएँ, दो बहुएँ सभी के चेहरे तो खुले हुए थे, मगर दो बहुएँ घूँघट करके चलें, माँ ने विनम्रतापूर्वक सवाल करते हुए विरोध भी कर दिया – ‘घर की बेटियों का तो चेहरा खुला हुआ है, घूँघट मुक्त हैं, दोनों बहुओं के लिए पर्दगी ?’ माँ ने जाने से इंकार कर दिया, खामोशी छा गई। दादी जवाब तलाशने के बाद थक गई। बाबा का एक अनुशासन अवश्य था किन्तु गलत बात का कोई स्थान नहीं था सबके बीच आकर बोले – ‘बड़ी बहू ने ठीक कहा है बेटियों का चेहरा खुला और बहुएँ घूँघट करके चलें ? लिहाज तो आँखों बातों में होता है, घर के मर्द और बेटियों के लिए कोई नियम नही, गलत बात है।’ बड़ी बुआ ने दादी के कान में बहु के खिलाफ मंत्र फूँक दिया, किन्तु चल नहीं पाया। इसके बाद आने वाली बहुएँ घूँघट मुक्त हो गयीं। अति कुदरत के नियम के विरूद्ध है, माँ इसे समझती थीं। उन्होंने नियम पर एक सुरक्षित अधिकार भी रख रखा था। वे मतभेदों पर दरार कत्तई नही चाहती थीं। रिश्तों का पहिया समय संग घूमता रहे, उनका यह प्रयास गाढ़ी लकीर की तरह दिखाई देता। अतीत में हुआ हिन्सात्मक व्यवहार कभी माफ नहीं होता, पुराने पन्ने पलटे जाएँ या नहीं, दिमागी पटल से बहुत कुछ बाहर आना स्वाभाविक है। पिता को एक आफर लखनऊ से आया, लिट्रेसी हाऊस, लखनऊ में नौकरी मिली।
क्रिश्चयन संस्था, सन् 1957-58 में यह संस्था सरकार के अधीन नहीं थी, बाद में शामिल हुई। यहाँ उन्हें एक मैगजीन का संपादन एवं प्रशासनिक कार्य की जिम्मेदारी मिली थी। यहाँ दो वर्ष का समय गुजरा, पिता को नौकरी रास नही आई। वहाँ कोई लोकतांत्रिक आधार नहीं था। उन्होंने वहाँ से त्याग-पत्र दे दिया। पिता से छोटे भाई स्व. राधेश्याम वर्मा जी (केदार) को जानकारी हुई, तो उन्होंने हम सभी को लखीनपुर खीरी अपने पास बुला लिया। वे अपने बड़े भाई और भाभी का बहुत ही सम्मान करते थे, दोनों का व्यवहार दोस्ताने अंदाज में भी था मगर व्यवहार में तहजीब पूर्ण रूप से अपना काम करती, स्तंभ की तरह था। छोटे भाई लखीनपुर खीरी में क्लास वन मजिस्ट्रेट थे। लखीनपुर में पिता को छोड़, हम सभी का पाँच माह का समय गुजरा, पिता आते जाते रहे। कुछ समय बीतने के पश्चात, चाची का माँ के प्रति व्यवहार बदल गया, अनुचित व्यवहार करने लगी। दरअसल उन्हें दो तीन बिन्दुओं पर समस्या रही होगी, एक तो इंफीरियरटी कांप्लेक्स की शिकार थीं। माँ को देख यही कहतीं, चार बहनों में मैं बहुत सुन्दर थी, हमारे बिहार का पानी अच्छा नहीं है, वरना रंग बहुत साफ रहता। दूसरा माँ उनसे ज्यादा दुनिया देखी थी, अधिकतर बातें माँ से पूछती भी, माँ बताती भी, लेकिन चाची हमेशा यही कहती, ‘बिहार में मैं भी बहुत घूमी हूँ।’ अब प्रतिद्वंद्ता तो उन्हें हर सूरत पर करनी थी। कभी-कभी तो माँ को बहुत ही हँसी आती। वह ऐसा व्यवहार करतीं कि घृणा भाव पैदा हो जाता। माँ की विनम्रता, समझदारी, सुन्दरता उन्हें शायद परेशान करती। वे चपरासी बच्चों के सामने ही उपेक्षित व्यवहार करती, खाने की थाली फेंक कर देतीं।
एक दिन अर्दली ‘नसीर’ उनके व्यवहार को देख कर क्षुब्द हो गया – ‘मेम साहब, बड़ी मेम साहब इतनी शरीफ, सीधी महिला के साथ आप इस तरह व्यवहार कर रही हैं, यह अच्छा नही है।’ चाचा जब कोर्ट से आए, तो सारा वाक्या जान कर बहुत दुखी हुए। चाची ने नसीर पर झूठा आरोप लगा दिया कि अर्दली ने मुझे गाली दिया है। अर्दली ने सारा वाक्या सुनाया। चाचा निहायत शरीफ, उन्होंने शान्त भाव से सुना। फिर बड़ी शराफत से कहा – ‘भाभी से ऐसा व्यवहार क्यों करोगी ? मैं तुम्हें जानता हूँ और नसीर की शराफत भी, इन्होंने जो भी कहा ठीक कहा, यह एक दिन की बात नही होगी ? तुमने भाभी के साथ ऐसा हिंसक व्यवहार किया कि यह बर्दाश्त नही कर पाए इसीलिए इन्होंने तुम्हें टोका।’ चाचा ने पत्नी को जाहिलियत की लाइन में खड़ा किया, तो कहती हैं – ‘आप सभी लोग मिले हुए हैं।’ इतना सब कुछ होने के बावजूद माँ ने चाची के साथ कभी भी कोई भी गलत व्यवहार नही किया बल्कि जो भी हुआ उसे भुला दिया, कोई आलोचना भी करता तो माँ की अरूचि झेलनी पड़ती।
ऊसर भूमि को खाद पानी की आवश्यकता ही नहीं होती, अपने अहंकार में ही उपजाऊ और हरियाली को दूर करती है। चाची अपने मिजाज को ऊसर से अलग नहीं रखना चाहती थीं, सभी से उनका सम्बंध छत्तीस का ही रहा।
माँ को इस बात का गम नहीं कि पति ने साहित्य की जो विधा चुनी है, इसका क्या परिणाम होगा, परेशानी तो यह थी कि जीवन-यापन के लिए एक सीमित क्षेत्र पत्रकारिता और सीमित जगह के प्रति आपका विश्वास अडिग है। हर शहर की अपनी फितरत और विकास है। इलाहाबाद दिल्ली, बम्बई तो हो नही सकता फिर हार्ट प्राब्लम की वजह से महानगरों में न जाने की हिदायत रही। रात की ड्यूटी पिता के लिए प्रतिबंधित, दैनिक पेपरों में ही पहला, दूसरा हार्ट अटैक का दंश झेल चुकना, माँ के लिए परेशानियों का सबब बना।
माँ ‘अमरकान्त’ के कथा साहित्य की शक्ति बढ़ते देख रही थीं। प्रकाशकों के पत्र आने लगे, कुछ रचनाकारों ने भी प्रकाशन शुरु कर दिए, स्वावलंबन की दृष्टि से ठीक भी था। कुछ प्रकाशकों ने पिता से एग्रीमेंट भी करवाए, माहिर और अनाड़ी दोनों ही खिलाड़ी इस जगत में उतरे। इसी बीच भैरव प्रसाद गुप्त जी ने ‘अमरकान्त’ के उपन्यास ‘ग्राम सेविका’ के लिए 15% की रायल्टी पर अपने धारा प्रकाशन से अनुबंध करवाया। उन्होंने व्यावसायिक तरीके से काम शुरू किया। माँ को जानकारी हुई, पिता से कहा – ‘भैरव प्रसाद जी से दोस्ती है, अगर उपन्यास किसी व्यावसायिक प्रकाशक को देते तो उचित होता जहां अधिकार से कहने की गुँजाइश भी हो।’ पिता ने उनकी इस बात पर गौर तो किया, मगर दोस्ती के कारण कोई निर्णय नहीं ले सके, माँ की बात भी टल गई। भैरव जी व्यवसाय के साथ ‘अमरकान्त’ की शराफत को अपनी निश्चिन्तता पर डाल दिया और रचनाकार को रायल्टी के प्रति आशान्वित, विश्वास में डाल दिया। जो डर था वही हुआ।
एक वर्ष बीत गया। उन्होंने आश्वस्त किया, रायल्टी स्टेटमेंट भेज रहे हैं, भैरव जी ने बार-बार यही आश्वासन दिया, तीन वर्ष गुजार दिया। माँ बीमार थीं, पैसों की आवश्यकता थी। पिता संकोच में पड़ गए। माँ ने उसी हालत में तत्काल निर्णय लिया और वे मुझे लेकर भैरव जी के निवास पर पहुँच गई। माँ को देखते ही भैरव जी अचंभित हो गए, अपनी पत्नी को खबर दिया – ‘देखो भाभी आयी हैं।’ कुछ आभास उन्हें अवश्य हो गया था। माँ ने पहले उनका और उनकी पत्नी के स्वास्थ्य की जानकारी ली, फिर बहुत ही विनम्रतापूर्वक रायल्टी के विषय में हल्का सा जिक्र किया। इस बीच भैरव जी ने मुझसे कहा – ‘अरविन्द देखो बाहर बगीचे में अमरुद फले हुए हैं ले आओ।’ मैं बाहर गया दो अमरुद तोड़कर माँ के पास आकर बैठ गया। उन्होंने अपनी पत्नी से कहा – ‘ले जाओ, कुछ और तुड़वा दो।’ मैं नही गया। तभी उनके बड़े बेटे मुन्नी लाल जी बिस्कुट लेकर आए। मैं छोटा जरूर था मगर उन्होंने रायल्टी के संदर्भ में जो कुछ कहा मुझे आज तक एक-एक शब्द और वाक्य याद हैं। जब माँ ने उनसे दोबारा कहा – ‘आपने रायल्टी के सिलसिले में कुछ विचार किया ?’ उनका उत्तर था ‘भाभी बाल्टी में तो दूध ही नहीं बचा, कोई बच्चा रोएगा भी तो उसे नहीं दे पाऊँगा। अब बताईए कहाँ से दें?’ उन्हें इसकी उम्मीद कत्तई नही थी की गिरिजा भाभी आ जाएँगी। जवाब कुछ और होता तो शायद बात सम्भल गई होती। माँ को उनका अल्फाज नागवार गुजरा। माँ की वह तिरछी मुस्कराहट – ‘मैं इसके अलावा क्या कह सकती हूँ कि जमाना इस कदर बदल गया है कि शरीफों से शराफत भी पल्ला झाड़ रही है।’ माँ के इस चुभन वाले जवाब पर भैरव जी कुछ कह नही पाए, नजरें जमीन पर स्थिर हो गईं। उनकी परेशानी यह थी कि वे बनिया तासीर पर अभी भी विश्वास रखते तथा मार्क्सवाद के अलावा शायद कहीं अन्य जगहों पर दृष्टि डालना मुनासिब नहीं समझते थे। उनके व्यक्तित्व के यह विरोधाभास उन्हें पेंडुलम की कतार से कत्तई अलग नही कर पा रहे थे। उनकी योग्यता के मजबूत स्तंभ अपनी जगह पर हैं जिस पर कोई सवाल न तो हैं ना ही मैं कोई दुस्साहस कर सकता हूँ। माँ से भैरव जी के परिवार ने बैठने के लिए कहा, चाय पानी, नाश्ता भी आ गया मगर उन्होंने स्वास्थ्य ठीक न होने की बात कही। वे उठ गयीं, सभी को नमस्कार किया और चल दीं। माँ ने पिता को बताया, बेहद आहत हुए। संबंध तिरसठ से छत्तीस में बदल गया।
माँ को पाक कला में महारथ हासिल थी, विवाह पूर्व और बाद में भी अलग-अलग संस्कृति, इनके खान-पान से भी परिचित रहीं। पूर्वांचल के व्यंजन, पहाड़ी क्षेत्र कुछ मुस्लिमो, ईसाई कल्चर से भी सीखा। नागार्जुन जी का जब भी इलाहाबाद आना होता तो घर पर जरूर पदार्पण होता। उन्होंने एक दिन मटर की पूड़ी पर कुछ बातचीत की फिर माँ से कहा – ‘आप भी तो अच्छा बनाती होंगी ?’ माँ में एक खास बात यह थी कि वे कितनी भी तकलीफ में होतीं अगले को पता नहीं लगने देतीं, उन दिनों उन्हें आर्थराइटिस का अटैक हुआ था। चलने-फिरने में बहुत दिक्कतें थीं। नागार्जुन जी से कहा – ‘मैं आपको मटर की पूड़ी अवश्य खिलाऊँगी, कल शाम हम लोगों के साथ वह भी इन्तजार करेगी।’ मगर उनका आना नहीं हो सका, उन्हें अस्थमा का अटैक हो गया था। वे वरिष्ट नाटककार श्री अजित पुष्कल जी के घर ठहरे हुए थे। पुष्कल जी ने बताया बीमार पड़ गए हैं, तले भुने से परहेज हो गया है। हफ्ते भर बाद आए तो उन्हें मूँग की बफौरी बनाकर खिलाया गया। इतना स्वादिष्ट लगा कि पूछने लगे – ‘क्या क्या डाला है,यह भी जानना था कि इतना मुलायम कैसे है ?’ माँ ने विवरण के साथ बताया।
माँ के सभी के साथ, मधुर एवं सराहनीय रिश्ते होते और जिसे मानतीं उसका भी माँ के प्रति आत्मीय सम्मान जुड़ा हुआ होता। कथाकार शेखर जोशी जी ने अपनी पत्नी स्व. चंद्रकला जोशी का परिचय करवाया तो यही कहा – ‘यह मेरी भाभी ही नहीं मेरी माँ भी हैं’ उन्हें प्यार में चंदू कहती थीं। पिता के दोस्त श्री जगदीशचंद भाटिया ने भी अपनी पत्नी स्व ललिता भाटिया का परिचय करवाते हुए उक्त अल्फाज ही इस्तेमाल किया था।
माँ में सेन्स आफ ह्यूमर जबरदस्त था। एक बार की बात है हम लोग लखनऊ में थे एक दिन कथाकार राजेन्द्र यादव जी का आना हुआ। उन्होंने स्वेटर का बटन ऊपर नीचे लगा रखा था। जिसके दोनों सिरे एक बराबर नहीं दिखे, माँ की नजर पड़ गई – ‘नर, मादा बनाकर कपड़े क्यों पहने हुए हैं ?! अब तो बराबर की निशानी दिखनी चाहिये।’ पहले तो राजेन्द्र जी समझ न पाए। गिरिजा भाभी क्या कह रही हैं। फिर जब ध्यान में आया तब ठहाके के साथ स्वेटर के बटन भी बराबर लगाए गए। दरअसल माँ का संकेत उनके विवाह हो जाने से था। ऐसा ही एक संदर्भ, अभी मन्नू भंडारी एवं राजेन्द्र यादव जी का विवाह नहीं हुआ था। कलकत्ता से आगरा लौटते समय, दोनों ही घर पर ही रूकते थे। एक बार बैंगन की कलौंजी बनी, मन्नू जी ने पूछा, ‘भाभी आप कलौंजी में ऐसी क्या क्या चीजें डालती हैं ? बहुत खुशबू आ रही हैं। वैसे मुझे बैगन पसंद है।’ राजेन्द्र यादव, शेखर जोशी, शुभा वर्मा, कमलेश्वर मार्कण्डेय जी का ध्यान, गिरिजा भाभी के मजाकिया वाक्य पर चला गया – ‘ये देखिए, अरे भई मैं तो आपको कलौंजी ही खिलाऊँगी, पता है बैगन का अनुभव आपको है।’ इस वाक्य पर ठहाके लग गए, मन्नुजी मुस्कराकर, भाभी की तरफ देखने लगीं।
माँ ने अपने दिमाग को बेहतर खोल रखा था। पत्रिका, किताब, नाटक, सांस्कृतिक आयोजन, उनकी सभी में दिलचस्पी रही। उपन्यास, कहानियों के प्रति एक ललक बराबर बनी रहती। ऐसा कोई आग्रह नहीं कि केवल साहित्यिक रचनाएँ पढ़नी है, जो हाथ लगा खत्म करने के इरादे से ही लिया। यह जरूर है कि समय लगता था। उनकी एक् हास्यप्रद संदर्भ याद आता है। उन्होंने एक जासूसी उपन्यास “मौत का टापू” पढ़ा, आवरण पेज पर एक व्यक्ति का चित्र बना हुआ था। चित्र एवं अंदर की कहानी का पात्र, माँ के दिमाग में दोनों का सामंजस्य बैठ गया, वह वास्तविक जीवन में साक्षात नजर आने लगा। आवरण पृष्ठ पर व्यक्ति का चित्र हैट, सिगार लगाए, लम्बा कद, ओवर कोट में। वास्तविक व्यक्ति कोई और नहीं अद्भुत व्यक्तित्व के धनी कथाकार स्व.रवीन्द्र कलिया जी, पुस्तक के आवरण चित्र के प्रतिनिधि का आभास देते। वे पिता और माँ का बहुत सम्मान करते।
माँ ने प्रेमचन्द का उपन्यास निर्मला, कहानी पूस की रात, कफन, बड़े घर की बेटी, अमरकान्त का उपन्यास ‘आकाश पक्षी’ कहानी ‘हत्यारे’ ‘दोपहर का भोजन’, बहादुर, राही मासूम रजा का उपन्यास ‘आधा गाव’ और भी पठनीय रचनाएँ पठन में रहीं, आधा गाँव पूरा नहीं पढ़ पाईं। इलाहाबाद उन सुनहरे परिवेश में भी माँ का पदार्पण हुआ। शनिवार का दिन इलाहाबाद काफी हाऊस के उन सुनहरे परिवेश में भी माँ का पदार्पण हुआ। शनिवार का दिन साहित्यकारों की जमघट जिसमें कुछ साहित्यिक परिवारों की भी रुचि रहती। माँ में शनिवार वाले दिन सुबह से ही काफी हाऊस जाने का उत्साह दिखाई पड़ता। आने वाले साहित्यकारों में भैरव प्रसाद गुप्त, नरेश मेहता, मार्कण्डेय, उपेन्द्र नाथ अश्क, शेखर जोशी, बी.डी.एन साही, पिता (अमरकांत) इत्यादि इनमें से कुछ का परिवार जिसमें माँ एवं श्री शेखर जी की पत्नी चन्द्र कला जोशी जी की विशेष उपस्थिति दर्ज होती। पारिवारिक टेबुल पर डोसा, ईडली, साँभर, कटलेट, कभी उबले अंडे सुशोभित होते। बगल का टेबुल साहित्यकारों का एक-एक काफी पर दो-दो घंटे बहसें, बीच में माँ भी कभी कुछ टिप्पणी कर देतीं, हँसी के ठहाकों से पूरा काफी हाऊस रौनक-ए-बहार में तब्दील हो जाता। देश मे यह खबर फैल गई थी कि ‘अमरकान्त’, कमलेश्वर, शेखर जोशी इत्यादि से मिलना है तो शनिवार सायं छ बजे से रात्रि नौ बजे तक शनिचरी अड्डा काफी हाऊस में मुलाकात सुविधाजनक होगी। बम्बई से प्रकाशित होने वाली प्रतिष्ठित पत्रिका धर्मयुग एवं कुछ अन्य में भी प्रकाशित हुआ।
सन् 1994 में कमलेश्वर जी अमरकान्त जी से मिलने आए तो काफी हाऊस वाले दिनों के संदर्भ में कथाकार धर्मवीर भारती के बहाने से एक मजाकिया वाक्य पेश किया – ‘रिश्तेदारों को पुरी छूट थी पहले काफी हाऊस आईए, हाऊस का माल घटाइए फिर घर साथ जाईए।’ तभी माँ ने भी उनके वाक्य पर कुछ चुटकी लिया ‘शायद कोई रिश्तेदार आपका भी आया था, बताइए आज तक असर है। साहस की एक तासीर है, वक्त और स्थितियों के अनुसार यह प्रवृत्ति देखी जा सकती है।’ माँ का एक यादगार वाकया झरोखे से बाहर आ गया। हम लोग करेलबाग कालोनी में थे। पड़ोस के मिस्टर पाँण्डेय परिवार छुट्टियों में गाँव गया था, गाँव करीब ही था। एक दिन उन्हीं के गाँव का दूर का रिश्तेदार ‘राजा’ नाम का व्यक्ति अपनी ही साली को धोखे से पाण्डेय जी के घर लेकर आया, अपराधी प्रवृत्ति का व्यक्ति था। यह कह कर लाया कि वाँ सभी लोग हैं उसे जानकारी थी की यहाँ कोई नही है। गाँव की भोली-भाली लड़की, उसे इस बात का अनुमान नहीं था कि उसी का जीजा उसके साथ धोखा कर रहा है, गलत होने वाला है। यहाँ तो ताला बंद था मगर उनकी चाभी हम लोगों के पास थी। गाँव के लोगों के आने जाने की वजह से वे लोग चाभी हम लोगों को ही देकर जाते थे।
मेरे बड़े भाई की नजर उन दोनों पर पड़ी, उन्होंने घर में आकर बताया। माँ बाहर आयीं, उस व्यक्ति ने बताया – ‘मेरी घर वाली है, पता नही था कि यहाँ ताला बन्द है।’ लड़की घूँघट में थी। माँ ने भाई से कहा चाभी लाकर दे दो। कुछ देर बाद उस लड़की के रोने की आवाज आई। आवाज सुनकर माँ उसके पास गईं। वह व्यक्ति दुकान से कुछ खरीदने गया था। लड़की ने बताया यह मुझे धोखे से लाया है। माँ लड़की को लेकर घर आ गईं। गाँव की लड़की खूबसूरत, मगर उम्र बहुत कच्ची थी। माँ को व्यक्ति पहले से ही कुछ संदिग्ध लगा था, दोनों की उम्र, काठी में जमीन आसमान का फर्क था। लड़की ने बताया – ‘यह मेरा जीजा है लेकिन डाकू है, गाँव में कई लोगों को जान से मारा है। यह मेरी सबसे बड़ी बहन का आदमी है।’ वह आया, लड़की से कहने लगा – ‘चलो घरे में आराम कर लो, बिहाने गाँव चले का है।’ माँ ने साफ मना कर दिया – ‘यह नही जाएगी।’ लड़की से पूछा तो उसने मना कर दिया और माँ से लिपट गई। लड़की बहुत डरी हुई थी। माँ ने कहा डरो नही यह कुछ भी नही कर पाएगा। डाकू हो या जो भी हो, तुम मेरी सुरक्षा में हो। लड़की दो दिन भी माँ को नहीं छोड़ी, रात में सोती तो माँ के गले में हाथ डाल कर। माँ ने कहा हम तुम्हें सुरक्षित पहुँचाएँगे।
तीसरे दिन पाँण्डेय परिवार आ गया। घटना के बारे में पता चला तो पाँण्डेय एवं परिवार के लोगों ने बहुत फटकार लगाई और उस व्यक्ति को तत्काल घर से बाहर निकाला, माँ को पाण्डेय जी की पत्नी ने गले लगा लिया और लड़की को पाँण्डेय जी के सुपुर्द किया गया। माँ ने पूछा ‘इनके साथ ठीक है?’ लड़की ने बताया – ‘मनई नीक हैं।’ जाते समय लड़की माँ को मुड़ मुड़ कर देखती और हाथ हिलाती। माँ में प्रगतिशील ख्याल पहले से ही मौजूद था, जब मैं छोटा था समझ नही पाता, यह प्रगतिशील सोच लाई कहाँ से जाती है, कही ऐसा तो नहीं यह किसी शहर में ही मिलती है। इससे मुझे सोचने के अलावा कुछ समझने का प्रयास भी नहीं करना था, कौन जहमत उठाए। मगर धीरे धीरे बात समझ में आ गई। किताबें पढ़ने और संगत, हमारे में अच्छे विचार लाने के लिए एक बड़ा कैनवास दे सकता है। माँ का माईका इसके लिए उपयुक्त वातावरण था पिता जो मिले तो सोने में सुहागा।
विनोदी स्वभाव होने की वजह से माँ में एक विश्वास और पारदर्शिता भी थी। पिता की कुछ रचनाएँ जैसे ‘सुखा पत्ता’, ‘आकाश पक्षी’, ‘हत्यारे’ और ‘दोपहर का भोजन’ आदि प्रकाशित हुई तो महिलाओं के कुछ ऐसे तारीफ के पत्र आए, लगा प्रेम-पत्र हैं, पत्र माँ को ही मिलते। कहने लगतीं – ‘इतना ऐसा पत्र आएगा तो कैसे काम चलेगा ? मन तो रचनाओं पर और ऊर्जा खर्च जवाब देने पर।’ पिता ने भी ठिठोली अंदाज में कहा – ‘जवाब तुम देना, मुझसे हस्ताक्षर करवा सकती हो, अपनी फोटो भी लगवा सकती हो, यह ठीक रहेगा।’ दोनों दिल खोल कर हँसे, माँ समझदार थीं। ऐसी बातें समान्य रूप में ही लेती।
एक दिन माँ के पैरों में तकलीफ हो गई, यह बढ़ती चली गई, आर्थराइटिस का अटैक हो गया, वे बिस्तर पकड़ ली। सत्तर के दशक में इस बीमारी का कोई ठीक इलाज नही था। दवाओं के साइड एफेक्ट्स थे, दवाएँ भी प्रतिबंधित हो गईं। सभी डाक्टर इस बीमारी के तलाब में तैर रहे थे, किन्तु तैराक कोई नहीं था, एलोपैथिक, होमियोपैथिक, सभी शामिल रहे। ठीक करने के नाम पर हाथ पैर हिला रहे थे। पिता की चिंता में इजाफा होने लगा। अब सभी जिम्मेदारी उन्हें ही उठानी पड़ी।
मुझे एक वाकया याद आ रहा है। प्रात: दस बजा हुआ था। मैं स्कूल जाने की तैयारी में था। तभी एक खूबसूरत व्यक्ति घर में प्रवेश किया। पिता अंगीठी पर दाल चढ़ाने के लिए दाल साफ कर रहे थे। व्यक्ति घर में प्रवेश करते ही माँ को बीमार और पिता को दाल साफ करते देखा, बोले दुख हो रहा है कि भाभी इतनी बीमार हैं। तभी माँ बोल पड़ीं – ‘जैसे भी हैं मैं चाय तो पिलाऊँगी ही, चाय बनी, पी गई, फिर परिवार के साथ फोटोग्राफी हुई। उनकी हँसी बहुत ही ठहाकेदार थी। बातचीत में माँ ने भी लुत्फ उठाया, उन्हें देखकर, मोहन राकेश जी बोले ‘गर्व की बात है, भाभी इतनी हिम्मत वाली हैं।’ बगल पड़ोस के सरदार सुजान सिंह को पता चला कि ‘आषाढ़ का एक दिन ‘वाले मोहन राकेश जी है तो भागे-भागे उनका परिवार आया और साथ में फोटो खिचवाया। फोटो खिचवाने के पश्चात सरदार सुजान सिंह जी ने मोहन राकेश जी का जो हाथ पकड़ा कि उन्हें छोड़ने वे वहाँ तक गए, जहाँ ठहरे थे। सुजान जी आए तो माँ ने कहा – ‘आपकी भक्ति में कोई भी संत हो सकता है, सही जगह पर छोडकर आए हैं ? संगम यहीं है।’ माँ की इस बात पर सरदार जी ने बहुत लुत्फ उठाया।
अब ऐसे भी दिन आने लगे जिसमें उन्हें निराशा भी घेरने लगी, समस्याओं का बोझ अपनी ताकत का एहसास कराने लगा। उनकी कोशिश रहती दूसरे इसे महसूस न करें, बच्चों पर असर ना हो। अब उनका पहले जैसा सिलसिला बाधित होने लगा, नई पत्रिकाएँ, पुस्तकें आतीं। थोड़ा बहुत इधर उधर पलटकर अरुचि के साथ रख देती। चिन्ता की स्पष्ट लकीरें दिखने लगीं। अब जो भी युवा कवि, लेखक आते उनकी यह सलाह जो व्यावहारिक भी थीं, जरुर सुनते और बराबर स्वीकार करते। पहले नौकरी तलाशो तब कवि लेखक बनना। यह आसान नहीं है, एक कठिन परिश्रम है।
कभी कभी अजीब सी स्थिति पैदा हो जाती वह भी दूसरों के कारण। जब माँ को इलाहाबाद के सभी डाक्टरों को दिखा लिया गया, तो लखनऊ ले जाया गया। डाक्टरों ने इलाज का एक ही विकल्प बताया, पैर का आपरेशन, परिणाम यह हुआ कि उनका एक पैर छोटा हो गया। अब उन्हें चलने-फिरने में दिक्कत होने लगी। डाक्टरों ने इस गलत निर्णय के लिए माफी तो माँग ली मगर जो बिगड़ना था, बिगड़ गया। डाक्टर बडे़ थे और परिचित के भी थे। अब माँ को निराशा और चिन्ता अपने बोझ से दबा रही थी। उनकी स्थिति तब अधिक बिगड़ी जब पिता जी सन् 1987 में मेटाबोलिक बोन डिसिस की चपेट में आ गए, माँ को अनुमान भी लग गया कि यह स्थिति लम्बी चलेगी या कुछ भी हो सकता है। पिता जीवट के व्यक्ति, प्लास्टर और ट्रैक्शन्स में ही कई रचनाओं को जन्म दे डाले। माँ को कुछ हौसला जरूर मिलता। मगर विसंगतियों की कतार लगी ही रही, पीछे चलने के बजाय आगे-आगे चलती। उन्हें दो बार पैरालिसिस अटैक हो गया। शरीर जवाब देने लगा, शक्ति घटने लगी, बची यादाश्त पर कुठाराघात होने लगा। उन्हें लाख कोशिशों के बावजूद बचाया नही जा सका, 23 नवम्बर सन् 2002 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
‘अमरकान्त’ जी को साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ सम्मान से जो खुशी पाठक, समाज और परिवार को मिली, यह पिता के लिए सुखद था किन्तु उन्हें कितनी प्राप्त हुई बेहतर तो वही जानते थे। पूरी जिन्दगी माँ में पिता के कार्यों के प्रति जिस उम्मीद में धैर्य और भावुकता बहती रही उसे देखना पिता के लिए अब असंभव था, वह समाप्त हो गई थी।
पिता की उपलब्धियों की खुशी देखने के लिए उनकी जीवन संगिनी इस दुनिया में नही रहीं। पिता में शक्ति बची ना सामर्थ्य। 17 फरवरी 2014 को उन्होंने इस दुनियाँ को अलविदा कह दिया। अब जो बचा सिर्फ उनकी यादों का दस्तावेज।
अरविन्द बिन्दु