रूपा गुप्ता
हिंदी विभाग, वर्धमान विश्वविद्यालय
गुलाबबाग, वर्धमान 713104, पश्चिम बंगाल
आधुनिक भारतीय इतिहास में उन्नीसवीं सदी अत्यंत महत्त्वपूर्ण सदी है। इस सदी में औपनिवेशिक शासन के इस देश में पूरी तरह पुख्ता होने के साथ-साथ उसके विरुद्ध चिंतन की सक्रियता भी है। चिंतन की यह समाजोन्मुख दिशा सार्वदेशिक परिघटना है। यही सार्वदेशिक परिघटना भीरतीय नवजागरण है।
उन्नीसवीं सदी बुद्धिवाद की विजय की सदी है। मध्यवर्ग का उदय, छपाईखाने का आगमन और राष्ट्रवाद का उदय इसी सदी की देन हैं। इस सदी में धर्म और आस्था के सामने विज्ञान और तर्कवाद आ खड़े हुए। मनीषियों ने प्रश्नों को नए कोण से देखना आरंभ किया। अभी तक प्रश्न जिस प्रकार से हल किए जाते रहे थे वह विधि एकाएक अप्रासंगिक हो उठी। कहना न होगा कि इस सबके उत्स में अंग्रेजों से संपर्क था। अंग्रेजों से भारतीयों का यह संपर्क देश के जिस-जिस भाग से होता हुआ आगे बढ़ा, नवजागरण भी उसी ओर क्रमानुसार उन्मुख हुआ। यही कारण है कि बंगाल ने इसका स्वाद सबसे पहले चखा, किंतु भारतीय नवजागरण केवल बंगाल केंद्रित नहीं है, उसमें हिंदी प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र इत्यादि नवजागरणों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
नवजागरण में काल विभिन्न होते हुए भी आश्चर्यजनक रूप से भारतीय नवजागरणकालीन बौद्धों के सरोकार एक जैसे हैं, जैसे देश की निर्धनता, अशिक्षा, आलस्य, सामाजिक सुधार, फूट भाषा का प्रश्न, आर्थिक दोष इत्यादि। नवजागरण ने राष्ट्रवाद को परिपुष्ट किया। सामाजिक विमर्शों को महत्त्वपूर्ण बनाया। औपनिवेशिक सत्ता पर आश्रित होते हुए भी राष्ट्रवाद का विकास नवजागरण का प्रस्थान बिंदु है।
जितने आश्चर्यजनक रूप से भारतीय नवजागरणकालीन बौद्धिकों के सरोकार एक जैसे हैं, उतने ही आश्चर्यजनक रूप से उनके अंतर्विरोध भी कमोबेश एक जैसे हैं। जहाँ कुछ बुनियादी महत्त्वपूर्ण बिंदुओं पर भारतीय नवजागरणकालीन बौद्धिकों का आधुनिक होना काम्य था, उन स्थलों पर वे परंपरावादी हैं। ऐसा होना सही है या गलत, यह विवेचना का विषय नहीं, किंतु कुछ बिंदुओं पर उनमें प्रतिक्रियावादी तत्त्व स्पष्ट दिखाई देते हैं।
भारतीय समाज के संदर्भ में जब आधुनिकता की बात उठती है तो उसका संबंध नवजागरण से ठहरता है, इसलिए आधुनिक समाज की किसी समस्या के समाधान क्रम में हम नवजागरण की ओर मुड़ते हैं। पिछले दो दशकों से नवजागरण बराबर चर्चा के केंद्र में रहा है, इसका कारण समाज में उन समस्याओं के उभार की वह जटिलता है जिसे नवजागरण काल और उसके बाद भी पूरी तरह से सुलझाया नहीं गया, जबकि प्रयास यह होना चाहिए था कि इन समस्याओं को प्राथमिकता से हल किया जाता। चूँकि आधुनिक मानस नवजागरण से विकसित है, आधुनिक भारतीय मानस के विचारों का सिरा नवजागरण से अत्यंत सघन रूप से जुड़ा है, इसलिए इन अंतर्विरोधों पर चर्चा करना अत्यंत आवश्यक है।
उन्नीसवीं सदी के नवजागरण के अंतर्विरोधों के महत्त्वपूर्ण बिंदु स्त्री जाति और धर्म हैं। विशेषकर ‘स्त्री’ और ‘जाति’ के प्रश्न पर इस सदी का भारतीय, जो यूँ तो आधुनिक है, परंपरावादी और प्रतिक्रियावादी होने से बच नहीं पाता। इन दो प्रश्नों पर उसकी सारी आधुनिकता धरी की धरी रह जाती है।
मैंने स्त्री संबंधी अंतर्विरोधों को स्पष्ट करने के लिए नवजागरणकालीन दो अत्यंत महत्त्वपूर्ण विचारकों को सुना है – भारतेन्दु हरिश्चंद्र एवं बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय। और भी अच्छा होता अगर यह अध्ययन गुजराती और मराठी के विचारकों को लेकर भी हो पाता तो अंतर्विरोधों की और भी सार्वदेशिक छवि स्पष्ट हो पाती। अपने इस आलेख में मैंने बंकिमचंद्र साहित्य से उदाहरण अधिक रखे हैं क्योंकि भारतेन्दु से हिंदी के सुधीजन भली भाँति परिचित हैं। एक अन्य कारण यह भी है कि हिंदी के बहुत-से आधुनिक विचारक आज के हिंदी समाज के अंतर्विरोधों का दायित्व नवजागरणकालीन चिंतकों पर लादकर निश्चिंत हो जाते हैं। स्त्री संबंधी अंतर्विरोध तो बँगला नवजागरण में भी थे, तो क्या कारण है कि आधुनिक हिंदी मानस बंगाली मानस की तरह नवजागरणकालीन इन अंतर्विरोधों से बहुत दूर नहीं जा सका। स्त्री के संबंध में हिंदी जाति बँगला जाति की तरह उदार और सहिष्णु क्यों नहीं हो पाई?
उपनिवेशकालीन इन दो मूर्धन्य विचारकों के साहित्य में स्त्री संबंधी एवं अन्य विषयों से संबंधित अंतर्विरोधों की यह पड़ताल इसलिए भी आवश्यक है कि इन दोनों विचारकों ने हिंदी और बँगला के तत्कालीन तथा पूर्ववर्ती विचारकों के एक बहुत बड़े वर्ग को अत्यंत प्रभावित किया। यह कहना कतई अतिश्योक्ति न होगी कि भारतेन्दु और बंकिमचंद्र के प्रभाव से क्रमश: हिंदी और बँगला का उन्नीसवीं सदी का कोई साहित्यकार नहीं बचा, बल्कि दोनों का प्रभाव उसके बाद भी बहुत बाद तक है।
जहाँ तक भारतेन्दु एवं बंकिमचंद्र के नारी संबंधी विचारों की रूपरेखा का प्रश्न है, तो वे दोनों ही स्त्री शिक्षा के पक्षपाती हैं। सती रूप उनकी स्त्री का काम्य आदर्श है। स्त्री को दया, माया, ममता और त्याग की मूर्ति होना चाहिए। उसे सहनशीलता की साक्षात् प्रतिमा होना चाहिए। किंतु हाड़-मांस से बनी घर-गृहस्थी चलाती पवित्र भारत भूमि के बहुत से आयतन को घेरती यह स्त्री कैसी है जो उन्नीसवीं सदी के उसी ऐतिहासिक वातावरण में साँस ले रही है जिसमें ये विचारक स्वयं उपस्थित हैं।
सबसे पहले यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि भारतेन्दु और बंकिमचंद्र के नारी संबंधी ये विचार उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में व्यक्त किए गए हैं। उनके नारी संबंधी विचारों के अंतर्विरोधों, जो कि परंपरागत हैं, सामने रखने के बहाने आज के नारी-विरोधी बिंदुओं पर भी एक दृष्टिपात होगा।
स्त्री को दुनिया की आधी आबादी बहुत बाद में कहकर पुकारा गया। उन्नीसवीं सदी के हिंदुस्तान की बात करें तो यह आधी आबादी सात पर्दों के भीतर अपने होने को नकारने का भरसक प्रयत्न करती दिखाई पड़ती है। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और अवध की बेगम जैसे नाम अपवाद ही कहे जा सकते हैं। उन्नीसवीं शताब्दी का सबसे सकारात्मक पक्ष यह रहा कि अब अन्य सुधारों की चर्चा के साथ सुधारकों का ध्यान स्त्री सुधार की ओर भी गया। सुधारकों को उन मूर्खाओं, अशिक्षिताओं और गँवारिनों का भी ध्यान आया जो माता हैं, जननी हैं। बालक का सुधार घर से हो सकता है और इसलिए उसे जीवन का प्रथम पाठ पढ़ाने वाली माता का सुधार आवश्यक जान पड़ा। अत: समाज के जागरूकों द्वारा स्त्री शिक्षा की आवश्यकता की बात उठाई गई। अभी तक साहित्य में भी स्त्री पूरक थी, अब उसकी चर्चा वस्तु से भिन्न रूप में आरंभ हुई। यद्यपि अधिकांश लोगों के लिए उसका रीतिकालीन रूप ही प्रमुख रहा। दिक्कत यह रही कि सुधारकों द्वारा उस स्त्री रूप के सुधार की कल्पना की गई जो उनके इतिहास में थी। सती, वीरांगना, मेधावी, अनुपम त्यागमयी और सौंदर्यशालिनी। उस स्त्री के आदर्श को सामने रखा गया जो उनकी स्मृति में थी। स्त्रियों की तत्कालीन अवस्था को देखते हुए यह आदर्श कुछ अधिक ही ऊँचा था, फिर भी स्त्री के उद्धार की चर्चा आरंभ हुई।
बंगाल में स्त्री से संबंधित प्रश्न पहले उठाए गए। हिंदी प्रदेश में इन प्रश्नों में देर के साथ तीव्रता भी कम थी। भारतीय नवजागरण के अग्रदूतों में राजा राममोहन राय का नाम उल्लेखनीय है। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के विरुद्ध आवाज उठाई। यह अलग तथ्य है कि उनके द्वारा विरोध होने और अंग्रेजों के हस्तक्षेप के पश्चात् बंगाल में सतियों की संख्या बढ़ गई। निस्संदेह यह घरेलू मामलों में बाहरी हस्तक्षेप की प्रतिक्रिया थी। बंगाल की स्त्री संबंधी चेतना का अध्ययन यहाँ से आरंभ कर विद्यासागर द्वारा विधवा विवाह के समर्थन एवं बंकिमचंद्र द्वारा उसके विरोध करने तक उन्नीसवीं सदी लगभग व्यतीत हो चुकी थी।
यहाँ इस रोचक तथ्य का उल्लेख किया जाना आवश्यक है कि राजा राममोहन राय बंगाल की नारी को सती जैसी कुप्रथा से मुक्ति दिलाने वाले अंग्रेजों को ही इस कुप्रथा के प्रचार-प्रसार के लिए उत्तरदायी मानते हैं। इस संबंध में आम भारतीय समझ अंग्रेजों को उद्धारक समझने की रही है। किंतु राजा राममोहन राय का स्पष्ट मत था कि स्त्री संबंधी पारंपरिक कानूनों को अंग्रेजों के द्वारा नकारे जाने के कारण ही बंगाल में यह कुप्रथा पनपी।
“हिंदुओं के संपत्ति संबंधी उत्तराधिकार के बारे में बंगाल में एक ग्रंथ का चलन था जिसका नाम था ‘दायभाग’ । इसके लेखक जीमूतवाहन थे।” इसका चलन बंगाल में विशेष रूप से था, इसलिए इसे देखना चाहिए कि इसमें विधवाओं के लिए क्या कहा गया है। राममोहन राय ने इस ग्रंथ का हवाला देते हुए कहा है, “संपत्ति के मालिक का निधन होने के बाद उस पर पुत्र का अधिकार होता है और जिस कारण पुत्र का अधिकार होता है उसी कारण उस संपत्ति पर माता का अधिकार होता है। और उस स्वामी के भाई अथवा उसके अन्य संबंधियों की अपेक्षा उस विधवा का दावा ही सही माना जाएगा।”1 (शर्मा, रामविलास, भारतीय साहित्य की भूमिका, पृ. 316) इसके पश्चात् राजा राममोहन राय ने बृहस्पति, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, नारद, भीष्म, व्यास आदि के उद्धरणों से सिद्ध किया कि संतान के पिता का निधन होने पर संपत्ति माता को मिलेगी, ताकि वह अपना जीवन सम्मानपूर्वक व्यतीत कर सके, किंतु अंग्रेजों ने इस कानून को नकार दिया एवं उन पुरोहितों और जमींदारों के स्वार्थों की रक्षा की जो सती प्रथा को चला रहे थे। राजा राममोहन राय का यह मत उन अंग्रेजी शिक्षा के गुणगायकों के उस बहुप्रचारित तथ्य के परीक्षण की माँग करता है जिसके अनुसार भारतीय परंपरा ने स्त्रियों को कोई अधिकार नहीं दिया एवं अंग्रेजों ने बर्बर और असभ्य भारतवासियों को सदैव प्रगति का शुभ मार्ग दिखाया। राममोहन राय के लेखन से यह भी पता चलता है कि शेष भारतवर्ष में यह कुप्रथा प्रचलन में नहीं थी, जैसा कि बाद में दुष्प्रचार किया गया – “विधवाओं को चिता के लक्कड़ों के साथ बाँधकर जला देने की प्रथा हिंदुस्तान का एक छोटा-सा हिस्सा है।”2 (वही, पृ. 315) राममोहन राय का स्पष्ट मानना है कि सती प्रथा का चलन केवल बंगाल में है और वह भी अंग्रेजों द्वारा दूसरी पत्नी लाने संबंधी पुराने कठोर नियम की उपेक्षा के कारण। बंगाल के उच्चवर्गीय विशेषकर ब्राह्मण पुरुषों में बहुविवाह का प्रचलन हो गया। इसका एक कारण बंगाल और मिथिला के दो-तिहाई ब्राह्मण और अनुयायियों द्वारा विवाह के नाम पर लड़कियों को बेच दिया जाना भी था। बंगाल के निम्न श्रेणी के ब्राह्मण और उच्च श्रेणी के कायस्थ अपनी बहन या बेटी का विवाह ऐसे पुरुष से करते थे जिसकी तगड़ी आमदनी हो। “ऐसे ब्राह्मण और कायस्थ अपनी लड़कियों को ऐसे लोगों से ब्याह देते हैं जिनमें कोई न कोई शारीरिक दोष होता है, जो बुढ़े या बीमार हैं, केवल इसलिए कि उन्हें पैसा मिलता है। इस तरह वे लड़कियाँ या तो बहुत जल्दी विधवा हो जाती है अथवा उनका जीवन अत्यंत कठिन हो जाता है। कुलीन ब्राह्मण दस, बीस, तीस लड़कियों तक ब्याह लाते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि बंगाल में आत्महत्या करने वाली स्त्रियों की संख्या अन्य ब्रिटिश प्रांतों की अपेक्षा दस गुनी होती है।”3 (वही, पृ. 319) इसके अतिरिक्त विधवा के दुष्चरित्र हो जाने के प्रश्न पर राममोहन राय ने कहा कि पति और पुत्र के अभाव में स्त्री के अन्य संबंधियों द्वारा उसकी देखरेख का विधान है। इसके अतिरिक्त आए दिन पति अपनी पत्नी पर से अपना अधिकार छोड़ देता है, पत्नी अलग रहने पर बाध्य होती है। उस अवस्था में भी उसे अपना जीवन निर्वाह करना पड़ता है। प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि राजा राममोहन स्त्री शिक्षा के परम समर्थक थे। उनका मानना है कि स्त्री के नैसर्गिक गुणों का विकास उसे उचित अवसर देने पर ही हो सकेगा।
बंगाल में ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने विधवा विवाह के लिए प्रयास किए। चूँकि विधवा समाज से आई थी और उसका पुनर्विवाह समाज में ही होना था, अत: विद्यासागर को भी शास्त्रों की शरण में जाना पड़ा क्योंकि समाजशास्त्र सम्मति को मानता है, लोकशास्त्र का उपहास उड़ाता है, किंतु स्वीकृति भी उसी की शक्ति को देता है। विद्यासागर ने शास्त्रसम्मत युक्तियाँ देकर विधवा विवाह अभियान चलाया। इसके लिए आरंभ में उन्हें भी औपनिवेशिक सहयोग मिला, किंतु बाद में अंग्रेजों के नीति परिवर्तन के कारण वह सहयोग बंद हो गया। विद्यासागर की मृत्यु 1881 ई. में हुई, किंतु विधवा विवाह आंदोलन को सरकारी सहयोग और प्रोत्साहन उसके बहुत पहले ही बंद हो चुका था।
हिंदी प्रदेश की तुलना में बंगाल ने स्त्री शिक्षा की पहल पहले की। वहाँ की तुलना में बंगाल में लड़कियों के स्कूलों की संख्या भी अधिक थी जो कि स्वाभाविक था, किंतु संख्या का बहुत आश्चर्यजनक अंतर नहीं था। बनारस में स्त्री शिक्षा का प्रयास पहले पहल मिशनरियों द्वारा किया गया और भारतेन्दु के पिता अपनी लड़की को पढ़ाने वाले प्रथम अभिभावकों में से एक थे। भारतेन्दु ने स्वयं अपनी पुत्री को पढ़ाया। बनारस तथा भारत के अन्य स्थानों पर पढ़ने वाली लड़कियों के प्रोत्साहन के लिए भारतेन्दु ने पारितोषिक भेजे। कलकत्ता के बेथुन स्कूल में परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाली बालिकाओं के लिए उन्होंने बनारसी साड़ियाँ भेजी थीं। बंबई, मद्रास विश्वविद्यालय एवं अन्य स्थानों के लिए भी उन्होंने इस प्रकार के उपहार भेजे थे। यद्यपि मिस मेरी कारपेंटर के नारी शिक्षा उद्योग में भारतेन्दु प्रधान सहायक थे, किंतु वे ईसाई ढंग की नारी शिक्षा नहीं चाहते थे। उनका कहना था कि “लड़कियों को भी पढ़ाइए, किंतु उस चाल से नहीं जैसे आजकल पढ़ाई जाती हैं जिससे उपकार के बदले बुराई होती है। ऐसी चाल से उनको शिक्षा दीजिए कि वे अपना देश और कुलधर्म सीखें, पति की भक्ति करें और लड़कों को सहज में शिक्षा दें।”4 (भारतेन्दु समग्र, पृ. 1013) ये पंक्तियाँ भारतेन्दु की नारी भावना की कुंजी हैं। अपने महत्त्वपूर्ण निबंध ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है’ में नारी शिक्षा संबंधी कुल अढ़ाई पंक्तियों में उन्होंने नारी के कर्तव्यों को निश्चयात्मक ढंग से निश्चित कर दिया। स्त्री से वे क्या चाहते हैं, समाज में स्त्री की क्या भूमिका हो सकती है, इन पंक्तियों में स्पष्ट है। यद्यपि भारतेन्दु ने स्त्रियों के लिए प्रथम प्रकाशित अपनी पत्रिका ‘बालाबोधिनी’ (1974) के मुखपृष्ठ पर इस दोहे को स्थान दिया था :
जो हरि सोई राधिका जो शिव सोई शक्ति ।
जो नारी सोई पुरुष में कुछ न विभक्ति ।।
किंतु मुखपृष्ठ पर छपने वाले दोहे को सच में क्रियांवित करना कठिन कार्य है। नारी और पुरुष की समानता एक ही स्थान पर है कि दोनों ईश्वर के बनाए हुए हैं, किंतु ईश्वर ने ही पुरुष को श्रेष्ठ बनाया है और नारी को हीन, तभी तो पुरुष समाज ने नारी के सभी अधिकार अपने हाथ में कर लिए। नारी-पुरुष की समानता की आकांक्षा भारतेन्दु ने ‘कविवचन सुधा’ में भी व्यक्त की थी।
किंतु ‘नारी नर सम होहि’ की आकांक्षा करना एक बात है, समाज में नारी की वास्तविक स्थिति दूसरी बात है। समाज में नारी पुरुष के अधीन है। सत्यवान के प्रेम में डूबी सावित्री की सखी मधुकरी सत्यवान से जाकर कहती है, “कुमारी कहती है कि किसी दिन माता-पिता की आज्ञा लेकर हम आवेंगे तब आतिथ्य स्वीकार करेंगे। आप तो जानते हैं कि आर्य कुल की ललनागण किसी भी अवस्था में स्वतंत्र नहीं हैं। इससे आज क्षमा कीजिए।”5 (वही, पृ. 538)
गृह की चारदीवारी में रहकर स्त्रियों के पुरुष के समान होने की संभावना कम लगती है। कोई भी अवसर हो, उन्हें घर से बाहर निकलने की अनुमति नगण्य थी। लार्ड म्यों की शवयात्रा का वर्णन करते समय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कहते हैं कि “वृद्ध, बालक अपना-अपना कर्म छोड़कर प्रिंसेप घाट की ओर चले, किंतु स्त्री बेचारी कुलमर्यादा सीमा परिबद्ध उद्विग्न चित्त होकर खिड़कियों पर बैठी युगल नेत्र प्रसारनपूर्वक अपने हितैषी परम गुणवान उपराज के मृतक शरीर के आगमन की मार्ग प्रतीक्षा करती थी।”6 (वही, पृ. 626)
भारतेन्दु की नारी संबंधी विचारधारा का एक पक्ष यह भी है कि कहीं-कहीं उन्होंने स्त्री की दुरावस्था पर करुणा भी व्यक्त की है। उनका मानना है कि प्राचीन काल में स्त्री की इतनी बुरी अवस्था नहीं थी। उस समय के लोगों के आदर्श ऊँचे थे। जीवन के सभी क्षेत्रों में वे आदर्श का पालन करते थे। भारतेन्दु लिखते हैं : “अब हिंदुस्तान में तीन बात का बड़ा घाटा है – वह यह है कि लोग विद्या, स्त्री, राजा का तादृश स्वरूप ज्ञानपूर्वक आदर नहीं करते। विद्या को केवल एक जीविका की वस्तु समझते हैं, वैसे ही स्त्री को केवल कामशांत्यर्थ वा घर की सेवा करने वाली मात्र जानते हैं।”7 (वही, पृ. 629)
समाज और धर्म में व्याप्त कुरीतियों के कारण शोषण और अत्याचार की शिकार नारी के संबंध में भी भारतेन्दु ने कई बार टिप्पणी की है।8 (वही, पृ. 984-85) पर, प्रकारांतर से भारतेन्दु स्त्री की हीनावस्था पर सहानुभूति प्रकट करते हैं। किंतु इस सहानुभूति प्रदर्शन में वह भेद उपस्थित है जो स्त्री के प्रति विचारधारा का अभिन्न अंग है। वे कहते हैं – “स्त्री व्यभिचारी, पुरुष विषयी हो जाए। भारतेन्दु यह बात नहीं कहते कि स्त्री-पुरुष व्यभिचारी हो जाएँ या पुरुष व्यभिचारी और स्त्रियाँ विषयी हो जाएँ। स्त्री-पुरुष दोनों की भिन्न कोटियाँ हैं। एक ही जैसा कर्म करने पर एक व्यभिचारिणी है तो दूसरा विषयी।”
बंकिमचंद्र के यहाँ ये कोटियाँ और अधिक रूढ़ हैं। अपने साम्य निबंध (जिसे बाद में उन्होंने ‘डिसओन’ कर दिया) में उनकी नारी संबंधी धारणाएँ अवश्य ही क्रांतिकारी हैं। “मनुष्य-मनुष्य में समानाधिकार विशिष्ट है। स्त्रियाँ भी मनुष्य जाति हैं, अतएव स्त्रियाँ भी पुरुष तुल्य अधिकारशालिनी हैं।”9 (बंकिम रचनावली, पृ. 399) किंतु उनके साहित्य में इस उद्धरण की छाया भी अन्य स्थानों पर दिखाई नहीं देती। भारतेन्दु के साहित्य में नारी की उपस्थिति कम है। उनके दो-तीन नाटक ही नारी-प्रधान रहे, उनका समस्त साहित्य लगभग नारी-विहीन साहित्य है, किंतु बंकिम का लगभग समस्त साहित्य नारी-केंद्रित है अथवा नारी-केंद्र के आसपास है और उसे पूरे साहित्य में स्त्री और पुरुष के समान अधिकारशालिनी होने की बात तो दूर रही, वह पुरुष के असीमित अधिकारों के आसपास भी नहीं फटक सकती।
असल में उस काल का घर से बाहर का परिदृश्य स्त्री-विहीन था, किंतु एक आदर्श की प्राप्ति में उसके त्याग का सहयोग आवश्यक था, साथ ही इस बात का भी ध्यान था कि स्त्री के त्याग के सम्मुख पुरुष फीका न पड़ जाए, इसलिए स्त्री का हीनतम होना भी आवश्यक था। अपने साम्य निबंध में बंकिम ने स्त्री-पुरुष के स्वभावगत वैषम्य के आधार पर स्त्रियों के कम अधिकार के तर्क को मानने में आपत्ति जताई – “स्त्री-पुरुष में जिस तरह स्वभावगत वैषम्य है, अंग्रेज और बंगाली में वैसा ही है। अंग्रेज बलवान है, बंगाली दुर्बल है, अंग्रेज साहसी है, बंगाली डरपोक है, अंग्रेज क्लेश सहिष्णु है, बंगाली कोमल है इत्यादि। यदि इस सब प्रकृतिगत वैषम्य हेतु अधिकार वैषम्य उचित है तो हम लोग अंग्रेज-बंगाली के मध्य सामान्य अधिकार देखकर इतना चीत्कार क्यों करते हैं? यदि स्त्री दासी, पुरुष प्रभु यही विचार संगत है तो बंगाली दास, अंग्रेज प्रभु यह विचार भी संगत होगा।”10 (वही, पृ. 399) विश्व के अन्य देशों की तुलना में भारतवर्ष में नारी की करुण अवस्था पर बंकिम ने अपने निबंध में सहानुभूति जताई और इसका एकमात्र निराकरण स्त्री शिक्षा को माना।
भारतेन्दु और बंकिमचंद्र की नारी संबंधी भावना का सबसे सकारात्मक पक्ष है उनका नारी शिक्षा के संबंध में आग्रह। शिक्षा चाहे सीमित ही हो, पर स्त्री शिक्षित हो, ये दोनों ही चाहते हैं। नारी शिक्षा संबंधी विचारों को छोड़कर नारी के संबंध में भारतेन्दु और बंकिमचंद्र उस समय की प्रभावी विचारधारा के अनुरूप ही विचार रखते हैं। परंपरा से चली आ रही नारी संबंधी धारणाएँ दोनों को जस की तस मान्य हैं। उनमें वे कोई परिवर्तन नहीं करते। वहाँ उनके उस तीखे तेवर की कोई झलक नहीं मिलती जो उन दोनों की विशिष्टता है, विशेषकर बंकिमचंद्र में।
जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, भारतेन्दु देश की परंपरा के अनुसार स्त्री शिक्षा चाहते हैं और हमारे देश की परंपरानुसार लज्जा स्त्रियों का आभूषण है, स्त्रियों को लज्जाहीन बनाने वाली शिक्षा कभी भी उत्तम नहीं हो सकती। यद्यपि भारतेन्दु अंग्रेज महिलाओं से बड़े प्रभावित हैं और चाहते हैं कि भारतीय स्त्रियाँ उनसे कुछ सीखें, पर उनकी लज्जा विहीनता का अनुकरण न करें। ‘नील देवी’ (1881) में भारतीय नारियों को संबोधित करते हुए भारतेन्दु कहते हैं :
“ मातृ भोगिनी सखी तुल्या आर्य ललना गण ।
“ आज बड़ा दिन है। क्रिस्तान के लोगों को इससे बढ़कर कोई आनंद का दिन नहीं है। किंतु मुझको आज उल्टा और दु:ख है। इसका कारण मनुष्य सुलभ ईर्ष्या मात्र है। मैं कोई सिद्ध नहीं कि रागद्वेष से विहीन हूँ। जब मुझे अंग्रेजी रमणी लोग मेंदसिंचित केशराशि, कृत्रिम कुंतल जूट, मिथ्या रत्नाभरण और विविध वर्ण वसन से भूषित क्षीण कटि देश कसे निज पतिगण के साथ प्रसन्न वदन इधर से उधर फर-फर कर कल की पुतली की भाँति फिरती हुई दिखलाई पड़ती है तब इस देश की सीधी-सादी स्त्रियों की हीन अवस्था मुझको स्मरण आती है और यही बात मेरे दु:ख का कारण होती है।”11 (भारतेन्दु समग्र, पृ. 478-79)
और तुरंत ही भारतेन्दु अपने दु:ख का कारण स्पष्ट कर देते हैं। वे भारतीय स्त्रियों में उपरोक्त गुण कदापि नहीं चाहते। भारतेन्दु कहते हैं – “इससे यह शंका किसी को न हो कि मैं स्वप्न में भी यह इच्छा करता हूँ कि इन गौरांगी युवती की भाँति हमारी कुललक्ष्मी गणा की लज्जा को तिलांजलि देकर अपने पति के साथ घूमें।”12 (वही, पृ. 479) भारतेन्दु तो चाहते हैं कि “जैसे और बातों में जिस भाँति अंग्रेज स्त्रियाँ सावधान होती हैं, पढ़ी-लिखी होती हैं, घर का कामकाज सँभालती हैं, अपनी संतानगण को शिक्षा देती हैं, अपना स्वत्व पहचानती हैं, अपनी जाति को व्यर्थ ग्रह दास्य और कलह में नहीं खोतीं, उसी भाँति हमारी गृह देवता भी वर्तमान हीनावस्था को उल्लंघन करके कुछ उन्नति प्राप्त करें, यही लालसा है। इस उन्नति पथ की अवरोधक हम लोगों की वर्तमान कुल परंपरा मात्र है और कुछ नहीं।”13 (वही, पृ. 479)
स्त्रियों की इस हीनता के लिए उत्तरदायी उस भ्रम का निवारण आवश्यक है जिसके अनुसार स्त्रियाँ सदैव ही हीनावस्था में शिक्षाविहीन थीं। भारतेन्दु ने भ्रम निवारण के लिए ‘नीलदेवी’ नाटक रचा। प्राचीन काल में आर्य ललनाएँ सुशिक्षिता थीं, इस बात के उन्होंने एकाधिक स्थान पर प्रमाण दिए। ‘चरितावली’ में उन्होंने कालीदास के जीवन-चरित्र पर विचार करते हुए राजा भोज की सभा में उपस्थित पंडितों की सूची प्रस्तुत की है, उसमें से एक नाम सीता का भी है।14 (वही, पृ. 592)
‘रामायण’ कालीन शिक्षा के बारे में भारतेन्दु लिखते हैं – “जिस समय राजा दशरथ ने अश्वमेघ यज्ञ किया उस समय का वर्णन है कि रानी कौशल्या ने अपने हाथ के घोड़े को तलवार से काटा। इस बात से प्रकट होता है कि आगे की स्त्रियों को शिक्षा दी जाती थी कि वह शस्त्र विद्या में भी अति निपुणता रखती थी।”15 (वही, पृ. 785) स्त्री शिक्षा के इस आग्रह के साथ भारतीय स्त्रियों में लज्जाशीलता के आग्रह को भी वे बार-बार दोहराते रहे। ‘मुशायरा’ में मेम की तालीमयाफ्ता ललाइन पर उन्होंने व्यंग्य किया :
“लिखाय नाहीं देत्यों पढ़ाय नाहीं देत्यों,
सैंया फिरंगिन बनाय नाहीं देत्यों ।
लहँगा दुपट्टा नीक न लागे,
मेमन का गौन मँगाय नाहीं देत्यों ।।”16 (वही, पृ. 996)
बंकिमचंद्र भी स्त्री शिक्षा के पक्षपाती थे। बंकिमचंद्र ने अपने साम्य निबंध में स्त्री शिक्षा के पक्ष में तर्क दिए। स्त्री शिक्षा में जो बाधाएँ आ सकती हैं उन्हें भी समाधान हेतु प्रस्तुत किया – “नारी शिक्षा के लिए या तो पृथक विद्यालय बनाए जाएँ अथवा सहशिक्षा का प्रबंध हो, जो कि संभव नहीं है, फिर बंगीय बालिका को कुलवधू और माँ भी बनना है। स्त्री पढ़ेगी तो घर कौन देखेगा? बच्चा कौन पालेगा? सर्वोपरि स्त्री सुलभ लज्जा का क्या होगा?”17 (बंकिम रचनावली, पृ. 401) यह तो हुई साम्य निबंध में व्यक्त धारणा, जिसे बाद में उन्होंने अपना मानने का अधिकार छोड़ दिया। अपने ‘प्राचीना एवं नवीना’ निबंध में बंकिमचंद्र कहते हैं कि नारी की शिक्षा, वह भी एक निश्चित प्रकार की संभव है, अत: उसका प्रचलन हो सका है किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि उनकी स्थिति में कोई बड़ा परिवर्तन संभव है। यह परिवर्तन काम्य भी नहीं है – “इधर कुछ दिनों से शोर है कि स्त्रियों की अवस्था में सुधार करो, स्त्री शिक्षा दो, विधवा विवाह करो, स्त्रियों को गृह पिंजर से बाहर निकालकर उड़ा दो, बहुविवाह बंद करो एवं अन्य प्रकारों से पांची, रामी, माधी को विलायती मेम बना दो। यदि यह कर सकें तो अच्छा ही होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है, किंतु यदि पांची कभी विलायती मेम हो सकती है तो हम लोगों का शाल वृक्ष एक दिन ओक वृक्ष में परिणत हो सकता है, ऐसा विश्वास किया जा सकता है। जिन रीतियों का चलना अभी असंभव है वे नहीं चल सकीं। स्त्री शिक्षा संभव है इसलिए वह एक प्रकार से प्रचलित हो चली है।”18 (वही, पृ. 249)
यह एक प्रकार की स्त्री शिक्षा लड़की रामायण बाँच ले और चिट्ठी-पत्री लिख ले, इससे अधिक क्या हो सकती थी? बंकिमचंद्र के उपन्यासों की नायिकाएँ यद्यपि निपट अनपढ़ नहीं हैं, किंतु यह स्पष्ट है कि उस समय स्त्रियों का पढ़ा-लिखा होना दुर्लभ ही था। स्त्रियाँ अमीर घर की होने पर ही थोड़ा-बहुत पढ़ पाती थीं। ‘राधारानी’ में वे लिखते हैं – “राधारानी बड़े घर की बेटी थी, कुछ पढ़ी-लिखी भी थी।”19 (वही, पृ. 486) थोड़ा-बहुत पढ़ना-लिखना भी निश्चय ही बँगला भाषा में था। स्त्री के लिए अंग्रेजी ज्ञान नहीं था। अपने समय के बँगला साहित्य की स्थिति पर बंकिमचंद्र ने एक व्यंग्य लिखा था। उसमें एक उच्चशिक्षित बंगाली बाबू की भार्या यह पूछे जाने पर कि वह क्या पढ़ती है, उत्तर देती है – “जो कुछ पढ़ना चाहती हूँ, मैं तुम्हारी तरह अंग्रेजी नहीं जानती, फ्रांसीसी भी नहीं जानती, भाग्य में जो है, वही पढ़ती हूँ।”20 (बंकिमचंद्र के प्रतिनिधि निबंध, पृ. 179) और उसके भाग्य में ‘कूड़ा-करकट’ बँगला भाषा ही है।
भारतेन्दु और बंकिमचंद्र की नारी संबंधी विचारधारा का केंद्रीय तत्त्व यही है कि नारी माया है, नारी छलना है। अपने पूर्वजों की धारणा के अनुरूप ही दोनों ने स्त्री को प्रलोभन माना। स्त्री ही वह बाधा है जिसके कारण पुरुष इस संसार में कुछ भी नहीं कर पाता। स्त्री का निर्माण ईश्वर ने पुरुष जाति को कष्ट देने के लिए ही किया है। यह पुरुष जाति का दुर्भाग्य रहा है कि उसे इस संसार में स्त्री जाति के साथ रहना पड़ता है जो अवगुणों की खाई और उसके पतन का एकमात्र कारण है, क्योंकि वह आकर्षित करती है। आम आदमी तो उसके आकर्षण का मारा हुआ है ही, परमभक्त तक नहीं बचे। प्रेम योगिनी के वैष्णव धनदास और बनितादास की पीड़ा यही है कि उन्हें कोई वैष्णविन नहीं मिली। किंतु गोसाई के मजे हैं।
पुरुष इस बात पर भी दुखी है कि स्त्री प्रलोभन है, पुरुष इस बात पर भी दुखी है कि वह उसे क्यों नहीं मिली। और वह भी तब जबकि बाजार में रुपया किलो औरत मिलती है।
एक ओर स्त्री का ऐसा बिकाऊपन है, दूसरी ओर उसके सतीरूप का काम्य चरम आदर्श। दोनों रूपों में भारतेन्दु और बंकिमचंद्र सामंजस्य नहीं बैठा पाए हैं। उनके नारी संबंधित अंतर्विरोधों के संबंध में प्रो. मैनेजर पांडेय का यह कथन एकदम सटीक है – “किसी समाज की विशेष ऐतिहासिक अवस्था के संपूर्ण सामाजिक यथार्थ के अंतर्विरोधों और जटिलताओं की अभिव्यक्ति विचारधाराओं में होती है। विचारधाराओं में विभिन्न वर्गों के जीवन की वास्तविकताएँ और आकांक्षाएँ भी व्यक्त होती हैं। विभिन्न विचारधारात्मक रूपों में इन सबकी अभिव्यक्ति एक जैसी नहीं होती। इनकी अभिव्यक्ति राजनीति, धर्म और दर्शन में जिस तरह होती है, उसी तरह कला और साहित्य में नहीं होती। एक विशेष ऐतिहासिक कालखंड के विभिन्न विचारधारात्मक रूपों पर विचार करते समय विभिन्न विचारधारात्मक रूपों में निहित एकता के साथ-साथ व्यक्त अंतर्विरोधों पर भी ध्यान देना जरूरी है, उनकी ऐतिहासिकता के साथ-साथ विशिष्टता को देखना जरूरी है।”21 (पांडेय, मैनेजर, शब्दकर्म, पृ. 15)
भारतेन्दु एवं बंकिमचंद्र की ऐतिहासिक अवस्था में स्त्रियाँ हीनावस्था में हैं किंतु एक आदर्श स्थिति की प्राप्ति के लिए उनका सहयोग भी आवश्यक है। इस आवश्यकता की विशिष्टता के कारण स्त्री की वास्तविक अवस्था का उल्लेख कम होता है एवं काम्य आदर्श की प्रस्तुति अधिक होती है। विचारधारा का यह अंतर्विरोध वास्तविकता और आकांक्षा का अंतर्विरोध है। भारतेन्दु एवं बंकिमचंद्र की दृष्टि इस ओर जाती ही नहीं कि स्त्रियों के क्रय-विक्रय में उस व्यवस्था का हाथ है जिसके निर्माण और क्रियांवयन में उनकी भूमिका न्यूनतम है। इसलिए स्त्रियों के अधिकारों के प्रश्न पर जहाँ ये विद्वान मामूली छूट देने को तैयार होते हैं वहीं उनके अवगुणों को बड़ी बारीकी से प्रस्तुत करते हैं।
बंकिमचंद्र ने आदर्शों का ध्यान रखते हुए समस्त साहित्य में एक ओजमयी गौरवमयी, भाषा का प्रयोग किया है जिसमें माधुर्य का सौंदर्य भी है, क्योंकि नारी सौंदर्य वर्णन में वे खूब रमे हैं। आदर्श स्त्री कैसी हो इस पर भी उनके खूब परिष्कृत विचार हैं, पर जो स्त्रियाँ उपस्थित हैं उनके संबंध में उनकी टिप्पणियाँ हीनताबोधक हैं। स्त्री हीन है यह विचारधारा बंकिमचंद्र के उपन्यासों में यत्र-तत्र-सर्वत्र उपस्थित है। स्त्री जाति की निरर्थकता का विचार उनके साहित्य की संरचना में उपस्थित है। स्त्री के अधम, हीन, तुच्छ और गुणहीन होने के संबंध में बंकिमचंद्र के विचार बड़े सहज-स्वाभाविक ढंग से आए हैं, बल्कि अनेक स्थानों पर ऐसा लगता है कि चरम आदर्श के सामने सामान्य स्त्रियों के संबंध में तो ऐसी ही भाषा का प्रयोग होगा, आखिर रचनाकार एक आदर्श है और उस आदर्श के ढाँचे में स्त्रियाँ आ नहीं रहीं, अत: उन्हें नीच कहा ही जा सकता है। आखिर कायर तो उसे ही कहते हैं जो वीरता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, किंतु तर्क के इस भोलेपन की धज्जियाँ उसी क्षण उड़ जाती हैं जब यही ढाँचा वे पुरुषों के लिए नहीं रखते। बंकिमचंद्र की रचनाओं, विशेषकर उपन्यासों में नारी-पुरुष संबंधी उनके यथार्थबोध का भिन्न दृष्टिकोण उनके उपन्यासों में अंतर्निहित है। प्रत्येक रचना में विचारधारा और यथार्थबोध का संबंध रचना की पूरी संरचना में व्यक्त-अव्यक्त रूप में मौजूद होता है। यहाँ तक कि रचना के भाषा के स्वरूप में भी विचारधारात्मक प्रभाव मौजूद होते हैं। ग्राम्शी ने लिखा है कि “भाषा एक साथ ही एक जीवित वस्तु भी है और जीवन तथा सभ्यता का अजायबघर भी। भाषा का भोलापन एक भ्रम है। व्यवहार में भाषा का विचारात्मक प्रभाव एक सच्चाई है।”22 (वही, पृ. 15) बंकिमचंद्र के उपन्यास ‘चंद्रशेखर’ के एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाएगी। उपन्यास की सुंदरी नायिका शैवालिनी बाल्यावस्था की साथ-आठ वर्ष की आयु से ही प्रताप से प्रेम करती है। शैवालिनी निर्धन है, अत: प्रताप से उसका विवाह नहीं हो पाता। शैवालिनी का विवाह उससे आयु में बहुत बड़े चंद्रशेखर से हो जाता है। शैवालिनी परम सुंदरी है। स्त्री का सौंदर्य और उसकी कुरूपता, दोनों ही उसके शत्रु हैं। और इसमें दोष स्त्री का ही है। सुंदरी शैवालिनी को ईष्ट इंडिया कंपनी का एक रेशम कोठी वाला लारेंस फॉस्टर उठा ले जाता है। शैवालिनी की ननद सुंदरी उसे नाव पर जाकर घर चलने के लिए कहती है जिस पर फॉस्टर उसे ले जा रहा है, किंतु शैवालिनी नहीं लौटती। कारण, वह धर्म-केंद्रित सामाजिक व्यवस्था से डरती है – “मैं जाऊँगी, मेरे स्वामी भी मुझे अपनाएँगे, किंतु क्या मेरा कलंक कभी मिटेगा? इतने पर भी गाँव की छोटी लड़कियाँ मेरी ओर उँगली उठाकर कहेंगी या नहीं – देखो, इसको अंगरेज उठाकर ले गया था। ईश्वर न करे, किंतु यदि कभी पुत्र होगा तो उसके अन्नप्राशन में निमंत्रण देने पर मेरे घर कौन खाने आएगा? यदि कभी पुत्री हुई तो उसके साथ कौन कुलीन ब्राह्मण विवाह करेगा? मेरे इस समय लौट जाने पर क्या कोई विश्वास करेगा कि मैं अपने धर्म में पवित्र हूँ। मैं घर लौटकर किस तरह मुँह दिखाऊँगी।”23 (बंकिम समग्र, पृ. 390)
बंकिमचंद्र की भाषा का भोलापन इस उद्धरण में नहीं है। आगे चलकर इस कहानी में दलनी बेगम का प्रवेश होता है जो परिस्थितिवश बेगम होते हुए भी तत्काल एक हिंदू घर में शरण लेने के लिए बाध्य है। बंकिमचंद्र कथा के इस स्थल पर कहते हैं – “ इसी घर के दूसरे भाग़ में एक दूसरे व्यक्ति सोए हुए हैं। यहाँ उनका कुछ परिचय देना होगा। उनका चरित्र लिखते-लिखते शैवालिनी के पाप से सनी हुई मेरी लेखनी पुण्यमयी हो जाएगी।”24 (वही, पृ. 399)
बंकिमचंद्र की भाषा का भोलापन इस कथन में है। उपन्यास की अब तक की संक्षिप्त कहानी से शैवालिनी का पाप स्पष्ट हो चुका है। पापिनी शैवालिनी आगे चलकर एक और पाप करती है। बारह वर्षीय शैवालिनी का विवाह बत्तीस वर्षीय चंद्रशेखर से हुआ था। अपने आठ वर्षीय वैवाहिक जीवन में शैवालिनी चंद्रशेखर के लिए प्रताप को नहीं भुला पाती। प्रताप से वह अब भी प्रेम करती है। यहाँ पर शैवालिनी के वैवाहिक जीवन की एक झलक देख लेना उचित होगा – “हाय, क्यों मैंने इसके साथ विवाह किया? यह फूल तो राजा के मुकुट में शोभा पाता। क्यों मैंने शास्त्र के मनन में लीन ब्राह्मण पंडित की कुटी में यह रत्न ला रखा?”25 (वही, पृ. 396)
किंतु चंद्रशेखर का ऐसा सोचना शैवालिनी के पाप को कम नहीं कर सकता। बंकिमचंद्र शैवालिनी पर बस इसी क्षण के लिए सदय होते हैं। अपने इस कथन से वे शैवालिनी के प्रेमशून्य जीवन का चंद्रशेखर के मुँह से उल्लेख करवाकर उसकी क्षतिपूर्ति का क्षीण और अनमना-सा प्रयास करते हैं, किंतु अपने पापों का प्रायश्चित तो उसे करना ही होगा। प्रायश्चित भी कठोरतम। शैवालिनी के इन पापों के लिए बंकिमचंद्र उसके लिए घोर नरक की यातना का विधान करते हैं।
शैवालिनी का प्रायश्चित आरंभ होता है – शैवालिनी ने अँधेरे में पर्वत पर चढ़ना आरंभ किया। अँधेरे में पत्थर के टुकड़ों की ठोकर से उसके दोनों पैर बुरी तरह घायल हो गए। इन छोटी लता-झाड़ियों में रास्ता मिलता नहीं था, काँटों में, टूटी हुई डालियों के अगले सिरे में या निकली हुई जड़ों के अगले भाग में लगकर कट जाने से उसके हाथ-पैरों सभी से खून गिरने लगा। शैवालिनी का प्रायश्चित आरंभ हुआ। इससे शैवालिनी को दु:ख नहीं हुआ। शैवालिनी अपनी इच्छा से इस प्रायश्चित में लगी थी। इतने दिनों तक घोर पाप में डूबी हुई थी। अब दु:ख भोगने से क्या वह पाप किसी प्रकार मिट जाएगा?
इसके पश्चात् बंकिम ने उन घोर यातनाओं का विस्तार से वर्णन किया है। मैं यह लंबा उद्धरण विस्तार-भय से छोड़ रही हूँ। उपन्यास में यह प्रसंग अत्यंत लंबा है। अत: शैवालिनी को प्रायश्चित करना है। व्यावहारिक रूप से उसे प्रायश्चित स्वरूप बारह वर्ष का व्रत करना है, जिसमें उसे झोंपड़ी में रहना है, भूमि पर सोना है, केवल फल-मूल-पत्ते खाने हैं, जटा रखनी है और साथ ही संध्या को एक बार भीख माँगने गाँव जाना है। छुटकारा यहीं नहीं है, भीख माँगते समय गाँव-गाँव में अपने पापों को कहना है। स्मरण रहे, केवल कठिन प्रायश्चित ही नहीं, पुन:पुन: अपने पाप की सस्वर सार्वजनिक स्वीकारोक्ति भी। इन सबके अतिरिक्त शैवालिनी को कंदरा में सात दिनों तक रहकर साधना करनी है। यहाँ हम शैवालिनी के पाप का पुन: स्मरण कर लें – उसने विवाहित होकर प्रताप से मन ही मन प्रेम करने का पाप किया है।
बंकिमचंद्र के यहाँ खल पुरुष पात्र, चाहे जिस प्रकार के और चाहे जितने खल हों, उनके लिए ऐसा कोई प्रायश्चित विधान अथवा नर्क की रौरवता नहीं है। कहना न होगा कि स्त्री-पुरुष के चरित्र को मापने के बंकिमचंद्र के मानदंड अलग-अलग हैं। पुरुष सशक्त है, दंड से परे है, नारी पराधीन है, शासित किए जाने योग्य है। बंकिमचंद्र की नायिकाएँ एवं स्त्री पात्र इस बात को भली भाँति समझती भी हैं। ‘दुर्गेशनंदिनी’ की विमला का यह कथन इस संबंध में प्रतिनिधि कथन माना जा सकता है – “स्त्रियों का परिचय ही क्या जो कुल की उपाधि धारण नहीं कर सकती, वह किस नाम से अपना परिचय दे? छिपकर रहना ही जिसका धर्म है, वह किस तरह आत्मप्रकाशन करे? स्त्रियों के अभाग्य की बातें आपके सामने क्या कहूँ। हम स्त्री जाति सहज ही अविश्वसनीय है।”26 (वही, पृ. 3-4)
यहाँ पर विमला व्यंग्य नहीं कर रही है और न ही बंकिमचंद्र व्यंजना में कोई बात कर रहे हैं। यह कथन सीधा-सादा अभिधा में है।
पहले भाषा के लिए भोलेपन की बात कही जा चुकी है। उसके लिए एक और उदाहरण देना आवश्यक है। बंकिमचंद्र के नारी पात्र प्रेम की पवित्र अवस्था में भी अपनी नगण्यता का ध्यान रखते हैं। ‘राधारानी’ की नायिका राधारानी अपने होने वाले पति देवेंद्र नारायण से कहती है – “शुभ लग्न में यह अधम नारी शरीर आपको देकर राधारानी ऋण्मुक्त होगी।”27 (वही, पृ. 478) प्रेम के क्षणों में भी स्वाभाविक रूप से अपने को अधम मानना एक ऐसी सुचिंतित और सुनिश्चित विचारधारा का परिणाम है जिसमें शोषित समाज सहज रूप से अपनी स्थिति को स्वीकार कर लेता है। इस प्रकार की धारणाओं पर प्रश्न उठाना तो दूर, वह इन मान्यताओं के पक्ष में तर्क देने लगता है। बंकिमचंद्र के नारी पात्र इसका उपयुक्त उदाहरण हैं। बंकिमचंद्र ने अपने उपन्यासों के कथानक गठन एवं समस्याओं के निरूपण निदान में जिस शैली का प्रयोग किया है, उसमें भी उनकी सुचिंतित विचारधारा है। बंकिमचंद्र ने अपने आदर्शों के अनुरूप ही उपन्यासों का अंत भी किया है। समस्या का समाधान रचना के अंत को प्रभावित करता है, विचारधारा संरचना को प्रभावित करती है। बंकिमचंद्र की नारी संबंधी विचारधारा ने उनके उपन्यासों के संपूर्ण ढाँचे को प्रभावित किया है। बंकिमचंद्र में स्त्री-पुरुष भेदभाव इतना बढ़ा हुआ है कि वे नारी-पुरुष की नींद के लिए भी भिन्न विधान करते हैं। ‘कपाल कुंडला’ में जंगल में भटके नवकुमार हिंसक पशुओं के भय से बहुत देर तक इधर-उधर घूमते हैं, किंतु अंत में थक जाते हैं। बंकिमचंद्र लिखते हैं – “जब शारीरिक कष्ट और मानसिक चिंताएँ एक साथ आ जाती हैं और अस्थिर कर देती हैं तो उस समय कभी-कभी नींद भी आ जाती है। नवकुमार चिंतामग्न अवस्था में निद्रित होने लगे। मालूम होता है, प्रकृति ने ऐसा नियम न बनाया होता तो मारे चिंता के आदमी की मौत हो जाती।”28 (वही, पृ. 97)
किंतु प्रकृति का यह नियम स्त्री पर लागू नहीं होता। ‘चंद्रशेखर’ में फॉस्टर की नौका से उद्धरित शैवालिनी को प्रतापराय का नौकर रामचरण घर लेकर आता है। शैवालिनी को बुलाए जाने पर रामचरण उसके कमरे तक जाता है – “रामचरण ने आकर देखा, लोग सुनकर अचरज करेंगे कि शैवालिनी नींद में थी। इस दशा में नींद नहीं आती। आती है या नहीं, हम नहीं जानते। हम तो जैसा हुआ वैसा लिखते हैं। रामचरण ने शैवालिनी को जगाया नहीं, उसने लौटकर प्रताप से कहा, ‘वे सो रही हैं, जगा दूँ क्या?’ सुनकर प्रताप अचरज में पड़ गए। मन ही मन कहा, ‘चाणक्य पंडित लिखना भूल गए कि स्त्रियों की नींद पुरुषों से सोलह गुनी होती है।”29 (वही, पृ. 405) यद्यपि शैवालिनी सोई नहीं थी, आँखें मूँदकर अपनी दशा पर विचार कर रही थी, किंतु विपत्ति में क्लांत स्त्री की निद्रा भी आपत्तिग्रस्त पुरुष से भिन्न ही होनी चाहिए। बंकिमचंद्र के उदाहरण से ही कहें तो इसे ब्राह्मण-शूद्र वैषम्य कहना अधिक उचित होगा।
असल में उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय नवजागरण में स्त्री-प्रश्न को उस उदारता से संबोधित नहीं किया जिसकी आवश्यकता थी। हालाँकि अपनी सदी के, पिछली सदी के कर्मों को दोषी ठहराना उचित नहीं और फिर इस सदी के अपने मानदंड इसके लिए कम उत्तरदायी नहीं हैं, पर उन पर चर्चा फिर कभी।