लेखकों की पत्नियां शृंखला में इस बार पढ़िए हिंदी के फक्कड़ और स्वाभिमानी लेखक विष्णु चन्द्र शर्मा की पत्नी के बारे में। विष्णु जी ने मुक्तिबोध, काजी नज़रुल इस्लाम आदि की जीवनियां लिखीं। हिंदी साहित्य में वे “कवि” तथा “सर्वनाम” पत्रिका के संपादक के रूप में समादृत हैं। बाबा नागार्जुन त्रिलोचन के मित्र रहे।
हिन्दी के प्रसिद्ध कथाकार आलोचक महेश दर्पण उनकी पत्नी के बारे में बड़ी आत्मीयता से बता रहे हैं।
“स्नेेहमयी पुष्पा जी”
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– महेश दर्पण
सादतपुर उन दिनों इतनी घनी बस्ती नहीं थी। हमारे घर से चार-पांच गली आगे के घर भी दूर से नज़र आ जाते थे। यह सन् 1974 की बातें हैं। मेरी मित्रमंडली में कथाकार रमाकांत के कुछ बेटे भी शामिल थे। लिहाज़ा उनके यहाँ आना-जाना लगा ही रहता था। एक दिन उनके घर पर एक स्नेहमयी महिला को देखा तो लगा कि पहले भी इन्हें कहीं देखा है। बातों-बातों में पता चला कि यह पुष्पा जी हैं जो कवि-कथाकार-सम्पादक विष्णु चंद्र शर्मा की पत्नी तो हैं ही, हर रोज़ मेरी बहन (रुचि) को अपने साथ लेकर लेडी इरविन स्कूल भी जाती हैं। कभी उन्हें बहन के साथ मैंने बस में आते-जाते ही देखा होगा। रमाकान्त जी के बच्चों की वह ‘चाची जी’ थीं तो मैं उन्हें ‘आंटी’ कहने लगा।
रमाकान्त बनारस से ही विष्णु चंद्र शर्मा के मित्र थे। दिल्ली आकर भी यह दोस्ती बनी रही। रमाकान्त ही उन्हंे सादतपुर लेकर आये। यहाँ गली नंबर पांच में पुष्पा जी का घर कालोनी के बच्चों के लिए हरदम खुला रहता। रमाकान्त का कोई न कोई बेटा उनके घर पर बना ही रहता। उन्हीं के साथ पुष्पा आंटी के घर में मेरी आवाजाही भी शुरू हो गई।
विष्णु चंद्र शर्मा से मेरी आत्मीयता तो बाद में बनी। पहले श्रीमति पुष्पा शर्मा ने ही मुझ पर अपने स्नेह की वर्षा की। मैं उन्हें देखता तो देखता रह जाता। बड़ी-सी बिंदी लगाए मुस्कान लिए प्यार भरे शब्दों में वह बहुत जल्द हर किसी को अपना बना लेतीं। पर मेरी मामी सावित्री पंत से उनकी खूब छनने लगी। वह भी शिक्षिका रह चुकी थीं और दोनों का प्रिय क्षेत्र शिक्षा ही था। उन्हीं के कारण मेरी बहन (मामा जी की बेटी) रुचि का एडमिशन लेडी इरविन स्कूल में हुआ था। पहले एडमिशन, फिर प्रायः रोज़ का साथ।
मैं जब भी उनकी उपस्थिति में उनके घर जाता, बगैर कुछ खाए-पिए न लौट पाता। विष्णु जी अपने पठन-लेखन में लगे रहते और वह खूब बातें करतीं। उनका खुला घर, बगीचा, फलों के पेड़ हम लोगों के लिए वह एक अलग ही आकर्षण निर्मित करते थे। लौटते वक्त वह कभी पेड़ से तोड़कर अमरूद थमा देतीं तो कभी बेल से फ्रेंचबीन्स।
उनके मौसा (जो सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज में रह चुके थे) आते, तो उनसे भी खूब बातें होतीं। वे यह मानते ही न थे कि नेता जी सुभाष चन्द्र बोस का निधन हो चुका है। वह कश्मीरी गेट के पास एक बस्ती में बने अपने घर से आया करते थे, जहाँ बाद में हम लोग भी आने-जाने लगे। कभी-कभार पुष्पा आंटी के भाई उमेश भी पटना से आते, तो हम लोग खूब बतियाते। उन्होंने ही मुझे बताया था कि ‘हम लोग तीन भाई, तीन बहन हुए। पुष्पा जी दूसरे नंबर की बहन थीं, जो मुझसे करीब दस-बारह बरस बड़ी थीं। उनकी स्मृति में उनकी छवि उन्हें पढ़ते हुए या पढ़ाते हुए देखने की ही रही। वह खुद पढ़ने में बहुत अच्छी थीं। काॅलेज से पढ़कर लौटतीं, तो पास-पड़ोस के बच्चों को पढ़ाने में लग जातीं। विवाह पूर्व वह बी.ए. कर चुकी थीं।’
इन छह भाई-बहनों के पिता सुरेश प्रसाद तिक्खा और मां तारादेवी थीं। पिता आगरा में एक चश्मे की दुकान पर काम करते थे। जब उसकी एक शाखा पटना में खोलने की बात हुई तो सुरेश जी पटना पहुंच गए। वहां उनका ससुराल भी था। परिवार के साथ वह पटना आ ज़रूर गए, पर सन् 1951 के आसपास उनके निधन के कारण परिवार की गाड़ी फिर तारा देवी को ही खींचनी पड़ी। पुष्पा जी की मां बड़ी संघर्षशील महिला थीं। निकट से जानने वाले उन्हें मर्दों से भी अधिक हिम्मती बताते हैं। उन्हीं के संरक्षण में नया टोला, पटना के आर्य कन्या उच्च विद्यालय में पुष्पा जी की प्रारंभिक पढ़ाई और फिर मगध महिला काॅलेज से ग्रेज्युशन पूरी हुई।
आज पुष्पा जी को करीब से देखे समय की याद करता हूं, तो लगता है उन्होंने शांत, सौम्य स्वभाव और संघर्ष का माद्दा अपनी माँ से ही पाया होगा। जो लोग विष्णु चंद्र शर्मा के व्यक्तित्व से परिचित हैं, वे जानते हैं कि उनके साथ पत्नी के रूप में जीवन बिताना सहज कार्य न रहा होगा। फिर भी वह घर और शिक्षा को आजीवन समर्पित रहीं।
विष्णु जी से विवाह के उपरान्त पुष्पा जी को बनारस में परिवार के साथ रहना था। ये शुरुआती दिन कैसे रहे होंगे, यह आप विष्णु जी की भाषा में सहजता से समझ सकेंगे- ‘‘शादी के बाद मुझे पता चला कि अब मुझे घर में अपने और पत्नी के पच्चीस-पच्चीस रुपये मासिक देने होंगे। मेरी पत्नी बी.ए. थी। कुछ स्कूलों में पढ़ाकर अपने भाइयों को पढ़ाती थीं। घर पर माँ ने दो-तीन रिक्शे कसवा दिए थे, जो किराये पर चलते थे। शादी के बाद मेरे भाई ने पुष्पा से पहला सवाल यह पूछा- ‘तुम बी.एड यहाँ करोगी या पटना में?’ उसने कुछ नहीं कहा।’’
विष्णु जी उन दिनों अपने घर की स्थिति बताते हुए कहते थे- ‘मेरे घर में चार कमरे थे। एक पूजा घर था। इसी में मेरा और पत्नी का बिस्तरा लगता था। तीन कमरे भाई के पास थे। शादी की पहली रात थी और मेरी पत्नी पूजा घर में अपने बिस्तर पर फूट-फूट कर रो रही थी।’
यह एक बदला हुआ माहौल था। पुष्पा जी की मां के घर से एकदम अलग। इसीलिए संभवतः पुष्पा जी ने पटना से बी.एड करना तय किया होगा। बस, शर्त उन्होंने यह रखी कि विष्णु जी को हर महीने पटना आना होगा। इस पर पति का जवाब था- ‘मैं तुम्हें सौ रुपया महीना दूंगा। तुम वहां बी.एड. ईमानदारी से करो।’
पुष्पा जी परेशान इस बात पर थीं कि पति के पास क्या बचेगा! पच्चीस रुपये तो वह घर में खाने के लिए दे देंगे। पर पति को विश्वास था कि वह अपने श्रम से इतना तो कर ही लेंगे कि मां को अपमान का घूंट न पीना पड़े। उन दिनों विष्णु जी सभा में प्रेस मैनेजर थे। हर सप्ताह ‘आज’ में कुछ न कुछ लिखते भी थे।
जिन पुष्पा आंटी को हमने सादतपुर में देखा, वह पटना से बी.एड करके दिल्ली के प्रतिष्ठित लेडी इरविन स्कूल में पढ़ा रही थीं। प्रवाहमय बंगला बोलते हुए बाबा नागार्जुन के साथ मैंने उन्हें देखा है। वह उनके साथ खाट पर बैठी चावल भी बीनती रहतीं और धाराप्रवाह बतरस का आनंद भी लेती रहतीं। बाबा से विष्णु जी की बोलचाल बंद हो जाये तो हो जाए, वह पुष्पा जी से बतियाने चले आते। जाने कितने लेखक (हर वय के) विष्णु जी से मिलने या घर पर ही ठहरने को आ जाते, पर पुष्पा जी के चेहरे पर कभी शिकन तक नज़र नहीं आई। लेखकों से उनका एक अलग आत्मीय रिश्ता था। त्रिलोचन हों, मुंशी जी हों, विश्वनाथ त्रिपाठी हों, केदारनाथ सिंह हों करुणानिधान, या माहेश्वर, सुरेश सलिल, हरिपाल और राजेंद्र प्रसाद सिंह। जब कभी रमाकान्त और विष्णु में अबोला हो जाता, पुष्पा जी से ही मिलकर रमाकांत चले जाते। वह इन तनाव भरे दिनों में दोनों मित्रों के बीच पुल का काम करतीं। विष्णु जी कुछ अलग करना चाहते, तो वह खुश होतीं। अपनी परेशानी को लेकर कभी उन्होंने कुछ सोचा भी हो, याद नहीं पड़ता।
स्कूल जाने से पहले वह खाना बनाकर रख जातीं। थकी-हारी लौटतीं, तो कुछ देर के आराम के बाद उनका शाम का काम शुरू हो जाता। कालोनी के कुछ घरों में उनकी अच्छी आवाजाही थी। पता नहीं क्यों, अचानक एक रोज़ से उन्होंने मुझे महेश जी कहना शुरू कर दिया। मेरी पत्नी को भी उनका भरपूर स्नेह मिला।
उनका व्यवहार अपने शेरू के साथ कैसा लगाव भरा रहा होगा, यह इसी से समझा जा सकता है कि साल भर का वह पालतू पशु पुष्पा जी के बीमारी के दिनों में जंजीर खुलाकर उन्हीं के पास दौड़ा चला आता। वह परेशान होतीं तो संूघने लगता। ज़मीन पर उलटा लेट लडि़याता। उनके निधन के बाद दो दिन तक ऐसा उदास पड़ा रहा कि क्या कहूं! जो शेरू इससे पहले किसी भी आगंतुक के गेट खोलते ही भौंक पड़ता था, अब जैसे सब भूल चुका था। उसको आंटी का न रहना इस कदर खल रहा था कि आंखें मिलते ही कहीं रो न दे।
बाद में जब घर पर काम करने आने वाली सेठानी को एक दिन उसने आंटी की साड़ी पहने क्या देख लिया, जैसे पागल ही हो गया। पुष्पा जी जैसी सदाशयता, प्रेम, अपनत्व और सहयोगी भावना मैंने कम ही स्त्रियों में देखी है। उनकी जीवन-यात्रा 21 जुलाई, 1939 से 28 दिसंबर, 2000 तक जाने क्या कुछ देख-सुन गई होगी!
याद आ रहा है जब उन्हें कार पर हम पंत अस्पताल ले जा रहे थे, अचानक पिछली सीट पर उनका हाथ मेरे हाथ में ढुलक ही तो गया था। और फिर उनकी स्मृति में सभा भी उसी कमरे में हुई थी, जहाँ 28 तारीख की रात उनका पार्थिव शरीर रखा गया था। उस रोज़ रात को बहुत कम लोग थे उनके आसपास, पर स्मृति सभा में जगह कम पड़ गई थी। सीडि़यों तक लोग बैठे हुए थे। यह स्वाभाविक भी था। उन्होंने यह सम्मान सबका सम्मान करके ही अर्जित किया था। वह साफ बात करने में यकीन करती थीं और किसी को दुख न देती थीं। उनकी सोच में अधिकतर दूसरों के लिए होता। जाने कितने बच्चों की पढ़ाई का खर्च वह उठाती थीं और कितने असहायों की अलग-अलग ढंग से मदद करती थीं। उनकी अलमारी सदा आत्मीयों को देने वाले उपहारों से भरी रहती थी। वह अपनी मां के लिए बेटे की तरह थीं तो हर किसी को अपने परिवार का सदस्य ही बना लेती थीं। जैसे अशोक, रत्नेश गुप्ता, श्रीकांत, अतनु और मुझ जैसे अनेक आत्मीयों को उन्होंने अपना बनाया।
वही थीं, जिनकी वज़ह से, उनके चले जाने के बाद भी विचंश सादतपुर का घर नहीं छोड़ पाये। उनका निर्णय था- यहीं रहूंगा। वह यहां से अस्पताल गई थी, फिर उसकी मिट्टी यहाँ से उठाई थी। मैं भी अपनी मिट्टी यहीं छोड़ जाऊंगा। फिर इसके बाद 2001 में ‘सर्वनाम’ में उनका वह उपन्यास प्रकाशित हुआ था ‘दिल को मला करे है’ जो शायद किसी रचनाकार का अपनी पत्नी की स्मृति में लिखी अब तक की सबसे अनूठी कृति है।
आज वह दृश्य याद आता है, जब विचंश गेट पर खड़े पत्नी को स्कूल के लिए जाते हुए देर तक देखते रहते थे। यह जाना आज जैसा सामान्य जाना न था। तब बहुत कम बसें चला करती थीं और रोज़ सादतपुर से लेडी इरविन तक जाना कोई हंसी-खेल न था। आज सोचता हूं, उनका यह श्रम कितना विकट रहा होगा! और सोचता यह भी हूं कि वह न होतीं, तो क्या विचंश इतनी विविध और महत्वपूर्ण साहित्य-सेवा कर पाते! जो कुछ वह कर सके उसमें पुष्पा जी का बड़ा योगदान रहा।