Thursday, November 21, 2024
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मेरा औरतपन उन्होंने मेरे सिर से हटा दिया

यादवेंद्र

हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और अनुवादक यादवेंद्र जी पिछले तीन दशक से भी अधिक समय से हिंदी की दुनिया में सक्रिय हैं। विश्व साहिय में उनकी गहरी रुचि है और दुनिया में घट रही घटनाओं पर उनकी पैनी नजर रहती हैं। स्त्रियाँ उनके लेखन के केंद्र में रहती हैं।यहाँ प्रस्तुत है उनका लेख।

(इस्लामी क्रांति के दो साल बाद 1981 में तेहरान में खुले विचारों वाले कुर्द मूल के परिवार में जन्मी जाराह घहरामानी को बीस वर्ष की उम्र में युनिवर्सिटी में छात्र प्रदर्शन में भाग लेने के बाद अचानक पकड़ लिया गया और एक महीने तक कुख्यात एविन जेल में बंद रखा गया और क्रूर यातनाएँ दी गईं ।उनके ऊपर ईरान की जनता के खिलाफ लोगों को भड़काने का इल्जाम लगाया गया। बाद में बार बार जब उन्हें दुबारा पकड़ने की सुगबुगाहट सुनाई देने लगी और अपरिचित नंबरों से धमकी भरे फोन आने लगे तो परिवार ने यह तय किया कि आगे की पढ़ाई के लिए वे देश से बाहर चली जाएँ। ईरान के बारे में लिखने वाले एक ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार दंपति के साथ एक फेलोशिप लेकर जाराह घहरामानी ऑस्ट्रेलिया आ गयीं और अब वहीँ रहती हैं। 2007 में उन्होंने “मांई लाइफ ऎज ए ट्रेटर : ऐन ईरानियन मेमॉयर ” शीर्षक से अपने जेल अनुभव को ऑस्ट्रेलियन लेखक रॉबर्ट हिलमैन के साथ मिल कर किताब में संकलित किया – उन्होंने शुरूआती पाण्डुलिपि फ़ारसी में लिखी जिसे दोनों ने मिलकर व्यापक पाठकवर्ग मिलने की उम्मीद में अंग्रेजी में लिखा।मराठी सहित कुछ अन्य विदेशी भाषाओँ में इसके अनुवाद हुए हैं।)

यहाँ प्रस्तुत है उनके जेल अनुभवों पर आधारित संस्मरण के कुछ अंश :

वैसे तात्कालिक आरोप यह लगाया गया कि मैंने सिर ढँका हुआ नहीं था और मेरे बाल खुले थे जो ईरानी हुकूमत की आँखों में किसी औरत का सबसे बड़ा जुर्म है । निर्मम यातना और बार-बार की लंबी पूछताछ के बाद जेल से जब मुझे छोड़ा गया तब भी शहर से काफी दूर एक निर्जन स्थान पर ले जाकर गाड़ी से उतार दिया गया जहाँ से मैं बिल्कुल परिचित नहीं थी। मैंने अपने पापा को फोन करके बुलाया। वे आए तो एक दूसरे को देर तक आगोश में लेकर हम दोनों खड़े खड़े रोते रहे।
घर जाने के बाद अन्य बहनें भी आ गईं और जैसे छोटे बच्चों की परवरिश की जाती है वैसे सभी बच्चों के लिए पापा ने नाश्ता तैयार किया। सबसे ज्यादा आश्चर्य वाली बात थी कि सब कुछ एकदम सामान्य लग रहा था जैसे कुछ हुआ ही न हो। यह बहुत चौंकाने वाली बात थी कि किसी ने मुझसे एक महीने में मेरे साथ क्या हुआ, मैं कहाँ रहीं और कैसी रहीं – किसी ने इस बारे में कुछ नहीं पूछा।सब लोग एकदम सामान्य ढंग से बैठ कर नाश्ता करते रहे।
उसके बाद मैं नहाने चली गई और बाथरूम में मैंने एक महीने बाद अपना चेहरा पहली बार देखा… और चेहरे को देखकर मैं एकदम भौंचक्का रह गई, डर गई। मैंने बड़ी मुश्किल से चीखने से खुद को रोका, मैंने अपने मन को यह दिलासा दिया कि जब मेरे परिवार ने मुझे इस दशा में इस शक्ल सूरत में देखा तो उनके ऊपर क्या गुजरी होगी… और उससे भी बड़ी बात कि उन्होंने इस बारे में मुझसे एक शब्द नहीं कहा। मेरे लिए यह वाकई बहुत हताश करने वाली बात थी… सही कहूँ तो मैं उस पूरे एक महीने की घटनाओं के बारे में खुल कर तफसील से बात करना चाहती थी। अब कई साल बीत जाने के बाद मैं पूरा वाकया याद करती हूँ तो मुझे लगता है कि परिवार ने तब वही किया जो उस स्थिति में सबसे उपयुक्त कदम हो सकता था। उनके लिए वह बहुत मुश्किल भरा दिन था, कितनी मुश्किल से उन्होंने अपने को बिफरने से रोका होगा। मैं इस बारे में आश्वस्त हूँ कि दरअसल वे उस एक महीने के बारे में कुछ भी जानना नहीं चाहते थे – और यह कड़वा सच है।
बाद के महीनों में जब मेरे जीवन में उदासी के अवसाद के क्षण आते तो मुझे खुद से नफरत होने लगती थी। मैंने अपने आपसे पूछा: तुम ने ही अपने परिवार को इतनी मुश्किल में डाला और अब डिप्रेस हो रही हो… तुम डिप्रेस होने की जुर्रत कैसे कर सकती हो?
यह विचार आते ही मैं सभी लोगों को बहलाने की हँसाने की कोशिश करतीं। मैं उनसे कहती: जो बीत गई सो बात गई … मैंने उसे भुला दिया,सब कुछ मैंने दिमाग से निकाल दिया तो आप लोग क्यों परेशान हो रहे हो? आप भी अपने जीवन से वह एक महीना निकाल दो। लेकिन कहना आसान है, सच्चाई है कि पूरे परिवार के बीच लगातार एक अनकहा खौफ़ बैठा रहा कि वे मुझको चैन से नहीं रहने देंगे… जल्दी ही किसी न किसी बहाने फिर से उठा लेंगे। जब कभी शाम को घर लौटने में कुछ मिनट की भी देर हो जाती थी तो घर पहुँचने पर माँ की दशा देखने लायक होती – डर से काँपती हुई और बेटी को देख कर जोर से चिल्लाना शुरू कर देती :कहाँ थीं तुम अब तक? तुमने मुझे फोन क्यों नहीं किया? जब मैंने फोन किया तो फोन उठाया क्यों नहीं? उनकी दशा सबसे ज्यादा खराब थी और अंदर ही अंदर वे घुली जा रही थीं… इसलिए जेल से निकलने के बाद सामान्य जीवन में वापस लौटना बहुत मुश्किल था और सब के सब पहले जैसे जीते थे वह सहजता एकदम से गायब हो। हम सब लोग पहले वाले लोग नहीं रहे गए थे।
सुनने में भले ही थोड़ा अजीब लगे और यह अविश्वसनीय भी लगता है – हमारे सामने जो कुछ भी परिस्थितियाँ आती हैं हम उनके हिसाब से काम करने लगते हैं, हम वैसे ही ढल भी जाते हैं। कोई नियम नहीं रहता दिन हो या रात हो जब भी आप नींद से जागते हैं, आप उठ कर बैठ जाते हैं….कुछ सोचने लगते हैं क्योंकि और कुछ करने को है ही नहीं। यदि शरीर में मेरे जान रहती थी और मारपीट की वजह से चलने फिरने में मुश्किल न महसूस करती तो मैं कोशिश करती थी कि थोड़ी कसरत कर लूँ । मैं बैठकर कुछ सोच विचार करने लगती थी या उस साथी कैदी से बात करने लगती थी जो मेरे ठीक ऊपर रहती थी।
या फिर रोने लगती थी, कई बार गुस्सा करने लगती थी या कुछ भी – मुझे नहीं मालूम मैं क्या करूँगी । आप चुपचाप वहाँ बैठे रहें और आपके सामने करने को कुछ न हो …बस, आपको अपने आप को जिंदा रखना है और जो कुछ भी आपके सामने है उसमें अपने आप को किसी तरह से खुश रखने की कोशिश करनी है। जेल की छोटी सी कोठरी में जो कुछ भी आपको मिल गया यह मान कर चलो कि वह खुदा की नेमत है – बस आप मारे नहीं गए अभी तक जिंदा हो और साँस ले पा रहे हो। अपनी टाँगें थोड़ी बहुत इधर उधर हिला पा रहे हो, यह भी बड़ी बात है। आपके मन में जेल के अंदर रहते हुए यह बात घर कर जाती है कि अब ये आखिरी दिन हैं, अब कभी छूटना नहीं है यहाँ से। कोई परिस्थिति बदलनी नहीं है इसलिए जो है इसी के साथ काम चलाओ, परिस्थितियों के साथ समझौता कर लो।
अपने कैद की अवधि का जो सबसे कठिन और क्रूरता से भरा हुआ मौका था वह था जब उन्होंने मेरे सिर के बाल छील दिये। मैंने पहले कभी सोचा भी नहीं था कि ऐसा होगा और जब यह नहीं सोचा तो यह कैसे सोचती कि ऐसा होगा तो कैसा लगेगा। लेकिन यह मेरे लिए इतनी बड़ी घटना थी … यह मेरा औरतपन था जो उन्होंने मेरे सिर से हटा दिया। मेरे पिता मेरे बालों को बहुत प्यार करते थे, मैं खुद भी अपने बालों से बहुत प्यार करती थी। जेल के गार्ड भली-भाँति जानते हैं कि आपके साथ ऐसा क्या किया जाए जिससे आपको सबसे ज्यादा भावनात्मक धक्का लगे, आपका मनोबल टूट जाए। यह काम करना उन्हें बहुत अच्छी तरह से आता है… इस में वे माहिर होते हैं।
जेल में रहते हुए अपनी पहली जिरह के बारे में जाराह घहरामानी अपनी किताब में लिखती हैं :
वह लंबा तगड़ा और गंजा आदमी था और उसके शरीर से तेज बू आ रही थी – मुझे नहीं मालूम कि यह बदबू उसकी साँसों से आ रही थी या उसके शरीर से आ रही थी… बहुत गंदी जैसे सड़े हुए गोश्त की गंध हो।
करीब 50 साल होगी उसकी उम्र, बिखरी हुई खिचड़ी दाढ़ी। उसने एक लंबी सी कमीज पहनी हुई थी जो उसके पतलून के ऊपर नीचे तक लटकी हुई थी।
मुझे उसे देखकर समझ में आ गया कि मुझे उस स्थिति में बैठे हुए देखकर वह मजे ले रहा है और बेशक अभी तो उसके मजे की शुरुआत थी। मेरे बारे में उसने संक्षेप में बताया:
यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली
मध्यवर्ग की एक बेहद लाड़ प्यार में पली प्यारी राजकुमारी
सड़कों पर हुकूमत के खिलाफ राजनीति करने वाली लड़की।
मैं उसके सामने और कुछ नहीं बस एक खिलौना थी । हो सकता है वह मुझसे नफरत करता हो लेकिन उसकी नफरत की खुराक मैं ही तो हूँ – यह नफरत मैं ही उसे मुहैय्या भी करवाऊँगी ।
मैं सोचती रही कि मैंने ऐसा क्याकर दिया है कि मुझे जेल में डाल कर इस तरह पूछताछ की जाए – मैंने आज तक किसी को कोई नुकसान नहीं पहुँचाया, बंदूक से कोई गोली नहीं चलाई, न ही कभी किसी को पत्थर मारा। मुझे अपने जीवन की यह इतनी बड़ी विडंबना लग रही थी – मैं चाहती थी कि उसको यह मालूम हो कि मैं अमन पसंद और सबको प्यार करने वाली इंसान हूँ … किताबें पढ़ने वाली और दोस्तों के साथ बातचीत और जरूरत पड़ी तो बहस करने वाली लडकी। लेकिन ये बातें उस आदमी के लिए क्या मायने रखती थीं जो मेरे सामने खड़ा था। यदि उसे यह हुकुम हो कि मेरा कत्ल करना है तो पल भर में वह मेरा कत्ल कर देगा।
वह मुझे उस हालत में रख कर कुछ मिनट की मोहलत देता है जिससे कि मैं वास्तविकता को समझ जाऊँ । वह मेरे सामने एक डेस्क के पीछे बैठा है और थोड़ी देर तक गुमसुम बैठा रहता है, कुछ नहीं बोलता।
उसने बोलना शुरू किया –
“जाराह घहरामानी …
1981 में जन्म….
बर्थ सर्टिफिकेट नंबर 843,तेहरान से जारी किया गया….
ट्रांसलेशन की पढ़ाई करने वाली स्टूडेंट।
ठीक है न?”
“जी”, मैंने धीरे से जवाब दिया।
मेरा जवाब सुनना था कि उसने अपना एक हाथ उठाकर जोर से डेस्क पर दे मारा। अचानक का यह मंजर इतना डराने वाला था कि मैं अपनी कुर्सी से उछल पड़ी… डर के मारे मेरी ऑंखें उल्टी होने लगीं, लगभग आधी मुँदी । कुछ सेकंड लगे उन्हें सामान्य होने में।
“यूनिवर्सिटी में रहते हुए तुम इस देश का भविष्य बदलने का आंदोलन कर रही थी और यहाँ मुँह से आवाज नहीं निकल रही है…. क्यों?”,उसने चिल्लाते हुए पूछा।
मैंने पल भर को आँखें मूँद लीं और ईश्वर से प्रार्थना की कि वह मेरी जान बचा ले, मुझे सुरक्षित रखे।
“मैं तुमसे कुछ पूछ रहा हूँ न? सुनाई पड़ा? समझ में आता है या नहीं? जब मैं पूछ रहा हूँ तो जवाब दो…”
“हाँ , सुन रही हूँ “, मैंने जवाब में कहा लेकिन मुझे ऐसा लगा कि मेरी आवाज वहाँ से नहीं आ रही है जहाँ मैं बैठी हूँ ….कहीं और से दूर से मेरी आवाज आ रही है।
वह अपनी कुर्सी की तरफ झुकता है और अपनी दाढ़ी में उँगलियाँ फिराता है।
“तुम्हारा नाम क्या है?”, वह पूछता है और इस बार ढंग से पूछता है।
“जाराह घहरमानी” ,मैं जवाब देती हूँ ।
“पूरे विस्तार से बताओ,अपने बारे में सारे डिटेल्स”, इस बार वह चिल्लाता है।
मैं उसके चिल्लाने से डर जाती हूँ और आँख मूँद कर डर से उबरने की कोशिश करती हूँ ।
“जाराह घहरमानी”,मैं जवाब देती हूँ । इस बार मेरी आवाज न तो इतनी कोमल है कि उसे लगे मैं उसे चिढ़ा रही हूँ और न ही बहुत ज्यादा ऊँची है – आवाज ऊँची होने से यह संदेश भी जा सकता है कि मैं झगड़ने की कोशिश कर रही हूँ । मैं खुद ही समझने की कोशिश कर रही हूँ कि मेरा क्या कहना कैसे कहना और मेरे कहने का कौन सा टोन उसे बुरा लग जाएगा । एक बार यह समझ आ जाए तो मैं वैसा ही बर्ताव करूँ जिससे उसके गुस्से से बची रहूँ ।
“तेहरान में जन्मी
बर्थ सर्टिफिकेट नंबर 843
ट्रांसलेशन के कोर्स की विद्यार्थी
1379 में दाखिला लिया था।” मैं एक सुर में बोल गयी।
मेरे यह बताने पर शुरू में उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई – उसके सामने डेस्क पर जो कागज रखा था वह देखते हुए हाथ में पकड़ी कलम वह उँगलियों के बीच घुमाता फिराता रहा। मेरी निगाहें उसके हाथ उसकी मोटी उँगलियों पर जमी रहीं जैसे उनमें ही वह सारी शक्ति केन्द्रित थी जिससे वह मुझे अपने काबू में किए जा रहा था। मैं सोचने लगी कि उसके ये हाथ मेरा क्या क्या कर सकते हैं।हालाँकि उस समय मैं नहीं जानती थी कि ये हाथ मेरे दुःस्वप्न में लंबे समय तक जीवित रहेंगे और मुझे डराते रहेंगे…. यह भी नहीं जानती थी कि मैं उन हाथों को लेकर जिस तरह के डर से ग्रसित थी एक दिन उनकी छाया दूर दूर तक मेरे आसपास नहीं होगी,उनका डर खत्म हो जाएगा।
अब मैं अपने हाथ डेस्क पर रख लेती हूँ और बहुत सजग तौर पर कोशिश करती हूँ कि मेरा अपने ऊपर से नियंत्रण खत्म न हो। मैं अपने मन को समझाती हूँ कि अभी एक समझदारी भरी और तार्किक बातचीत हम दोनों के बीच शुरू हो पाएगी। मेरा मन कहता था कि उसके मन में भी कुछ करुणा शेष होगी – मैं उससे बात करने जा रही हूँ जैसे उसे मेरी हालातों की चिंता है और वह मेरी स्थिति को समझेगा हालाँकि अब तक उसने ऐसा कुछ नहीं किया था जिससे ऐसा लगे। मेरे मन की भावनाएँ मेरी इच्छाएँ अंधेरे में सीटी बजाने जैसी थी जिससे मेरी जलालत मेरा अपमान मेरा डर मन से निकल जाए, भले थोड़ी देर के लिए कुछ घंटों के लिए ही सही।
प्रकट रूप में वह मुझे नहीं देख रहा था लेकिन छुपी निगाहों से चोरी चोरी उसका मुझे देखना समझ आ रहा था। जब उसने देखा कि मैंने अपने हाथ डेस्क पर टिका दिए हैं तब पूछा :
” तैयार हो? आगे बढ़ें ?”
उसकी कड़क की आवाज सुनकर मेरा साहस डगमगाने लगा।
“किस बात के लिए तैयार?”
उसने मेरी ओर खा जाने वाली निगाहों से देखा।
“मैं सिर्फ और सिर्फ सवाल पूछता हूँ और बोलता नहीं ,जवाब नहीं देता। समझ में आया?”
“हाँजी”
फिर बगैर किसी कारण के अचानक वह ठहाके लगाकर हँसने लगा। उसके ठहाके सुनकर मुझे सादेग हेदायत के उपन्यास का “द ब्लाइंड आउल” का गंदा सा बूढ़ा याद आ गया। हेदायत लिखते हैं कि वह बूढ़ा जब हँसता था तब आसपास के लोगों के बाल खड़े हो जाते थे।
यदि मैं इतनी डरी हुई न होती तो इस बात पर मैं भी जरूर हँसती कि उसने किताबों और फिल्मों से कितने सारे बदमाशों और गुंडे मवालिओं के हाव भाव सीख रखे हैं।
“मालूम नहीं तुम्हें क्यों लाया गया है यहाँ ?”उसने पूछा
मैंने कोई जवाब नहीं दिया , चुप रही।
“नहीं ?”, उसने स्वयं अपने सवाल का जवाब दिया ……. “नहीं जानती हो न, बोलो ? तुम्हें यहाँ इसलिए लाया गया है क्योंकि इस मुल्क को तुम्हारी तरह के कूड़े कबाड़ की जरूरत नहीं है। ”
यह सुनकर नकार में सिर हिलाती हूँ …. मैं सिर्फ यह बताना चाहती थी कि मैं कोई कूड़ा कबाड़ नहीं हूँ हालाँकि नासमझी में बोल पड़ी : “लेकिन क्यों ?”

मेरा यह सवाल सुनकर वह अपने डेस्क के पीछे से मेरी तरफ बढ़ा और अपना सिर मेरे सिर के इतने करीब ले आया जिससे मुझे लगा कि उसकी दाढ़ी मुझे छू रही है।
“मैंने अभी तुमने बताया न कि मैं किसी का जवाब नहीं देता ? मैं सिर्फ सवाल करता हूँ। ”

(www.motherjones.com/ के जनवरी 2008 अंक में प्रकाशित इंटरव्यू और
“मांई लाइफ ऎज ए ट्रेटर : ऐन ईरानियन मेमॉयर ” जाराह घहरामानी एवं रॉबर्ट हिलमैन ( 2007 ) किताब पर आधारित )

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