मित्रो आज स्मिता पाटिल की स्मृति में हम लोग इस मंच से एक समारोह कर रहे हैं। शाम को वेबिनार है। अभी आप दो लेख स्मिता पाटिल पर पढ़िए। किस तरह स्मिता ने भारतीय
अभिनेत्रियों की पारंपरिक छवि बदलने का काम किया
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स्त्री सशक्तिकरण को नया अर्थ देने वाली स्मिता पाटिल
डॉ सुमिता
अपनी इयत्ता के प्रति पूर्ण सचेत, अपने ही तेज से संवलाई, सलोनेपन और विद्रोही तेवर के धाह से दीपित, बड़ी-बड़ी धारदार आँखों वाली बेहद संवेदनशील स्मिता पाटिल भारतीय सिनेमाकाश पर टिमटिमाता एक ऐसा विशिष्ट सितारा है जो अपने ‘होने’ की बुलंदी से हमेशा जगमगाता रहेगा। रंगमंच और सिनेमा की बेहतरीन अभिनेत्री स्मिता पाटिल असाधारण व्यक्तित्व की धनी एक बेहद जागरूक और सशक्त स्त्री थी। भारतीय सिनेमा के सौभाग्य की कमी ही थी कि स्मिता पाटिल को साँसों का खजाना देने में ईश्वर ने कंजूसी बरत दी थी। केवल 31 वर्षों की आयु मिली उन्हें जिसमें सिनेमा में उनका कार्यकाल केवल एक दशक का ही रहा। इतने कम समय में ही रुपहले पर्दे पर उत्कृष्ट अभिनय क्षमता का जैसा परचम उन्होंने फहराया, वह दुर्लभ है।राजनीतिक पिता, शिवाजीराव गिरिधर पाटिल, और समाजसेविका माता, विद्याताई पाटिल, की संतान स्मिता पाटिल का जन्म पुणे में 17 अक्टूबर, 1955 को हुआ था। इस बरस 17 अक्टूबर को वे पैंसठ साल की हुई होतीं।
उन्हें कैमरे से इतना लगाव था कि अपना करियर भी उन्होंने कैमरे के आसपास ही कायम किया। पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे मुम्बई दूरदर्शन में मराठी समाचार वाचिका बनी। श्याम बेनेगल की फिल्म “चरणदास चोर” से फिल्मों में अभिनय की शुरुआत हुई। श्याम बेनेगल के साथ उन्होंने कई महत्वपूर्ण फिल्में कीं और एक बेहतरीन अभिनेत्री के तौर पर स्थापित होने के साथ ही वे खुद एक बहुत अच्छी फोटोग्राफर भी थी। उन्होंने हिन्दी के साथ ही मराठी, गुजराती, मलयालम, कन्नड़ आदि कई भाषाओं में 80 से अधिक फिल्मों में काम किया।
स्त्री विषयक मुद्दों को लेकर बेहद मुखर स्मिता पाटिल स्त्रीवादी आंदोलनों से सम्बद्ध प्रखर स्त्रीवादी थी। पत्रकारिता और अभिनय को कार्यक्षेत्र चुनने के पीछे भी उनका दृष्टिकोण और विचार बेहद स्पष्ट था। उन्होंने उन्हीं फिल्मों और किरदारों को तरजीह दी जो पारम्परिक भारतीय समाज में स्त्री की चुनौतियों, उनकी यौनिकता और उनके अस्तित्व के संधान से सम्बन्धित थीं। आधुनिकता की ओर कदम बढ़ाते संसार में अनेकानेक मुश्किलों और मुसीबतों से जूझती हुई मध्यम वर्गीय जुझारू व सशक्त स्त्री की कई छवियों को रुपहले पर्दे पर साकार करने के उनके महत्वपूर्ण अवदानों का श्रेय उनकी गम्भीर और प्रखर स्त्रीवादी विचारधारा को ही जाता है। निजी जीवन में वे विद्रोही स्वभाव की थीं। जीन्स पहनना उन्हें पसन्द था। समाचार वाचन के लिए भी वे जीन्स के ऊपर साड़ी लपेटकर काम चला लेतीं।
भारतीय सिनेमा के इतिहास में 70 का दशक बेहद महत्वपूर्ण रहा है। इसी समय में समानांतर सिनेमा की धारा एक आंदोलन के तौर पर विकसित हुआ। इसके तहत लोकप्रिय, बड़े बजट की, बड़े सितारों वाली मसाला फिल्मों से अलग लोकधर्मी सिनेमा की कम बजट वाली, प्रतिभाशाली नए कलाकारों के साथ, गम्भीर, रोचक व प्रयोगधर्मी फिल्में बनाने का प्रचलन हुआ। कार्य और विचार के स्तर पर सुलझे डायरेक्टर्स इस आंदोलन की जमीन तैयार करने में लगे थे। इनमें मृणाल सेन, सत्यजीत रे, श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलानी, सईद मिर्ज़ा, कुमार साहनी, जी अरविंदन आदि विशेष रूप से मशहूर और महत्वपूर्ण थे। स्मिता पाटिल स्पष्ट थीं कि वे समान्तर धारा की कला फिल्मों में ही काम करेंगी क्योंकि उनका उद्देश्य सिर्फ पैसे कमाना नहीं बल्कि अच्छा अभिनय करना था। हालाँकि कुछ फिल्मों में उन्हें इसलिए काम नहीं दिया गया क्योंकि फिल्मी टीम किसी नामचीन हीरोइन को कास्ट करना चाहती थी। इन वाकयों से आहत हुई स्मिता सिनेमा के क्षेत्र में नाम कमाने के प्रचलित मानदण्ड को अंगीकार करते हुए मेनस्ट्रीम यानी लोकप्रिय मसाला सिनेमा की ओर भी रुख कीं और वहाँ भी सफलता के झण्डे लहरायीं। संजीव कुमार, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन से लेकर मिथुन चक्रवर्ती तक अपने समय के नामचीन सुपरस्टार्स के साथ उन्होंने कई मशहूर फिल्मों में अभिनय किया।
वे बेहद संवेदनशील थीं। “नमक हलाल” और “शक्ति” में को-स्टार रहे अमिताभ बच्चन के बारे में एक बार उन्होंने एक बुरा सपना देखा। नींद से उठते ही घबराहट में उन्होंने बच्चन साहब को फोन कर उनकी सलामती के बारे में पूछा। इसके अगले ही दिन “कुली” फिल्म की शूटिंग के दौरान बच्चन जी के साथ ऐसी भयानक दुर्घटना घटी कि उनकी ज़िन्दगी दाँव पर लग गयी थी।
स्मिता पाटिल ने एक से बढ़कर एक फिल्में कीं। मंथन, भूमिका, जैत रे जैत, आक्रोश, चक्र, नमक हलाल, बाज़ार, उम्बरठा, शक्ति, अर्थ, अर्द्धसत्य, मंडी, आज की आवाज, चिदंबरम, मिर्च मसाला, अमृत, आख़िर क्यों, दिल-ए-नादान, अनोखा रिश्ता, नजराना, वारिस आदि उनकी महत्वपूर्ण फिल्में हैं।
पर्दे पर स्मिता पाटिल को देखते हुए हमेशा ही यह लगता है कि हम अपने शहर-गाँव की संघर्षरत स्त्री को ही देख रहे हैं। सामाजिक व्यवस्था में तमाम तरह के उत्पीड़न से लड़कर अपने लिए स्पेस तलाशती, अपना कद और व्यक्तित्व बनाती, अपने अस्तित्व की खोज करती स्त्री के विभिन्न किरदारों में स्मिता पाटिल इतनी सहज और प्रामाणिक दिखती हैं कि आम स्त्रियाँ उनसे सरलता से खुद को जुड़ा पाने के साथ ही अपने अधिकारों के प्रति सचेत होने को प्रेरित होती हैं।
श्याम बेनेगल की फिल्म “भूमिका” में ईर्ष्यालु व शंकालु पति से घरेलू प्रताड़ना सहती हुई, सिने-अभिनेत्री के रूप में अपना कद बनाने आकांक्षा से समझौता नहीं करने वाली, अपनी शर्तों पर घर छोड़कर गैरपारंपरिक जीवन जीने को निकल पड़ी, कई पुरुषों में साथी तलाशने की असफल कोशिश करती हुई अनन्तः अकेली ही रहने का निर्णय करने वाली ऊषा (उर्वशी) दलवी का किरदार हो (यह किरदार मराठी अभिनेत्री हंसा वाडेकर की जीवनी पर आधारित था) या “आख़िर क्यों” में पति के विवाहेत्तर सम्बन्ध की वजह से भावनात्मक रूप से टूट चुकी औरत का एक लेखिका के तौर पर अपना व्यक्तित्व बना पाने की गाथा हो या “अमृत” में बेटे-बहू से उपेक्षा पाकर बूढ़ी सास का घर छोड़कर फूड प्रोसेसिंग के कार्यस्थल पर टेस्टर की नौकरी कर आत्मसम्मान के साथ जीने वाली स्त्री हो या “चक्र” में झोपड़पट्टी की एक स्त्री हो या “मिर्च मसाला” में एक सामन्ती सत्तासम्पन्न पुरुष की बदनिगाही के आगे किसी भी कीमत पर समर्पण न करने वाली गँवई स्त्री हो या “वारिस” में प्रतिपक्षियों से अपनी जमीन बचा लेने के लिए संघर्ष करती एक निःसंतान विधवा का किरदार हो, स्मिता पाटिल ने स्त्री जीवन की हर तरह की समस्याओं और प्रताड़नाओं से मुठभेड़ करने वाली भूमिकाएँ निभाई और वो भी इस तरह कि हर भूमिका एक मिसाल बन गयी।
उन्हें हिन्दी फिल्मों “भूमिका” और “चक्र” में अभिनय के लिए दो बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ। साथ ही हिन्दी फिल्म “चक्र” व मराठी फिल्मों, “जैत रे जैत” और “उम्बरठा” के लिए फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार भी मिला था। केतन मेहता की बनायी “मिर्च-मसाला” फिल्म स्मिता के देहावसान के बाद सन् 1987 में प्रदर्शित हुई थी जिसमें उनके अभिनय को फोर्ब्स पत्रिका ने “25 महानतम भारतीय अभिनय” की सूची में शामिल किया था। तेजोदीप्त प्रतिभा की धनी स्मिता पाटिल को अभिनय कला में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए भारत सरकार ने सन् 1985 में गौरवशाली नागरिक सम्मान ‘पद्मश्री’ से अलंकृत किया। भारतीय सिनेमा के सौ साल पूरा होने के उपलक्ष्य में भारतीय डाक विभाग ने स्मिता पाटिल पर डाक टिकट जारी कर किया था। इसके साथ ही उन्हें कई अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से भी नवाजा गया। सन् 1984 में मॉन्ट्रियल वर्ल्ड फिल्म फेस्टिवल में वे ज्यूरी की सदस्य बनायी गई थीं। प्रियदर्शिनी अकादमी ने उनके नाम पर एक वैश्विक पुरस्कार की शुरुआत की है।
स्मिता पाटिल का अभिनेता राज बब्बर से जब प्रेम परवान चढ़ा तब वे शादीशुदा और दो बच्चों के पिता थे। राज बब्बर ने पहली पत्नी, सुप्रसिद्ध रंगकर्मी नादिरा बब्बर, को तलाक देकर स्मिता पाटिल से शादी की। इस रिश्ते की चौतरफा आलोचना हुई। इस वजह से स्मिता का अपनी समाजसेविका माँ से भी मतभेद हुआ। माँ के हिसाब से स्त्री अधिकारों के लिए लड़ने वाली बेटी का यह कदम एक अन्य स्त्री के अधिकार का हनन करना और उसका घर तोड़ने के अपकर्म का भागी बनना था। लेकिन माँ के तर्क बेअसर साबित हुए। आख़िरकार स्मिता पाटिल और राज बब्बर ने शादी कर ली। बचपन से ही उन्हें माँ बनने की हसरत थी। उनकी यह कामना पूरी हुई। वे 28 नवम्बर, 1986 को बेटे प्रतीक बब्बर की माँ बनीं लेकिन बस पन्द्रह दिनों के लिए… 13 दिसम्बर, 1986 को बेटे के जन्म के बाद प्रसव सम्बन्धी कुछ शारीरिक जटिलताओं की वजह से उनका देहांत हो गया।
अभिनय कला उनका जुनून था जिसके प्रति पूर्ण समर्पण के साथ आजीवन कार्य करती रहीं स्मिता पाटिल। “चक्र” की शूटिंग से पहले वे कितनी ही बार झोपड़पट्टियों के चक्कर काट आई थीं। अभिनय ऐसा हो जैसा कि सच! और इसके लिए जितना भी परिश्रम करना पड़े, जितने भी प्रयोग करने हों, वे हर क्षण तत्पर रहीं। अपनी कला से भारतीय सिनेमा को ऊँचाई प्रदान करने वाली स्मिता पाटिल इस कला विधा के उत्कर्ष का एक अन्यतम उदाहरण बन चुकी हैं। उन्हें याद करते हुए मुझे वह दिन याद आ रहा है जब दूरदर्शन पर उनके देहान्त की खबर दिखायी गयी थी। छोटी-सी उम्र में मैं इतनी दुखी और आहत क्यों हुई थी तब समझ नहीं सकी थी। अब समझ पाती हूँ कि कई रूपछवियों में हमारे आसपास देखी गई स्त्री का ही स्वरूप थीं वे जिनसे हम सभी स्त्रियाँ कहीं-न-कहीं आंतरिक रूप से जुड़ा महसूस करती हैं। इस जुड़ाव के साथ उन्हें नमन करती हूँ।
— डॉ. सुमीता