Saturday, November 23, 2024
Homeलेखकों की पत्नियां"क्या आप जिया को जानते हैं?"

“क्या आप जिया को जानते हैं?”

आप हिंदी के महान लेखकों की पत्नियों के बारे में स्त्री दर्पण पर एक श्रृंखला पढ़ रहे है। अब तक आपने आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य शिवपूजन सहाय,आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामबृक्ष बेनीपुरी, नरेश मेहता और नागार्जुन की पत्नी के बारे में पढ़ा। अब राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त की पत्नी जिया उर्फ सरयू देवी के बारे में पढ़िए वरिष्ठ कथाकार रजनी गुप्त की कलम से। हाल ही में रज़ा फाउंडेशन से गुप्त जी की उनकी जीवनी आयी है।
3 अगस्त 1886 में चिरगाँव में जन्मे मैथिली शरण गुप्त प्रेमचन्द से उम्र में 6 साल छोटे थे। उनकी भारत भारती और साकेत बहुत लोकप्रिय हुई थी। भारत भारती तो गोदान से अधिक बिकी थी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी गुप्त जी की कृतियों से परिचित थे। उन्होंने ही दद्दा को राष्ट्रकवि की पदवी थी। गुप्त जी को लोग दद्दा ही कहते थे।
जैसा कि आपको पता होगा राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की दो पत्नियों का बीमारी के कारण निधन हो गया था। सरयू देवी तीसरी पत्नी थी। वह माधोगढ़ की रहनेवाली थीं। 1917 में उनका विवाह हुआ था। विवाह के बाद उनसे हुई 5 संताने एक एक करके गुजर गईं। आप एक स्त्री के दुख का अंदाज़ा नहीं लगा सकते। गुप्त जी की कुल 8 संताने बीमारी के कारण नहीं रहीं। उनकी पहली पत्नी का नाम भी जिया था। उनसे हुई एक संतान भी नहीं रही। दूसरी शादी रमा देवी से हुई ।उनसे हुई दो संतानें नहीं रहीं। रमादेवी की मौत तो प्रसव के दौरान हो गयी। गुप्त जी के जीवन में यह इतनी बड़ी हृदयविदारक घटना घटी।उनपर एक तरह से वज्रपात हुआ। ऐसे में सरयू देवी तीसरी पत्नी बनकर आईं और 5 संतानों को खोया। आप इस दुख का अंदाज़ा नहीं लगा सकते।
तो पढ़िये रजनी जी का यह लेख।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की पत्नी जिया ( सरयू देवी )
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परिवार के बड़े लोगों के बहुत कहने और भावुकतापूर्ण तरीके से उन पर दवाब डालकर समझाया गया और मैथिलीशरण गुप्त ने सरयू देवी से तीसरा विवाह 1917 में कर लिया । नई गृहस्थी बसाकर नए सिरे से जीवन यात्रा पर साथ चलने की शुरूआत की । बड़ी उम्मीदों से पति पत्नी ने प्रभु से प्रार्थना की कि उनका दाम्पत्य जीवन सकुशल रहे । अरसे बाद उनके अंदर सोए प्रेम ने नई करवट ली । नव स्पर्श उनके अंतस में उमड़ते बादलों की तरह उड़ाए ले रहा था उन्हें सुदूर गगन के ओर छोर तक।
बहुत उम्मीद से वे गर्भवती होतीं, अंखुआता बीज जैसे बंजर जमीन तोड़कर उठ खड़ा होने को आतुर हो । महीने दर महीने फिर नौ महीने बाद पुत्र का जन्म। कुछ महीने ठीक से गुजरते । बड़े होते बच्चे संग पत्नी खूब हुलसित होतीं । फिर से घर में चहल पहल शुरू हो जाती । बच्चा चलना फिरना सीखता । वेग से समय के पहिए आगे की ओर खिसकते और फिर अचानक नियति नटी की वही क्रूरता यानी बच्चे का पेट फूलना शुरू हो जाता । न जाने कैसे और क्यूंकर बच्चे को वही लीवर की जानलेवा बीमारी घेर लेती । वैद्य के बताए सारे उपाय एक एक करके आजमाए जाते । इस दर्द से गुजरती मां की पीड़ा देखकर मैथिलीशरण का कलेजा फटने लगता । पति पत्नी दोनों एक ही पीड़ा से गुजरने लगते । हर दिन राम राम करके गुजारते । अनायास उच्छवास कविता मैथिली की कलम से फूट निकली मगर जिसकी सजीव रचना न बच पा रही हो, वह कागज पर उकेरी रचना से भला कैसे संतुष्ट होता ? बच्चे के गुजरने पर पत्नी के चेहरे पर दर्द की गहरी लकीर खिंच जाती । पूरा बदन कांपने लगता । रोते रोते आंखें सूज जातीं और पलकें भारी हो उठती ।
एक बार तो दोनों ने ईश्वर से प्रार्थना की – ‘ प्रभु, यदि हमें पुत्र न देना चाहें, तो एक पुत्री तो दे दें मगर इस निर्दोष जिया को निपूती न रहने देना । ‘ एक बार जुड़वा बच्चियां हुईं तो उन्हें लगा जैसे प्रभु ने उनकी प्रार्थना सुन ली हो । वे फिर प्रफुल्लित हो उठतीं । दुख से मलीन चेहरे पर फिर से चमक आ जाती लेकिन काल की क्रूरता कौन देख पाया है ? जैसे ही प्रसव वेदना शुरू होती, तुरंत प्रशिक्षित दाइयां ठीक से प्रसव तो करवा देतीं। प्रसव जनित बच्चे की मौतें जरूर थमीं लेकिन इससे क्या ? जब नियति को ही मंजूर नही कि उनकी संतति जिए तो वे क्यूंकर बार बार याचना करते रहें ? नही, नही, अब और इच्छा नही रही । हर बार नए सिरे से उम्मीदें जगतीं जैसे किसान बंजर जमीन पर खाद पानी नए सिरे से बीज रोपकर बारिश का इंतजार करे । बारिश भी झूमकर जमीन को हरा भरा कर दे । फसल भी खूब बढि़या हो । पैदावार देखकर किसान का ह्दय खुशी से किलकारी मारने लगे लेकिन जब फसल घर आए और किसान निश्चिंत होकर गेहूं पिसाने ले जाए तब पता चले कि समूचे गेहूं में तो घुन पहले से ही लग चुका है । कोई अज्ञात कीड़ा सारे गेहूं को भीतर खोखला कर गया है, तो क्या बीतेगी किसान पर ? वेदना से तड़पकर रह जाते पति पत्नी । दोनों इस गहरे दर्द से सालोंसाल गुजरते रहे । वे बच्चियां भी दो तीन साल जीकर चल बसीं । कोई बच्चा चार पांच वर्ष का होकर चल बसता तो कोई दो साल का और कोई छह सात साल का मगर हर बार फिर वही दर्द उमड़ता । टीस और अकथ वेदना से भारी जिया की सजल आंखें देखकर मैथिली के मन में स्त्री के प्रति गहरी करूणा उपजती । स्त्री के प्रति जगती संवेदना पल पल मरती बुझती लेकिन नए सिरे से नई आशा उमड़ उठती जैसे भरे बादलों के बरस चुकने के बाद फिर से बादल उमड़ने लगते हैं । धीरे धीरे एक अजीब तरह की विरक्ति बढ़ती जा रही थी । इतने बच्चों के बिछोह से कैसे मां का कलेजा फटता है, एक के बाद दूसरा, तीसरा, चौथा, पांचवां, छठा . . . .कोई किसी के दर्द को नही बांट सकता, चाहकर भी । आंखें मींचे, पलकों में बसे अंधकार को जीते हुए जैसे गहरे समंदर में धंसे फड़फड़ाते प्राणों को बस मृत्यु की प्रतीक्षा । एक दिन बड़े प्यार से वे उन्हें समझाने लगे – ‘ देखो, कहीं किसी से ज्यादा मोह- ममता बढ़ाना ठीक नही ।
हमाय पेट से बच्चा होय और हमें वासै लगाव न होय, ऐसौ कैसे हो सकत ? ‘ रूंआसी आवाज में वे बोली – ‘ मताई की तकलीफ समझवौ आसान नही । अपने जा पेट में नौ महीना लरिका बिटिया रखकै देखो, तब पतौ चलहै वाके न रहबे की तकलीफ . . गीली आंखें अपने आंचल के छेार से पौंछते हुए वे बोली – ‘ सबके बाल बच्चा देखकै कलेजौ फट जाउत हमाव । आप जे बातें कर रय । ‘
उन्होंने स्नेह से उनके सिर पर अपना हाथ रखा और एक किताब पत्नी की गोदी में रखते हुए बोले – ‘ जे तुंमाई संतानै नहीं ? बोलो ? गलत कै रय का ? जे किताबें अनमोल हैं और जे भी हमाई तुमाई संतानन जैसी हैं , जा बात की गांठ बांध लो जिया । अब उठो , आंसू पौछकर चाय बना लाओ। ‘
उन्होंने सजल आंखों से पति को देखा जैसे मन ही मन कह रही हों – मां बनकर महसूस करना कब सीखेंगे आप ? जे किताबें आपके लानै जरूरी संजीवनी हैं । जिनसै आपकौ नाम हो रव । जस फैल रव मगर हम तौ उतेक पढ़े लिखे हैं नई सो इनकी गहरी बातन के मर्म को समझने लायक अक्ल नही है हममें । हमें तो जीता जागता हाड़ मांस कौ बच्चा चाहिए। अपनी अनकही को समझते हुए वे खुद ही मन ही मन बोलने लगी कि बच्चा तो ऐन हो रय पर वाके जीवित रहबे की कछू गारंटी है ? सवाल ही सवाल कंटीली झाड़ में तब्दील हो जाते। सवाल उमड़ते घुमड़ते बादलो की तरह केवल गरजते रहते और फिर अनंत आसमान में विलुप्त हो जाते, अनुत्तरित।
पत्नी की पीड़ा उनकी कलम में उतरने लगी थी ।
समस्त स्त्री जाति की वेदना कवि के कंठ से दर्द का गान बनकर फूट पड़ी – ‘
अबला जीवन हाय , तुम्हारी यही कहानी,
आंचल में है दूध और आंखों मे पानी ।
जिया जब मौन हो जातीं तब भी मैथिली उनकी व्यथा वेदना को महसूस करते ।
सरयू देवी खाली चारपाई पर हाथ फेरती और सिसकती जाती जैसे कोई बेरहमी से छुरे से उनके कलेजे के दो टुकड़े करके ले जा रहा हो । लंबी लंबी सांसें भरतीं रहतीं । आंसू कैसे भी थमते ही नही । उन्हें लगता जैसे उनके अंदर रक्त का चश्मा बह रहा हो जिसे वे किसी को दिखा भी नही सकती ।
नि:शब्द रात्रि की काली छायाएं पत्नी को घेरे रहतीं । उनके मुंह से बार बार – ‘ कहां गया रे राजा भैया ! निकल पडता और वे – मत रोओ, बहुत रात हो चुकी । सो जाओ अब । ‘ जैसे पास बोरसी के भीतर आग गड़ी रहती, वैसे ही उनके हदय तल में भी गहरा दबा दर्द उन्हें जलाने लगता । कभी वे खूंटे पर टंगे खिलौने देखकर भावुक हो उठतीं ,तो कभी चूरन, मीठी गोलियां और फलों का झाबा देखती टटोलती । मेरे बच्चे ने कब से अन्न जल नही चखा था ।
दद्दा की पत्नी जिया दद्दा के साथ दिल्ली ही रहतीं थीं । वे उत्सुक भाव से सबका आदर सत्कार करने के लिए हमेशा तत्पर रहतीं । कभी कभी दिनकर जी दद्दा की अनुपस्थिति में जिया को अपनी कविताएं सुनाया करते । जिया को देखकर सियाराम शरण ने उस समय की स्त्रियों के बारे कितनी सटीक टिप्पणी की – ‘ हम तो हैं बाबा खूंटे की गइया, जहां बांधो, बंध जाएंगे । ‘
सचमुच जिया अपने पति से ऐसे ही बंधी रही कि उन्हें आजादी के पहले के भारत और बाद के भारत में हुए बदलाव का ठीक से अहसास तक नही था । वे सबके खाने पीने का खूब ख्याल रखतीं और इसी में सुख पातीं। डॉ. नगेंद्र रोजाना दद्दा के पास शाम को आते और देर रात तक रूकते भी । वे प्राय: अपना टिफिन लेकर आते और देर रात खाना खाते । एक दिन जिया ने सेवक से कहलवा दिया – नगेंद्र से कहना, टिफिन न लाया करें । वे जैसा भोजन करते हैं, हम वैसा ही बना दिया करेंगे।‘ अज्ञेय जी भी उनके पास अक्सर आया करते और कपिला जी भी आतीं । जब भी दिल्ली के उन्मुक्त पहनावे की बात चलतीं तो दद्दा कहते – ‘ इन बातों पर ज्यादा मत सोचा करो । जो यहां का रिवाज है, पहनने दो । तो वे पलटकर बोलीं – ‘ जे कपिला बिन्नू तो हमाय जैसे कपड़ा पहनतीं । का जे दिल्ली की नइयां ?’ जवाब सवाल करने में जिया पीछे नही रहतीं ।
गुप्त जी का निधन 1964 में ही हो गया था। उसके बाद वह 24 साल तक जीवित रहीं। दो दशक तक एकाकी जीवन बिताया।
4 अप्रैल 1988 में वह भी इस दुनिया से कूच कर चली गईं।
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