Saturday, November 23, 2024
Homeकवितास्त्री प्रतिरोध की कविता और उसका जीवन

स्त्री प्रतिरोध की कविता और उसका जीवन

प्रतिरोध की कविताएं

कवयित्री सविता सिंह

स्त्री दर्पण मंच पर ‘प्रतिरोध कविता श्रृंखला’ प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह के संयोजन से निरंतर हो रही प्रस्तुति में हमने वरिष्ठ कवयित्रियों शुभा, शोभा सिंह, निर्मला गर्ग, कात्यायनी, अजंता देव, प्रज्ञा रावत, सविता सिंह, रजनी तिलक, निवेदिता एवं अनिता भारती की कविताओं को पढ़ा।
आज हम वरिष्ठ कवयित्री हेमलता महिश्वर की कविताओं के साथ आपके सामने प्रस्तुत हैं।
“प्रतिरोध कविता श्रृंखला” पाठ – 10 में वरिष्ठ कवयित्री अनिता भारती की कविताओं को आप पाठकों ने पढ़ा। तारीफ की। प्रोत्साहन के लिए हार्दिक धन्यवाद प्रेषित करते हुए प्रतिक्रियाओं के लिए आभार व्यक्त करते हैं।
आज “प्रतिरोध कविता श्रृंखला” पाठ – 11 के तहत वरिष्ठ कवयित्री हेमलता महिश्वर की कविताएं परिचय के साथ आप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हैं।
पाठकों का सहयोग, स्नेह व प्रोत्साहन का इंतजार है।
– सविता सिंह
रीता दास राम
————————————————————————————————
आज हिन्दी में स्त्री कविता अपने उस मुकाम पर है जहां एक विहंगम अवलोकन ज़रुरी जान पड़ता है। शायद ही कभी इस भाषा के इतिहास में इतनी श्रेष्ठ रचना एक साथ स्त्रियों द्वारा की गई। खासकर कविता की दुनिया तो अंतर्मुखी ही रही है। आज वह पत्र-पत्रिकाओं, किताबों और सोशल मिडिया, सभी जगह स्त्री के अंतस्थल से निसृत हो अपनी सुंदरता में पसरी हुई है, लेकिन कविता किसलिए लिखी जा रही है यह एक बड़ा सवाल है। क्या कविता वह काम कर रही है जो उसका अपना ध्येय होता है। समाज और व्यवस्थाओं की कुरूपता को बदलना और सुन्दर को रचना, ऐसा करने में ढेर सारा प्रतिरोध शामिल होता है। इसके लिए प्रज्ञा और साहस दोनों चाहिए और इससे भी ज्यादा भीतर की ईमानदारी। संघर्ष करना कविता जानती है और उन्हें भी प्रेरित करती है जो इसे रचते हैं। स्त्रियों की कविताओं में तो इसकी विशेष दरकार है। हम एक पितृसत्तात्मक समाज में जीते हैं जिसके अपने कला और सौंदर्य के आग्रह है और जिसके तल में स्त्री दमन के सिद्धांत हैं जो कभी सवाल के घेरे में नहीं आता। इसी चेतन-अवचेतन में रचाए गए हिंसात्मक दमन को कविता लक्ष्य करना चाहती है जब वह स्त्री के हाथों में चली आती है। हम स्त्री दर्पण के माध्यम से स्त्री कविता की उस धारा को प्रस्तुत करने जा रहे हैं जहां वह आपको प्रतिरोध करती, बोलती हुई नज़र आएंगी। इन कविताओं का प्रतिरोध नए ढंग से दिखेगा। इस प्रतिरोध का सौंदर्य आपको छूए बिना नहीं रह सकता। यहां समझने की बात यह है कि स्त्रियां अपने उस भूत और वर्तमान का भी प्रतिरोध करती हुई दिखेंगी जिनमें उनका ही एक हिस्सा इस सत्ता के सह-उत्पादन में लिप्त रहा है। आज स्त्री कविता इतनी सक्षम है कि वह दोनों तरफ अपने विरोधियों को लक्ष्य कर पा रही है। बाहर-भीतर दोनों ही तरफ़ उसकी तीक्ष्ण दृष्टि जाती है। स्त्री प्रतिरोध की कविता का सरोकार समाज में हर प्रकार के दमन के प्रतिरोध से जुड़ा है। स्त्री का जीवन समाज के हर धर्म जाति आदि जीवन पितृसत्ता के विष में डूबा हुआ है। इसलिए इस श्रृंखला में हम सभी इलाकों, तबकों और चौहद्दियों से आती हुई स्त्री कविता का स्वागत करेंगे। उम्मीद है कि स्त्री दर्पण की प्रतिरोधी स्त्री-कविता सर्व जग में उसी तरह प्रकाश से भरी हुई दिखेंगी जिस तरह से वह जग को प्रकाशवान बनाना चाहती है – बिना शोषण दमन या इस भावना से बने समाज की संरचना करना चाहती है जहां से पितृसत्ता अपने पूंजीवादी स्वरूप में विलुप्त हो चुकी होगी।
हेमलता महिश्वर हमारी स्त्री प्रतिरोध कविता श्रृंखला की ग्यारहवीं कवि हैं। इनकी कविताएं समाज में व्याप्त हिंसा, खासकर जाति हिंसा, की तीक्ष्ण नकार की अभिव्यक्तियां हैं। यह नकार उन तमाम घटनाओं के प्रति भी व्यक्त होता है जहां से हिंसा और अपमान की बू आती है। मानव जीवन की सुंदरता को मिट्टी में मिलाने वाली मान्यताओं के प्रति भी आक्रोश दिखता है। समाजवाद में विश्वास करतीं इनकी कविताएं प्रेम की भी गुहार लगाती हैं। मजदूर, किसान, दलित स्त्रियां, नवयुवक, यानी मार खाती मनुष्यता की चीत्कार की ये कविताएं आप भी पढ़ें। इनकी इन महत्वपूर्ण कविताओं को यहां पेश करते हुए हमें बहुत खुशी हो रही है।
हेमलता महिश्वर का परिचय :
————————————
प्रो हेमलता महिश्वर, जन्म तिथि – नवम्बर 5, 1966, बालाघाट, मध्य प्रदेश।
शिक्षा- एम.ए., बी.एड., एम.फिल., पीएच.डी.।
प्रोफ़ेसर एवं पूर्व अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली।
माता – प्रेमलता मेश्राम, पिता – रामप्रसाद मेश्राम
संस्थापक सदस्य – अखिल भारतीय दलित लेखिका मंच।
प्रकाशित ग्रंथ :
1. स्त्री लेखन और समय के सरोकार, चिंतन, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली
2. नील, नीले रंग के- कविता संग्रह, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली
सह-लेखन : धम्म परित्तं – सम्यक् प्रकाशन
संपादित ग्रंथ :
1. समय की शिला पर, मुकुटधर पाण्डेय पर केन्द्रित, गुरु घासीदास विश्वविद्यालय, बिलासपुर
2. उनकी जिजीविषा, उनका संघर्ष – शिल्पायन प्रकाशन, नई दिल्ली
3. रजनी तिलक : एक अधूरा सफ़र
पत्रिका संपादन : 1. उड़ान
संपादक सदस्य : 1. हाशिए उलाँघती स्त्री – युद्धरत आम आदमी का विशेषांक
इनके अतिरिक्त विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र- पत्रिकाओं जैसे आलोचना, कथादेश, हंस, वर्तमान साहित्य, अनभैं साँचा, युद्धरत आम आदमी, दलित अस्मिता, स्त्री काल आदि में आलोचनात्मक लेख, कविता, कहानी प्रकाशित,
कुछ कहानी, कविताओं और लेखों का मराठी, पंजाबी, अंग्रेज़ी में अनुवाद।
कहानी जैन विश्वविद्यालय, बैंगलोर और इटली के पाठ्यक्रम का हिस्सा रहीं।
संपर्क : [email protected],
हेमलता महिश्वर की कविताएं :
————————————-
1. नील
नीले रंग के
पड़ जाते हैं
तन पर मन पर
मार, बेग़ार और अपमान के
याद है ना
गर्दन में लटकती हंडी
और
कमर में बंधी रस्सी से
छलछला उठे रक्त बिंदु
हरे ज़ख़्म लाल बंबाळ
होते नीले फिर काले
छोड़ जाते अपने अमिट निशान
कर देते मन लहू लुहान
यूँ तो नहीं है आज
गले में हंडी
कमर में झाड़ू
फटे बॉंस का फटफटा हाथों में लेकिन
जाते क्यों नहीं
नीले निशान?
2. शिक्षा शेरनी का दूध है
अ से अम्बेडकर
और ब से बाबासाहब पढ़ते ही
मैं पढ़ ली थी ग़ुलामी
और तोड़ फेंकी बेड़ियॉं
मैंने जन्मजात प्रतिभा की मान्यता को
अर्जित योग्यता में बदला
बेगार करना छोड़
रोज़गार अपनाया
मैंने कपड़े पहने जो मैले-कुचैले नहीं थे
फटे तो ज़रूर थे पर साफ़-सुथरे थे
सायकिल से कार तक का सफर किया
झोंपड़ी से चलकर बंगले तक
मैं सामाजिक लोकतंत्र की राहान्वेषी
3. संविधान और सपने
संविधान
देश को सौंपते हुए
बाबा साहब ने कहा था
मैंने राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना की है
लेकिन
सफल तभी होगा जब सामाजिक लोकतंत्र में परिवर्तित होगा
देश में बड़े-बड़े बाँध बन गए
और लोग विस्थापित हो गए
साथ ही विस्थापित हो गई
विस्थापितों की अस्मिता
कुछ लड़कियों और औरतों का इज़्ज़त भी
जाने कितने ही कल कारख़ाने खुल गए
सीने के महफ़ूज़ फेफड़े
काले-पीले पड़ गए
औरतें बेरौनक़ हुईं
बच्चे बाप को तरस गए
रेल लाइन का विस्तार हुआ
मेट्रो का जाल भी बिछने लगा
प्रधानमंत्री सड़क योजना पहुँचने लगी गाँव -गाँव तक
कोदू दलित जब दुल्हा बन घोड़ी पर बैठा तो मारा गया
कोदू दलित को दुल्हा बन घोड़ी पर बैठने का अधिकार न था
सोनू पिटा गया
वह चमरौधी जूती पहन राजपूतों के सामने न निकल सकता था
यह लोकतंत्र हौले हौले विकसित हो रहा है
लड़की पढ़ेगी लड़की बचेगी
बेटी बचाओगे तभी तो बहु लाओगे
हाय रे लोकतंत्र
बेटी इसलिए बचाओ
कि वह कल बहु बन सके
बहु न बने तो मार दी जाएगी
गर्भवती सिलिया को मारा गया
गाँव में पीने का पानी लेने गई थी
ठकुराइन टकरा गई
ठकुराइन को छूत लग गई
सिलिया को मारते रहे जब
ठाकुर ठकुराइन
तब छूत कहॉं चला गया?
झोपड़ी से राष्ट्रपति भवन की यात्रा कर ली गई
लोकतंत्र में राजनीतिक दल गुमान करते हैं
हमने मुसलमान को, दलित को स्त्री को
बनाया है राष्ट्रपति
यह गुमान तुम्हारे अमिट जातीय अहं की निशानी है
लोकतंत्र का मुखौटा पहने
मनुवाद बहुत वीभत्स है
4. क्या सोच रहे होंगे वे चार नवयुवक हर चोट पर
एल्युमीनियम की रॉड जैसी लकड़ी
थक जाती और बदल जाता हाथ
पटापट पड़ती जा रही थी
चार नवयुवकों के कुल्हों पर
जाँघों पर, पैरों पर
हथेलियॉं जुड़ी हुई थीं रहम की भीख माँगते जैसे
क्योंकि आठ कलाइयॉं एक रस्से से जकड़ी हुई थीं
चारों नवयुवकों का कुचल दिया था मान
एक बड़ी – सी गाड़ी के पीछे बॉंध दिए गए थे
धड़ से नंगे फ़ुल पैंट छोड़ दिया था बदन पर
सारे नगर में निकाला गया था जुलूस बेशर्म
और अस्मिता तार-तारकर नंगी हो गई
अधनंगे युवकों को पीटते गोरक्षकों की
सरेआम उजागर हुई नंगई, तब
क्या सोच रहे होंगे वे चार नवयुवक हर चोट पर
बिलबिला उठते, लहराता दर्द का ज्वार
लाचारी, बेबसी, कराह भी दब जाती
मार खाती देह और ऑंखें पनियाली तक न थी
क्या था उन ऑंखों में जब हो रहा था
बिन अपराध ही सजा का सार्वजनिक प्रदर्शन
तड़तड़ा उठते होंगे त्वचा के भीतर उत्तक
लहर उठती रही होगी दर्द की
अपनी बारी का इंतजार करते
अब इसको पड़ी, अब उसको, फिर ये और फिर मैं
क्या सोच रहे होंगे वे चार नवयुवक हर चोट पर
माँसपेशियों में कसावट भर लेते होंगे क्या पड़नेवाली हर चोट के पहले
मन कड़ा करते होंगे क्या यह सोचकर
कि नहीं, चोट का असर न होने देंगे देह पर
पर मन का क्या करें?
हर चोट पर मन देह से ज्यादा बिलबिलाता था
कचोट जाता था लोगों की ऑंखों को देखकर
मन को कड़ा करने की मांसपेशी का नाम क्या होता है?
काश कि कोई न देखे हमें ऐसे पिटते हुए
काश कि कोई तो हमारा अपराध पूछे
काश कि पुलिस यूँ खड़ी न रहे समर्थन देती दूर से
काश कि मूक दर्शक बने लोगों में से ही कोई आ जाए
हाथ पकड़ ले, रोक दे उठा हुआ मारने को आतुर हाथ
काश कि कोई बस एक बार पूछ ले – मारते क्यों हो
थोड़ी राहत तो मिलेगी, कुछ समय निकल जाएगा
लगातार होती जा रही मार को एक अंतराल मिलेगा
क्या यही सोच रहे होंगे वे चार नवयुवक हर चोट पर
डी डी 03 एफ – 1294 नंबर की ज़ायलो सफेद
और दूसरी तरफ़ लहू टपकाते हिंस्र आँखों वाले
जैसे पुनीत कर्तव्य को दे रहे हों अंजाम
रग- रग से उठता था उनकी नफ़रत का ज्वार
चार दलित बंधे नवयुवकों पर उतरता था
क्या हमारा दर्द नहीं व्यापता देखने वालों को
क्या यही सोच रहे होंगे वे चार नवयुवक हर चोट पर
कहीं ऐसा ही तो नहीं सोच रहे होंगे वे चार नवयुवक
5. रोज़ दर रोज़
कितनी ही महिलाओं का होता है बलात्कार
हम भारत माता को विश्व गुरु बनाने आए हैं
रोज़ दर रोज़
दलित दूल्हे मार दिए जाते हैं घोड़ी चढ़ने पर
हम भारत माता को विश्व गुरु बनाने आए हैं
रोज़ दर रोज़
लग रहे हैं पहरे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर
हम भारत माता को विश्व गुरु बनाने आए हैं
रोज़ दर रोज़
भारत माता की जय न बोलें तो जारी होते फ़तवे
हम भारत माता को विश्व गुरु बनाने आए हैं
रोज़ दर रोज़
सोनी सोढी करती है सामना मौत का हर पल
हम भारत माता को विश्व गुरु बनाने आए हैं
रोज़ दर रोज़
मारे जा रहे हैं दाभोलकर, पानसरे, कुलबुर्गी
हम भारत माता को विश्व गुरु बनाने आए हैं
रोज़ दर रोज़
नेता करते हमारी मॉं-बहन एक बनते नेक
हम भारत माता को विश्व गुरु बनाने आए हैं
रोज़ दर रोज़
मारे जाते हैं गाय के नाम पर दलित मुसलमान
हम भारत माता को विश्व गुरु बनाने आए हैं
रोज़ दर रोज़
सीमा पर मारे जाते जवान सत्ता की बिसात पर
हम भारत माता को विश्व गुरु बनाने आए हैं
रोज़ दर रोज़
महँगी होती शिक्षा के बजट पर लगातार कटौती
हम भारत माता को विश्व गुरु बनाने आए हैं
रोज़ दर रोज़
नौकरियॉं हैं नहीं और छीन रहा है रोज़गार
हम भारत माता को विश्व गुरु बनाने आए हैं
रोज़ दर रोज़
विश्व सूचकांक से खिसकने लगा है भारत
हम भारत माता को विश्व गुरु बनाने आए हैं
6. प्यासा पानी
लड़कियों की सुरक्षा के नाम पर
देर रात तक लाईब्रेरी में पढ़ने का अधिकार छिन लिया
लड़कियों से पढ़ने का अधिकार छिनते
कुलपति और विश्वविद्यालय
ज़िलाधिकारी और प्रशासन
मीठी-भली बोली बोलते
ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के छद्म पैरोकार
लड़कियों के प्रदर्शन को रोक रहे हैं
‘हमें चाहिए आज़ादी
पढ़ने की आज़ादी ‘
हलक फाड़कर
लड़के भी नारों में शामिल हैं
सूखते गले से लड़के ने कहा
‘प्यास लगी है’
पढ़ने की प्यासी लड़की
तड़प उठी
‘प्यास लगी तो नारा लगाओ
और जो प्यास मुझे लगी है?
हॉं, प्यास लगी है
हॉं, सुनो मैं बता रही हूँ तुम्हें
मुझे प्यास लगी है
मैं पानी मॉंग रही हूँ
मेरा पानी छिना जा रहा है
मेरा पानी छलकाया जा रहा है
मेरा पानी दूषित किया जा रहा है
मेरा पानी अटाया जा रहा है
मेरा पानी सुखाया जा रहा है
मेरा शीतल पानी कब तक शांत रहेगा?
(बीएचयू के छात्रावास कीलड़कियों द्वारा की गई हड़ताल के दौरान जब एक लड़के ने प्यास लगने की बात कही, तो यह कविता बनी।)
7. किसान !
तुम किसान जैसे क्यों दिखाई नहीं देते?
तुम्हें भी तो चिह्ना जाता है वेशभूषा से
गोदान का होरी याद नहीं?
सारी उम्र हाड़ गलाने के बाद
ढाई पैसा ही रहा मरने के बाद
तुम ट्रेक्टर से चलते हो
तुम गर्म कपड़े तक पहने हो
तुम्हारी आवाज़ लरजने के बदले
गरजती क्यों है?
ऐसा तो खालिस्तानी करते हैं
तुम किसान नहीं
तुम्हारी आवाज़ संसद तक न पहुँचे
इसलिए सरकार ने सड़कों में
खोद दिए हैं बड़े-बड़े गड्ढे
पर हवा में तैरती आवाज़ें
पूरे विश्व तक पहुँच गईं
और विश्व की आवाज़
तुममें शामिल हो गई
याद है ना
दंगों के दौरान सरकारी संपत्ति को जो नुक़सान हुआ था
उसका हर्ज़ाना कुछ ख़ास वेशभूषावालों पर लगाया गया था
अब सरकार यह हर्ज़ाना किससे वसूल करेगी
सरकार किसे दंडित करेगी जबकि
तुमने सरकारी भोजन करने से भी इंकार कर दिया
तुम ऐसे तनकर कैसे खड़े हो गए?
किसान!
तुम राय बहादुर के सामने
गिड़गिड़ाते हुए ही किसान लगते हो
सरकार तुम्हें इससे ऊपर देखने की आकांक्षी नहीं
प्रधानमंत्री ने कहा है
तुम भ्रम के शिकार हो
और मंत्री कह रहे हैं
यह पाकिस्तान चीन की साज़िश है
सरकार
किसान विरोधी बिल पारित करते हुए
आपसे तो क्या
विपक्ष की राय भी नहीं लेती
और इसे षडयंत्र करार देती है
तुमने बिंदुवार क़ानूनी भाषा अख़्तियार कर ली है
लोकतंत्र तुममें पनप रहा है
तुम आजीविका की समानता की मॉंग कर रहे हो
तुमने होरी की परम्परा तोड़ दी है
किसान!
सरकार तुम्हें अपनी करनी समझाना चाहती है
और तुम हो कि अपने तर्क लिए बैठे हो
तुम सहायक बनो ना
राय बहादुर सजी हुईं डलियॉं
अंग्रेज़ बहादुर तक पहुँचाना चाहता है
तुम्हारा पसीना पूँजीपतियों के लिए चुचवाना चाहता है
और तुम हो कि रोड़ा बने हुए हो
किसान!
एमपीएस का मतलब
मिनिमम और मैक्सिमम दोनों ही हो सकता है
मैक्सिमम तो ससीम है
और मिनिमम असीम
यह तुमने जान लिया ना
तुम मॉंग रहे हो स्वामीनाथन आयोग की अनुशंसा
तुमने जुमलेबाज़ी को तोड़ने का दुस्साहस किया
किसान
तुम सचमुच धरती पुत्र हो
मनुष्यता का हल कांधों पर लिए
लोकतंत्र की फसल बो रहे हो
8. बाग़ बाग़ बाग़ है
दिल हुआ जबसे शाहीन बाग़ है
पुरवाई जो चली वहॉं
देश की ख़ुशबू अब शाहीन बाग़ है
अदब पर जो छाया साया
रौशन दिल बन आया शाहीन बाग़ है
औरत पढ़ रही है
पर्दानशीनों का जलवा शाहीन बाग़ है
गणतंत्र जवान हो रहा है साहेब
घर-घर बन आया शाहीन बाग़ है
भारतीय बन गया हर जन
जन गण मन बन गया शाहीन बाग़ है
9. तुम बोलो तो समाजवादी
हम बोलें तो बस जातिवादी
तुम बोलो तो समझदार
हम बोलें तो बस अहंकार
तुम बोलो तो स्त्री संवेदना
हम बोलें तो कास्त्रीपन
तुम बोलो तो कुलीनता
हम बोलें तो लोलुपता
तुम रेशम पहनो तो भद्रता
हम पहनें तो प्रदर्शन
तुम्हारी गाली भी है प्रेम
हमारी प्रेम बानी है कटु वचन
10. प्रेम का मान
उस दिन
जब चॉंद बड़ा था
जाने चॉंद बड़ा था
कि पृथ्वी के निकट था
पर विज्ञान कहता था
आज की रात
चॉंद बहुत बड़ा दिखाई देगा
यह होता है
बहुत वर्षों के अंतराल में
बहुत वर्षों के अंतराल में
बड़े चॉंद का मान
आकाश से मॉंगता तो क्या होगा
ले लेता होगा
जगह थोड़ी और
और आकाश भी
थोड़ा सिमट जाता होगा
थोड़ा विस्तार
थोड़ा संकुचन
बस इतना ही है
प्रेम का समीकरण
RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

error: Content is protected !!