Tuesday, May 14, 2024
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स्त्री दर्पण पर अब तक आपने आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य शिवपूजन सहाय, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और प्रयाग शुक्ल आदि की पत्नियों के बारे में पढ़ा। आज नरेश मेहता की पत्नी के बारे में पढ़िए।

“क्या आप महिमा मेहता को जानते हैं?”
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“यह पथ बन्धु था”, “संशय की एक रात” और “समय देवता” जैसी अत्यंत महत्व पूर्ण रचना देने वाले नरेश मेहता से पूरा हिंदी समाज परिचित है। नरेश जी दूसरे सप्तक के कवि थे।उन्हें 1992 में ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला। इससे पहले उन्हें 1988 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका था। मध्यप्रदेश के शाजापुर में जन्में नरेश जी की अगले माह 15 फरवरी से जन्मशती शुरू हो रही है। उनकी पत्नी महिमा मेहता के बारे में लोग कम जानते हैं। वह इन दिनों भोपाल में रहती हैं। उनकी उम्र 90 वर्ष इस वर्ष 3 जुलाई को हो जाएगी। 3 जुलाई 1932 को मध्य प्रदेश के सैलाना जिले में जन्मीं, श्रीमती महिमा मेहता ने समाजशास्त्र विषय से एम.ए. की शिक्षा ग्रहण की। तदुपरान्त किदवई गर्ल्स कॉलेज, इलाहाबाद उत्तर प्रदेश में प्रवक्ता के पद पर अध्यापन कार्य किया। बहुत कम लोग जानते हैं कि वह एक अच्छी लेखिका भी हैं लेकिन पति की छाया में वह आगे नहीं बढ़ीं। नरेश जी के प्रति उनके समर्पण और त्याग को इस रूप में समझा जा सकता है कि उन्होंने नरेश जी की स्मृतियों को और सजीव बनाने के लिए उन्होंने “उत्सव पुरुष श्री नरेश मेहता” की रचना की ताकि पति के जीवन के अनछुए पहलुओं को सबके सामने लाया जा सके। यह 176 पृष्ठ का संस्मरण भारतीय ज्ञानपीठ से 2003 में छपा था। इसके 14 वर्षों बाद उनका एक और उपन्यास “परछाइयां” 2017 में लोकभारती प्रकाशन से आया ! महिमा जी के शब्दों में 303 पृष्ठ के “इस संस्मरणात्मक उपन्यास में केवल घटनाएँ नहीं, अपने समय की परिक्रमा है। वह जो बीत गया है, वह अब नहीं लौटता, लेकिन स्मृतियों में बस जाता है।”
आज पढ़िए महिमा जी का एक संस्मरण अपने लेखक पति नरेश मेहता पर। इस संस्मरण से महिमा जी के सेवा भाव को जान सकते हैं। नरेश जी के जीवन में उनके योगदान की एक झलक इसमें दिखाई देती है। कितना बड़ा त्याग किया। सुहाग रात में नरेश जी ने क्या किया यह जानकर आप महिमा जी से प्रभावित जरूर होंगे।
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उत्सव पुरुष की ” महिमा “
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मैंने कहा, “कविता तो अच्छी लगती है परन्तु कवि मुझे बिलकुल अच्छे नहीं लगते।”
नरेश जी को आश्चर्य होना स्वाभाविक था।
प्रतिप्रश्न था, “क्यों भला?”
और अचानक उनके मुँह से निकल गया- “अगर किसी कवि से तुम्हारा विवाह हो जाए तो…।”
“कभी नहीं। किसी कवि से विवाह करने से तो अच्छा है एक चपरासी से विवाह करना।”
“क्यों?”
“मैंने देखा, सुना और पढ़ा है कि कवि जिम्मेदार व्यक्ति नहीं होता। घर-संसार के प्रति लापरवाह होता है। अपने परिवार को सच्चे दिल से प्यार नहीं करता, सिर्फ अपनी रचना को प्यार करता है। सारे दिन घर में रहता है और कुछ कमाकर भी नहीं लाता। चपरासी में दो विशेषताएँ तो दिखती ही हैं कि वह दिन में दस बजे से शाम पाँच बजे तक घर से बाहर रहता है और महीने के अन्त में तनख्वाह लाता है। It is death to love a poet. It is death to be the wife of a poct.” मैंने कभी की रटी-रटायी उक्ति दोहरा दी।
नरेशजी भौंचक बॉल हिट होकर उनके कोर्ट में वापस जा चुकी थी। उन्होंने स्थिति को सँभालते हुए धीरे से कहा,
“सारे कवि एक जैसे थोड़े होते हैं। किसी के सन्दर्भ में तुम्हारी यह धारणा गलत भी हो सकती है।”
मैं चाहती तो इस बात पर चुप रह सकती थी, क्योंकि यह कोई प्रश्न तो था नहीं, जिसका उत्तर देना आवश्यक था। परन्तु मेरे अन्दर उस दिन कोई अदृश्य अवश्य तत्पर था, मेरी समझदारी का सिक्का नरेशजी पर जमाने के लिए। और मैंने तुरन्त कहा,
“हाँ, हो सकता है। कहा तो यही जाता है कि पतीली का एक चावल देखकर पतीली के सारे चावलों के बारे में पता लगाया जा सकता है कि चावल पक गया या कच्चा है। परन्तु मेरी समझ में यह परिस्थिति को समझने का सरलीकरण है। यह भी तो हो सकता है कि हमने जो चावल उठाया हो वह पक गया हो और किनारे के चावल कच्चे हों या नीचे के जल गये हों। प्रत्येक का अपना व्यक्तित्व होता है।”
आश्वस्ति के भाव नरेशजी के चेहरे पर आये। बात को समाप्त करते हुए उन्होंने भाई को उठने का इशारा किया। सारा वातावरण इतना सहज था, साथ ही नरेशजी का व्यवहार भी, जो मुझे बार-बार बोलने के लिए उकसा रहा था। यही कि उन दिनों बैरों को एक रुपया टिप देना बड़ी बात थी, परन्तु नरेशजी ने जब पाँच रुपये बैरे की प्लेट में रख दिये तो भाई ने टोका, “इतना पैसा टिप में क्यों दे रहे हो?”
मुझे बोलने की आवश्यकता नहीं थी, परन्तु मैं तपाक से बोल उठी, “हम लोग चाय पीने के लिए कितनी देर तक इस टेबल पर बैठे रहे। हमने कम-से-कम पाँच ग्राहकों का समय लिया, इसलिए इस बैरे को पाँच गुना टिप देना ठीक है।” और मैं उठकर बड़े सहज भाव से रेस्टोरेण्ट के स्वचलित दरवाजे को उतनी देर तक पकड़कर खड़ी रही जब तक नरेशजी बाहर निकल नहीं गये।
उस समय तो मैं सोच भी नहीं पायी कि नरेशजी मेरी हर बात को सुन ही नहीं रहे हैं, गुन भी रहे हैं। यह उन्होंने बाद में बताया कि उस दिन मैंने उनके मुँह पर दरवाजा बन्द न करके तब तक पकड़े रखा जब तक वे निकल नहीं गये थे। इस बात का उनके ऊपर बहुत प्रभाव पड़ा था। क्वालिटी से निकलकर मैं होस्टल चली गयी और वे लोग स्टेशन स्टेशन पहुँचकर जब भाई ने कोई बात नहीं की तो इन्होंने ही कहा, “यार श्रीकान्त, तुमने पूछा नहीं कि मुझे तुम्हारी बहन कैसी लगी ?”
“हाँ, कैसी लगी?”
“तुम कहो तो एक उपमा के द्वारा अपनी बात स्पष्ट करूँ?”
“बताओ, कैसी लगी ?”
“तुम तो जानते हो, मेरी कई महिला मित्र भी हैं। रेडियो की नौकरी में भी मैं कई महिला कर्मचारियों के सम्पर्क में आया हूँ। कई बार लखनऊ रेडियो पर मीटिंग में यह स्थिति हो जाती थी कि मैं अकेला पुरुष होता था और बाकी सब महिलाएँ। लोग मुझे कृष्ण कन्हैया कहकर भी चिढ़ाते थे। इस तरह महिलाओं की बातें सुनने और उन्हें व्यवहार करते देखने का मुझे अच्छा अनुभव है। आज लगा कि उन महिलाओं की बुद्धि, तेजी, शार्पनेस सब ऐसी थी जैसे सौ पावर का बल्ब हो, जो तेज रोशनी के साथ-साथ चकाचौंध भी देता है। परन्तु आज तुम्हारी बहन को देख-सुनकर लगा, जैसे मिट्टी का दीया, गोबर लीपे आँगन में रखा जल रहा हो, जो प्रकाश देने के साथ-साथ ठण्डक और शान्ति भी देता है।”
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निश्छलता का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि प्रथम रात्रि को मुझे देखते ही, पता नहीं कैसे, इन्हें अपनी प्रेमिका याद आ गयी। पहले प्यार (प्रथम फाल्गुन) को भूलना वैसे भी दुष्कर है। मुझे सामने बैठाकर सारे किस्से कहे जा रहे हैं, आँखों से अविरल अश्रुधारा बह रही है। याद में ऐसी तड़प थी कि शायद, सामने बैठी हुई मैं भी दिखाई नहीं दे रही थी। ये अपना पहला प्यार, उसके लिए अपनी तड़प सब कुछ जैसे मेरे सामने उड़ेल देना चाह रहे थे, “अगर वह जीवित होती तो निश्चित ही आज तुम्हारी जगह वह होती। मैं किसी की बात मानता थोड़े ही। मैं जानता हूँ, अनजाने में मेरे किसी व्यवहार से उसको चोट पहुँची होगी। अचानक मेरा ट्रान्सफर हो गया और मुझे सफाई देने का अवसर ही नहीं मिला। खामखाह वह ग़लतफ़हमी का शिकार हो गयी ।
मैं सोच रही थी- यह व्यक्ति किसी को कितनी गहराई से प्यार कर सकता है कि आज के दिन भी यह उसी अपने पहले प्यार में डूबा हुआ है, मैं भी दिखाई नहीं दे रही हूँ। अब अपनी उपस्थिति की याद दिलाकर उतनी ऊँचाई से इनको नीचे लाने का कोई अर्थ नहीं, तब क्या करना चाहिए? अचानक मेरा मातृत्व जाग उठा (उम्र में दस वर्ष का अन्तर होते हुए भी) और मैंने अपने आँचल से इनके आँसू पोछते हुए, इनकी निःश्वास में अपनी भी निःश्वास मिलाते हुए कहा, “अब क्या हो सकता है! प्रभु को जो मंजूर था, हो गया। अगर मुझमें जरा भी शक्ति हुई तो मैं आपके सारे दुख-दर्द भुलवा दूंगी। मैं इन सबकी जगह ले लूँगी और आपको इस तड़प और अपराधभाव से मुक्त कर दूँगी। पर इस समय तो आप अपनी कोई कविता सुनाइए।”
मेरी बात का असर हुआ, ‘थीं घिरी उस साँझ भी कबरी हरिण-सी बदलियाँ’ ….. और कविता सुनाने का सिलसिला कई महीनों तक चलता रहा। मेरे इस व्यवहार का सकारात्मक असर हुआ। मेरे बार-बार मना करने पर भी कि जिसकी स्मृति और प्रेरणा से अधिकांश कविताओं की रचना हुई, काव्य संकलन उसी को समर्पित होना चाहिए, ये कविताएँ मुझे समर्पित की गयीं।
( प्रस्तुत अंश श्री महिमा मेहता द्वारा लिखित पुस्तक उत्सव पुरुष नरेश मेहता से लिया गया है )
प्रस्तुति : अभिषेक उषा नागर, मालवा के नलखेड़ा कस्बे में जन्म । उज्जैन में अपनी शिक्षा पूर्ण कर वर्तमान में बीना मध्य प्रदेश में कार्यरत।
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