Wednesday, December 11, 2024
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स्त्री प्रतिरोध की कविता और उसका जीवन

प्रतिरोध की कविताएं

स्त्री दर्पण मंच पर मुक्तिबोध की स्मृति में ‘प्रतिरोध कविता श्रृंखला’ की शुरुआत की गई। प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह द्वारा संयोजित इस श्रृंखला में आप विभिन्न कवयित्रियों की कविताएं पढ़ रहे हैं। जिस में अब तक शुभा, शोभा सिंह, निर्मला गर्ग, कात्यायनी, अजंता देव, प्रज्ञा रावत, सविता सिंह, रजनी तिलक, निवेदिता, अनिता भारती, हेमलता महिश्वर जैसी वरिष्ठ कवयित्रियों की कविताएं एवं साथ ही समकालीन कवयित्री वंदना टेटे, रीता दास राम, नीलेश रघुवंशी, निर्मला पुतुल एवं सीमा आज़ाद की कविताएं प्रस्तुत की जा चुकी हैं।
आज मंच पर कवयित्री सुशीला टाकभौरे की कविताएं आपके समक्ष हैं।

“प्रतिरोध कविता श्रृंखला” पाठ – 16 में कवयित्री सीमा आज़ाद की कविताओं को आप पाठकों ने पढ़ा। आपके विचार व टिप्पणियों से सभी लाभान्वित हुए।
आज “प्रतिरोध कविता श्रृंखला” पाठ – 17 में कवयित्री सुशीला टाकभौरे की कविताएं परिचय के साथ प्रस्तुत हैं।
पाठकों के सहयोग, स्नेह व प्रोत्साहन का सादर आभार व्यक्त करते हुए प्रतिक्रियाओं का इंतजार है।

– सविता सिंह
रीता दास राम
आज हिन्दी में स्त्री कविता अपने उस मुकाम पर है जहां एक विहंगम अवलोकन ज़रुरी जान पड़ता है। शायद ही कभी इस भाषा के इतिहास में इतनी श्रेष्ठ रचना एक साथ स्त्रियों द्वारा की गई। खासकर कविता की दुनिया तो अंतर्मुखी ही रही है। आज वह पत्र-पत्रिकाओं, किताबों और सोशल मिडिया, सभी जगह स्त्री के अंतस्थल से निसृत हो अपनी सुंदरता में पसरी हुई है, लेकिन कविता किसलिए लिखी जा रही है यह एक बड़ा सवाल है। क्या कविता वह काम कर रही है जो उसका अपना ध्येय होता है। समाज और व्यवस्थाओं की कुरूपता को बदलना और सुन्दर को रचना, ऐसा करने में ढेर सारा प्रतिरोध शामिल होता है। इसके लिए प्रज्ञा और साहस दोनों चाहिए और इससे भी ज्यादा भीतर की ईमानदारी। संघर्ष करना कविता जानती है और उन्हें भी प्रेरित करती है जो इसे रचते हैं। स्त्रियों की कविताओं में तो इसकी विशेष दरकार है। हम एक पितृसत्तात्मक समाज में जीते हैं जिसके अपने कला और सौंदर्य के आग्रह है और जिसके तल में स्त्री दमन के सिद्धांत हैं जो कभी सवाल के घेरे में नहीं आता। इसी चेतन-अवचेतन में रचाए गए हिंसात्मक दमन को कविता लक्ष्य करना चाहती है जब वह स्त्री के हाथों में चली आती है। हम स्त्री दर्पण के माध्यम से स्त्री कविता की उस धारा को प्रस्तुत करने जा रहे हैं जहां वह आपको प्रतिरोध करती, बोलती हुई नज़र आएंगी। इन कविताओं का प्रतिरोध नए ढंग से दिखेगा। इस प्रतिरोध का सौंदर्य आपको छूए बिना नहीं रह सकता। यहां समझने की बात यह है कि स्त्रियां अपने उस भूत और वर्तमान का भी प्रतिरोध करती हुई दिखेंगी जिनमें उनका ही एक हिस्सा इस सत्ता के सह-उत्पादन में लिप्त रहा है। आज स्त्री कविता इतनी सक्षम है कि वह दोनों तरफ अपने विरोधियों को लक्ष्य कर पा रही है। बाहर-भीतर दोनों ही तरफ़ उसकी तीक्ष्ण दृष्टि जाती है। स्त्री प्रतिरोध की कविता का सरोकार समाज में हर प्रकार के दमन के प्रतिरोध से जुड़ा है। स्त्री का जीवन समाज के हर धर्म जाति आदि जीवन पितृसत्ता के विष में डूबा हुआ है। इसलिए इस श्रृंखला में हम सभी इलाकों, तबकों और चौहद्दियों से आती हुई स्त्री कविता का स्वागत करेंगे। उम्मीद है कि स्त्री दर्पण की प्रतिरोधी स्त्री-कविता सर्व जग में उसी तरह प्रकाश से भरी हुई दिखेंगी जिस तरह से वह जग को प्रकाशवान बनाना चाहती है – बिना शोषण दमन या इस भावना से बने समाज की संरचना करना चाहती है जहां से पितृसत्ता अपने पूंजीवादी स्वरूप में विलुप्त हो चुकी होगी।
स्त्री प्रतिरोध की हमारी सत्रहवीं कवि सुशीला टाकभौरे हैं। दलित स्त्री साहित्य को संपन्न करने वाली यह कवि सूरज को कहती हैं, तुम आना इस देश क्योंकि अंधकार कुछ ज्यादा ही फैल गया है। शोषण का जातिवादी तंत्र टूटने का नाम नहीं ले रहा है। उस पर से राजनैतिक तानाशाही हमारी जीवन लीला को और भी जल्दी ही समाप्त कर देना चाहती है। जिस तरह से मजदूर भागते हुए अपने घरों की ओर भागे जब लॉक डाउन हुआ, जब कोरोना के विषाणुओं का प्रसार हुआ, उनकी बदहाली का रूप सामने आया। भारत कैसे एक महान देश बनेगा, इसकी चिंता कवि को ठीक ही सता रही है। शायद आंबेडकर के बताए रास्ते पर चलने से कोई हल निकले। पढ़िए हिंदी की महत्वपूर्ण कवि, सुशीला टाकभौरे की कविताएं, आज।
सुशीला टाकभौरे का परिचय :
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जन्म : 4 मार्च 1954, मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के बानापुरा गाँव में। शिक्षा : पीएचडी। सेठ केसरीमल पोरवाल कॉलेज, कामठी (महाराष्ट्र) में अध्यापन करते हुए सेवानिवृत्। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, आलोचना, साक्षात्कार आदि विधाओं में उत्कृष्ट लेखन कार्य।
इनकी रचनाओं में साहित्य, समाज, राजनीति, स्त्री और अन्य विषयों पर केन्द्रित नारी संवेदना, दलित अस्मिता एवं अस्तित्व के विभिन्न प्रश्न के साथ वर्णाश्रम आधारित मनुवादी समाज व्यवस्था के शोषण, ब्राह्मणवादी व्यवस्था का नग्न यथार्थ, दलितों की पीड़ा, संताप एवं अपमान की गहरी अनुभूतियाँ, सामंती-जातिवादी व्यवस्था के खिलाफ दलित समाज के प्रतिरोध का मुखर स्वर ही प्रमुख है।
प्रकाशित चार कविता संग्रह : ‘स्वाती बूँद और खारे मोती’, ‘यह तुम भी जानो’, ‘तुमने उसे कब पहचाना’, ‘हमारे हिस्से का सूरज’। कहानियों के अब तक चार संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं— ‘अनुभूति के घेरे’, ‘संघर्ष’, ‘टूटता वहम’, ‘जरा समझो’। उपन्यास : ‘नीला आकाश’ ‘तुम्हें बदलना ही होगा’ ‘वह लड़की’। ‘रंग और व्यंग्य’ नामक एकांकी संग्रह तथा ‘नंगा सत्य’ नामक नाटक भी प्रकाशित है। साक्षात्कारों के दो संकलन— ‘मेरे साक्षात्कार’ तथा ‘साक्षी है संवाद’ भी प्रकाशित हैं। इनकी ‘परिवर्तन जरूरी है’, ‘दलित साहित्य : एक आलोचना दृष्टि’, ‘हाशिए का विमर्श’ तथा ‘धन्यवाद के बहाने’ आदि पुस्तकों में निबंध, लेख एवं समीक्षा संकलित हैं। ‘हिंदी साहित्य के इतिहास में नारी’, ‘भारतीय नारी : समाज और साहित्य के ऐतिहासिक संदर्भों में’ तथा ‘दलित लेखन में स्त्री चेतना की दस्तक’ शोध एवं समीक्षापरक पुस्तकों में स्त्री जीवन के विविध पहलुओं पर विचार करते हुए उनकी स्थिति एवं योगदान को साहित्य, समाज एवं इतिहास में बखूबी रेखांकित किया है। आत्मकथा : ‘शिकंजे का दर्द’।
सुशीला टाकभौरे की विशिष्ट साहित्यिक उपलब्धियों को देखते हुए उन्हें अनेक संस्थाओं एवं संगठनों द्वारा सम्मानित एवं पुरस्कृत किया गया है, जिनमें प्रमुख हैं—मध्यप्रदेश दलित साहित्य अकादमी का विशिष्ट सेवा सम्मान तथा रमणिका फाउंडेशन का सावित्रीबाई फुले सम्मान, महाराष्ट्र हिंदी साहित्य अकदमी का डॉ. ऊषा मेहता हिंदी सेवा सम्मान।
सुशीला टाकभौरे की कविताएं :
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१. सूरज तुम आना
सूरज,
तुम आना इस देश
अन्धकार फैला है सदियों से
विषमता, धर्मान्धता,
अन्धविश्वास है सब ओर।
धधक रही है आग शोषण की
आतंक फैला रही
भेदभाव की आंच।
ये हिन्सक जातिवादी
पनपने नहीं देते भाईचारा
सडी-गली मानसिकता के दलाल
बंजर जमीन से भी बदतर है
इनके विचार।
सूरज तुम आना
हर गांव, हर शहर में
अपनी उर्जा से, ताप से
बदल देना बीमार मानसिकता
फैला देना, परिवर्तन का प्रकाश !
२. बाबासाहब
दलित जनों के मन में
आपकी है छाप
आपके रहते फिर क्यूं है
अन्याय और तम-संताप ?
कितना ज्ञान दिया,
उद्बोधन प्रेरणा प्रोत्साहन
ग्रन्थ लिखे, छपवाये
कितने अखबार।
मूकनायक, प्रबुध्द भारत, समता
संघर्ष, आन्दोलन, क्रांति के
विचार-वाहक
क्यूं अज्ञानी है, फिर भी यह समाज ?
आपके बल से वे बलवान
आपके ज्ञान-धन से वे धनवान
आसमान के सूरज आप धरती के सिरमोर
फिर भी वे कमजोर ?
कहा था आपने ईश्वर नहीं
मनुष्य ही प्रधान है
केवल पुरूष नहीं
स्त्री-पुरूष समान है।
ऐसा श्रेष्ठ ज्ञान
फिर भी समाज अनजान
कब होगा सबेरा, कब बीतेगी यह रात ?
कब होगा हमारा भारत देश महान!
३. ईश्वर
अब तक घटती थी घटनाएँ
ईश्वर की ही इच्छा से
बन जाता था ईश्वर तब
और शक्तिशाली, अधिक प्रभावशाली।
कि करता है सब कुछ वही
उसके बिना पत्ता नहीं हिलता
मनुष्य क्या चीज है, नगण्य तिनके जैसा
यही प्रचार था अब तक, ईश्वर के लिए।
यह कैसा समय आया है ‘कोरोना-काल’ में
ईश्वर को ही कर दिया है बन्द
मंदिर, मस्जिद, गिरजाघरों में
कि मनुष्य स्वयं ही करेगें मनुष्यों की रक्षा।
डॉक्टर अब बड़ा है ईश्वर से
पुलिस बन गई है शुभचिन्तक हमारी
ईश्वर को बाजू रख दो, बांधकर पोटली में
उसका कुछ काम नहीं है ‘कोरोना-काल’ में।
लॉकडाउन का पालन किया है सबने
यह ईश्वर का आदेश नहीं, सुरक्षा का संदेश है
मान भी जाओ यह सत्य अब सब,
ईश्वर नहीं है कहीं, यह दुष्टों का फैलाया जाल है।
कौन है ईश्वर, क्या है उसका धर्म ?
मनुष्य ही है ईश्वर, मानवता ही है धर्म
करने लगे हैं सब कबूल इसे –
दो हजार बीस का है, यह सबसे बड़ा संदेश।
४. मजदूर
मेरी आँखों में दिख रहे हैं वे मजदूर
कई महिनों से थे जो अपने घर-परिवार से दूर
रोजी-रोटी की तलाश में भटक रहे थे
दूर प्रान्तों के अनजान महानगरों में।
चलता रहा है बरसों से यही सब
मेहनतकश लौटते थे अपने घर इत्मीनान से
मगर यह ट्वन्टी – ट्वन्टी में महामारी का भय
जनवरी-फरवरी सुगबुगाहट रही धीरे-धीरे।
मार्च से दहशत की आग फैली थी सब तरफ
बन्द हो गए सभी काम-रोजगार
खाली बैठे रहे झुग्गी-झोपड़ी में भूख से परेशान वे!
सभी थे बेहाल, हर दिन, कल की चिन्ता से त्रस्त।
क्या हो रहा होगा, गांव में बीबी बच्चों के साथ ?
जिनके लिए खून-पसीना एक कर, भटक रहे हैं, दर-ब-दर
देख भी पायेगें क्या ? अन्तिम समय अपने प्रियजनों को!
जब भूख से ही मरना है, तब कोराना से क्या डरना ?
चल पडे़ वे श्रमिक-मजदूर पैदल, बेबस मिलने परिवार से
लॉकडाउन में बस-रेल, वाहन नहीं था कोई
चलते रहे पैदल, सैकड़ो – हजारो मील,
दूरी पार करते, भूखे-प्यासे, गिरते-पड़ते!
कितने पहुंच पाये अपने गांव, अपने घर-परिवार तक ?
कितनों ने तोड़ दिया दम, रास्ते में ही, बिछड़ गये अनायास
मौत से घबराकर भागे, समा गये उसी के आगोश में
टेलीव्हिजन और समाचार पत्रों में देख, दहलते रहे हम!
मजदूरों का जीवन क्या इतना निर्मूल्य है ?
कोई कर्तव्य नहीं देश के नागरिकों के लिए, सत्ताधीशों के
हवाई किलों की बहस और झूठे भ्रमों में उल्झाने वालों –
क्यों नहीं बचाया उन्हें, समय पर सही निर्णय लेकर ?
कितने दर्दनाक उनके जख्म, पैदल यात्रा में उनकी दुर्दशा!
औचित्य नहीं था ताली और थाली बजवाने का,
हुक्म बादशाह का था दीपावली मनाने का
क्यों रही इतनी चुप्पी, इन गरीब शोषित वंचितों के लिए ?
अब नहीं लौटेंगें वे पुनः अपने काम पर
याद करते रहेंगें मालिक, उनकी ईमानदारी और हुनर को
फिर तैयार किया जायेगा नए मजदूरों को
मानवताहीन समाज में चलता रहेगा सिलसिला शोषण का।
देश के मजदूरों एक हो जाओ, करने बगावत –
सवर्ण सामन्तों के विरूद्ध, सर्वहारा के अधिकारों के लिए,
‘कोरोना काल’ ने बता दिया है, मजदूर मनुष्यों का मूल्य
इतना सस्ता नहीं उनका जीवन, परिवार का दुख-दर्द !
५. भयभीत लोग
कोविड – 19 से भयभीत हैं सभी लोग
सूने हो गए हैं – गली सड़कें चौक चौबारे।
पहचानते नहीं कोई किसी को जैसे
खामोश – से हो गए हैं सब।
हर दो-चार दिन में लोग
पूछ लेते हैं फोन पर तबियत का हालचाल
सुनकर ही डर-सा लगता है
कि हम भी हो सकते हैं इस महामारी के शिकार।
ठहराव सा आ गया है, जिन्दगी के 2020 में
होगा क्या कल, होगा क्या नया साल 2021 में ?
कब तक भय की छाया में रहें भयभीत
चाहिए जीने के लिए निश्चिन्ता और विश्वास
कुछ लोग कर रहे हैं समय का पूरा उपयोग,
लॉकडाउन में मिली छुट्टी में, हो रहे हैं पूरे उनके काम,
चल रहा है पढ़ना, लिखना बेधड़क निश्चिन्तता के साथ।
फिर मैं हूँ क्याों परेशान ? सोचती हूँ सबके लिए,
वह समय आये फिर से स्वस्थ निर्भीकता का
फिर से वह हंसी खिलखिलाहट शुरू हो,
लोग एक दूसरे से मिलने लगें गले, प्रेम-भाव से
कोविड – 19 बन जाये, पिछली रात का बुरा सपना।
६. नया साल मुबारक
दिन बीते, महिने बीते, बीत गया साल
‘नये वर्ष’ के रूप में, आ गया नया साल।
आ गया इठलाता, बीते वर्ष को झुठलाता
थोडे़ दिन भरमायेगा, गीत खुशी के गायेगा।
फिर वही होगा अखबार, होगें फिर वही समाचार
डरकर जिन से सब करते हैं, नये साल का इन्तजार।
पहली तारीख के बाद, फिर वही सुबह-शाम
हो जायेगा पुराना, फिर यह नया साल।
आज संगीत के नशे में डूब रहे हैं लोग
‘नया साल मुबारक’,

बधाई

दे रहे हैं लोग।

७. कोरोना काल में सफाई कामगार
पहले भी अछूत थे
अभी भी अछूत हैं
सेवा कर रहे हैं ‘कोरोना काल’ में
खतरे में डालकर अपना जीवन।
सब बैठे हैं अपने घरों में सुरक्षित
इनको नहीं मगर यह सुविधा
समाज को सुरक्षित रखने हेतु
करना है हर दिन सफाई काम।
कहने को कहा जा रहा है
वे भी हैं देश के सिपाही
डॉक्टर पुलिस की तरह समाज रक्षक
क्या सचमुच हो गये हैं वे अब सम्मानित ?
फूल बरसाते हुए उन पर
फोटो, विडिओ दिखाये जा रहे हैं
‘कोरोना काल’ के बाद भी
क्या रहेगा उनके प्रति यह आदर-भाव?
लॉकडाउन में जैसे
सबको थी वेतन के साथ छुट्टी
नहीं मिली सफाई कामगारों को यह सुविधा,
क्योंकि अपने घर-काम की तरह स्वयं
नहीं कर सकते उनके यह काम सवर्ण।
‘कोरोना काल’ में नहीं छिप सकी हकीकत
कितना निकृष्ट है
सफाई कामगारों का रोजगार और जीवन!
बदलनी चाहिए अब तो
वर्ण और जाति की विषम व्यवस्था
‘कोरोना’ ने सिखा दिया है
इन्सान की अहमियत, और जीवन का लक्ष्य।
८. आज का सत्य
लिख रहे थे अब तक दलित विचारवान
धर्मांडम्बर के विरूद्ध सच्चा साहित्य
‘कोरोना’ ने भी बता दिया सबको अब
नहीं धर्म की जरूरत, नहीं है कहीं भगवान, ।
रचे गए थे धर्म ग्रन्थ ब्राह्मणवाद के लिए
नहीं कर सकते सामना करोना-काल का
मिट्टी-पत्थर के भगवान की
आ गई है सच्चाई सबके सामने।
नहीं बनाना चाहिए अब कोई मंदिर
बनाना चाहिए अस्पताल जीवन रक्षा के लिए
तर्क और बुद्धि से जानिए देशवासियों
भगवान राम नहीं, अब डॉ. राम किये जायेंगें याद।
लोग लुटते हैं, लूटे जाते हैं अन्धविश्वास में
अरबों, करोड़ो की यही सम्पति है धर्म स्थानों में
न देश हित है, न जन हित, केवल पंडो का हित,
टूटेगा अन्धविश्वास ‘करोना – काल’ में ।
झोली पसार मानव मांग रहे हैं मदद जन-जन से
कोई भूखा न रहे, कोई न मरे कोविड – 19 से
कर रहे हैं मदद घर – घर जाकर गरीबों की
वे ही भगवान हैं, यही है भक्ति और धर्म का सत्य रूप।
९. गमले की फसल और 15 अगस्त
मेरे घर के सामने, सड़क के उस पार
बड़ी इमारत के टेरेस पर
फूलों के गमलों की बगिया है।
वहाँ एक गमले में उगा दिया है
छोटे बच्चे ने तिरंगा झंडा।
आज 15 अगस्त है
देखते हैं, कब आयेगी यह फसल
कब ऊगेगी, कब बढे़गी?
संशय यह भी है, गमले की फसल कहीं
सीमित न रह जाये गमले तक ही।
अक्सर होता है, कुछ ऐसा ही
बड़ी इमारतों की छत या आंगन में
ध्वजारोहण कर लेते हैं अलग से
ऊंची सोसायटी के बडे़ लोग
अपने ईष्ट मित्रों को बुलाकर
एक दूसरे को आजादी की

बधाई

देते हुए

चाय-पानी, खारा-मीठा के साथ
कर लेते हैं समापन।
फिर बनाते है वे न्यूज
अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित
राष्ट्रीय पर्व के ध्वजारोहण-कार्यक्रम की
खीचीं गई तस्वीरों के साथ।
भेजी जाती हैं तुरन्त अखबारों में खबर
व्हाट्स अप, फेसबुक पर
देखते हैं लोग उसी समय
बढ़-चढ़ कर देते हैं

बधाई
उनके राष्ट्रप्रेम और देशभक्ति के नाम पर।
और हम, सड़क के इस पार के लोग
देखते रहते हैं राष्ट्रीय पर्व का निजीकरण
और कुछ लोगों की राष्ट्रभक्ति का प्रचार-प्रसार
यहाँ पूरा देश कहां है?
१०. हमारा राष्ट्रीय पर्व
15 अगस्त
देश की स्वतंत्रता का राष्ट्रीय पर्व
मनाते रहे हैं हम 1947 से।
मगर अब लगने लगा है
जी रहे हैं हम तानाशाही में।
प्रजातंत्र देश की
यह कैसी आजादी है?
उच्च सवर्ण सत्तारूढ़ दबंग
कर रहे हैं लगातार अपनी मनमानी।
कब होगा स्वतंत्र प्रजातंत्र
जिसमें कह सकें हम भी –
भारत हमारा देश है!
सुनो देशवासियों,
हम सबका है यह देश
इसमें है हमारी भी हिस्सेदारी
और सत्ता में बराबर की भागीदारी भी।
खत्म करो देश से हिटलरशाही
असामाजिक तत्वों की जालसाजी
कितनी कुरबानियाँ दी है हमारे पूर्वजों ने
तुम छीन रहे हो अधिकार हमारे, आजादी भी!
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