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Tuesday, October 8, 2024
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स्त्री प्रतिरोध की कविता और उसका जीवन

प्रतिरोध की कविताएं

कवयित्री सविता सिंह

स्त्री दर्पण मंच पर प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह के संयोजन में ‘प्रतिरोध कविता श्रृंखला’ के तहत वरिष्ठ कवयित्रियों में आप पाठकों ने शुभा, शोभा सिंह, निर्मला गर्ग, कात्यायनी, अजंता देव की कविताओं को पढा। आज हम आपके समक्ष वरिष्ठ कवयित्री प्रज्ञा रावत की कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं।

“प्रतिरोध कविता श्रृंखला” पाठ – 5 में वरिष्ठ कवयित्री अजंता देव की कविताओं के बाद आपके समक्ष आज “प्रतिरोध कविता श्रृंखला” पाठ – 6 में वरिष्ठ कवयित्री प्रज्ञा रावत की परिचय के साथ कविताएं प्रस्तुत हैं।
प्रोत्साहन के लिए हम आप पाठकों का आभार व्यक्त करते हैं।
आज हिन्दी में स्त्री कविता अपने उस मुकाम पर है जहां एक विहंगम अवलोकन ज़रुरी जान पड़ता है। शायद ही कभी इस भाषा के इतिहास में इतनी श्रेष्ठ रचना एक साथ स्त्रियों द्वारा की गई। खासकर कविता की दुनिया तो अंतर्मुखी ही रही है। आज वह पत्र-पत्रिकाओं, किताबों और सोशल मिडिया, सभी जगह स्त्री के अंतस्थल से निसृत हो अपनी सुंदरता में पसरी हुई है, लेकिन कविता किसलिए लिखी जा रही है यह एक बड़ा सवाल है। क्या कविता वह काम कर रही है जो उसका अपना ध्येय होता है। समाज और व्यवस्थाओं की कुरूपता को बदलना और सुन्दर को रचना, ऐसा करने में ढेर सारा प्रतिरोध शामिल होता है। इसके लिए प्रज्ञा और साहस दोनों चाहिए और इससे भी ज्यादा भीतर की ईमानदारी। संघर्ष करना कविता जानती है और उन्हें भी प्रेरित करती है जो इसे रचते हैं। स्त्रियों की कविताओं में तो इसकी विशेष दरकार है। हम एक पितृसत्तात्मक समाज में जीते हैं जिसके अपने कला और सौंदर्य के आग्रह है और जिसके तल में स्त्री दमन के सिद्धांत हैं जो कभी सवाल के घेरे में नहीं आता। इसी चेतन-अवचेतन में रचाए गए हिंसात्मक दमन को कविता लक्ष्य करना चाहती है जब वह स्त्री के हाथों में चली आती है। हम स्त्री दर्पण के माध्यम से स्त्री कविता की उस धारा को प्रस्तुत करने जा रहे हैं जहां वह आपको प्रतिरोध करती, बोलती हुई नज़र आएंगी। इन कविताओं का प्रतिरोध नए ढंग से दिखेगा। इस प्रतिरोध का सौंदर्य आपको छूए बिना नहीं रह सकता। यहां समझने की बात यह है कि स्त्रियां अपने उस भूत और वर्तमान का भी प्रतिरोध करती हुई दिखेंगी जिनमें उनका ही एक हिस्सा इस सत्ता के सह-उत्पादन में लिप्त रहा है। आज स्त्री कविता इतनी सक्षम है कि वह दोनों तरफ अपने विरोधियों को लक्ष्य कर पा रही है। बाहर-भीतर दोनों ही तरफ़ उसकी तीक्ष्ण दृष्टि जाती है। स्त्री प्रतिरोध की कविता का सरोकार समाज में हर प्रकार के दमन के प्रतिरोध से जुड़ा है। स्त्री का जीवन समाज के हर धर्म जाति आदि जीवन पितृसत्ता के विष में डूबा हुआ है। इसलिए इस श्रृंखला में हम सभी इलाकों, तबकों और चौहद्दियों से आती हुई स्त्री कविता का स्वागत करेंगे। उम्मीद है कि स्त्री दर्पण की प्रतिरोधी स्त्री-कविता सर्व जग में उसी तरह प्रकाश से भरी हुई दिखेंगी जिस तरह से वह जग को प्रकाशवान बनाना चाहती है – बिना शोषण दमन या इस भावना से बने समाज की संरचना करना चाहती है जहां से पितृसत्ता अपने पूंजीवादी स्वरूप में विलुप्त हो चुकी होगी।
स्त्री प्रतिरोध कविता श्रृंखला में हमारी छठी कवयित्री प्रज्ञा रावत हैं। इनकी कविताएं मुखर प्रतिरोध की कविताएं नहीं है, परंतु ये भीतर बैठे गहरे असंतोष को अभिव्यक्त करने वाली कविताएं अवश्य हैं। इनको पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि प्रतिरोध की भूमिका यहाँ बन रही है। ऐसी कविताओं का भी स्वागत हमें करना चाहिए। जिस कवयित्री के अंतस में प्रकृति के तमाम जीव जंतुओं के प्रति इतनी करुणा हो तब वह क्योंकर न समाज में धकियाकर दरकिनार कर दिए गए लोगों की आवाज बने। हमें प्रसन्नता है कि प्रज्ञा रावत की इन महत्वपूर्ण कविताओं को इस श्रृंखला में हम शामिल कर पाए हैं।
प्रज्ञा रावत का परिचय :
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जन्म 2 दिसम्बर 1961, झाँसी (उ.प्र) शिक्षा : शासकीय सरोजिनी नायडू कन्या महाविद्यालय, (बरकतुल्ला विश्विद्यालय) भोपाल, से बी.ए. अंग्रेजी में, एम. ए., बी.एड. (आर आई. ई, NCERT) तथा पी.एच.डी।
अध्यापन : मध्य प्रदेश उच्च शिक्षा विभाग, शासकीय बेनज़ीर महाविद्यालय में अंग्रेजी की प्रवक्ता। अरुंधति रॉय के सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि पर शोध।
कविता संग्रह : जो नदी होती (2012)
संपादन : यह महज़ कोरा कागज़ नहीं (कविता संग्रह : भगवत रावत) बोधि प्रकाशन, 2016.
राग भोपाली : शैलेन्द्र शैली जी के संपादन में विशेषांक, “प्रज्ञा रावत- जिजीविषा की कविता” प्रकाशित नवम्बर 2021.
अभी तक विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में कविताऍ व आलेख प्रकाशित|
सम्मान: साहित्य सुरभि अलंकरण (2010), वागीश्वरी सम्मान – मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मलेन,जो नदी होती संग्रह के लिए (2012), डॉ सुषमा तिवारी सम्मान -दुष्यंत कुमार पाण्डुलिपि संग्रहालय का (दिसम्बर 2018)।
ब व कारंत के बच्चों के नाटक में गायन। देश की पहली संस्कृत फ़िल्म ‘आदि शंकराचार्य’ में सह-गायन। नीलम मानसिंह के निर्देशन में ‘जस्मा ओढ़न’ में गायन।
प्रज्ञा रावत की कविताएं :
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1 जब मैं कहती हूं
जब मैं कहती हूँ
कविता तुम मेरे पसीने से उपजीं
मेरी आत्मा में रची-बसीं
जीवन के गड्ड-मगड्ड उतार-चढ़ावों के बीच से
निकालती रही हो साफ़ रास्ते तक
उसका मतलब उन सारे सम्बन्धों से होता है
जो जीवन की हर डोर के साथ
लिपटे हुए होते हैं क्योंकि
वो तुम ही हो जिसने घोर-अंधकार
और निराशा में भी छोड़ा नहीं साथ
रही ही हो तुम जीवन की लय में
आदिमकाल से आदमी के सफ़र में
उसकी साँसों की तरह
निर्बाध गति के साथ बही हो तुम
अब
जब कुछ सफ़ेदपोश तुम्हारे
पढ़े जाने पर उठाएँ सवाल
तो मैं इतनी भी कायर नहीं कि
मुँह फेरकर खड़ी हो जाऊँ
मैं फिर ले जाऊँगी तुम्हें
उन सब जगहों पर जहाँ-जहाँ
से तुम्हें किया गया बेदख़ल
गाऊँगी तुम्हें उसके सामने जिसकी
ज़िन्दगी पर पड़ गया पाला
और उसके सामने जिसकी अनाज की बालों
को लूट लिया गया बेईमानी से
वो जो बैठा है फन्दा बनाकर
मैं जाऊँगी वहाँ उसके पास
जिसने मटके बनाना छोड़ दिया
और बनाना चाहता है अपने
बच्चों को बाबू क्योंकि उसे पता है
कि अब मटकों से बुझती नहीं प्यास
मिट्टी को इतना उगाया पीसा और महीन
बना दिया गया है कि वो ख़ुद
डरती है अपने चेहरे से
तो मैं तुम्हें गाऊँगी
उन-उन जगहों पर जहाँ आदमी के
हाथ में तलवार है, बन्दूकें तनी हैं
एकदम तैयार हैं सब मरने-मारने को
चारों तरफ आतंक और गुण्डागर्दी का साया है
आँखों की शर्म के पर्दे तार-तार हो चुके हैं
पूँजी का खेल अपने निकृष्टतम आचरण में है
इस समय तुम्हारी नेक आवाज़ की
बहुत ज़रूरत है कविता
क्योंकि वो सिर्फ़
तुम ही हो जो बदल सकती हो दिशाएँ-दशाएँ
अब तुम्हें किताबों और पन्नों से उतारकर
उठाकर गाया जाना बहुत ज़रूरी है
और मैं
इसे दुनिया के तमाम
ज़रूरी और
ख़ूबसूरत कामों की तरह करूँगी।
2 मंगल-गान
सूरज की एक ख़ूबसूरत किरण-सी
हमारी सुबह को खुशनुमा बनातीं
सीलन को धूप दिखातीं
अपनी जादुई छड़ी से
हमारे अलसाए घर को जगातीं
हर रोज़ जब दाख़िल होती हैं
हमारे दरवाज़ों के भीतर
ये कामवालियाँ
तो दरअसल
वे ही तो हैं जो सचमुच झेलती हैं
विस्थापित होने का दर्द हर तरफ़ से
खड़ी रहती हैं फिर भी एक मजबूत
लोहे की दीवार-सी स्थापित
हमारे हर दुःख में
उनके चेहरे पर टँकी होती हैं
हमारे दिन के शुरू होने की पहली रेखा
वो नहीं जानतीं
विस्थापित या स्थापित
होने की परिभाषा
और उनके बारे में किए जा रहे
विमर्षों को
वो नहीं जानतीं उन व्याख्यानों को
जो छपते-बिकते हैं हज़ारों में
उनके बारे में
श्रम के हाथों की कठपुतली
वे हैं बेख़बर अपनी ताक़त से
उनके धीरे-धीरे उभरते वजूद में
जब वेग आएगा अपनी पूरी ताक़त के साथ
तब हज़ारों साल के दंश की
सीलन को वे दूर हटाएँगी
परत दर परत
वह समय उनका होगा
अनन्तकाल से इन्तज़ार करते
आईने तब मुस्करा उठेंगे
वो झटपट फेंक आएँगी अपनी
सारी की यारी यातनाएँ
बड़े-बड़े कूड़ेदानों में
और मिल-बैठ फिर
गाने लग जाएँगी कोई नया
मंगल-गान।
3 ईमानदार आदमी
ईमानदार आदमी ने कभी
ढूँढ़ा नहीं किसी का साथ
ईमानदारी अपनी निर्मलता के साथ
रहती है एकदम अकेली
जहाँ है बेईमानी अनाचार
देखो कितने डरे पिटे-पिटे से
विचरते झुण्डों में करते हुए क़िलाबन्दी
कतरते हैं दूसरों के पंख
ईमानदारी फिर-फिर उठ खड़ी होती है
बूँद-बूँद सँजोए ख़ुद को
कितना बोझिल-सा लगने लगा है
आदिमकाल से चले आ रहे ईमानदारी के
इस परम सच का बार-बार कहना-सुनना
सफलता और असफल के पैमानों के बीच
अपने जीवन के प्रश्नों का उत्तर खोजते
इस महादौर में नीति की ये बातें
किसी पाठ का हिस्सा नहीं अब
अब जबकि शब्दों के इतने कुरूप और बेस्वाद
हो चुके अर्थों का शोकगीत गा रही हो भाषा
तब किस भाषा में अपने बच्चों को
पढ़ाऊँ जीवन के ज़रूरी पाठ
यह सोचते-सोचते अचानक
नज़र उस आदमी पर ठहर गई
जो किसी अटल चट्टान की तरह
खड़ा रहा जीवन के उतार-चढ़ावों में
नहीं छोड़ा तो बस एक विश्वास कि
भले ही मान लिया गया हो
इन बातों को बोझिल-बेस्वाद
पर सच तो है यही कि
ईमानदारी निहत्थी ही सुन्दर लगती है
और अपनी, अपनी क्या कहूँ
मैं इस विश्वास के सामने नतमस्तक हो गई।
4 प्रतिरोध
कुछ बरामदे नहीं होते जो तो आख़िर
आदमी अपने दुख कहाँ उतारता
कुछ बरामदे तो सबके दुख उतारने
के लिये ही बने थे आख़िर
बरामदे खाली हुए तो
दुख छिप गए टूटी दरांचें
भर-भर गईं
नये पत्ते फूटने लगे
वो उठी उसने उतारी अपनी खेप
तोड़ी आख़िरी
तुलसी मीठी नीम के पत्तों की तड़क
चल दी ठीक समुद्र की उठती लहरों की तरफ़
सूरज और चंद्रमा को नहीं समुद्र की
खूबसूरत लहर को दिया अर्ध्य
अब वो एक खूबसूरत मर्मेड थी
बहुत ऊँची उठती लहर।
5 फतह
जब मनुष्य जीवन के संघर्षों में
खपता है वो कुछ फ़तह करने
नहीं निकलता
जिनके इरादे सिर्फ़ फ़तह करने
के होते हैं, झंडे गाढ़ने के होते हैं
उनसे डरो
इतिहास भरा पड़ा है, युद्ध की इन
मरने- मारने की गाथाओं से
फ़तह से
चीटीयों के झुण्ड के चुपचाप अपना
संसार रचते संघर्ष के बारबार शुरू होने से
उसे गिराने तक
एक बनाता है,दूसरा तोड़ता है
एक रचता है, दूसरा नष्ट करता है
गिराता है
एक रात भर रचता है,दूसरा पैरों से ठेलता है
एक सच बोलता है,दूसरा झूठ
सिर्फ़ झूठ बोलता है
ये चींटी से शेरपाओं तक की कथाएं हैं
मनुष्यता से कन्हैया तक की भी जिसे लोकतंत्र
सम्हालेगा बख़ूबी सम्हालेगा।
6 सुबह सवेरे
दुनिया के फेफड़े
में आग लगी है
अमेजन के जंगल में
दो हफ्ते से नहीं बुझी है आग
आसमान काला हो
रहा है संसार का
शेयर बाजार में भारी गिरावट
आई है,बाजार एक ही दिन मे
काफ़ी डूब गया है!
पृथ्वी के हर भाग पर मची है मारकाट
पढते हुए ये समाचार
सोच रहा है कवि मन
कि इस ख़ौफ़ में…
क्या सीख दू बच्चों को
कि देखें चाँद की तरफ़
और मनाएं खुशी
मंगल,चन्द्रयान के आनंद की
इस बीच अपने भीतर तेज़
सरसराहट महसूस करती हूं
कि धीरे- धीरे सारे बच्चे
दुबक गए हैं मेरे आंचल में
इकट्ठा होने लगते हैं
बच्चों के चेहरे
सोमालिया, अल-सल्वाडोर, क्यूबा
के बच्चे
पेरू के बच्चे, विएतनाम के बच्चे, कोरिया कम्बोडिया के बच्चे
इज़राइल और फ़िलीस्तीन के बच्चे
अफ़ग़ानिस्तान, हिंदुस्तान, पाकिस्तान
ईरान ईराक और
क्राग़ुएवात्ज़
के बच्चे!
मैं पनाह देती हूँ अपने जिस्म के भीतर इन्हें
ज़ोर ज़ोर से चीख़ रही होती हूँ
मेरे हाथ से छूटकर
चकनाचूर हो गया है
फ़र्श पर
चाय का कप
और ये बिलकुल सुबह का
समय है
संसार भर के
मित्रों!!
7 घर जाना
धरती के इस छोर से
फिर शुरू कर दिया है चलना
सभ्यताओं के विकसित जंगल
से बाहर हांके जा रहे ये चींटियों के
झुण्ड नहीं इंसानों के हुजूम हैं
जिन्हें सभ्य भाषा में
कामगार माना जाता है
इन्हें घर जाना है!
जिनके पास नहीं इस छोर से
उस छोर तक कोई घर
उन्हें घर जाना है
जो पोटलियों में पैदा होते गए
जनानी के बच्चे से आदमकद जवान तक
जो दफ़्न करते गए दादी नानी
के पीढ़ियों के किस्से इनमें
उन्हें घर जाना है!
जो निन्यानवै से एक सौ निन्यानवै
माफ़ करें नौ सौ निन्यानवे के रंगीन
कांचो के जश्न में सराबोर मॅाल
के तिलिस्म को ताजमहल की
हुनरमंदी सा हमारे लिए तराशते रहे
सदियों से ताक़ते रहे हर शहर की
तीसरी सड़क से
उस हुजूम को घर जाना है!
इन दिनों जबकि हमें अपने घर
अधिक अच्छे लगने लगे हैं
संसार भर में पृथ्वी पर तारी इंसानों
की मृत्यु का दर्दनाक खौफ़ छाया है
तब ये हुजूम बेदखली का फ़रमान
अपने सीने पर उठाए क्यों निकल
पड़े हैं तपिश में!
जिनका नहीं कोई घर
तो फिर उन्हें घर क्यों जाना है!
क्या उन्हें अपने आदम गांव की
हवा पर है भरोसा या उस आसमान
के आसपास पहुंचना चाहते हैं जिसकी तनी
अरगनी पर फचीटे हुए कपड़े सा टांग
देंगे अपने लुटे जिस्मों को
ये उनके घर पहुंचने की मुहीम का
आख़िरी मंज़र होगा!!
8 बाँके बिहारी
न जाने कब से ढूंढ रही हूँ
उस तमतमाहट को आक्रोश को
आंखों में गमक थी जिसकी
जो सही को सही और गलत को गलत
साबित करने में ज़मीन और आसमान
एक कर देता था
बिजली सी चमक लिए
जिसके हाथ लगाते ही झुक जाती थी डालियाँ
मुड़ जाते थे रास्ते
जीवन की गति और लय से सराबोर
आक्रोश में सना
जिस पर नाज़ करते थे मोहल्ले वाले
वो कुछ भी हो सकता था
कवि- लेखक पत्रकार टाईपिस्ट
मनुष्यता की क्रांति के आंदोलनों
का मज़बूत स्तम्भ हो सकता था वो
जो धीमे-धीमे हमारे गिरह से छूटता गया
ढूंढो ढूंढो उसे कहीं तो ढूंढो
वो यहीं कहीं है!
पूरे जहान का बाँके बिहारी
हमारे मोहल्लों का नायक
अब बुदबुदाता है,मिमियाता है
उसका तेवर दब गया है
बड़े बड़े लोन की
महीन से महीन लिखी इबारत में
उसके गुस्से को लील गया है
शिष्टाचार का तमाचा
अनुलोम-विलोम करते हुए
मन ही मन अक्सर बक रहा
होता है जी भरके गालियाँ
बहुत नामकरण हुए उसके
कहीं ‘होली एंगर’ तो
कहीं ‘एगॅानी आंट’
वो जो चला था अपने गाँव- घर से
चूसता हुआ गन्ना
बनने आदमी
तब्दील हो गया है ‘शुगरकेन’ में
पड़ा हुआ दिख जायेगा
कहीं भी चाय की ट्रे की तश्तरी
के शुगर क्यूब में
बेचता जैतून की तेल की मालिश के नुस्खे
और हम हैं कि ढूंढ रहे हैं उसे
गली- गली मोहल्ले- मोहल्ले
शायद उसे ये बताने कि वो
शिष्टाचार नहीं था
गुलामी की मार थी
आज़ादी के बाद की गुलामी
जो पैदा की गई थी छोटे मुल्कों में
बिल्कुल वैसे ही जैसे
बीमारियाँ नहीं थीं बीमारियों
की मार थी
युद्ध नहीं थे
युद्ध की मार थी
बांध नहीं थे बाँधो
की मार थी
उसके आक्रोश को मारा गया
साजिश के तहत
इतना दबाया गया
कि अब वो हाथ भी सही
दिशा में उठा नहीं पा रहा
एक छोटी-सी चिप में
कैद हो गए हैं उसके सारे सपने
और उसकी ज़िंदगी की
ख़ुशियों का पासवर्ड आपके
पास है महामहिम!
उसकी नींद पर आपका कब्ज़ा है
तो महामहिम अब तो आप खुश हैं
कि बाँके बिहारी को अब गुस्सा
नहीं आता
जनता जनार्दन खुश है कि
अल्बर्ट पिंटो को अब बिल्कुल गुस्सा नहीं आता।
9 ईद मुबारक
जिनके घरों में
आज भी नहीं आया पानी
उन्हें ईद मुबारक
जिनके दड़बों में आज भी बिजली
नहीं उन्हें ईद मुबारक!
जिनकी रसोई में
आज आपके पाक-साफ बच्चों के लिए
बड़े जतन से पकते हैं कबाब
उन रसोईयों को ईद मुबारक
जिन्हें आए दिन सुनाया जाता है
वतन से बेदख़ली
का फ़रमान उन्हें भी
ईद मुबारक।
10 बीजमंत्र
जितना सताओगे
उतना उठूँगी
जितना दबाओगे
उतना उगूँगी
जितना बंद करोगे
उतना गाऊँगी
जितना जलाओगे
फैलूँगी
जितना बाँधोगे
उतना बहूँगी
जितना अपमान करोगे
उतनी निडर हो जाऊँगी
जितना प्रेम करोगे
उतनी निखर जाऊँगी।
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