प्रतिरोध की कविताएं
कवयित्री सविता सिंह
स्त्री दर्पण मंच पर ‘प्रतिरोध कविता श्रृंखला’ प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह के संयोजन से आयोजित किया जा रहा है। इस कार्यक्रम में अब तक आप पाठकों ने वरिष्ठ कवयित्रियों में शुभा, शोभा सिंह, निर्मला गर्ग, कात्यायनी, अजंता देव, प्रज्ञा रावत, सविता सिंह, रजनी तिलक, निवेदिता, अनिता भारती और हेमलता महिश्वर के साथ समकालीन कवयित्री वंदना टेटे की कविताओं को पढ़ा।
आज कवयित्री रीता दास राम की कविताएं आपके समक्ष प्रस्तुत हैं।
“प्रतिरोध कविता श्रृंखला” पाठ – 12 में कवयित्री वंदना टेटे की कविताओं को आप पाठकों ने पढ़ा। अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणियों से सभी को लाभान्वित किया।
आज “प्रतिरोध कविता श्रृंखला” पाठ – 13 के तहत की कवयित्री रीता दास राम की कविताएं परिचय के साथ प्रस्तुत हैं।
पाठकों के सहयोग, स्नेह व प्रोत्साहन का सादर आभार व्यक्त करते हुए आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार है।
– सविता सिंह
आज हिन्दी में स्त्री कविता अपने उस मुकाम पर है जहां एक विहंगम अवलोकन ज़रुरी जान पड़ता है। शायद ही कभी इस भाषा के इतिहास में इतनी श्रेष्ठ रचना एक साथ स्त्रियों द्वारा की गई। खासकर कविता की दुनिया तो अंतर्मुखी ही रही है। आज वह पत्र-पत्रिकाओं, किताबों और सोशल मिडिया, सभी जगह स्त्री के अंतस्थल से निसृत हो अपनी सुंदरता में पसरी हुई है, लेकिन कविता किसलिए लिखी जा रही है यह एक बड़ा सवाल है। क्या कविता वह काम कर रही है जो उसका अपना ध्येय होता है। समाज और व्यवस्थाओं की कुरूपता को बदलना और सुन्दर को रचना, ऐसा करने में ढेर सारा प्रतिरोध शामिल होता है। इसके लिए प्रज्ञा और साहस दोनों चाहिए और इससे भी ज्यादा भीतर की ईमानदारी। संघर्ष करना कविता जानती है और उन्हें भी प्रेरित करती है जो इसे रचते हैं। स्त्रियों की कविताओं में तो इसकी विशेष दरकार है। हम एक पितृसत्तात्मक समाज में जीते हैं जिसके अपने कला और सौंदर्य के आग्रह है और जिसके तल में स्त्री दमन के सिद्धांत हैं जो कभी सवाल के घेरे में नहीं आता। इसी चेतन-अवचेतन में रचाए गए हिंसात्मक दमन को कविता लक्ष्य करना चाहती है जब वह स्त्री के हाथों में चली आती है। हम स्त्री दर्पण के माध्यम से स्त्री कविता की उस धारा को प्रस्तुत करने जा रहे हैं जहां वह आपको प्रतिरोध करती, बोलती हुई नज़र आएंगी। इन कविताओं का प्रतिरोध नए ढंग से दिखेगा। इस प्रतिरोध का सौंदर्य आपको छूए बिना नहीं रह सकता। यहां समझने की बात यह है कि स्त्रियां अपने उस भूत और वर्तमान का भी प्रतिरोध करती हुई दिखेंगी जिनमें उनका ही एक हिस्सा इस सत्ता के सह-उत्पादन में लिप्त रहा है। आज स्त्री कविता इतनी सक्षम है कि वह दोनों तरफ अपने विरोधियों को लक्ष्य कर पा रही है। बाहर-भीतर दोनों ही तरफ़ उसकी तीक्ष्ण दृष्टि जाती है। स्त्री प्रतिरोध की कविता का सरोकार समाज में हर प्रकार के दमन के प्रतिरोध से जुड़ा है। स्त्री का जीवन समाज के हर धर्म जाति आदि जीवन पितृसत्ता के विष में डूबा हुआ है। इसलिए इस श्रृंखला में हम सभी इलाकों, तबकों और चौहद्दियों से आती हुई स्त्री कविता का स्वागत करेंगे। उम्मीद है कि स्त्री दर्पण की प्रतिरोधी स्त्री-कविता सर्व जग में उसी तरह प्रकाश से भरी हुई दिखेंगी जिस तरह से वह जग को प्रकाशवान बनाना चाहती है – बिना शोषण दमन या इस भावना से बने समाज की संरचना करना चाहती है जहां से पितृसत्ता अपने पूंजीवादी स्वरूप में विलुप्त हो चुकी होगी।
स्त्री प्रतिरोध श्रृंखला की तेरहवीं कवि रीता दास राम हैं। इन्हें पढ़ते हुए उस दौर की स्त्री कविता की याद आने लगती है जब स्त्रियों ने परंपराओ और रीति रिवाजों पर उंगलियां उठाई। उन्हें अपनी पीड़ा उन संरचनाओं से आती हुई लगती थीं जिन्हें समाज ने उनके लिए गढ़ा था। और यह सही भी है। रीता का शक फिर और गहरा हो जाता है। ये संरचनाएं राजनैतिक भी हैं। आदमी को उल्टा लटका उसे नष्ट करने वाली सत्ताएं भी हमारी मनुष्यता का हरण कर लेती हैं। ऐसे शक-ओ-शुब्हा को नया करती इन कविताओं को जरूर पढ़ा जाना चाहिए। पेश हैं रीता की दस महत्वपूर्ण कविताएं।
रीता दास राम का परिचय :
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कवयित्री, कहानीकार व लेखिका। जन्म : 1968 नागपूर। शिक्षा : मुंबई यूनिवर्सिटी से एम.ए., एम फिल, पी.एच.डी. (हिन्दी)।
कविता संग्रह पहला “तृष्णा” (2012), दूसरा “गीली मिट्टी के रूपाकार” (2016)। प्रथम कहानी संग्रह ‘समय जो रुकता नहीं’ (2021)।
नया ज्ञानोदय, शुक्रवार, दस्तावेज़, पाखी, नवनीत, चिंतनदिशा, आजकल, लमही, कथा, उत्तरप्रदेश के अलावा कई अन्य पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।
कविता, कहानी, यात्रा संस्मरण, स्तंभ लेखन, साक्षात्कार, लेख, प्रपत्र, आदि विधाओं में लेखन द्वारा साहित्यिक योगदान।
साझा काव्य संकलनों, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, वेब-पत्रिका, ई-मैगज़ीन, ब्लॉग, पोर्टल, में कविताएँ, कहानी, साक्षात्कार, लेख प्रकाशित। ऑनलाइन रेडियो सिटी, यूट्यूब चैनल के अलावा बिहार, दिल्ली, बनारस यूनिवर्सिटी, उज्जैन, मुंबई यूनिवर्सिटी, दुबई, इजिप्ट आदि जगहों में कविता पाठ, प्रपत्र वाचन मंचीय सहभागिता।
सम्मान : ‘शब्द प्रवाह साहित्य सम्मान’ (2013), ‘अभिव्यक्ति गौरव सम्मान’ (2016), ‘हेमंत स्मृति सम्मान’ (2017), ‘शब्द मधुकर सम्मान-2018’, ‘आचार्य लक्ष्मीकांत मिश्र राष्ट्रीय सम्मान’ 2019, ‘हिंदी अकादमी, मुंबई’ द्वारा ‘महिला रचनाकार सम्मान’ 2021।
रीता दास राम की कविताएं
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(1) लिखना मिटाना
पूरी शालीनता से
ख़ुशी लिखेंगे
लिखेंगे भद्र और सभ्यता
समझ, संस्कृति, सदाचार, समानता लिखना है
और लिखना है कि होंगे कामयाब
मान्यता के गर्भ में
उतरे विश्वास पर
लिखना है स्पर्श की भाषा
कि अज्ञान अबूझ रह जाए अबोला
मिटाने हैं किस्से कहानी कि किस तरह
भाई भाई हुए अलग गढ़ गढ़ कर मनगढ़ंत
कुप्रथाओं, अंधविश्वासों,
जबर्दस्त रीति-रिवाजों से अटा समाज
आरोपित न हो
रहे नवांकुर पूर-सुकून
अपनी ही भूमि में
मिले हुए जलाशयों के पानी
रंग बन गए
ललकारों और घोषणाओं के लिए। (2020)
(2) जानवर
रंग, तरंग, उमंग और उल्लास से
वाकिफ होने के बावजूद, ताज्जुब है
हत्याएं, बलात्कार,
अत्याचार, अनाचार बरकरार हैं
दुनिया के नक्शे पर खून की नदियां बही कई बार
कई बार आत्माएं बेची गई
कई बार नजरे हुईं क्रूरता की मिसाल
और कत्लेआम ने नए दृश्य दिए
बावजूद इसके
बुद्ध ईसा गांधी ने सहेजा पारावार
कई बार दर्द से बौखलाई पृथ्वी
और दर्ज हुए हाहाकार
फिर भी हजारों सालों से
हम चल रहे हैं
और चल रही है दुनिया
पृथ्वी सूरज चंद्र तारे
जिसमें जानवर मूक दर्शक है
जी रहे हैं अतार्किक
पूरी बर्बरता और घातक शक्ति प्रयोग करते रहने के बावजूद
उन्होंने बोलना और सोचना नहीं सीखा। (2020)
(3) स्त्री तुम
स्त्री तुम बोई जाओगी
हर बार नए तरीके से
हर मिट्टी में अलग
हर जलवायु में अनोखी
तुम्हें बसने नहीं दिया जाएगा
कसूर है तुम्हारा
उत्खनन के बाद भी तुम
मृदु, कोमल और अविभाज्य बनती जाती हो
तुम फिर फिर उग आती हो
परजीवों का आधार बनती तुम
बनाना, सहेजना, मढ़ना,
गढ़ना, बुनना है प्रकृति तुम्हारी
आविष्कार हो
जननी हो, जीवन हो तुम
तुम धरती का अंतरंग सूत्र
तुम आकाश का उत्ताप छंद
तुम ढोल, मंजीरा, गीत, मृदंग
तुम घुंघरू, पायल, बोल खनक तुम
पृथ्वी का संगीत तुम
आल्हाद और आलाप तुम
जीने की परिभाषा तुम
जीवों का अनुराग तुम
कण कण में तुम घटवासी
अनंत का ज्योत बिंदु तुम
नियति की पराकाष्ठा
आगाज़ तुम परवाज़ तुम
हार भी तुम में
मानवता की जीत भी तुम
अंत तुम शुरुआत तुम
गीता का विस्तार तुम
बनी रहो इस पृथ्वी पर
इसका सूरज, चाँद और आसमान तुम
यहाँ जीवन का रीत, धुन, स्वप्न और श्रृंगार हो तुम। (2020)
(4)
घटनाएँ
चीखते-चीखते चुप हो जाती है
विचार
चलते-चलते गुम हो जाते है
वक्त खाली आकाश में
तारों को गिनते पसरा होता है
कालचक्र हर बारह घंटे में
पाता है बदलाव अंधेरे और रोशनी का
हमें अपनी जगह बनानी होती है
रोशनी की तीव्रता और अंधेरे की स्याही
देखकर। (शुक्रवार 2015)
(5) मनुष्य
मनुष्य बिरादरी का जंगल बहुत घना हो चला है
बहुत डरावनी आवाजें आने लगी हैं
हादसे जघन्य हो चुके हैं
डरने या डराने की बात शोध का विषय है
सहन-शक्ति परीक्षा मात्र है
असफलताएँ साधारण मनुष्य की पहचान है
सफलताएँ मनुष्य को बड़ा बनाती है
सफल होने के आँकड़े संख्या नहीं उत्तेजना का पारा-मीटर है
जिसमें दानव और पशु बल साथ है
तीन-चार जैविक व्याख्याएँ खुद में समेटा मनुष्य मनुष्य है संदेह है
जिसे बिरादरी का मुखिया मान लिया जाता है
मुखिया की क्वालिटी आदर्श
इंसानियत, एकता और सदाचार
पुरानी पाटी की इबारतें मलिन हो गई है
मनुष्य से दुर-आचारी मनुष्य
समय के पन्ने में हिंसा है बवाल है ज़ख्म है सेंध है हथियार है
जो जन-समूह की दर्दनाक आवाजों से
चमका रहा है रेत-घड़ी के शीशे
साफ साफ चमक पर लिख रहा है लहू
बो रहा है लहू, खेल रहा है लहू, बहा रहा है लहू
तब तक जब तक कि लहू का रंग न हो जाय काला। (2018)
(6)
व्यवस्था के साथ
परपराओं की आड़ में
रीति-रिवाजों पर चलते
संस्कृति की छांव में
संस्कारों की जुगाली करते
पुरुष बसाना चाहते है घर …
सपनों की कल्पना में
प्रेम की डाल पर
तितलियों से प्रकाश में
धानी चूड़ियों की आवाज में
रेशम की नमी और कोमलता थामें
धमनियों में बहते रक्त की लाली संग
एक स्त्री बसाना चाहती है घर …
घर बसता है
व्यवस्था, परंपरा, रीति-रिवाज़, संस्कृति, संस्कारों को
बदलते हुए
स्वप्नों, कल्पना, प्रेम, प्रकाश, आवाज, नमी, कोमलता और रक्त को
रखते हुए ताक पर
ये हर युग का बदलाव
वक्त के हस्ताक्षर पर
यंत्र चालित सा उभरता सत्य है
बस पृथ्वी को घूमते चले जाना होता है
होते हुए सूर्य से प्रकाशित
परिवर्तन की नियति को स्वीकारते हुए
बसते हुए देखना जीव की नैसर्गिक पराकाष्ठा
समाज़ पर लगा वेदना का पैबंद
संतुष्टि की घोषणा का अघोषित सत्य। (युग गरिमा 2018)
(7) चमगादड़
व्यवस्था
की ड़ाल पर
उल्टा लटका आदमी
जाने कब से
देखे जाने का
सुख भोग रहा है
चुंधियाती रोशनी में
न देख पाने का ढोंग
भरी रोशनी में उसे
नंगा कर देती है
आदमी आदमी से नहीं
नंगेपन से डरता था
आज चमगादड़ बना आदमी
बेपरवाह
उलटे लटके
हर सुख भोगने की तर्ज पर
आकर्षण का केंद्र बना हुआ है
रेगिस्तान में
प्यासे सभी है
होड़ है लगी
कुचल जाना
कुचला जाना
कुचल कर जाना
एक ही मायने हैं
किसको किसकी नहीं पड़ी
वैसे हमाम में हर कोई ……. । (2017)
(
प्यास और पानी का रिश्ता,
एक खुरदुरी सच्चाई को
झुठलाने की कोशिश करना,
ही सही मायने में जीना है
जिसे हम नकारते है सारी जिंदगी
वैसे जिंदगी नकारना भी
बड़ी बात है
रहते हुए जिंदा । (‘सद्भावना दर्पण’ 2016)
(9)
वे मार देना चाहते हैं
उनके विचार
सच्चाई सामने ला पाने वाली
उनकी हिम्मत उनकी शक्ति
उनकी लेखनी
उनके मस्तिष्क से आती बू को भी
वे नहीं चाहते रहे जिंदा सद्भावना
बातों की सही या गलत फेहरिस्त के साथ
हाशिये में खड़े सारे लोग
सूनी गलियों के
तहखाने में दफन कर दिए जाएँगे
और साथ वह आवाज भी
जिसकी पुकार सात्विक करुणा के संग
जगाती है दिलों-दिमाग को। (शुक्रवार 2015)
(10)
देश बदल रहा है
लोग बदल रहे हैं
सोच बदल रही है
विचार बदल रहे हैं
विचारों के अंत में रह जाने वाला प्रश्न बदल रहा है
हम प्रश्नों को बदलने का सपना देख रहे हैं
जबकि प्रश्न हमें बदल रहा है
हम न चाहते हुए जवाब बनते जा रहे हैं
मूल्य का अवमूल्यन समझ रहे हैं सब
हाशिए में भेजा जा रहा है वह सब कुछ
जिसे मुख्य धारा में होना चाहिए
एक ख़बर है मानव वध के बदले पशुवध बचाया जा रहा है
हम क्रोध का गलत इस्तेमाल होते देख रहे हैं
जो समाज़ पर भारी पड़ रहा है
हमने अपनी संवेदना को निकाल कर रख दिया है जिंदगी से बाहर
हम जीने लगे हैं बिना आत्मा के
हमें हमारा जिंदा होना बड़ी देर में समझ आता है
जब हम चुक जाते हैं बिना आत्मा के
जबकि हमें बचाना है
समाज़ और देश को आत्मा के साथ। (2017)