Monday, May 13, 2024
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क्या आप मीरा सक्सेना को जानते हैं

हिंदी के नामी गिरामी लेखकों की पत्नियों की श्रृंखला में कई दिलचस्प और अनोखी कहानियां पढ़ने को मिल रही है। हर कड़ी में लेखकों की पत्नियों के त्याग संघर्ष की अनजानी कहानी सामने आ रही है। आपने अब तक कई दिवंगत लेखकों की पत्नियों के अलावा समकालीन लेखकों की पत्नियों के बारे में पढ़ा।ज्ञान रंजन, विनोद कुमार शुक्ल, नरेश सक्सेना के बाद अब पढ़िए, हिंदी के अनोखे कवि, पत्रकार इब्बार रब्बी की पत्नी के बारे में। रब्बी जी जैसे फक्कड़, अराजक और मस्तमौला लेखक की पत्नी के रूप में मीरा सक्सेना जी ने जिस तरह गृहस्थी चलाई वह काबिले तारीफ है। उनकी बेटी अपर्णा अपनी मां के बारे में बता रही है।
“आई लव यू मां”
“मेरी माँ”
……………………….
– अपर्णा वर्धन
मीरा सक्सेना का जन्म 26 मई 1948 को उत्तर प्रदेश के मैनपुरी शहर में एक मध्यवर्गीय कायस्थ परिवार में हुआ था। मीरा जी का ददिहाल ब्रह्मसमाजी व ननिहाल आर्यसमाजी था। पहले इनके घर में रोज हवन होता था किन्तु धीरे धीरे यह केवल तीज त्यौहारों तक ही सीमित रह गया था। इनकी स्नातक तक की पढ़ाई बदांयू से हुई। मीरा जी के पिताजी मैनपुरी के प्रसिद्ध डॉक्टर थे। जिन्होंने देहरादून और मसूरी से शिक्षा प्राप्त की थी। इनके चचेरे चाचा श्री गोविंद नारायण सक्सेना गृहसचिव थे। बाद में कर्नाटक के गवर्नर बने।
मेरी मां तीन भाई बहनों मे सबसे छोटी थी। बड़े भाई अशोक सक्सेना इंजीनयिर थे व बड़ी बहन उषा सक्सेना जो उनसे 10 वर्ष बड़ी थी, का विवाह बहुत जल्दी हो गया था। मां भी अपने पिता के समान डॉक्टर बनना चाहती थी। किंतु जब एक दिन स्कूल की लैब में टीचर ने सब छात्राओ के बीच मेंढक चीरा तो तो अति संवेदनशील होने के कारण वे बहुत विचलित हो गईं और डाक्टर बनने की इच्छा त्याग दी। उनकी बड़ी बहन ने बचपन में परिवार में बहुत सुख सुविधाएं, समृद्धि, नौकर चाकर आदि देखें थें। यह उनका स्वर्णिम काल था। जिससे मेरी मां वंचित रहीं थीं। क्योंकि जब वे आठ माह की थीं तो हंसते खेलते परिवार पर वज्रपात हो गया। उनकी बुआ ने संपत्ति के लालच में अपने इकलौते भाई ( मां के पिता) को दूध में ज़हर देकर मार डाला था। यही नहीं उन्होंने मेरी मां के इकलौते भाई को भी जान से मार डालने की धमकी दी थी जिसमें वह बाद में सफल भी हुई थीं। परिवार मे सभी मां की बुआ से भयभीत रहते थे। पिता की मृत्यु के कुछ समय बाद मां के दादा जी की भी मृत्यु हो गयी। तब मेरी नानी, सरला सक्सेना अपने बच्चों व माता पिता (मां के परनाना और परनानी) के साथ मैनपुरी छोड़कर कभी कासगंज तो कभी आगरा आकर किराये के मक़ानों में रहने लगीं थीं। इस बीच परिवार में संपत्ति को लेकर निरंतर झगड़े चलते रहे थे। कुछ वर्षों बाद सब लोग वापस मैनपुरी आ गए और अपने अलग घर में रहने लगे। तब मेरी मां दस ग्यारह साल की थीं और उनकी बड़ी बहन की शादी बदायू के एक वक़ील से हो गई थी। अब घर में तीन सदस्य रह गए थे , मेरी नानी, मेरे मामा और मेरी मां। इस बीच परिवार पर एक और विपदा आ पड़ी। मेरे मामा , जिन्होंने रुड़की से इंजीनियरिंग किया था, उनकी मृत्यु रहस्मय परिस्थितियों में स्वीमिंग पूल में डूबने से हो गई। उस समय उनकी उम्र 23 वर्ष थी। इस षडयंत्र में भी मां की बुआ का हाथ बताया जाता था। अब परिवार में दो लोग बचे थे, नानी और मां। मां बचपन से टायफायड रोगी थी। कई सालों तक लगातार टायफायड होता रहा। वैद्य जी की दवाई और परहेज़ चलता रहा। मेरी नानी ने मेरी मां की देखभाल राजकुमारियों की तरह की। मेरी नानी काफ़ी आज़ाद ख्याल की महिला थीं। उन्होने मेरी मां को बेटे की तरह पाला। कभी कोई भेदभाव नहीं किया।
नानी और मेरी मां का जीवन काफ़ी उथल पुथल और कठिनाइयों भरा रहा। मैनपुरी मे घर अपना था। जिसमें नीचे के हिस्से में किरायेदार थे। वे लोग और आस पड़ोस के लोग सुख दुख में काम आते थे। कभी कभी बदायूं से मां के जीजाजी आकर बाहर सिनेमा दिखाने व बाजार घुमाने ले जाते थे। मां के बचपन में नाना नानी का ही साया रहा। मां के मायके में पढ़ने लिखने का अच्छा माहौल था। मां, नानी, परनानी आदि को पढ़ने लिखने का अच्छा शौक था। किंतु साधन सीमित थे। मां के मामा एक सरकारी पुस्तकालय के सदस्य थे। वे पुस्तकालय से किताबें इशू करवा कर घर लातें थें। जिसे सब लोग चाव से पढ़ते थे। मां बताती हैं कि कोई भी उपन्यास या कहानी पढ़कर उनकी मां और नानी घर में खूब चर्चा करती थीं। जिसे सुनकर उनकों भी पढ़ने की उत्सुकता होती थी। मां याद करती हुई बतातीं हैं कि ‘विदा’ और ‘लाल रेखा’, शुरूआती दौर में पढ़े गए उपन्यास थें। जैसे जैसे वह पढ़ती गई उनकी पसंद भी बदलती गई। तीन जन्मों पर आधरित अमृता प्रीतम का उपन्यास ‘नीना’ और टैगोर का ‘गोरा’ भी पढ़ा। मां को याद है कि जब वह भगवती चरण वर्मा की कहानी ‘तीन वर्ष’ पढ़ रहीं थीं तो मेरे मामा ने मां को चिढ़ाते हुए नानी से कहा था ‘अम्मा, मीरा तो यह कहानी तीन वर्ष में ही ख़त्म करेगी।’ उसी समय ‘धर्मयुग’ में रमेश उपाध्याय का उपन्यास ‘दंडद्वीप’ धारावाहिक छप रहा था। मां उसकी एक एक किस्त बड़ी उत्सुकता से पढ़ती थीं। मां को रमेश उपाध्याय का वह उपन्यास बहुत पसंद आया था। उस समय उन्हें जरा भी नहीं सोचा था कि जिनके लेखन की वे प्रशंसक हैं इब्बार रब्बी से विवाह के बाद उन सभी का साक्षात दर्शन वह अपने घर में ही करेगीं। मां ने कमलेश्वर का उपन्यास ‘एक सड़क सत्तावन गलियां‘, जो कि मैनपुरी पर ही आधारित है, को भी बड़े चाव से पढ़ा था। वे कहतीं हैं कि विवाह के पहले जिन जिन लेखकों को पढ़ा था जब विवाह बाद हमारे घर आते तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना न रहता। जब उन विभूतियों से साक्षात मुलाकात होती तो खुशी से उनका दिल बल्लियों उछल जाता। यह एक न रुकने वाला सिलसिला था। एक बार ‘वामा’ पत्रिका के लोकार्पण समारोह में उनकी मुलाकात मृणाल पांडे से हुई। वहीं पर अमृता प्रीतम को भी देखा था। खुशवंत सिंह , कमलेश्वर आदि से भी मिलना हुआ। घर में कई प्रतिष्ठित हस्तियों का आना जाना लगा रहता था, जैसे रधुवीर सहाय, राजेन्द्र यादव, रामशरण जोशी, मंगलेश डबराल, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, पंकज बिष्ट, विजयदान देथा, विश्वनाथ त्रिपाठी आदि।
मां को मेहमान नवाजी का शौक शुरू से ही रहा है। मेहमानों का आवभगत करने में मेरी मां और मेरी नानी दोनों बहुत आनंदित होती थी। किन्तु उनके कुछ कटु अनुभव भी रहे हैं। मां को घर में मांस मछली बनाना और खाना बिल्कुल नहीं पसंद था। उनकी अनुपस्थिति में पापा कभी कभी दोस्तों के साथ मांस मछली बना कर खा लिया करते थे। जब यह बात मां को किसी तरह पता चलती थी तो घर में बहुत क्लेश होता था। कई बार पापा के दोस्त रात में घर टिक जाते थे। उन दिनों मोबाइल व लैंडलाइन की सुविधा नहीं थी। होती भी तो पापा को किसी पूर्व सूचना देने की आदत नहीं थी। कई लोग अचानक ही आ जाते थे। कभी-कभी नानी के हमारे साथ रहने से मां को बहुत सहारा मिल जाता था क्योंकि हम तीनों की परवरिश करना, नौकरी करना व पूरा घर संभालना, अकेले मां के लिए इतना आसान न था। तब हम लोगों के खाना खा लेने के बाद मां रात में दुबारा सबके लिए स्वादिष्ट खाना तैयार करती। गाज़ियाबाद में मां और नानी अक्सर राशन व मिट्टी के तेल के लिए लंबी कतारों में खड़ी होतीं थीं। पापा को घर गृहस्थी से कोई मतलब न था। सारा भार अकेले मेरी मां ने उठाया था। हमारा दाखिला कराना, हमारी फीस जमा करना तथा पीटीएम में जाना, सारी जिम्मेदारी मां निभाती थी। घर में कोई चीज़ ख़राब होती तो भी अकेले मां ही बार बार दुकानों का चक्कर लगाती थीं। घर की परिस्थितियों व बीमारियो ने मां को चिड़चिड़ा बना दिया था। मीरा जी को अमित वर्धन नाम का एक बेटा तथा अपर्ण वर्धन और सुपर्णा वर्धन नाम की दो बेटियां हैं। बेटा अमित घर में सबसे बड़ा है। उसके बचपन से मूक बधिर हो जाने के कारण मां गहरे अवसाद में आ गईं थीं। वे सोचती सारी विपदायें उन्हीं पर क्यो आतीं हैं। किंतु जब घर से बाहर निकल कर घर के आर्थिक ज़रूरतों के लिए नौकरी करनी शुरू की तो दूसरे लोगों को खुद से भी ज्यादा दुखी पाया। बाहर की दुनिया देख कर उनकी एक तरह की सेल्फ़ काउंसलिंग हुई। इससे उनमें थेड़ा आत्म विश्वास आया। वह छोटी छोटी बातों में बड़ी बड़ी खुशियां ढूढ़ने लगी। उन्होंने लेडी नॉयस दिल्ली से मूक बधिरों को शिक्षित करने के लिए डिप्लोमा किया। उसके बाद इंग्राहम इंस्ट्रीटयूट गाजि़याबाद के मूक बधिरों के लिए विशेष स्कूल आशा विद्यालय में 28 वर्षों तक अध्यापन का कार्य किया। स्कूल की तरफ़ से उन्हें मुम्बई के अलीआवर संस्थान से वर्कशाप अटैंड करने भेजा गया था। मां को घर पर खाली बैठना बिल्कुल नहीं पसंद था। उन्हें व्यस्त रहने या कुछ न कुछ करते रहने की आदत है। वे बेहद साहसी, कर्मठ और जुझारू महिला हैं। उन्होंने गाज़्यिबाद के स्कूल से रिटायर होने के बाद दस वर्षों तक दिल्ली के मधु विहार के एक दिव्यांग विद्यालय में बच्चों को स्पीच थेरेपी दी। कोरोना काल में उनका काम छूट गया था। घर में आर्थिक तंगी शुरू से थी। मां ने अपनी नौकरी के दम पर ही घर का साजो सामान जुटाया था। वह एक सुघड़ महिला हैं और घर को भी बेहद करीने व सफाई से रखना पसंद करतीं हैं। इसके विपरीत पापा बहुत ही फक्कड़ मस्त मौला और लापरवाह किस्म के इंसान रहे हैं। उनकी 40-45 साल पुरानी रद्दी व किताबें घर में पड़े-पड़े धूल फांक रही हैं व जगह भी घेर रहीं हैं। जिसे साफ करने के लिए वे कतई तैयार नहीं हैं। इससे घर में किसी को रुकने व बैठने की पर्याप्त जगह भी नहीं मिल पाती है। मां आज भी हर काम स्वंय करना पसंद करतीं हैं। वह सिलाई कढ़ाई बुनाई व क्रूशिया पेंटिंग आदि सभी कलाओं में निपुड़ हैं। बचपन में हम लोगों ने उनके सिले हुए कपड़े ख़ूब पहने हैं। रिश्तेदार एवं पास पड़ोस के बच्चे भी मां के सिले हुए कपड़े उपहार स्वरूप पाकर खूब प्रसन्न होते थे। वे आज भी आटे की सेवइयां अपने हाथों से बनातीं हैं। यह भी एक विशेष कला है क्योंकि उनकी सिवइंया बिल्कुल महीन, धागे जैसी होती है। उनके बनाये दही बड़े और गुझिया मुंह में डालते ही घुल जाती है। हर कार्य में उनकी मेहनत, सफाई व बरीकी साफ झलकती है। लोगों को उनका काम बहुत पसंद आता है।
सोनी चैनल पर ‘सा रे ग म’ कार्यक्रम उनका प्रिय चैनल है। जिसे वह कभी देखना नहीं भूलती। एनडीटीवी का प्राइम टाइम भी नियमित देखतीं हैं। वह रवीश जी की प्रशंसक हैं। मोबाइल और सोशल मीडिया को वह समय की बर्बादी मानती हैं। झूठी चाटुकारिता यहां तक कि बेवज़ह अपने बच्चों की तारीफ़ करना भी उन्हें पसंद नहीं है। बेटे अमित वर्धन का विवाह भी मूक बधिर कन्या कंचन वर्मा से हुआ। अपने बेटे, बहू, पति व पोती सबका ख़्याल वह अकेले ही रखतीं हैं। जिस उम्र में बेटे, बहु को उनका ध्यान रखना चाहिए, विपरीत इसके, उन्हें उनका ख़्याल रखना पड़ रहा है। ऐसे में कई बार वह खुद भी बीच बीच में बीमार पड़तीं रहतीं हैं। पर ऐसे ही चलता रहता है।
ये जीवन है
इस जीवन का
यही है यही है
यही है रंग रूप
जब मां से पूछो कि आपको कैसा पति चाहिए था? तो मां भावुक होकर कहती है, ‘सुई हमें चुभे और टीस उसे लगे’। कुछ बातो का मलाल उन्हें आरंभ से ही है। वह भ्रमण की शौकीन हैं। लेकिन अगर बाहर निकल जातीं तों बच्चों को कौन संभालता। पापा शुरू से ही गुस्से और गर्म मिज़ाज वाले व्यक्ति रहे हैं। पापा के साथ सिर्फ एक बार, कश्मीर घूमने गई थीं, जब पापा एक प्रेस कांन्फ्रेंस में श्रीनगर गए थे। जहां उनकी मुलाकात फ़ारूक अब्दुल्ला से हुई थी। मां को पापा की ‘झुग्गी झोंपड़ी वालों का गीत’, ‘दुर्गा सप्तशती, ‘मेरी बेटी बनती है टीचर’, ‘पान सिंह’ कविताएं पसंद हैं, लेकिन ‘अरहर की दाल’ कविता नहीं पसंद है। कई लोग मां को कर्कश और तेज समझने की भूल कर बैठतें हैं। परन्तु उनके करीबी जानतें हैं कि वह अंदर से बेहद भावुक, कोमल हृदय की साहसी महिला हैं। गलत और झूठी बातों का पुरजोर विरोध कर सच्चाई को मजबूती से कहती हैं। वह घर की रीढ़ हैं। वह ‘जैसे को तैसा’ वाला फार्मूला न अपनाकर किसी के लाख बुरा करने पर भी हमेशा यही कहती है कि ईश्वर उसे सद्बुद्धि दे। मेरी मां अभी भी सक्रिय हैं और खूब पढ़तीं हैं और हमारे बच्चों को भी किताबे, पत्र पत्रिकायें आदि पढ़ने को प्रेरित करतीं हैं। भविष्य में भी मेरी मां इसी तरह सक्रिय व प्रसन्न रहें यही हमारी कामना है। मुझे मेरी मां पर गर्व है। लव यू मां।
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